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सैलाब - 8

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 8

पथरीला रास्ता पार करते हुए रमेश उस के करीब जा पहुंचा, शतायु बिना पलक झपकाए उस टैंक को देख रहा था जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था टैंक नंम्बर 601। उस टैंक को चारों तरफ जंजीरों से जकड़ा गया था जैसे कोई कैदी जेल की काल कोठरी में सज़ा काट रहा हो। शतायु के बस में होता तो उस राक्षसी टैंक को एक बार में निगल जाता या जला कर ख़ाक कर देता।

शतायु गहरी सोच में डूबा हुआ था। रमेश उस के पास जा कर बैठा। शतायु ने उसे बिना देखे ही उसके पैरों की आहट को पहचान लिया। रमेश की तरफ आँख उठाकर भी न देखते हुए कहा - क्यूँ रमेश हमारे साथ ये सब क्यूँ हुआ? क्यूँ उस वक्त मैं अलग चला गया था, मैं भी अगर उस वक्त वहीं होता तो मैं भी सब के साथ........

रमेश ने उसे आगे बोलने से पहले ही रोक दिया - शतायु जिंदगी भगवान की देन है। इस तरह खुद को मत कोस। उसका परिणाम सिर्फ तू ही नहीं पूरा गाँव भोग रहा है। आज तक भी उस हादसे से कितने उबर पाए हैं? मेरी मौसी, चाचा आज तक फेफड़े की बीमारी का शिकार हैं अभी तक वे एक शापग्रस्त जीवन जी रहे हैं और तू भी जानता है कि कई लोग इस गाँव को छोड़ कर भी चले गए। चल, बाद में यह सब बात करेंगे। मैं तुझे लेने आया हूँ, बेबे कब से तेरा इंतजार कर रही है, घर चल। काँधे पर हाथ रख कर उसने अनुरोध किया।

- नहीं रमेश, तू जा मुझे कुछ देर अकेला छोड़ दे। रमेश के हाथ को अपने काँधे से हटाते हुए उसने कहा, शतायु वहां से बिल्कुल नहीं हिला और रमेश को जाने को कहा।

रमेश भी जिद्द पर उतर आया - नहीं चल मेरे साथ, बेबे कब से तेरी राह देख रही है और मैं उन्हें वादा करके आया हूँ कि तू कहीं भी हो तुझे साथ ले आऊंगा। बड़ी उम्र में उन्हें कष्ट देना तुझे अच्छा लगता है क्या? क्या कुछ नहीं सहा उन्होंने बस तेरे लिए ही तो जान हथेली पर ले बैठी है। तेरे अलावा कौन है उनके पास, ऐसे उन्हें तकलीफ़ देना तुझे शोभा नहीं देता। खुद का ना सही उनका तो सोच, कितने अरमान सजा कर बैठी है तेरे लिए। तुझसे कोई रिश्ता न होने के बावजूद तुझमें अपने पोते शुभम को देखती है। इस उम्र में उनको खुश रखना तेरी जिम्मेदारी है। उन्हें और तकलीफ न दे, क्या गुजरती होगी उन पर तुझे दुखी देख कर, कभी सोचा है? चल अब घर चल।

अब शतायु कुछ कह नहीं पाया, उसने घसीटते हुए पैरों को घर की तरफ बढ़ाया। शतायु को देख कर ढलते उम्र की बेबे के आँखों में चमक आ गई ।

- कहाँ रह गया था बाबा, इस बूढी को कितना सताएगा? बिना नाश्ता पानी के कहाँ घूम रहा है? सुबह से तेरा इंतजार कर रही हूँ उनकी आँखें में आँसू भर आये।

"बस बेबे यही तो था आपको छोड़ कर कहाँ जाऊँगा? आप के अलावा मेरा है कौन ?" वह बेबे के गले लग गया। उसकी आंखें नम थीं।

शतायु शुभम की दादी को बेबे कह कर पुकारता था। जब वह पहली बार शुभम की दादी से मिला था । उसने उन्हें पूछा कि क्या मैं आप को बेबे कह कर पुकार सकता हूँ?

शुभम की दादी ने हंस कर कहा, "क्यों नहीं बेटा, तुम्हें जैसे मन करे वैसे ही पुकारो।" तब से वह शुभम की दादी को बेबे कह कर बुलाता है।

"बाबा चल खाना खाने आजा। बहुत देर हो गई भूख लगी होगी मेरे बच्चे को, रमेश बेटा तुम भी आ जाओ। शतायु के साथ बैठ कर खाना।" बेबे ने प्यार से शतायु के साथ रमेश के लिए भी किचेन से प्लेट लेआई और खाना परोसने लगी।

"नहीं बेबे मुझे नहीं खाना है, भूख नहीं है आप मेरा खाना भी उसी को खिला देना।" रमेश जाने लगा था।

"कैसे भूख नहीं है, आज शतायु का जन्म दिन है बिना खाये तुम्हें जाने कैसे देंगे? जो भी मन करे खा कर ही जाना। बेबे ने खाना प्लेट में सजा कर दोनों के सामने रखा।

शतायु का मन न होने के बावजूद बेबे की जिद्द पर उसे खाना खाने बैठना ही पड़ा। रमेश ने भी शतायु का साथ दिया।

शतायु ने रमेश से पूछा, "रमेश, तेरे बेटे नितीश की तबियत कैसी है? डॉक्टर ने क्या कहा?"

