प्रकृति मैम - गाकर देखो Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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प्रकृति मैम - गाकर देखो


1.गाकर देेेे...
मेरी नई - नई नौकरी वाला ये शहर भी सुन्दर था और वक़्त भी।
ज्वाइन करने के लिए थोड़े से सामान के साथ यहां आया तो मैं पहले दो सप्ताह दूर के रिश्ते के एक भाई के घर में रहा। वे विवाहित थे, लेकिन उनकी पत्नी डिलीवरी के लिए ही अपने पीहर गई हुई थीं। वे एक सरकारी विभाग में कार्यरत थे।
मुझसे बोले- अभी मैं भी अकेला हूं, घर ख़ाली पड़ा है, आराम से यहीं रहो। धीरे- धीरे तुम्हारे लिए कमरा ढूंढ़ देंगे।
एक बार फिर छात्रावास जैसी ज़िन्दगी शुरू हो गई।
वे सुबह जल्दी घर से निकल जाते,और रात को बहुत देर से घर आते थे। सुबह एक लड़का आकर दूध, सब्ज़ी आदि रखता फ़िर खाना बनाता। खाना खाकर आठ बजे वो ऑफिस के लिए निकल जाते। लड़का साफ़- सफ़ाई करता और दस बजे मेरे जाने से पहले मुझे भी खाना खिला कर वापस चला जाता।
शाम को मेरे आने के बाद आकर वो मुझे चाय बना कर देता और खाना बनाता। फ़िर चला जाता।
मैं कभी खाना खा लेता, कभी भाईसाहब का इंतजार करता।
भाईसाहब गाली बहुत देते थे। शायद सरकारी महकमे में लेबर के साथ पेश आते रहने के कारण ही उनकी बोलने की शैली ऐसी हो गई थी।
वे धाराप्रवाह बोलते रहते और मैं अपनी हंसी रोकने की कोशिश करता हुआ उनकी बात सुनता। वे आश्चर्य से मेरी ओर देखते कि मैं हंस क्यों रहा हूं।
वे कहते- मादरचो... तुम्हारी नौकरी बढ़िया है, सुबह दस बजे गए, और साले पांच बजे वापस आ गए। यहां तो सुबह शाम का पता नहीं रहता। बीबी भी सोचती है कि ये अफ़सर है या गुलाम।
कुछ दिन बाद मुझे शहर के एक प्रतिष्ठित इलाक़े में छोटा सा मकान मिल गया।
सुबह शाम आकर खाना बना जाने के लिए एक औरत भी मिल गई।
बैंक की काफ़ी बड़ी शाखा थी, इस कारण कई लोगों से पहचान हुई। कभी कभी बैंक के बड़े ग्राहक भी हम लोगों को पार्टियां दिया करते थे,जिससे परिचय का दायरा भी बढ़ता गया और शहर की जानकारी भी।
शाम को ऑफिस से आकर शहर में घूमने-फिरने का कार्यक्रम रहता, जिसके चलते कुछ मित्र भी जल्दी ही मिल गए। समय गुजरने लगा। आसपास के सभी स्थल जल्दी ही मैंने देख डाले।
उन दिनों मनोरंजन के नाम पर मोबाइल या टीवी नहीं था, रेडियो ही घर- घर में हुआ करता था। मैंने भी एक ट्रांजिस्टर ख़रीद लिया, ख़ाली समय में फिल्मी गाने ही सुना करता था।
दो-तीन महीने में दो- एक दिन के लिए ही घर जाना हो पाता,वह भी अक्सर त्यौहारों पर ही, जिसके कारण भीड़ भरी गाड़ियों, बसों में यात्रा करनी पड़ती।
बाद में मैंने घर जाना और भी कम कर दिया ताकि कुछ छुट्टियां बचाकर इकट्ठी कर सकूं और फ़िर ज़्यादा दिन के लिए घर जाना हो सके।
लेकिन धीरे- धीरे घर और वहां आसपास के मित्र भी समझने लगे कि परदेसियों से क्या अंखियां मिलाना, परदेसियों को है एक दिन जाना।
