दीप शिखा
तमिल उपन्यास
लेखिका आर॰चुड़ामनी
हिन्दी मेँ अनुवाद
एस॰भाग्यम शर्मा
(3)
गीता आ गई। पूरा घर एक ही क्षण में प्रसन्नता व खुशियों से भर गया।
घर के अन्दर घुसते ही उत्साह से उछलते हुए अम्मा! चिल्लाते हुए भागकर आकर उसके गले मिली तो बुढ़िया का हृदय खुशियों से भर गया। हे भगवान चलो मेरी बच्ची पहले जैसी ही है! मेरा डर बेकार था। बड़े शान्ति से दीर्घ श्वास छोड़ते हुए स्नेह प्यार से अपने कठोर अंगुलियों से उसके कोमल चेहरे को सहलाने लगी। एक महीना ही हुआ था उससे अलग होकर कई युग बीत गए ऐसा लग रहा था!
‘‘आजा मेरी रानी बिटिया! तेरे बिना मेरा घर सूना हो गया था।
‘‘ तुम्हें देखने के लिए मेरी आंखे तरस गईं अम्मा! उसकी बातों से अमृत की वर्षा हो रही थी। पेरूंदेवी उसके चेहरे को निहारती रही व थू थू कर उसकी नजर उतार अपनी अंगुलियों को चटकाने लगी। इस सुन्दर चेहरे पर न जाने कितने लोगों की नजर लगी होगी!
‘‘तुम मेरे साथ नहीं हो ये कमी मुझे बहुत अखर रही थी। ” गीता ने बच्ची जैसे उसके झुर्रीदार गालों पर अपने होठों से चूमा । बीस साल की होने जा रही एक जवान लड़की का कृत्य है क्या ये ? छोटी सी बच्ची ही है! पेरूंदेवी खुशी से खिल गई। इतना प्यार उसको दिखाने का तरीका इतनी नजदीकियां प्रेम में ये सब बातें सही है जिसे वह जानती है।
‘‘ठीक है रे मेरे गाल को जूठा मत कर मैं नहा कर आई हूं नकली गुस्सा दिखाते हुए उसके हाथों को अपने हाथों में लिया। गीता के हाथों की अंगुलियों में मेहंदी की लाली कम हो गई थी। एक महीना हो गया वह यहां नहीं थी! घर पर होती तो महीने में एक बार बिना नागा मेहंदी लगाती। उसे तरह तरह से सजना संवरना पसंद था। यह सोचना ही पेरूंदेवी को उत्साहित करता था।
‘‘मेरी पसंद का खाना ही है न आज”
‘‘फिर आलू का चिप्स पटोरिया का कुट्टू, टमाटर की पच्चड़ी (रायता) और सब तेरे पसंद का ही है। वही नहीं एक महीने के बाद आज बाहर से आई है ना इसलिए आज चावल की खीर भी बनेगी। ”
‘‘हाय! मेरी सोनी अम्मा! अच्छा मैं तीर्थ यात्रा कर के आई हूं ना! बड़े भक्तों को देने वाले आदर-सत्कार भी मुझे नहीं दोगे क्या ?”
पेरूंदेवी जल्दी से सिकुड़ सी गई। जल्दी से फिकर के साथ उस युवा चेहरे को घूरकर देखने लगी। भक्त शिव कामिनी ऐसा वह मजाक से ही तो कह रही है ना या खेल जैसा इसके मन में कुछ है तो नहीं........
‘‘एक बात है अम्मा मेरी आपके पास आने की कितनी भी इच्छा हो पर उस जगह को छोड़ने को मेरा मन नहीं था। वह बद्रीनाथ की यात्रा उन पहाड़ी चोटीयों के बीच नारायण बद्री भगवान का मन्दिर। वहाँ की ठण्ड, वहां की बर्फ, वहां की पूजा की जगह और वहां हम.....अरे.....रे.....रे.... क्या अनुपम अनुभव।
एक क्षण में ही उसे अपने से बहुत दूर जाते देख पेरूंदेवी आश्चर्यचकित हो गई । वह आश्चर्य से सोचने लगी , उसकी दूर देखती दृष्टि उसके चेहरे के आते जाते भावों को देख क्या वह उसके अन्दर जो है उसे वह समझ सकती है! पिछले जन्म के जैसा ये रूप दूसरी बात को प्रतिपादित नहीं करता है ? इसी तरह ही तो थी वह भी! दोबारा फिर से ?