"नया क्या है शतायु, तू तो जानता है, वही है जो सब को है। जिसके वजह से कमजोर दिल और आँखों में जलन हो रही है।"

- "ओह, तीन पीढ़ियों के बाद भी ये मुश्किलें अब तक कायम है?" कहकर रमेश की ओर देखा।

- "हाँ जहर ने शरीर पर ऐसा असर छोड़ा है कि ..". कहते- कहते रुक गया, "अब छोड़, चल खाना खा पहले, ये सब होता ही रहता है।" दर्द को सीने में छुपा कर बहुत ही हल्क़ी आवाज़ में रमेश बोला। शतायु ने रमेश की ओर आश्चर्य से देखा दर्द को कैसे आसानी से छुपा कर मुँह पर हँसी का आच्छादन ओढ़ लेता है।

"रमेश तू इतनी आसानी से हँस कैसे लेता है?"

"तो क्या करें, हमें जीना भी तो है ना दोस्त। तू तो अकेला है, लेकिन मेरा तो पूरा परिवार है जो मेरी हँसी में ख़ुशी ढूँढता है। जिनकी ख़ुशी का कारण मैं हूँ। मेरा बच्चा, मेरी बीवी, मेरे बाबूजी ये सब मुझे जिस आशा से देखते हैं उन्हें निराश तो नहीं कर सकता हूँ। अगर मैं हिम्मत हार गया तो वे सब जी नहीं पाएंगे, और मैं दुखी हो कर उन्हें दुखी नहीं कर सकता हूँ ना।"

सच कहा रमेश! आशा ही जीने के लिए हौसला देती है और परिवार दुखों को भूल कर आगे बढ़ने की क्षमता देता है। लेकिन तू जैसा सोचता है मैं वैसे मैं क्यों नहीं सोच सकता हूँ।

"देख दोस्त जिंदगी बहुत लंबी है। उम्र भर जीने के लिए हमें साथ की जरुरत होती है। जिंदगी कभी अकेले काटी नहीं जा सकती। बेबे की बात मान और शादी के बारे में अपने परिवार के बारे में सोच। जब सुख दुख बांटने कोई जीवन संगिनी आयेगी तो तेरा दुःख बहुत कम हो जाएगा।"

"इस बारे में जरूर सोचूँगा मेरे दोस्त, आज जिंदगी की बहुत बड़ी सच्चाई से रूबरू करवाया है। बहुत बहुत शुक्रिया।"

"चल हट .... शुक्रिया! एक पल में पराया कर दिया ना। तेरे मेरे बीच ये शुक्रिया कहाँ से आ गया?" हाथ पोंछते हुए रमेश ने कहा।

"बेबे! अब चलता हूँ। इसका ख्याल रखिए नहीं तो फिर किसी पहाड़ पर चढ़ कर बैठेगा।" रमेश हँसते हुए कह कर चला गया। कुछ ही देर बाद शतायु भी स्कूल के लिए निकल गया। रमेश से बात करने के बाद उसका मन हल्का हो गया था।

शतायु सरकारी स्कूल में शिक्षक की नौकरी करता है, वह जो भी कुछ कमाता है बेबे और शतायु के लिए काफी है। सुबह उठकर स्कूल जाना वापस आते ही कुछ देर बगीचे की देखभाल करना और शाम को कुछ देर रमेश के साथ बिताना बस यही उसकी दिन चर्या है।

बेबे ने शतायु को शादी के लिए बार-बार कहने के बावजूद उसने कोई उत्सुकता न दिखाई इसलिए वे चुप रही। वह शादी के प्रति या लड़कियों प्रति विमुख नहीं था बल्कि वह खुद से नाराज़ था। खुद को ख़ुशी पाने का हक़दार नहीं समझता था। खुशियों को अपनी जिंदगी में कोई स्थान नहीं देना चाहता था। खुद से रूठा हुआ समाज से दूर और सब से कटा कटा रहता था। बेबे शतायु की शादी कर खुद इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती थी।

शतायु के जाते ही बेबे फर्श पर बैठ गयी, शतायु को शादी के प्रति निरुत्साहित देखकर बेबे के आंखें भर आती थी। शतायु बचपन में खूब चंचल और हँस मुख था। शुभम और शतायु की खूब दोस्ती थी। जब भी शुभम के घर जाता उसकी दादी से ढेरों कहानियाँ सुनने की जिद्द किया करता था। शुभम के साथ रात को कहानी सुनते हुये वहीँ सो जाता था। गोल मटोल सा उसका चेहरा को देख कर उसे बेबे गोलगप्पे बुलाती थी। गोल गोल आँखें मटकाते हुए ढेर सारी बातें करता था।

हादसे के कई दिनों बाद तक वह अपने परिवार को ढूंढ़ता रहा। बापू के शरीर के स्पर्श के लिए तड़पता रहा, माँ के प्यार के लिए तरसता रहा। शाम होते ही चौराहे पर खड़ा हो जाता कहीं से बापू की आवाज़ आए और दौड़ कर जाकर उनके सीने में छुप जाए। रात रात भर जागता रहता रो रो कर उसके आँखों के आँसू सूख चुके थे मगर उनकी राह ताकना छोड़ा नहीं था। बेबे शतायु को खुश रखने की पूरी कोशिश करती लेकिन शतायु की आंखें उसके बाबूजी को ढूंढती रहती। तब शतायु को पावनी ने संभाला। दुर्घटना के बाद उसने शतायु को जितना हो सका वास्तव से दूर ही रखा। गाँव वालों के सहायता से ऐसे बच्चों के लिए चिल्ड्रन केअर होम खोलागया और उसकी जिम्मेदारी कुछ भले लोगों ने ली।

पावनी को अपनी टीचर की नौकरी से जो भी सैलरी मिलती उससे दोनों का गुजारा अच्छे से हो जाता था। पावनी ने शतायु का उसी स्कूल में एडमिशन करवा दिया जिस में वह काम करती थी ताकि शतायु उसके ही आँखों के सामने रहे और किसी अपने का होने का एहसास उसे धैर्य और साहस दे सके।

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