इंद्रधनुष सतरंगा - 8 Mohd Arshad Khan द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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इंद्रधनुष सतरंगा - 8

इंद्रधनुष सतरंगा

(8)

आँगन में तालाब

रात भर ख़ूब बारिश हुई। लू-धूप की तपी धरती हुलस उठी। पेड़-पौधों पर हरियाली लहलहा उठी। गड्ढे और डबरे लबालब हो उठे। मौसम सुहाना हो गया।

आज जहाँ सब लोग घर में बैठे रिमझिम का आनंद उठा रहे थे, वहीं कर्तार जी घुटनों तक लंबा जाँघिया पहने आँगन में भर आया पानी बाल्टी भर-भर उलीच रहे थे। उनका आँगन तालाब बन गया था। कर्तार जी ने पगड़ी उतार रखी थी इसलिए उनके बड़े-बड़े बाल कंधों तक बिखर गए थे। एकाएक कोई देखता तो उन्हें पहचानना मुश्किल होता। वह बाल्टी भर-भरकर फेंकते जा रहे थे और बड़बड़ाते जा रहे थे।

उनके आँगन की नाली जाम हो गई थी और रात भर हुई बारिश ने पूरे घर को तालाब बना दिया था।

कर्तार जी को तो ख़बर भी न लगती। वह घोड़े बेचकर सोए रहते। पर जब दूधवाले ने घंटी बजाई और वह जूते पहनने को हुए तो पता चला जूते नाव बने आँगन में तैर रहे हैं। सारी नींद हवा हो गई। फौरन बाल्टी लेकर जुट पड़े। बाल्टी पर बाल्टी उलीचते रहे लेकिन पानी था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बादलों की टिपटिप और छत से बहकर आ रहे पानी से सारा घर महासागर बन गया था।

बात की बात में पूरे मुहल्ले में ख़बर उड़ गई। मौलाना साहब का घर कर्तार जी के सामने ही था। सबसे पहले वही पहुँचे।

‘‘अमाँ क्या हो गया, सरदार जी?’’ मौलाना साहब ने अंदर झाँकते हुए पूछा।

पर अंदर से जवाब की जगह एक बाल्टी पानी आया और छपाक् से गली में बिखर गया। मौलाना साहब पाजामा समेटकर किनारे की ओर भागे।

‘‘अरे मौलाना साहब, आप?’’ कर्तार जी की नज़र उन पर पड़ी तो उन्होंने हाँफते हुए पूछा।

‘‘हाँ मियाँ, बाल-बाल बच गया, वर्ना आज तो हो गया था गंगा-स्नान।’’ मौलाना साहब पाजामे पर पड़ी छींटें देखते हुए बोले, ‘‘पर यह सब हुआ कैसे?’’

‘‘क्या बताऊँ? शायद नाली में कहीं कुछ अटक गया है। ऐसी जाम हुई है कि सारा घर समंदर बन गया है।’’

‘‘अरे, वाह! सरदार जी की तो मौज हो गई। बिना हींग-फिटकरी लगे स्वीमिंग-पूल तैयार हो गया!’’ तभी घोष बाबू उधर आ निकले।

‘‘बिल्कुल सही कहा। मैं भी आ गया।’’ पीछे-पीछे पटेल बाबू भी आ गए थे।

‘‘मुझे मत भूल जाना, यारो,’’ गायकवाड़ भी लपकते हुए आ गए।

‘‘ले लो मजे़। हँस लो। मुसीबत तो मेरे सिर पड़ी है न?’’ कर्तार जी मायूस होते हुए बोले।

मौलाना साहब के मन में सहानुभूति जागी। पाजामा चढ़ाकर अंदर उतर गए और समस्या का निरीक्षण लगे।

तभी पंडित जी हाथ में बाँस का एक टुकड़ा लिए आए और बोले, ‘‘इससे सफाई करके देखिए। संभव है सफलता मिले।’’

मौलाना साहब जुट पड़े। कोशिश पर कोशिश करते रहे पर क़ामयाबी नहीं मिली। दरअसल, नाली आगे जाकर घूमी हुई थी। इसलिए बाँस से पूरी तरह सफाई नहीं हो पा रही थी।

‘‘काम भी नहीं हुआ और बाँस भी नापाक हो गया।’’ मौलाना साहब हाँफते हुए बोले। उनके माथे पर पसीना चुहचुहा आया था।

‘‘इतनी बारिश हुई पर गर्मी नहीं घटी,’’ घोष बाबू मौलाना साहब के माथे पर आया पसीना देखकर बोले, ‘‘उमस से तो यही लगता है कि अभी और पानी गिरेगा।’’

कर्तार जी ने सुना तो घबरा गए और ख़ुद बाँस लेकर जुट गए।

‘‘फर्श तोड़ना पड़ेगा। यही एक चारा है।’’ गायकवाड़ ने सलाह दी।

‘‘हाँ, लगता तो यही है।’’ मौलाना साहब ने भी सहमति जताई।

‘‘ठीक है---जैसा आप लोग बेहतर समझें।’’ कर्तार जी मन मसोस कर बोले। उन्होंने पुराना फर्श तुड़वाकर कुछ ही दिन हुए, पत्थर लगवाए थे।

बात की बात में गैंती आ गई। घोष बाबू ने कमान सँभाली। गैंती लेकर पानी में उतर गए। ताक़त लगाकर ज्यों ही गैंती चलाई कि पानी छपाक् करके उछला और ऊपर से नीचे तक भिगो गया। बाक़ी लोग बचकर दूर भागे। मौलाना साहब तो कई फिट उछल गए।