इसको भी जाने से रोकने के लिए वह बूढ़ी उस नवयौवना के पास आकर उसे अपने से चिपकाती है।
‘‘क्या है अम्मा क्यों मुझे ऐसे बांध रही हो दर्द हो रहा है ना अम्मा! पेरूंदेवी अपनी पकड़ को ढीला करती है। थोड़ी देर पहले जो खुशी से बढ़ा हुआ उत्साह था उसमें अब भय व्याप्त हो गया ।
‘‘क्यों अम्मा अजीब सी शक्ल कैसे हो रही है !”
‘‘अजीब सा क्या! मेरा चेहरा बदला नहीं वही तो है। हँस कर बात को सम्भाल लिया। तुम जाकर हाथ-मुंह धोकर आओ गीता। मैं काफी बनाकर रखती हूं। ”
‘‘तुम्हारे लिए मैं बद्रीनारायण की चांदी की एक मूर्ति लेकर आई हूं दिखाऊं क्या ?”
‘‘ठीक है ठीक है पहले काफी पीओ। ”
‘‘उसकी क्या जल्दी है! भगवान से ज्यादा जरूरी है क्या वह। ”
‘‘मुझे सब पता है रे। स्वामी और भक्ति। मुझ बूढ़ी से भी ज्यादा तुमको पता है क्या ? पहले काफी व नाश्ता होने दो। ”
‘‘ठीक है तुम गुस्सा मत करो! इठलाती हुई हँस कर बोली। ” पेरूंदेवी उससे पिघल गई।
‘‘शरारती लड़की!......देखा में तो बोलना भूल गई! तुम आज आ रही हो लिख दिया था तो दोपहर को खाने पर तेरे अप्पा और अम्मा (दूसरी मां) को बुलवाया है। ”
‘‘आह! बड़ी अच्छी बात! मैं अप्पा के लिए भी एक चांदी की मूर्ति लेकर आई हूं। ताता (नाना) कहाँ है अम्मा बगीचे में हैं क्या ? मेरा स्वागत करने के लिए बाहर आकर एक आदमी को खड़ा नहीं होना चाहिए....... नाना..... |”
कूदती हुई गीता सारनाथन को ढूंढती हुई अन्दर की तरफ भागी।
‘मैं बूढ़ी हूं परन्तु मुझे भी ऐसे देवस्थान के दर्शन करने हैं ऐसा कभी लगा नहीं। जीवन में एक बार काशी जाकर आना है यह भी नहीं सोचा। ऐसा क्यों! यही पर रहने के बाद भी मैलापुर के कबालिस्वर मन्दिर में नहीं गई। मुझमें देवभक्ति नहीं है ऐसी भी बात नहीं परन्तु उसके तो खून में ही है भक्ति और हमारे संस्कार भी कपड़े जैसे ओढ़े ही हैं। इसमें बहुत तेजी या कमी कभी नहीं रही। मेरे लिए पति ही काशी है कुटुम्ब ही मन्दिर इसमें ही मैंने अपनी तृप्ति पाई। ऐसे में मेरे ही शरीर मेरे ही हाड़ मांस से बनी यामिनी की राह अलग थी। पुराने को भूल नये का आश्वासन सोचे तो वह फिर से उबारने जैसे ही नहीं है क्या ? लेकिन गीता का ये बदलाव ?
