सैलाब - 10 Lata Tejeswar renuka द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सैलाब - 10

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 10

संयुक्त परिवार में बड़ों की बातें छोटों को बहुत प्रभावित करती है। हर वक्त बच्चों के सामने माधवी के ताने सुनते सुनते बच्चे भी कुछ इस तरह की बातें कह देते जिसे पावनी के दिल पर गहरी चोट पहुँचती थी। अपने अस्तित्व और आत्म सम्मान को बचाए रखना उसके लिए दुर्भर हो गया था। कभी माधवी का हुक्म तो कभी राम की आवाज़ फिर कभी बच्चों की आवाज़ कान में गूंज उठती थी।

माधवी - "पावनी पानदान ले कर आना। देखो राम आ गया है, चाय ले आना।"

एक ओर राम - "पावनी अगर तुम्हें बात करना नहीं आता तो प्लीज चुप हो जाओ। बहस करना बंद करो।"

कभी सेजल - "माँ आप को कुछ नहीं पता। मैं बात कर रही हूँ ना।"

"लेकिन बेटा तुम अभी छोटी हो तुम ने अभी दुनिया कितनी देखी है? विश्वास करना अच्छी बात है लेकिन हर किसी पर विश्वास करना ठीक नहीं। जो दिखता है हमेशा वह सच नहीं होता। जरा लोगों को परखना सीखो।"

"माँ मैं अच्छी तरह जानती हूँ क्या अच्छा और क्या बुरा है। इतनी भी छोटी नहीं हूँ कि हमेशा आप पुलिस कि तरह छड़ी लेकर खड़ी रहो।"

"मगर बेटा मैं तो तुम्हारे भले के लिए ही...."

"माँ आप से इस तरह बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे बच्ची की तरह ट्रीट करना बंद करो। मेरे दोस्तों के बारे में मैं आप से अच्छे से जानती हूँ । फिर मुझे जो करना है वह करने दो।"

बेटी से ऐसी बात सुन कर सहन करना उसे मुश्किल था। पावनी समझ नही पाती कि बच्चों की भलाई के लिए हर समय उनके साथ रहा जाए या अपने आत्मसम्मान को बचाने के लिए उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाए। कुछ ऐसी बातें थी जो माँ के ममत्व को चोट पहुँचाती थी तब अपने अस्तित्व को लेकर वह सोच में पड़ जाती। अपने ही घर में अपने आत्म सम्मान के लिए लड़ना पड़ता था, अपनी काबिलियत को साबित करना पड़ता था। उसे आशा थी कि नौकरी के सहारे पर परिवार का, बच्चों का भरोसा फिर से जीता जा सकता है।

दुनिया में आखिर उन्हीं को इज्जत मिलती है जिनकी समाज में कोई पहचान हो खुद के पैरों पर खड़े होने की काबिलियत हो। चाहे वो स्त्री हो या पुरुष। सिर्फ एक पत्नी या माँ कहलाना उसकी काबिलियत को संकट में ड़ाल देता है। जो स्त्रियाँ घर में घुट-घुट कर जीने को मजबूर हो जाती है, वे किसी न किसी तरह खुद को इस निराशा से उबार कर जीने की कोशिश करती रहती हैं। खुद के आत्म सम्मान की रक्षा के लिए खुद को साबित करना जरूरी हो जाता है। उनके अंदर जो ज्वाला होती है उस ज्वाला को हर हाल में बाहर निकालना बहुत जरूरी हो जाता है। चारदीवारियों में उनका अस्तित्व उजाले में आने से पहले ही अंधकार में खो जाता है। मैंने कितनी स्त्रियों को देखा है, जो अपनी रसोई से बाहर निकल कर आज़ाद होना चाहती तो है, लेकिन उस जंजाल भरी जिंदगी में इस तरह खोये रहती है कि जहां अपनी इच्छाओं के कोई मायने भी उन्हें ज्ञात नहीं होते।

जब सेजल18 साल की थी तब घर के सारे सदस्यों ने मिल कर हरिद्वार जाने का फैसला लिया। लेकिन ऐसे मौके पर सेजल के बीमार हो जाने की वजह से सेजल के साथ राम और पावनी को रुकना पड़ा और सृजन अपने संग माता पिता को हरिद्वार दर्शन करवाने साथ ले कर गया। दुर्भाग्य वशः हरिद्वार में हुई त्रासदी ने सभी को बहा ले गया। इस झटके ने राम और पावनी के जीवन से बड़ों का साया छिन लिया। उनके साथ गया देवर सृजन का भी कोई पता न चला। कुदरत भी क्या-क्या खेल दिखाती है। कभी मानवीय दुर्घटना तो कभी कुदरत का कहर जीवन को अस्तव्यस्त करके रख देता है। एक ही झटके में संयुक्त परिवार एकल परिवार में तब्दील हो गया। इस दुर्घटना ने राम को झकझोरकर रख दिया। एक साथ माँ बाबूजी और भाई सृजन का चलेजाने से वह टूट गया था।

अपने जीवन में पावनी जो कुछ अनुभव किया वह दुखद था। इसलिए स्त्री पर होती घरेलु हिंसा पावनी को व्यथित कर देती थी। कई ऐसी महिलाएँ भी हैं जो दो चार प्यार भरी बातों के लिए भी तरसती रह जातीं हैं। तब उन्हें दोस्ती की जरूरत पड़ती है, दोस्त की कमी से वे अकेली हो जातीं है। जिंदगी में कोई ऐसा हो जिससे अपनी दिल की बात कह सके जिससे मन हल्का हो सके अगर ऐसा कोई साथी न मिले तो जिंदगी दुर्भर हो जाती है। ऐसे ही हालात में उसका देवेंद्र से परिचय हुआ। देवेंद्र एक आभासी दुनिया का साथी। एक ऐसा दोस्त जिसे उसने कभी देखा ही नहीं। कंप्यूटर के दुनिया में एक दिन अचानक उससे परिचय हुआ।

अपनी शादी शुदा जिंदगी में कितने पल है, जब पति ने साथ वक्त गुज़ारा हो? सारा दिन थक हार कर घर आते ही आराम करने की सोचता हो। पत्नी का दिन भर पति के इंतज़ार में बैठे रहना या तो बच्चों की सुविधा के लिए उन के स्कूल से घर आने की राह ताकते रहना। बस यहीं जैसे उसकी जिंदगी रुक सी जाती है। बच्चे तो अब बड़े हो चुके है, अपने अपने पंख फैलाए आकाश की ओर उड़ने को तैयार है, फिर ....फिर क्या?

