इंद्रधनुष सतरंगा - 2 Mohd Arshad Khan द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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इंद्रधनुष सतरंगा - 2

इंद्रधनुष सतरंगा

(2)

गर्मी की रात में अंताक्षरी

जून की रात थी। हवा ठप थी। गर्मी से हाल-बेहाल हो रहा था। मौलाना रहमत अली दरवाजे़ खडे़ पसीना पोंछ रहे थे।

‘‘ओफ्रफोह! आज की रात तो बड़ी मुश्किल से कटेगी--------’’

‘‘हाँ, जी सही कहा,’’ पटेल बाबू जाते-जाते खडे़ हो गए, ‘‘अब तो बस एक गर्मी का ही मौसम रह गया है। बाक़ी तो सब नाम के हैं।’’

‘‘कल टी0वी0 बता रहा था कि इस बार गर्मी ने पिछले पचास सालों का रिकार्ड तोड़ा है।’’

‘‘अभी देखिए कितने रिकार्ड टूटते हैं,’’ आवाज़ पाकर कर्तार सिंह जी ने खिड़की से बाहर झाँका, ‘‘हम लोग इसी तरह खेतों में घर बनाते रहे, जंगलों का सफाया करते रहे और हवा में ज़हरीली गैसें छोड़ते रहे तो सौ सालों का रिकार्ड भी टूटेगा।’’

‘‘बिल्कुल सही कहा आपने,’’ तभी अनिल आतिश जी आकर बीच में खड़े हो गए, ‘‘धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघलने लगे हैं। समंदर का तल ऊपर उठ रहा है। यह समझ लीजिए कि आगे की जिं़दगी बहुत कठिन होने वाली है।’’

‘‘अरे पत्रकार जी आप? आज घर पर हैं?’’ सबके मुँह से एकाएक निकला।

तब तक कर्तार जी बाहर आ गए। घोष बाबू भी उधर आ निकले।

‘‘दरअसल---’’ आतिश जी आदत के मुताबिक शुरू हो गए, ‘‘पिछले कुछ सालों के आँकड़े उठाकर देखिए, इसकी भयावहता का अनुमान आपको तब होगा। ओज़ोन पर्त में छेद बढ़ रहा है। हमारे पर्यावरण पर गहरा संकट मँडरा रहा है। लेकिन दुनिया को इसकी फिक्र कहाँ है? बड़े-बड़े सम्मेलन किए जाते हैं, बड़ी-बड़ी बैठकें होती हैं। बड़े-बड़े फैसले लिए जाते हैं। पर वातानुकूलित कमरों में बैठकर बहस करने से भला समस्या हल होगी? मैं तो कहता हूँ---’’

लोग समझ गए कि आतिश जी अपनी रौ में आ गए हैं। अब दो घंटे तो गए। ऊपर से गर्म मौसम में गर्मा-गर्म चर्चा उफ---!

‘‘अरे आतिश जी एक काम था आप से---’’ तभी घोष बाबू बोल पड़े।

आतिश जी एकाएक ठहर गए, जैसे तूप़फ़ान मेल में अचानक ब्रेक लग गए हों। लोगों ने राहत की साँस ली। पर आतिश जी को बात काटा जाना बहुत बुरा लगा। मुँह बनाते हुए बोले, ‘‘कहिए---’’

यह तय था कि उस वक़्त घोष बाबू कोई भी काम कहते, आतिश जी की तरफ से साफ इंकार होता। पर घोष बाबू को कोई काम तो था नहीं। उन्हें तो बस तूप़फ़ान मेल को लाल झंडी दिखानी थी। जब आतिश जी ने काम पूछा तो वह हड़बड़ा गए।

‘‘अरे छोडि़ए जनाब, हर वक़्त काम की बात--,’’ इस पहले कि बात बिगड़ती, मौलाना साहब ने सँभाल लिया।

तभी सड़क की ओर से आतिशबाज़ी-सी होती दिखाई दी। साथ ही लाइट गुम हो गई और घुप अंधेरा छा गया।

‘‘ए लो जी, कंगाली में आटा गीला,’’ कर्तार सिंह बोले।

‘‘लगता है ट्रांसफार्मर फुँक गया,’’ पटेल बाबू ने कहा।

‘‘सही सोचा आप लोगों ने। उधर से ही आ रहा हूँ। अब आज की रात पंखा झलते हुए बिताइए,’’ टी0आर0 गुप्ता जी स्कूटर रोकते हुए बोले।