गीता की सहेली मीना के घर वाले सपरिवार यात्रा पर जा रहेथे, तब बड़ों के बीच अपने लिए एक सखी की जरूरत को महसूस कर उसको साथ ले गई । युवाओं के लिए वह सिर्फ घुमने वाली बोरिंग यात्रा ही होनी चाहिए। यहां तो उसके बदले ये तो उस यात्रा को अपने हृदय से चाह रही है! बाल्य काल से ही गीता किसी भी तरह आचार-विचार को मानने वाली नहीं थी। उसमें रिश्तों के बन्धन से नफरत करने वाली कोई चीज दिखाई नहीं दी। किसी भी बात में यह उसके जैसे नहीं थी। गीता शाम के समय घर के कमरों में रोशनी कर देती है, इसको अपनी माँ की तरह अंधेरा पसंद नहीं।
अचानक ये क्या एक नई शक्ल। न समझ आने वाला एक मायाजाल कई सालों तक ठहरने के बाद आखिर में इसे भी खींच कर अपने में मिला रहा है क्या | जाने वाली का खून फिर से इस नए अवतार में फलना-फूलना चाह रहा है क्या, जाने वाली इस मामले में अलग थी पर यह तो सबको अपनी ओर खींचती है.....
नहीं नहीं ये सब भ्रम ही है। कितनी बार ऐसी कठिनाईयां आएगीं ? संसार में रम कर रहने वाली पेरूंदेवी के नाम की कितनी पीढ़ियां इस संसार से दूर भागेंगी |
सुबह दस बजे ही रामेशन व उसकी पत्नी आ गए। यात्रा से आई गीता से बातचीत करने उसकी कुशलता पूछने, आराम से पूरा दिन प्रसन्नता से गुजारने के लिए।
‘‘हलो गीता कैसी हो |” रामेशन ने जो धूप का चश्मा पहने हुआ था उसे उतार कर अपनी शर्ट के जेब में उसकी एक डंड़ी को बाहर निकाल कर रखते हुए पूछा।
सारनाथन आए हुए लोगों का आदर सहित आवभगत कर दूसरे कोने के कमरे में जाकर झूले पर बैठ गए। पुराने जमाने का मोटी लकड़ी में पीतल के काम वाला नक्काशीदार झूला था। उनके घर में वे दो जगहों पर ज्यादा बैठते थे। एक पिछवाड़े के कुंए में उसके साथ कुंए के दीवार से सट कर दीवार को पकड़ के खड़े होना और उसमें झांक कर देखना वह भी विशेष कर रात के अंधेरे में जो काला दिखाई देता उसमें उनको एक मित्रता का अहसास होता। दूसरी तरफ ये कोने का कमरा, यहां वे झूले पर बैठ कर कमरे के कोनों में घूर-घूर कर उनका देखना वो कितना हृदय विदारक होता। यहां वे इस झूले पर बैठे लोहे की सांकल को पकड़ पैरों से जमीन को छूते हुए धीरे-धीरे से उसे हिलाते | उसके हिलाने से सांकल की आवाज से ताल दे रहे हों ऐसा लगता था| लगता जैसे बच्चे को झूला झुला रहे हों धीरे-धीरे झूलाने पर वह हिलता । लोहे की सांकलों से जो ध्वनी निकलती है वह ताल की ध्वनी जैसा लगती । आवाज के बीच एक दीप्त तरंग अपने आप आकर समा जाती जो उनकी लड़की है ऐसा दस साल से सोच रहें हैं। इसी बात के दर्द को क्या वे दस साल से अपने अंदर पाल रहे हैं ?
