इंद्रधनुष सतरंगा
(9)
बाहर के लोग
शुरू-शुरू में तो ऐसा लगता था कि इस साल सूखा पड़ जाएगा, पर बारिश होना शुरू हुई तो शहर को चेरापूँजी बना डाला। आसमान जैसे बादलों के बोझ से झुक आया था। बारिश के तरसे लोग अब रोज़-रोज़ की बदली-बूँदी से ऊबने लगे थे। हफ्रता बीत चला था पर सूरज के दर्शन नहीं हुए थे। हर तरफ कीचड़-पानी की किचकिच फैली हुई थी।
पानी थमा देखकर मौलाना साहब ने स्कूटर निकाला ही था कि ताक में बैठे मोबले दौड़े आए।
‘‘पकड़ लिया! वर्ना अभी तो फुर्र हो लिए थे, मौलाना साहब!’’ मोबले ख़ुशी से चिल्लाए।
‘‘क्यों झूठ बोलते हो, मोबले। कभी तुम्हें लिए बिना निकला हूँ,’’ मौलाना साहब ने हँसकर कहा।
‘‘लेकिन मैं तो आपकेे बुलाने से पहले ही हाजि़र हो जाता हूँ।’’
‘‘यह तो और अच्छी बात है। इससे वक़्त बचता है।’’
‘‘आपका बचता होगा, मेरा तो बर्बाद होता है। ताक में बैठे-बैठे घंटों बीत जाते हैं।’’
‘‘यह तो तुम्हारी दिक़्क़त है। मैंने तो कितनी बार कहा कि निकलूँगा, तो लेता चलूँगा। पर तुम्हें यक़ीन हो तब न।’’
मोबले खिसिया गए।
स्कूटर तो मोबले के पास भी था। अभी छः महीने ही हुए उन्होंने नया स्कूटर ख़रीदा था। लेकिन चलाने में अभी थोड़ा कच्चे थे। एक तो बारिश में नया स्कूटर ख़राब होने का डर दूसरे फिसलन भरी सड़कों पर हैंडिल सँभालना, दोनों मन में घबराहट पैदा करते थे। इसलिए वह हमेशा मौलाना साहब की ताक में लगे रहते थे।
‘‘अरे, यह पंडित जी के बरामदे में कौन लोग खड़े हैं?’’ तभी मौलाना साहब ने कहा।
‘‘अरे हाँ, सचमुच ! ये तो परदेसी लगते हैं।’’
‘‘आओ देखते हैं।’’
मौलाना साहब ने स्कूटर आगे बढ़ा दिया। पीछे-पीछे मोबले भी लपके।
पंडित जी के बरामदे में अक्सर कुत्ते और छुट्टा गाएँ बैठी दिख जाती थीं। मौसम की मार से बचने या फुर्सत की घडि़याँ बिताने के लिए इससे अच्छी जगह और कोई नहीं थी। पंडित जी को बुरा तो लगता और रोज़ सफाई भी करनी पड़ती, लेकिन कुत्ते को डंडा मारकर तपती धूप में भगा देना या रोटी की आस में बैठी गाय को हँकाल देना उनसे न हो पाता। लोग समझाते और पंडित जी को सही भी लगता, पर उनसे ऐसा करते न बनता।
मौलाना साहब नज़दीक पहुँचे तो देखा तीन आदमी बड़े-बड़े गट्ठर लिए उकड़ूँ बैठे बीड़ी पी रहे हैं।
‘‘आप लोग कौन हैं?’’ मौलाना साहब ने रोबदार आवाज़ में पूछा।
‘‘व्यापारी हैं साहब, फेरीवाले।’’ वे उठकर खड़े हो गए।
‘‘यहाँ क्यों बैठे हैं?’’
‘‘मुसाफिर हैं। थकन मिटाने बैठ गए।’’ उनमें से एक काइयाँ से लगनेवाले आदमी ने जवाब दिया।
मौलाना साहब थोड़ा नरम हो गए।
‘‘कहाँ से आए हैं?’’
‘‘अंगलापुर से।’’ इस बार सबसे पीछे खड़े छोटे कद और भूरी आँखों वाले आदमी ने जवाब दिया।
मौैलाना संतुष्ट होकर चलने को हुए कि उनमें से एक आदमी आगे बढ़कर आ गया और चेहरे पर दयनीयता लाते हुए बोला, ‘‘साहब, एक प्रार्थना है।’’
मौलाना साहब ठहर गए।
‘‘हाँ कहो---’’ उस आदमी की आँखे पढ़ने की कोशिश करते हुए वह बोले, ‘‘पर तुमसे क्या ख़रीदूँगा? मेरे लायक़ तो कुछ होगा नहीं तुम्हारे पास।’’
‘‘नहीं सरकार, वह बात नहीं है। दरअसल----’’
‘‘हाँ-हाँ कहो,’’ मौलाना साहब घड़ी देखने लगे। उन्हें देर हो रही थी।
उस आदमी ने साहस बटोरकर बात आगे बढ़ाई, ‘‘दरअसल, इतनी दूर से आए हैं तो शहर में दस-पंद्रह दिन फेरी लगाएँगे ही। अगर यहाँ सिर छुपाने की जगह मिल जाती तो-----’’
‘‘जो भी भाड़ा होगा हम दे देंगे,’’ भूरी आँखों वाले आदमी ने जल्दी से कहा।
‘‘यहाँ----’’ मौलाना साहब ने मोबले की ओर देखा, ‘‘यहाँ तो ऐसी कोई जगह है नहीं।’’
‘‘एक ही कमरा मिल जाए, साहब। हम तीनों रह लेंगे, कैसे भी,’’ अबकी तीसरे आदमी ने कहा।
‘‘वह तो सही है लेकिन-----’’
‘‘साहब, बड़ी उम्मीदें लेकर आए हैं।’’ तीनों ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘हमें पता है कि शहर में कहीं जगह मिले न मिले, यहाँ सिर छिपाने का इंतज़ाम ज़रूर हो जाएगा।’’
मौलाना साहब असमंजस में खड़े रह गए। वह मोबले का मुँह देख रहे थे और मोबले उनका। समझ में नहीं आ रहा था क्या करें? वे इसी सोच में खड़े थे कि तभी पंडित जी का दरवाज़ा खुला।
‘‘अरे रहमत भाई आप!’’ पंडित जी ने हैरानी से पूछा, ‘‘ये लोग कौन हैं?’’