गुप्ता जी की बात सुनकर सब के सब सकते में आ गए। एक पल के लिए सन्नाटा-सा छा गया।

‘‘आप लोग घबराइए नहीं,’’ सबको परेशान देख आतिश जी बोले। उन्हें अपनी पहुँच दिखाने का यह अच्छा मौक़ा मिला था। ‘‘अभी श्रीवास्तव जी से बात करता हूँ। फिलहाल मोबाइल-ट्रांसफार्मर की ट्रॉली मँगवा लेते हैं। रात चैन से कट जाए फिर सुबह कोई हल ढूँढा जाएगा।’’

आतिश जी चले गए। थोड़ी देर बाद उनका स्कूटर स्टार्ट होने की आवाज़ आई। लोग समझ गए कि वे मुहिम पर निकल चुके हैं।

मुहल्ले के लोग एक-एक कर घरों से बाहर निकलने लगे। धीरे-धीरे पार्क में सब इकट्ठा हो गए।

पूरे चाँद की रात थी। आसमान एकदम साफ खुला हुआ था। हवा भले ही ठप थी पर चारों तरफ बिखरी शीतल चाँदनी भली लग रही थी। वातावरण में एक सन्नाटा-सा छाया हुआ था। जैसे लाइट के साथ सारा शोरगुल और आपाधापी भी चली गई हो।

‘‘जैसे-जैसे रात बढ़ रही है मौसम बदल रहा है।’’ घोष बाबू पार्क की घास पर बैठ गए।

उन्हें बैठता देख पुंतुलु और मोबले भी बैठ गए, जैसे वे इसी इंतजार में रहे हों कि कोई तो शुरुआत करे।

‘‘हाँ, कुछ-कुछ हवा भी डोलने लगी है,’’ मौलाना साहब बोले।

‘‘देखिए आतिश जी कामयाब होते भी हैं या नहीं,’’ गुल मोहम्मद ने कहा।

‘‘शुभ-शुभ बोलो, बंधु,’’ पंडित जी घबराकर बोले।

कर्तार जी हँस पड़े और दोनों हाथ उठाकर अँगड़ाई लेते हुए बोले, ‘‘कितना निर्भर हो गए हैं हम इन सुविधाओं पर। लाइट चली गई तो जैसे हमारी दुनिया ही ठप हो गई।’’

‘‘हम सब बिजली से चलनेवाली मशीन होकर रह गए हैं,’’ गुप्ता जी ने कहा।

‘‘बंद करो जी आप लोग यह फिलॉसफी झाड़ना,’’ घोष बाबू बोले, ‘‘आतिश जी पता नहीं कब तक लौटें। तब तक समय काटने के लिए क्यों न अंताक्षरी खेली जाए।’’

‘‘घोष बाबू, तुम्हारा बचपना अभी तक गया नहीं,’’ कर्तार जी हँसकर बोले।

‘‘भगवान न करे बचपना जाए। मुझे आप सब की तरह बूढ़ा थोड़े ही बनना है।’’

‘‘अच्छा यह बात है,’’ मौलाना साहब ताव खाकर बोले, ‘‘तो हम सब तैयार हैं।’’

फटाफट दो टीमें बन गईं। एक टीम घोष बाबू, कर्तार सिंह, गुप्ता जी और पंडित जी की बनी तो दूसरी मौलाना साहब, गायकवाड़, पटेल बाबू और मोबले की। बाक़ी लोग श्रोता बने।

‘‘मैं रेफरी बनूँगा,’’ पुंतुलु ने अपना प्रस्ताव रखा।

उनके प्रस्ताव पर सबने सहमति दे दी।

सब पालथी मारकर आमने-सामने बैठ गए। घोष बाबू शुरू हो गए--बाकायदा सुर और ताल के साथ--

‘‘सोना करे झिलमिल-झिलमिल,

सोना करे झिलमिल-झिलमिल,

अहा-हा---वृष्टि पड़े टापुर-टुपुर

टापुर-टुपुर--------’’

‘‘हिंदी गाओ, हिंदी, बंगाली गीत नहीं चलेगा। मौका मिला कि शुरू हो गए,’’ गायकवाड़ ने हाथ नचाकर कहा।