बैठक में नंदलाल वासु, राय चौधरी की तस्वीरें टंगी थीं | बीचों बीच विदेशी चित्रकार पिकासो और उनके फोलोअर नवीन पाणी इंडिया के कलाकार इन लोगों के चित्र लगे थे | समयानुसार नए युग के गीता की अपनी पसंद से चुने हुए चित्र भी थे | कोई चीज पसंद नहीं आने पर सुविधा से उठा कर फेंकने वालों में से नहीं है वह |
इन तस्वीरों के ठीक नीचे सफेद रस्सी से बुने हुए नीले रंग के सोफे में रामेश्वरन व वसंती के बीच में गीता बैठी थी, सामने जो मेज रखी थी उस पर अंगुलियों से लाइन खिंचते हुए स्वंय के देखे हुए स्थानों के बारे में वर्णन कर रही थी | रामेश्वरन की सभी इंद्रिया, आँखें बन कर गीता को देख रही थीं जिसके कारण, उसको कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था | कितनी सुंदर है मेरी लड़की ! साथ ही होशियार ! उसके वसंती से पैदा हुए दोनों लड़के ही हैं इसलिए, लड़की का एक अलग ही सपना है जो इस लड़की में है| गीता भी उससे ही नहीं, छोटे भाइयों से भी और वसंती के साथ भी प्रेम व अपनत्व से रहती थी | वसंती भी उससे प्रेम व स्नेह रखती थी | फिर भी, रामेशवरन ने अपने पास ही बेटी को रहने के लिए मजबूर नहीं किया | एक ही शहर में रहने पर भी उसे मालूम है पेरुंदेवी के लिए गीता कितनी प्यारी व जरूरी है उसके दुखी हृदय को गीता ही सांत्वना देने वाली है, वह समझता था | गीता का पालन-पोषण कर बड़ा करने वाली पेरुंदेवी ही थी | उसने नौकरी की शुरुआत भले ही चेन्नई से की पर बीच में चेन्नई से वह बाहर बदली होकर कई-कई शहरों में चला गया था | अब फिर से चेन्नई में ही आ गया था | वसंती गीता से बोली “बढ़िया है, तुम सभी मुख्य-मुख्य स्थानों को देख कर आई हो |”
“हाँ छित्ती (मौसी), ऋषिकेश, हरिद्वार, बद्रीनाथ उससे पहले और कई जगह ! जंगल, नदियां........ गंगा की आरती में दीपक के बहाए जाने वाला दृश्य मुझसे भूलाया नहीं जाता.....”
“त्रिवेणी संगम में जाकर स्नान करके आई है ! तुम्हें देख मुझे सच में ईर्ष्या भी हो रही है !”
“ये क्या बड़ी बात है ! तुम व अप्पा मिल कर जा सकते हो !”
“ये होने वाला काम है क्या ! तुम्हारे दोनों भाइयों के सभी कार्यो को मुझे ही करना पड़ता है | उनके स्कूल रवाना होकर जाने के बाद ही मुझे कुछ आराम मिलता है | ऐसे में कहाँ यात्रा पर जाऊँ !”
“उन्हें आज छुट्टी लेने को बोल कर साथ लेकर नहीं ला सकती थीं क्या छित्ती (मौसी) !”
“छोटे बच्चों को स्कूल से छुट्टी लेने के लिए हमें उकसाना चाहिए क्या गीता ? शाम को वे तुम्हें मिलने को आयेंगे | नहीं तो तुम ही घर आ जाना |”
कुछ दूर पर खड़ी मुसकराती उनकी बातें को ध्यान से सुन रही पेरुंदेवी बोली “तुम्हारे अप्पा तुम्हारे लिए आधे दिन की छुट्टी लेकर आए हैं ना” |
“अप्पा तो अप्पा ही है !” गीता अपने पिता को देख मुसकराई | उस समय वातावरण में एक समुन्द्र की सफेद लहर उठी |
रामेशन के मन में खुशी छाई | ऊपर से बोला “क्यों अप्पा की चमचागिरी कर रही है ?”
गीता लाड़ से हँसती हुई अपनी जीभ दिखा कर बोली “मुझे क्या जरूरत है तुम्हारी चमचागिरी करने की ? छित्ती (मौसी), बेचारी यात्रा जाने के लिए बहुत इच्छुक है | लेकर जाईये ना अप्पा ! महेश व रमेश दोनों को यहाँ छोड़कर, आप दोनों लोग आराम से आनंद लेते “दूसरा हनीमून के लिए रवाना हो जाओ |”
“इस जमाने के बच्चे बड़े-छोटे के लिहाज को भूल ही गए है|”
“छोटे को ही मर्यादा दिखाना चाहिए क्या अप्पा ?”
“चल रे शरारती !”
सरनाथन के कुटुम्ब में सुखद बातें हो रही थीं| पेरुंदेवी शांति से आराम कुर्सी में अधलेटी हो गई | गीता अब आकाश में नहीं उड़ेगी|
“अप्पा, आप लोगों के लिए कांसे के लोटे में गंगाजल और भगवान की मूर्ती, प्रसाद सब लेकर आई हूँ|”
“अच्छा| तू बड़ी हो गयी क्या, हम सब को प्रसाद देने के लिए!”