इन दिनों नए लोगों से मिलना और तुरंत उन्हें दोस्त बना लेना मुझे पसंद था। अलग अलग रुचि के, अलग अलग स्तर के कई मित्र इन दिनों बन गए। ऑफिस से बाक़ी बचे समय में इन दिनों मेरा शगल किसी न किसी मित्र को साथ लेकर आसपास के स्थानों पर घूमना हो गया। दूरदराज के गांव, मंदिर, झील, तालाब,पार्क आदि मैंने सब देख डाले।
कभी- कभी मैं सोचता था कि इस तरह घूमने-फिरने के लिए मुझे क्या बात प्रेरित करती है? समय गुजारना, इलाक़े को छान मारना या फ़िर इस बहाने नए- नए रुचि शील लोगों का साथ।
मेरे मित्रों में अपने ऑफिस के लोग तो कम होते,पर अन्य, जिनमें बाहर से आकर इस झीलों की नगरी में रहने वाले लोग ज़्यादा होते, जिन्हें मेरी तरह पर्यटन में आनंद मिलता। कई विद्यार्थी भी।
कमाने वाले अन्य युवाओं की तरह मुझे शराब पीने, सिगरेट पीने या लड़कियों से दोस्ती करके उन्हें घुमाने का शौक़ बिल्कुल भी नहीं था। हां,ढेर सारी फ़िल्में देखने का शौक़ ज़रूर था।
लेकिन जल्दी ही मैं इस दिनचर्या से ऊब गया। मेरी उम्र इन दिनों लगभग बाईस साल थी।
मैंने देखा कि घरवालों से दूर रहकर मैं घर की जिम्मेदारियों, उनकी मुझसे आशाओं और अपने भविष्य को लेकर उदासीन होता जा रहा हूं।
मुझे लगने लगा कि मेरे जीवन की प्राथमिकताएं किसी धुंध में खोने लगी हैं।
शहर में अपने आवास पर अकेले होने और शहर के पर्यटन स्थलों पर घूमने के साथ साथ फ़िल्मों में भी अत्यधिक रुचि लेने के कारण कई विद्यार्थी और अन्य युवा भी मेरे संपर्क में आने लगे। प्रायः कोई न कोई युवा हर समय मेरे साथ रहता। कुछ मित्र साथ खाने और फ़िल्म देखने के बाद रात को भी मेरे साथ मेरे मकान पर रुकने लगे।
किन्तु मैं अपने घर को मित्रों का लापरवाह अड्डा बना देना कभी पसंद नहीं करता था। शायद इसीलिए एक साथ समूह में आकर ये मित्र मुझे कभी डिस्टर्ब नहीं करते थे, यदि मेरे साथ कोई एक मित्र है तो दूसरा अपने आप कुछ दूरी बना कर रहता। यही कारण था कि थोड़े से परिचय के बाद भी अपना जीवन ढूंढने निकले ये युवक मुझसे काफी खुल जाते और अपनी नितांत निजी बातें भी मेरे साथ बांट लेते थे।
मैं अपने हर मिलने वाले को अपने मन में अलग स्पेस दे पाने में हमेशा ही सक्षम रहा। इसे मैं अपनी आंतरिक शक्ति ही मानता था। दो, आपस में अच्छे मित्र भी अपनी बातें अलग- अलग मुझसे शेयर कर लेते और मुझ पर विश्वास करते थे।
मेरे घर के पास ही एक घर में चार- पांच विद्यार्थी रहते थे जो शहर के किसी पॉली टेक्निक इंस्टीट्यूट के छात्र थे, और आसपास के शहरों से आकर वहां एकसाथ रह रहे थे। उनसे भी मेरी अच्छी दोस्ती हो गई। उनमें से भी कोई न कोई हर समय मेरे साथ रहता। जिसे रात को ज़्यादा देर तक पढ़ना होता,या फ़िर बाक़ी साथियों के घर चले जाने से अकेला हो जाता, वो प्रायः रात को सोने भी मेरे पास चला आता। रतन,महेश, भरत, महेंद्र, राजेन्द्र मेरे परिवार की तरह ही हो गए थे।