‘‘हिंदी नही तो क्या विलायती है?’’ घोष बाबू तुनक गए।

‘‘अरे ठीक है, ठीक है,’’ मौलाना साहब ने बात काटकर कहा, ‘‘हाँ, तो हमें ‘र’ से गाना है। चलो मोबले, शुरू करो।’’

‘‘म--मैं क्यों, मुझे नहीं आता गाना-वाना,’’ मोबले एकदम हड़बड़ा गए।

मौलाना साहब को मोबले से इस तरह आत्म-समर्पण की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने घबराकर पटेल बाबू और गायकवाड़ की ओर देखा। उन दोनों ने भी सिर झुका लिया। इस बीच पुंतुलु ने गिनती शुरू कर दी-‘वन--टू--थ्री--।’ दस तक गिनती पूरी होने का मतलब था एक अंक गवाँ देना।

मौलाना साहब ने घबराकर आखि़री आस में इधर-उधर देखा फिर भारी आवाज़ में शुरू हो गए-‘‘सारे जहाँ से अच्छा हिंद----’’

भीड़ ने शोर मचा दिया-‘‘ग़लत है! ग़लत है!’’

‘‘मौलाना साहब ‘र’ से गाना है, ‘र’ से, ‘स’ से नहीं,’’ घोष बाबू चढ़कर बोले।

मौलाना साहब खिसियाहट से लाल पड़ गए। इस बीच पुंतुलु फिर शुरू हो गए--वन--टू--थ्री--फोर’’

मौलाना साहब को लगा अब तो गए। पहली ही बार में चारों ख़ाने चित। घोष बाबू ख़ुशी से फूले जा रहे थे। पुंतुलु नौ तक गिनकर उँगली उठाने ही वाले थे कि गायकवाड़ अचानक उठ खड़े हुए और तेज़ आवाज़ के साथ पढ़ने लगे--

‘‘रण बीच चौकड़ी भर-भर के

चेतक बन गया निराला था,

राणा प्रताप के कोड़ों से

पड़ गया हवा का पाला था।’’

गायकवाड़ का जोश देखकर लोग तालियाँ बजा उठे। तालियों से उत्साहित गायकवाड़ आगे बढ़ते गए--

‘‘था अभी यहाँ, अब यहाँ नहीं---’’

‘‘बस महाशय, बस, आप तो खुद चेतक बन गए। चले जा रहे हैं, बिना लगाम के,’’ घोष बाबू ने चुटकी ली तो सारा मजमा ठहाका लगा उठा। गायकवाड़ शरमाकर ऐसे बैठे जैसे किसी ने गुब्बारे में सुई चुभो दी हो।

‘‘चलो मियाँ अब ‘थ’ से गाओ,’’ मौलाना साहब गर्व से तनकर बोले। उनका आत्मविश्वास लौट आया था। वह गायकवाड़ की ओर ऐसे देख रहे थे जैसे सेनापति अपने वीर सिपाही की ओर देखता है।

‘‘ ‘थ’ से नही हम लोग ‘ह’ से गाएँगे। गायकवाड़ ने ‘नहीं’ पर अंत किया है।’’

‘‘अजी वाह, ‘नहीं’ पर कैसे? आपने तो गायकवाड़ को ख़ुद वह सतर द्धपंक्तिऋ नहीं पढ़ने दी।’’

‘‘लेकिन उन्होंने पढ़ी तो! है कि नहीं?’’ घोष बाबू ने अपनी टीम के सदस्यों की तरफ रोष भरी नज़रों से देखा, जो इस पूरे मामले को दर्शकों की भाँति देख रहे थे।

‘‘हाँ, हाँ, सही बात है,’’ सभी हड़बड़ाकर बोले।

बात बढ़ी तो पुंतुलु ने बीच-बचाव करके फैसला सुनाया, ‘‘चूंकि पहले से तय नहीं थ्ाा कि कितनी लाइनें पढ़नी हैं इसलिए गायकवाड़ ने जहाँ से कविता ख़त्म की है घोष बाबू की टीम को वहीं से शुरुआत करनी होगी, यानी ‘ह’ से। लेकिन आगे से कविता की चार लाइनें ही पढ़ी जाएँगी और अगर गीत है तो सिर्फ उसका मुखड़ा।’’

मौलाना साहब का चेहरा उतर गया। सोचा था इसी ‘थ’ पर घोष बाबू को चित कर देंगे लेकिन पुंतुलु के प़फ़ैसले ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