“उम्र कुछ भी हो तो क्या होता है अप्पा ? वहाँ जाने पर मन में कैसी शांति महसूस होती है पता है ? ऋषिकेश में साधुओं को देख कितनी भक्ति के भाव आते हैं| उन लोगों के साथ मिलकर हिमगिरि को देखते हुए योग करने बैठ जाएँ ऐसे लगता है|”
पेरुंदेवी उठ कर खड़ी हो गई | उसका पूरा शरीर उत्तेजना में हिल रहा था| “बस कर रे बातें ! आजा वसंती यहाँ आकार बगीचे को देखो ? सेम की फली की नयी बेल लगाई है|” बात बदलने लिए तड़पकर बोली |
“ऐसा है क्या अत्तैय मैं आई |” कह कर वसंती उठी|
पति के अत्तैय [बुआ ] को वसंती उसी रिश्ते से ही बुलाती| पेरुंदेवी को वह पसंद है| अपनी लड़की की जगह आई है ऐसा सोच कभी भी उससे जलन या वैर नहीं करती | वसंती उनके सब्जी वाले बगीचे पर एक निगाह डालती है | बैंगन के बाजार भाव के बारे में बात करती है | बच्चों के बुखार होने पर परेशान हो उनकी राय पूछती है | पति के साथ देखे नाटक के बारे में विवरण उसे देती है | दो पेंट, तीन साड़ियों और दो जरीवाली साड़ियों को देने पर एक ढक्कनदार स्टील का डब्बा व चम्मच लिया वो बताया, और उसने एक गिलास भी साथ में मांगा वह बदमाश बिलकुल ही देने से मना कर गया, ऐसा कह कर अपना दुखड़ा भी सुनाती है । वसंती को देख उन्हें मन में डरने या घबराने की जरूरत नहीं | वसंती जो रामेशन की पत्नी है, इसलिए वह अपनी बेटी को उसके स्थान पर रखकर देखने की पेरुंदेवी की काल्पनिक इच्छा की पूर्ति होती है| रामेशन की दूसरी शादी कराने की पेरुंदेवी ने ही कोशिश की थी| दामाद के होने से पहले वह पेरुंदेवी के भाई का बेटा अर्थात भतीजा था | जो भी दुर्भाग्य पूर्ण घटना घटी उसके कारण उसकी सहानुभूति का झुकाव धीरे-धीरे उसकी ओर हुआ जो स्वाभाविक ही था । रक्त के संबंध के साथ रिश्ते का संबंध भी तो था|
सब लोग उठकर पिछवाड़े आ गये| वहाँ खुली जगह में सब्जियों के अलावा फूलों के पौधे भी लगे हुए थे| सेम की फली, करेला, लौकी, कुमडा इनके बेल फैले थे | नीचे पालक, मेथी, विभिन्न सब्जियों के पौधे लगे हुए थे | साथ साथ गीता ने वर्णन किया कैसे गंगा का पानी में दीपों के जगमगाते प्रकाश में झिलमिला रहा था । मोटे-मोटे मोगरे और लाल-लाल कनेर दिखाई दे रहे थे | किनारे किनारे चमेली की बेल और आदमी की ऊंचाई तक का मेहँदी के झाड़ जो बाउंडरी का काम कर रहें थे| बीच में पत्ते लगाकर सजा दिया हो जैसे | इस सबसे थोड़ी दूर पर एक कुआं, उसमें सीढियाँ बनी हुई थी| उसके पास ही सरनाथन थे|
अचानक पेरुंदेवी को गुस्सा आया | ये क्यों उसके जाने के बाद से अपने आप को इस तरह परेशान कर भावनाओं में डूब कर दुखी रहते हैं, वह जो शून्य में फटी फटी आँखों से देखती रहती थी इसका कारण क्या यही थे क्या ? ऐसा तो नहीं जो वह सपना देखती थी उसके चले जाने के बाद ये देखने लगे ? या फिर उसके साथ रहते हुए ही ये ऐसे हो गए ?
“मेरे लिए वह लड़की नहीं थी क्या? क्या मुझे दुख नहीं हुआ ? इन्ही को ज्यादा उससे स्नेह था ऐसा दिखाने के लिए ऐसा करना चाहिए क्या ? उसके जाने के समय भी आवेश में आकर इन्होंने कई बेसर-पैर की बातें बोली थीं | जैसे इन लोगों को संसार की कोई चिंता ही नहीं | ये सब उच्च स्तर के हैं और हम निम्न स्तर के हैं क्या ?