‘‘फेरीवाले हैं। अंगलापुर से आए हैं। बेचारे दस-पंद्रह दिनों के लिए ठहरने की जगह तलाश रहे हैं।’’ मौलाना साहब ने ख़ुद आगे बढ़कर बताया।
मौलाना साहब की बात सुनकर पंडित जी ने फेरीवालों को एक बार ऊपर से नीचे घूरकर देखा।
‘‘अरे मोबले सुनो, ज़रा लपककर घोष बाबू को बुला लाना। कर्तार जी मिलें तो उन्हें भी कहते आना।’’ मौलाना साहब ने कहा।
‘‘ठीक है, जा तो रहा हूँ, लेकिन----’’ मोबले जाते-जाते ठहर गए, ‘‘ऐसा न हो कि इधर मैं जाऊँ और उधर आप----’’
‘‘हद कर दी भई! लो, स्कूटर की चाबी अपने पास रखो,’’ मौलाना साहब ने चाबी उनकी ओर उछाल दी, ‘‘अब हुआ सुकून या, अब भी--’’
पंडित जी हँस पड़े। मोबले खिसियाते हुए चले गए। कुछ ही देर में वह पूरी फौज लेकर लौट आए। मौलाना साहब की बात का मतलब उन्होंने बिल्कुल सही समझा था।
‘‘अरे मौलाना साहब, क्या बात हो गई?’’ कर्तार सिंह ने आते ही पूछा।
‘‘बात क्या होगी? बस, हमारा सुकून-चैन इन्हें नहीं भाता। आराम से सो रहा था कि ये महाराज इनका फरमान लेकर जा पहुँचे।’’ घोष बाबू ने मोबले की तरफ देखकर मुँह बनाया।
‘‘मैं क्या करूँ? मुझे कौन-सा शौक़ लगा था जो तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाता। मुझे तो इन्हीं लोगों ने भेजा था।’’ मोबले चिढ़कर बोले।
‘‘अरे-अरे शांत हो जाओ। ज़रूर कोई ख़ास बात होगी, वर्ना मौलाना साहब फिजूल परेशान नहीं करते।’’ पटेल बाबू ने बीच-बचाव करते हुए कहा।
मौलाना साहब ने जब सारी बात बताई तो कर्तार जी बोले, ‘‘भई, मौलाना साहब, तुम्हारी मजऱ्ी है तो एक आदमी को मैं रख लूँगा। मेरी बैठक ख़ाली ही रहती है। कोई एक वहाँ रह सकता है। बाक़ी का इंतज़ाम आप लोग देख लीजिए।’’
‘‘भाइयो, चूँकि यह मसौदा मैंने पेश किया है इसलिए एक आदमी को रखने की जि़म्मेदारी मेरी है।’’ मौलाना साहब आगे बढ़कर बोले।
‘‘ये लोग चूँकि पहले मेरे यहाँ आए इसलिए मेरा दायित्व भी बनता है। एक व्यक्ति मेरे आवास पर रह लेगा,’’ अबकी पंडित जी बोले।
फेरीवाले हैरत से एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। रहने का इंतज़ाम इतनी आसानी से हो जाएगा यह तो ख़्वाब में भी नहीं सोचा था। तीनों आपस में खुसर-पुसर करने लगे।
‘‘हाँ-हाँ, कहिए। आप लोग कुछ कहना चाहते हैं।’’ मौलाना साहब उन्हें हिचकिचाता देखकर बोले।
‘‘साहब, अगर इसी समय किराए की बात भी हो जाती तो----’’ एक ने हिचकिचाते हुए कहा।
‘‘किराया-----’’ कर्तार जी ने ज़ोर का ठहाका लगाया।
बाक़ी लोग भी हँस पड़े। फेरीवाले पल भर को सिटपिटा गए।
‘‘अजी किराया कैसा? तुम लोग तो अब हमारे मेहमान हुए। मेहमान से कहीं किराया लिया जाता है। वाहे गुरू! वाहे गुरू!’’ कर्तार जी ने कान पकड़ लिए।
‘‘अतिथि देवो भव!’’ पंडित जी बोले।
‘‘सही प़फ़रमाया आपने, मेहमान से रिज़्क द्धआजीविकाऋ में बरकत आती है।’’ मौलाना साहब ने भी समर्थन किया।
फेरीवाले अब भी हैरत से सब को ताक रहे थे। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था।
‘‘अच्छा भाई मोबले,’’ मौलाना साहब बोले, ‘‘इन लोगों के ठहरने का इंतज़ाम कर दिया जाए, फिर चलते हैं।’’
मोबले खीझ गए कि लो अब गया एक घंटा।
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