जब वो अपनी जिंदगी की राह में उड़ते चले जाएंगे तब क्या होगा? कैसे कटेगी बाकी की जिंदगी? यह सोच कर ही पावनी घबरा जाती है। राम आज तक काम को ही प्राथमिकता देते आये है, उनके नज़र में परिवार हमेशा ही द्वितीय श्रेणी में रहा है। प्रैक्टिकल सोच भावुकता विहीन सोच फिर वो भला पावनी के लिए क्या वक्त दे पाएंगे? खुद समय के पीछे दौड़ने के अलावा कुछ और करना भी क्या है? पावनी पलंग पर लेटी सोच रही थी।

घड़ी की सुई टिक टिक कर आगे बढ़ती जा रही थी और एक मिनट एक साल के जैसे पावनी को दुर्भर लगने लगते। जिस समय उसे अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए था तब सास, ससुर, घर के जंजाल, बच्चे एक के बाद एक उसकी जिंदगी में ऐसे समाते चले गये कि खुद के लिए सोचने का वक्त भी नहीं रहा। अब जब उसके पास वक्त ही वक्त है कुछ करने या सोच ने के लिए ताकत या उम्र नहीं रही ।

इस समाज की व्यवस्था देख दुःख होता है। जहाँ लड़की की कच्ची उम्र में ही शादी कर दी जाती है। ऐसे में दोष किसको दिया जाए? समाज को? खुद को या माता पिता को जिन्होंने कच्ची उम्र में शादी करवा कर समय से पहले जिम्मेदारियों का बोझ कन्धों पर ड़ाल दिया है। क्यूँ ऐसे गुज़र जाती है एक स्त्री की जिंदगी? जब कुछ सोचने या कुछ करना होता है तब औरत के पास सोचना या कुछ करने को वक्त ही नहीं रहता और जब कुछ करने का वक्त रहता है तब न उम्र होती है न ही कुछ करने की क्षमता होती है।।

पलंग पर करवट बदलते हुए पावनी अपने हाथों की लकीरों को गिन रही थी। कितनी जल्दी वह इस मुकाम पर पहुँच गयी, कभी खुद के बारे में सोचा ही नहीं, आज जब बच्चे बड़े हो कर अपनी-अपनी राह पर उड़ चुके है लगता है समय इस मोड़ पर आकर रुक गया है। इन दिनों उसने खुद को सिर्फ माँ के ढांचे में इस तरह ढाल लिया था कि उसे होश ही नहीं रहा कब उसकी जवानी पीछे छूट गयी। जब आज सूना सूना आंगन खाली घर, अकेली जिंदगी उसे नज़र आने लगती तब जाकर उसे एहसास होता है कि जीवन में वह क्या खो दिया है।

राम प्यार तो बहुत करते है, लेकिन वह भी तो अपनी जिंदगी और बच्चों में ऐसे उलझ गए हैं कि शायद उसके होने का एहसास है भी नहीं। वह खुद परिवार, बच्चे, उनकी उन्नति, उनकी पढाई और उनकी जिंदगी के बारे में ही सोचते रहते हैं। उन्हें भी गलत ठहराया नहीं जा सकता। अब बच्चे बड़े हो कर एक स्वतंत्र जीवन की ओर दौड़ लगा चुके हैं। हम समय के साथ साथ ढ़लने की कोशिश में लगे हैं और समय है जो कि बहता चला जा रहा है। कब जवानी गई, कब वह 45 की हो गई उसे पता ही नहीं चला। क्या जिंदगी यही पर रुक गई ?

पावनी उठ कर बैठ गयी, 'नहीं अभी उसकी जिंदगी रुकी नहीं है बल्कि अभी शुरू हुई है, अब वह जिंदगी से हार नहीं मान सकती, खुद को फिर से खड़ा करना होगा जिंदगी को नये तरीके से शुरू करनी होगी। वह पलंग से उठकर अलमारी की तरफ चल पड़ी.. दरवाजा खोल कर अलमारी की छान बीन करने लगी, नीचे दबे हुए कपड़ों को अलग कर अलमारी के कोने में रखी एक फ़ाइल को बाहर निकाला। फ़ाइल धूल से भरी पड़ी थी जैसे की सालों से किसीने हाथ न लगाया हो। सारी फ़ाइलें एक एक कर बाहर निकाली कुछ के रंग पीले पड़ चुके थे तो कुछ के अक्षर साफ़ नज़र नहीं आ रहे थे। फिर भी उन्हें एक एक कर समेटने लगी। इन् २५ सालों में आज तक इनकी जरूरत नहीं पड़ी और आज इनके शरीर में जैसे जान आ गई हो। उन सारे सर्टिफिकेट को एकत्र कर एक एक कर पढ़ने लगी। फिर उन्हे समेट कर अलमारी के एक कोने में छुपा कर रख दिये जिससे किसी की नजर आसानी से उस पर न पड़े।

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