‘मान लिया मैं निम्न स्तर की हूँ जड़ बुद्धी हूँ, तो क्या ? मैं इस दुनिया की हूँ ना | मेरे जैसे लोग दुनियादारी की जरूरतों को समझकर लोगों की सहूलियतों का ध्यान रखते हैं इसलिए तो इस तरह के ‘उच्च स्तर’ के लोग आराम से बैठे आकाश में उड़ते रहने की कल्पनाएं करते रहते है | पैर तो सबके जमीन पर ही पडे हैं न| ये धूल मिट्टी ही हमारे लिए सोना है | उसका सपना वह आकाश नहीं है, इस हथेली में है | वह भी एक मानव प्राणी ही तो है ? क्या उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं ? उसे भी अपने बराबर प्रेम करने के लिए एक साथी की जरूरत नहीं ? उसकी वह साथी गीता ही है | अच्छी बात है गीता इनके जैसे या जो चली गई उसके जैसे नहीं | गीता मेरे जैसे ही है | वह भी इस पृथ्वी की ही जीव है, पेरूंदेवी सोच रही थी ।
“यहीं इसी आकाश को देख कर योग करने बैठ जाए ऐसा लग रहा है|” गीता बोली |
‘ये भी हाथ से निकल जाएगी लगता है ! पेरुंदेवी ने तड़प कर घबरा कर गीता को देखा | उस समय गीता दो मोटे-मोटे मोगरों को दो पत्तों सहित लेकर बालों में लगा रही थी, पेरुंदेवी ने उसे साफ-सुथरे तरो-ताजा सफेद उज्जवल साड़ी और ब्लाउज में मुसकराती हुई को देखा तो उसे लगा जैसे वह उसे पहली बार देख रहीं हो | कान में मोती के टॉप्स और गर्दन में जो मोतियों की माला उसके मुसकराते ही मोती जैसे दांत गोरी सलोनी गीता उसने सोचा प्यारी बच्ची को मेरी नजर ना लगे ! वह खड़ी हुई तो वह सफेद फुले चंपा जैसे अपार सुंदरी सी लगी |
पेरुंदेवी का दिल तड़पा | वह जो चली गई रात को पसंद करती थी | वह एक काला रहस्य ही थी | उस काले में से ये सफेद ! जैसे आकाश में काले व सफेद दोनों ही दिखते हैं | इस काली रात के बाद ही तो सफेद सबेरा आता है उसी तरह उसमें से ये आई है! इस तरह वह उससे अलग है जैसे बादल से बिजली की चमक निकली हो पर उससे अलग | ये ही बात भगवान मुझे बता रहा है उसके शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी |
थोड़ी देर वहीं बातें करते रहने के बाद वे लोग अंदर आए | सरनाथन कब बगीचे में से अंदर आए ? कोने के कमरे से झूले की आवाज, थाप जैसे आ रहीथी |
“गीता, जाकर अपने ताता (नाना) को खाना खाने बुला” पेरुंदेवी ने कहा |
“तुम्ही बुलाओ न अम्मा !”
“जो कह रही हूँ मानोगी नहीं ? जा जाकर बुला |” उस कमरे में घुसने में एक हिचक उसके लिए स्वाभाविक ही हो गया था !
खाने के समय पेरुंदेवी बड़ी उत्साहित ही रहीं | बगीचे में जो दृश्य उसने देखा वह अब भी उसके हृदय में अमृत घोल रहा था उसके अनुरूप ही गीता का हँस-हँस कर हंसी मज़ाक करना बातें करना उन्हें बहुत सुहाया |
“बद्रीनाथ जाने के रास्ते में एक दिन मैंने भी टमाटर की पच्चड़ी (खट्टा-मीठा) बनाई थी अम्मा |”
“अरे ! खाना भी बनाई तू ?” वसंती बोली |
“फिर ? हम जहां ठहरे थे वहाँ नीचे ही दुकान थी ऊपर खाना बना कर खाने की जगह थी | मैंने एक दिन खाना बनाया |”
“कितने लोग खाने बैठे उसमे से कितने जिंदा उठे ?” रामेशन बोले ।
“सही है सबने मुझसे पूछा, तुमने इतना बेकार खाना कैसे बनाया ?”