कभी किसी को बाज़ार का कोई काम होता तो हम लोग साथ में ही जाते। कभी कभी ताश भी खेलते। फ़िल्म देखने तो प्रायः जाते ही थे। कभी कभी मिल कर खाना भी साथ में बनाते।
कभी कभी मुझे एक दिलचस्प अनुभव भी इसी दौरान हुआ। हम पुरानी फ़िल्मों में भी देखा करते थे कि पहले समाज में शादी करने कि आयु लगभग सत्रह- अठारह वर्ष हुआ करती थी। संयुक्त परिवारों में पढ़ते हुए बच्चों का ही विवाह हो जाता था। बीस- इक्कीस साल की उम्र में तो लोग मां- बाप बन जाया करते थे। किन्तु अब आर्थिक कारणों से रोज़गार और आत्मनिर्भर हो जाने की ख्वाहिश के चलते युवा लोग पच्चीस - छब्बीस की उम्र में शादियां करते थे। कई बार इससे भी देर से।
ऐसे में युवक और युवतियां अपना जीवन किस तरह गुजारते हैं, ये देखना- जानना दिलचस्प था। कभी- कभी ऐसे अनुभव हम लोगों को भी हो जाया करते थे। छात्र खुल कर इस बारे में मुझसे बातें करते। मुझे लगता था कि शायद इस आयु में हर लड़के या लड़की को उचित मार्गदर्शन देने वाले किसी साथी की दरकार रहती ही है।
जिस मकान में मैं रहता था, उसके मकान मालिक के भी तीन लड़के थे, जिनमें एक कॉलेज में और दो स्कूल में पढ़ते थे। वे भी मेरे साथ छोटे भाइयों जैसा आत्मीय व्यवहार रखते थे। वे मुझे कभी अकेला महसूस नहीं होने देते थे।
इन भाइयों में भी बीच का राजेन्द्र मुझसे खास लगाव रखता था। वह मेरे साथ ज़्यादा समय गुजारने को भी लालायित रहता था। कई बार मुझे पता चलता कि मैं अपने लिए जैसा कपड़ा लाता,वो भी वैसा ही लाकर मेरे जैसी पोशाक पहनना पसंद करता था। कुछ ही दिन बाद मुझे पता चला कि राजेन्द्र उन भाइयों का सगा नहीं, बल्कि चाचा का लड़का था,जिसका परिवार गांव में रहता था। उसके मुझसे लगाव का शायद यही कारण रहा हो। उसे अपने परिवार के दो सगे भाइयों जैसी आत्मीयता का तोड़ शायद मेरे अपनेपन में मिलता।
इन सबके संग साथ से मुझे स्कूल- कॉलेज में चल रही गतिविधियों की भी पूरी जानकारी मिलती रहती थी। और यही कारण था कि नौकरी में आ जाने के बाद भी अभी तक मेरा ध्यान नोन- तेल - लकड़ी जैसी दुनियादारी की बातों पर जाना शुरू नहीं हुआ था। जबकि मैं देखता था कि ऑफिस में मेरे साथ के अन्य लड़के ज़मीन या फ्लैट खरीदने, बचत करके शादी के लिए पैसे जोड़ने या शादी की प्लानिंग करने जैसी बातों में दिलचस्पी लेते दिखाई पड़ते थे। उस ज़माने में लड़कियां नौकरी में इतनी नहीं दिखाई देती थीं। पुरुषों का ही दफ्तरों में बोलबाला था।
युवकों के साथ रहते हुए इस सामाजिक समस्या का शारीरिक - मानसिक प्रभाव देखने को मुझे भी चाहे- अनचाहे मिलता ही रहता था।
जिस तरह जुए में हार जाने वाला खिलाड़ी और ज़्यादा जुनून से जुआ खेलने लगता है,उसी तरह मैं भी शायद अपने विद्यार्थी जीवन को इन मित्रों में खोजने की कोशिश करता। कहीं न कहीं मेरे अवचेतन में ये बात घर कर गई थी कि मैंने विद्यार्थी बने रहने की अपनी अवधि बिना कोई तमगा हासिल किए ही खर्च कर डाली। इन अपरिचित लड़कों में मुझे अपना खोया हुआ अपनापन मिलता। मैं उन पर समय,पैसे और ज़िन्दगी ख़र्च करता।