पर घोष बाबू की खुशी भी ज़्यादा देर टिकी न रह सकी। जिस बाज़ी को उन्होंने जीता हुआ मान लिया था, वह उतनी आसान नहीं थी। गाने की बात आई तो ‘ह’ से उन्हें कोई गीत ही न सूझा। घोष बाबू के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।

‘‘अरे तौले राम जी कुछ गाइए न---,’’ घोष बाबू झटके में गुप्ता जी का असली नाम ले गए। गुप्ता जी का मुँह फूल गया। उन्हें इस वक़्त गाना याद होता, तो भी न गाते।

‘‘सरदार जी आप ही कुछ गाओ,’’ घोष बाबू नाउम्मीद होते जा रहे थे।

‘‘मुझे गाना-वाना कहाँ आता है जी,’’ कर्तार जी थोड़ा खिसियाते हुए बोले, ‘‘मैं तो बस एक गीत जानूँ--‘कणकाँ दी मुक राखी / ओ जट्टा, आई बैसाखी’ ’’

घोष बाबू आगे कुछ कहते कि पुंतुलु शुरू हो गए--‘‘वन--टू--थ्री--’’

घोष बाबू चीख़े, ‘‘रुको-रुको, याद आ गया---’’ और फिर शुरू हो गए--

‘‘हातेर काछे कोलेर काछे,

या आछे सेई अनेक आछे।

आमार------’’

‘‘बंगाली बाबू हिंदी गाओ! पहले ही तय हो गया था कि हिंदी में गाना है,’’ गायकवाड़ एकदम चढ़ पड़े। उन्हें बदला निकालने का अच्छा मौका मिला था।

घोष बाबू से कुछ कहते न बना। इससे पहले कि मामला आगे बढ़ता मौलाना बोल उठे, ‘‘अरे, सरदार जी आप कुछ गा रहे थे?’’

‘‘अरे वो तो ऐसे ही---’’ कर्तार जी हँसकर बोले।

‘‘इधर ध्यान दो, मौलाना साहब, इधर,’’ गायकवाड़ ने उनका कंधा पकड़कर झिंझोड़ा, ‘‘भँगड़ा-वँगड़ा बाद में सुन लेना। अभी इधर ध्यान दो। अपना प्वाइंट बन रहा है।’’

‘‘अमाँ छोडि़ए भी, हार-जीत में क्या रखा है। हम तो यहाँ वक़्त काटने बैठे हैं। ये वक़्त हँसी-ख़ुशी बीते, इससे बेहतर क्या हो सकता है। बैतबाज़ी (अंताक्षरी) छोडि़ए। कर्तार जी से कुछ सुनते हैं। क्यों भाइयो?’’

‘‘हाँ-हाँ बिल्कुल!’’ सबने एक स्वर से समर्थन किया। इनमें सबसे तेज़ आवाज़ घोष बाबू की थी।

भीड़ का ध्यान अपनी तरफ पाकर कर्तार जी घबरा गए और आनाकानी करने लगे। पर जब सबने जि़द पकड़ ली तो उन्हें तैयार होना पड़ा। खँखारकर गला साफ किया और उठ खड़े हुए। पहले लंबी-लंबी साँसे भरीं फिर गरज़दार आवाज़ में शुरू हो गए--

‘‘ए गभरू पंजाब देश दे उड़दे बिच्च हवा,

ए गभरू पंजाब देश दे देदे धूड़ धुमा।

ओ ढोल वालिया जवाना------ ’’

‘‘ओए बल्ले-बल्ले-बल्ले,’’ घोष बाबू उठकर नाचने लगे।

फिर तो समाँ बँध गया। घोष बाबू ने अपना पसंदीदा गीत-‘एक्ला चलो रे!’ सुनाया। पटेल बाबू ने एक गुजराती गीत सुनाया। मौलाना साहब ने एक नात पढ़ी। पंडित जी से बहुत जि़द की गई तो उन्होंने एक श्लोक सुनाया। मौलाना साहब को उसका उच्चारण इतना अच्छा लगा कि उन्होंने आग्रह करके उसे दोबारा सुना।

पूनम का चंद्रमा आसमान में चढ़ रहा था। हल्की-हल्की हवा डोलने लगी थी। पार्क में बैठे लोग जैसे अपनी सुध-बुध भूल गए थे। आसमान से चाँदनी नहीं जैसे आनंद बरस रहा था।