घोष बाबू गैंती पर गैंती चलाए जा रहे थे, लेकिन पानी भरा होने के कारण बड़ी मुश्किल आ रही थी। एक तो चिकने पत्थरों पर गैंती फिसल जा रही थी, दूसरे, सही सही जगह का अंदाज़ा भी नहीं लग हो रहा था।

घोष बाबू ने शुरुआत तो बड़े जोश के साथ की थी, पर दो-चार चोटों के बाद हाँफने लगे। कभी ऐसी मेहनत तो की नहीं थी। थोड़ी ही देर में पसीने से नहा गए।

‘‘चलिए छोडि़ए, मुझे दीजिए। यह आपके बस का नहीं।’’ मोबले ने घोष बाबू से गैंती छीन ली। घोष बाबू अपनी ताक़त पर सवाल उठता देख तिलमिलाए तो बहुत, पर साँसें ऐसी फूल रही थीं कि कुछ कह न पाए। थोड़ी देर बाद जब साँसें सामान्य हुईं तो खिसियाए-से बोले, ‘‘पता नहीं मज़दूर बेचारे दिन-दिन भर कैसे इतनी मेहनत करते होंगे!’’

‘‘ग़रीबी हर काम की आदत डाल देती है,’’ मौलाना साहब ने गहरी साँस ली।

दो-चार चोट करने के बाद जब एक थक जाता, तो दूसरा उसकी जगह ले लेता। इस तरह काफी देर बीत गई। आखि़रकार जब गुप्ता जी अपनी बारी पूरी कर रहे थे तो एकाएक गैंती फर्श में धँस गई। वापस खींची तो पॉलीथीनों का एक गोला उससे लिपटकर बाहर आ गया। इसी के साथ ‘सुप-सुप-सड़ाप-गड़ाप’ की आवाज़ हुई और पानी वेग के साथ नाली में भागा।

‘‘अच्छा तो यह मामला था।’’ घोष बाबू बोले।

‘‘इस अदना-सी पॉलीथीन ने कितनी मेहनत करा डाली।’’ मौलाना साहब ने इस तरह मुँह बनाया मानो खोदा पहाड़ निकली चुहिया।

‘‘नुकसान हुआ सो अलग।’’ कर्तार जी दुखी स्वर में बोले।

गुप्ता जी भी अपनी राय देना चाहते थे पर हाँफने के कारण कुछ बोल न पाए।

‘‘मुझे तो पहले ही आभास हुआ था,’’ यह आवाज़ पंडित जी की थी, जो एक पुरानी छतरी लगाए वापस आ खड़े हुए थे।

‘‘आप लोग पॉलीथीन बैग्स का इतना इस्तेमाल करते हैं कि एक दिन तो यह होना ही था।’’ तभी पुंतुलु ने पीछे से आकर कहा। बूँदा-बाँदी से बचने के लिए उन्होंने सिर पर तौलिया ओढ़कर दाँतों से दबा रखा था।

‘‘हाँ-हाँ, जैसे कि आप तो हाथों में सामान लेकर आते हैं।’’ घोष बाबू ने तुनककर कहा।

‘‘जी नहीं, मैं बाज़ार अपना थैला लेकर जाता हूँ।’’ पुंतुलु ने दृढ़ता से कहा।

‘‘हाँ, पुंतुलु सही कह रहे हैं।’’ मौलाना साहब ने समर्थन किया।

‘‘देखो जी,’’ कर्तार जी बोले, ‘‘जो हुआ सो हुआ, लेकिन अब आगे के लिए कोई रणनीति तो बनानी ही होगी।’’

‘‘हाँ-हाँ, सब लोग मौजूद हैं। अभी बात हो जाए।’’ गायकवाड़ और पटेल बाबू एक साथ बोले।

‘‘मौलाना साहब आप बताइए,’’ कर्तार जी ने कहा।

मौलाना साहब गंभीर हो गए। एक पल ख़ामोश रहकर बोले, ‘‘देखो भाइयो, हमें यह वादा करना होगा कि आज से पॉलीथीन का इस्तेमाल बंद कर देंगे और दूसरों को भी इसके लिए उकसाएँगे। क्यों पंडित जी?’’

‘‘बिल्कुल सही, बिल्कुल सही,’’ सबने तालियाँ बजाईं।

‘‘जी,’’ पंडित जी बोले, ‘‘वास्तव में पॉलीथीन से अनेक हानियाँ हैं। इससे प्रदूषण फैलता है। भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है। हम प्रायः भोजन की वस्तुएँ पॉलीथीनों में फेंक देते हैं जिन्हें खाकर गाय आदि निरीह पशु मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।’’

‘‘इसके साथ-साथ हम एक वचन और लें,’’ बीच में घोष बाबू बोले तो सबकी निगाहें उनकी ओर मुड़ गईं, ‘‘आज से मुहल्ले का कोई भी आदमी पान, सिगरेट, गुटके आदि का प्रयोग नहीं करेगा।’’

‘‘अरे---रे यह कहाँ की बात हुई? बात तो पॉलीथीन की हो रही थी।’’ गुप्ता जी एकदम उछल गए, क्योंकि उन्हें सिगरेट की बड़ी लत थी।

‘‘घोष बाबू सही तो कह रहे हैं। आखि़र हजऱ् क्या है?’’ मौलाना साहब बोले।

घोष बाबू की बात मान ली गई। गुप्ता जी मन ही मन बहुत तिनमिनाए, लेकिन कुछ कह न सके। बस, घोष बाबू को खा जाने वाली निगाहों से घूरते रहे।

थोड़ी देर बाद जब सब अपने-अपने घरों की ओर मुड़े तो बूंदें फिर से तेज़ हो चली थीं।

***