लेकिन जल्दी ही मैं इस ओर सचेत हो गया। मुझे अपने पिता की वो बात बार- बार याद आकर परेशान करने लगी कि जीवन में आगे बढ़ने के प्रयास कभी छोड़ने नहीं चाहिए।
इन्हीं दिनों मेरे पिता सेवानिवृत्त भी हो गए।
लेकिन कुछ ही दिन बाद मुझे सुनने को मिला कि पिता ने सेवानिवृत्ति के बाद उसी संस्थान में फ़िक्स वेतन की नौकरी फ़िर से स्वीकार कर ली।
ये सुनकर मुझे मन ही मन एक अपराधबोध सा हुआ कि यदि मैंने थोड़ी सी मेहनत और करके उनके मनोनुकूल नौकरी पा ली होती तो शायद उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद भी काम करने के लिए सोचना नहीं पड़ता।
लेकिन मित्रों के बीच इस तथ्य की चर्चा होने पर उन्होंने मुझे समझाया कि कार्य करते रहना तो व्यक्ति की सेहत और दिनचर्या के लिए अच्छा ही रहता है। संतोष की बात ये थी कि पिता की नौकरी उनके पुराने दफ़्तर में ही थी,जो उनके लिए आसान था और एक तरह से सेवा में एक्सटेंशन मिलने जैसा ही था।
मैं मन ही मन अपनी नौकरी में और बचत करके पिता को कुछ राशि नियमित रूप से भेजने के मंसूबे बांधने लगा। वैसे भी, अपनी आय में से कुछ न कुछ बचा कर रखना शुरू से ही मुझे पसंद था, और ये बखूबी मेरी आदत में था।
एक बार मेरे पिता के संस्थान से कुछ विद्यार्थी घूमने के लिए वहां आए। एक बस लेकर वो लोग टूर पर आए थे, जिनमें कुछ शिक्षक और कुछ विद्यार्थी थे। मैं उन लोगों से मिलने के लिए उस गेस्ट हाउस में गया जहां वो लोग ठहरे हुए थे। जब वो वापस लौटने लगे तो मैंने उनकी बस का लाभ उठाने के लिए बाज़ार से एक डाइनिंग टेबल खरीदी और उसे अच्छी तरह से पैक करवा कर मेरे घर ले जाने का अनुरोध उन लोगों से कर डाला। वे सहर्ष मेरा उपहार ले गए। मैं अपने पिता को अपनी आरंभिक कमाई का कुछ तोहफ़ा देना चाहता था। इस तरह अचानक भेज कर मैंने उन्हें एक सरप्राइज दिया।
मैं घर की मदद आर्थिक रूप से भी करना चाहता था।
जल्दी ही मुझे अपने इरादे को और भी पुष्ट करने का अवसर मिला। उदयपुर शहर के पास ही ग्रामीण क्षेत्र में हमारे बैंक की एक शाखा खुली। इस शाखा में स्वेच्छा से जाने के इच्छुक लोगों से आवेदन मांगे गए। गांव का इलाका होने के कारण वहां लोग जाना नहीं चाहते थे। जिन लोगों की नियुक्ति गांव में होती वे भी आसपास के शहर में ही रहना पसंद करते।
जबकि ग्रामीण क्षेत्र में जाकर रहने के दो लाभ थे। एक तो वहां सस्ता मकान, सस्ता राशन, आवागमन पर कुछ भी खर्च न होने के कारण वेतन में बचत की बहुत संभावना थी, दूसरे ग्रामीण क्षेत्र के भत्तों के कारण वेतन में वृद्धि भी हो रही थी।
मेरे आवेदन करते ही मुझे वहां तैनाती मिल गई।