इसी बीच आतिश जी का स्कूटर घरघराया। लोगों की सिुध लौटी। उन्होंने शोर मचाकर उनका स्वागत किया।

पर आतिश जी आए तो उनका मूड उखड़ा हुआ था। वह बड़बड़ा रहे थे।

‘‘क्या हुआ? क्या बात हो गई?’’ भीड़ से स्वर उठने लगे।

‘‘हुआ क्या। हर तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कोई किसी की नहीं सुनना चाहता। नेता, नौकरशाह सब अपना स्वार्थ साधने में जुटे हुए हैं। जनता की तो किसी को फिक्र ही नहीं है। मैं तो---’’

‘‘पूरी बात तो बताओ?’’ घोष बाबू फिर लाल झंडी लेकर खड़े हो गए।

पर इस बार आतिश जी की ट्रेन नहीं रुकी, ‘‘मैं तो इनके बारे में अख़बार में लिखूँगा। धज्जियाँ बिखेर दूँगा इनकी। अभी इन्हें क़लम की ताक़त का अंदाज़ा नहीं। शुक्ला जी फोटो खींचिए सबकी! ऐसी रिपोर्ट तैयार करूँगा कि हंगामा मच जाएगा।’’

आतिश जी के साथ बैठकर आए आदमी ने कैमरा निकाला और तटस्थ भाव से बोला, ‘‘पहले इन्हें ‘सेट’ तो करिए।’’

आतिश जी फटाफट लोगों को सेट करने लगे, ‘‘कर्तार जी आप आगे आइए। गुप्ता जी थोड़ा दाएँ। मौलाना साहब साहब आप रूमाल निकालकर माथा पोंछने का ‘लुक’ दीजिए। पटेल बाबू आप हाथ में पंखा ले लीजिए। घोष बाबू, आप बुरा न माने तो कुर्ता उतारकर बनियान में आ जाइए।’’

‘‘वाह जी वाह, यह तो फैंसी ड्रेस शो हो गया !’’ मोबले ने कहा तो चुपके से, पर सुन सबने लिया और हँसने लगे।

मौलाना साहब, जो सचमुच रूमाल निकालकर खड़े हो गए थे, निकलकर किनारे आ गए और बोले, ‘‘छोड़ो यार आतिश---’’

‘‘क्या मतलब?’’ आतिश जी सकते में आ गए, ‘‘मैं तो यह सब सिर्फ आप लोगों के लिए कर रहा हूँ।’’

‘‘हाँ, बात तो सही है; और ज़रूरी भी, लेकिन आज बहुत दिनों के बाद हमें ख़ुशियों के ये पल नसीब हुए हैं। हम सब बेफिक्री से साथ-साथ बैठे हैं। जी भर बातें की हैं। हँसी-ठिठोली की है। अगर लाइट न जाती तो हमें ये पल नसीब न होते।’’

‘‘बिल्कुल सही,’’ घोष बाबू कहने लगे, ‘‘लाइट होती तो हम सब कमरों की गर्म हवा में बैठकर टी0वी0 देख रहे होते, या सो गए होते। क्यों पुंतुलु, ठीक कहा न?’’

उबासियाँ लेते हुए पुंतुलु एकदम हड़बड़ा गए। उन्हें जल्दी सोने की आदत थी।

‘‘देखो आतिश,’’ मौलाना साहब ने कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीरता से कहा, ‘‘तुम्हारे अंदर जोश है। दूसरों की मदद करने का जज़्बा है। तुम अपनी इस ताक़त को बचाकर रखो। जि़ंदगी की राह में अभी बड़े-बड़े मोर्चे आएँगे। तुम्हारे हौसलों के इस्तेमाल के लिए यह मकसद बहुत छोटा है।’’

‘‘बिल्कुल सही मौलाना साहब, कौआ मारने के लिए तोप थोड़े चलाई जाती है।’’ घोष बाबू ने कहा तो भीड़ खिलखिला उठी।

‘‘ठीक है, आप लोगों को ख़ुशी के जो पल नसीब हुए हैं, उन्हें बिताइए। मैं शुक्ला जी को छोड़कर आता हूँ।’’

आतिश जी का स्कूटर घरघराता हुआ वापस मुड़ चला। लोग समझ गए कि उन्हें बुरा लगा है। पर वे यह भी जानते थे कि उनका ग़ुस्सा बहुत देर का नहीं है।

***