एक बार परिचित लोगों को लगा कि मैं अच्छा खासा शहर छोड़ कर देहात में क्यों जाना चाहता हूं। वे मुझे शहर न छोड़ने की सलाह देते, पर जो मुझे जानते थे,वो ये भी जान गए थे कि मैं उन लोगों में हूं जो सुनते सबकी और करते अपने मन की हैं।
कुछ लोगों को ये आभास भी हो गया कि मैं वहां केवल भत्तों के लालच में नहीं गया, बल्कि किसी बड़ी परीक्षा की तैयारी के लिए एकांत में परिश्रम करने के इरादे से गया हूं।
ये एक छोटा सा गांव था। गांव से लगभग आधा किलोमीटर दूर तक सड़क आती थी, फ़िर एक नदी थी।नदी में पानी ज़्यादा नहीं था,बल्कि गर्मी के दिनों में तो वो पूरी तरह सूख जाया करती थी।
गांव के बीचों- बीच एक लंबा बाज़ार था, जिसके दोनों ओर ही गांव का समूचा फैलाव था। इसे सदर बाज़ार कहते थे।इसमें ज़रूरत की लगभग सभी वस्तुओं की दुकानें थीं। अधिकांश दुकानों के ऊपर या पीछे ही दुकान के मालिकों के घर बने हुए थे।
गांव में लड़कों का एक हायर सेकेण्डरी स्कूल था और लड़कियों के लिए मिडल स्कूल था। इसके बाद शायद कुछ लड़कियां लड़कों के ही स्कूल में पढ़ने जाती थीं लेकिन उनकी संख्या बेहद कम थी।
पहले कुछ दिन मैं बाज़ार के एक घर में ऊपर कमरा लेकर रहा किन्तु जल्दी ही मैं बैंक के भवन में ही रहने आ गया। ये एक बहुत बड़ा भवन था, जिसका मालिक मुंबई में रहता था। बैंक ने इसका आधा भाग किराए से ले लिया था, बाक़ी बचे कमरे ख़ाली पड़े रहते थे और हमने सुरक्षा की दृष्टि से ताला लगा रखा था।
इस गांव के लिए उदयपुर शहर से दिन भर में चार- पांच बार बसें आती थीं जो आगे एक तहसील के कस्बे तक जाकर वापस लौटती थीं।
बैंक जिस भवन में बना था, उसी में कुछ कमरे और भी बने हुए थे। उन्हीं में से दो कमरे मुझे रहने के लिए भी मिल गए। घर और दफ्तर एकदम पास- पास हो गया।
गांव में बैंक तो एक ही था,किन्तु कुछ सरकारी विभाग और भी होने से कुछ शिक्षित और नौकरीपेशा व्यक्ति वहां थे जो अपने बैंकिंग लेनदेन के लिए आया करते थे।
जल्दी ही कई लोगों से अच्छी पहचान हो गई और किसी सुदूर गांव में अकेले आ बसने का अहसास खत्म हो गया। विद्यालय के शिक्षक गण भी अच्छी खासी संख्या में थे।
किन्तु सरकारी नौकरी वाले अधिकारी,कर्मचारी या शिक्षक, जो परिवार वाले थे, वो प्रायः शाम को ड्यूटी के बाद वापस उदयपुर ही लौट जाया करते थे। कुछ एक लोग,जो या तो अकेले थे, या स्थानीय थे,वही प्रायः शाम के बाद गांव में दिखाई देते थे। शाम को लगभग नौ बजे गांव में सन्नाटा पसर जाता था।
कुछ समय बाद हम कुछ लोग शाम को स्कूल के मैदान पर वॉली बॉल और बैडमिंटन खेलने लगे। मेरी रुचि खेल में ज़्यादा नहीं थी पर मैं नियमित रूप से चला ज़रूर जाता था। खेल के बाद हम लोग घूमते और फ़िर घर आकर खाना खाकर मैं थोड़ा बहुत पढ़ने में अपने आप को व्यस्त कर लेता।
बैंक की शाखा नई खुलने के कारण वहां व्यवसाय बढ़ाने का दबाव हम लोगों पर हमारे उच्च अधिकारियों की ओर से रहता ही था।
संयोग से एक दिन स्कूल के प्रधानाचार्य ने वहां के शिक्षकों से मेरे बारे में सुनकर मुझे विद्यालय में छात्रों के बीच एक व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित कर लिया।
विवेकानंद जयंती पर हुए समारोह में मेरा भाषण हुआ। उस दिन शिक्षकों और छात्रों के अलावा अन्य ग्रामवासी भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
मैंने अपने भाषण में उन लोगों पर थोड़ा कटाक्ष किया जो ग्रामीण क्षेत्र में तैनाती होने पर वहां न रह कर पास के शहरों में रहते हैं। इस रोज़ आने- जाने की दुविधा में उनकी शक्ति तो अकारण खर्च होती ही है, वे अपने काम पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। इससे सरकार का उन्हें वहां भेजने का मकसद ही विफल हो जाता है,और गांव उजाड़ पड़े रह जाते हैं, वहां उन्नति के रास्ते नहीं खुलते।
दूसरे, मैंने छात्रों को अपना भविष्य बनाने के लिए स्वयं निर्णय लेकर आत्म निर्भर बनने का आह्वान भी किया। उन्हें ये भी समझाया कि वो बचत करके किस तरह भविष्य में बैंक का लाभ अपने भविष्य निर्माण और उच्च शिक्षा में ले सकते हैं।
मेरी इन बातों का विद्यार्थियों और स्थानीय लोगों पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा।
भाषण के बाद हुए सवाल-जवाब में कुछ लोगों ने कहा कि बैंक का कारोबार का समय दस से दो बजे तक होता है और विद्यालय का समय भी दस से चार है, अतः शिक्षक और छात्र अपने खाते खोलने के लिए बैंक में नहीं आ पाते।
मैंने सार्वजनिक रूप से कहा कि मैं बैंक परिसर में ही रहता हूं और सुबह नौ बजे से ही स्कूल के छात्रों और शिक्षकों को बैंक सेवाएं उपलब्ध हो जाएंगी,जो लोग आना चाहें उनका स्वागत है।
अगले ही दिन से बैंक में विद्यार्थियों और शिक्षकों के खाते धड़ाधड़ खुलने लगे।
मैंने अपने एक अधीनस्थ कर्मचारी की मदद से विद्यालय और बैंक को जोड़ दिया।
कुछ दिन बाद ऐसे भी दिन आए कि सुबह मैं स्नानघर में हूं और मेरा साथी बाहर से आवाज़ लगाकर कह रहा है कि सातवीं कक्षा के दो छात्र साठ रुपए निकलवाने आए हैं। मैं भीतर से ही कहता हूं कि लेज़र देख कर उनके खाते में चैक करलो, रकम है या नहीं, फ़िर उनसे विड्रॉल फॉर्म भरवा कर मेरी दराज में से पैसे दे दो। ये कार्यविधि बढ़ने पर मैं कुछ राशि निकाल कर बाहर रख जाता था और ज़रूरत होने पर मेरा साथी भुगतान कर देता।
लेकिन धीरे- धीरे मैं समझने लगा कि बिना सही कार्यविधि अपनाए कारोबार में जोख़िम है। शायद इस बात को छात्र भी समझ गए और अब वे किसी विशेष परिस्थिति के अलावा ऐसे जोखिम भरे व्यवहार से बचने भी लगे। पर बैंक की लोकप्रियता गांव में बढ़ती ही चली गई।
अब आगे आपको मेरी बात थोड़ा और ज़्यादा ध्यान देकर सुननी पड़ेगी।
दरअसल जैसे किसी नई सुबह पहाड़ों के पीछे से सूरज निकलता है, ठीक वैसे ही मेरी कहानी के साथ साथ एक और कहानी निकल कर उगने लगी।