“अच्छा ऐसा हुआ !”
“मेरे अप्पा ने मुझे सिखाया मैंने बोला”
“अरी चंट”
दही डालने के पहले चावल परोसा गया | तब गीता के चावल में एक बाल आया उसे उठा कर “इसे किस डिस में शामिल किया अम्मा ?” पेरुंदेवी को देख कर बोली |
“ठीक है री, उसे फेंक कर पत्ते (केले के पत्ते) को देख खाना खा” लाड़ से डाट लगाई |
“वह क्या था गीता ?” आंखे मारकर आगे बोले “केशाचारी ! शवरीराजन ! बोले |
“दोनों नहीं | रोमपुरी शेर” गीता की बोली सुन रामेशन हँसा |
पेरुंदेवी अति प्रसन्न हुई | जाने वाली ऐसी कोई हंसी की बात बोलेगी ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते है ?
“अपने गीता से जो शादी करेगा वह भाग्यशाली होगा |” वसंती बोल कर प्रेम पूर्वक से उसे देखने लगी |
“मैं भी बोलने वाला था अत्तैय | गीता बीस साल की होने वाली है | बी. ए. कर लिया | जल्दी ही अच्छा वर देख शादी कर दूँ, सोचता हूँ | आप क्या कहती हैं ?” कहते हुए रामेशन ने पेरुंदेवी को देखा |
इसमे क्या संदेह है ‘बाबू’ ये नाम ही आया | “समय के अनुसार करनी ही चाहिए अच्छा वर देख |” कहते हुए गीता को देख उसके चेहरे पर आँख गडाई | गीता का चेहरा अचानक क्यों कुम्हला गया ? जो बिना इच्छा के कारण ऐसा हुआ ? उसके भौंहों के बीच सिकुड़न क्यों ? अय्यो भगवान, जो कहानी खत्म हुई उसे फिर शुरू करोगे ?
“क्यों गीता क्या हुआ परेशान सी लग रही हो ? डर व घबराहट के साथ पेरुंदेवी बोली | गीता ने जवाब नहीं दिया | दही चावल में ही अंगुलियों से कुछ लिखने जैसे करती रही | चेहरे पर एक अपार वेदना दिखाई दी |
“गीतू!”
“शादी की बात सुन शरमा रहीं है” वसंती ने सफाई दी |
“इसमें शर्म क्या है ? अबोध बालक तो नहीं है ? अभी मैं अपने मन में चार-पाँच लड़कों के बारे में सोच रहा था | आजकल की लड़कियों के मन में अपने होने वाले पति के बारे में कुछ कल्पनाएँ होती हैं | मैं पहले गीता से पूछ कर ही आगे बढ़ूँगा | क्यों गीता तुम्हें किस तरह का पति चाहिए ? तुम्हें पढ़ा-लिखा चाहिए या समाज में वह खास हो, कैसा सोचती हो ? या कुछ और बता.....”
“अप्पा !”
वह शब्द उच्च स्तर पर न उठा | फिर भी पेरुंदेवी हिल गई | उस आवाज में अपना विरोध करने की चेतावनी उसके समझ में नहीं आती क्या ?
गीता उठ कर खड़ी हो रही थी | खाना थोड़ा बाकी था |
“ये बातें........ ये बातें मुझे बहुत तकलीफ दे रहीं हैं | मैं जा रही हूँ |” वह जल्दी से उठ कर चली गई |
ये सब देख रहे लोगों की निगाहें बदली नहीं |
अभी तक मौन रहें सारनाथन अचानक हँसने लगे |
“शाबाश गीता ! सब लोग उस लड़की की बात को माने क्या ? शादी ! हाँ....हाँ.......हाँ.......” क्या हंसी ऐसी, अंदर के सभी पर्दों को फाड़ कर बाहर आने जैसी आवाज !
पेरुंदेवी और रामेशन दोनों ने उनके आघातों को नफरत से देखा |
पेरुंदेवी का गुस्सा उमड़ा व एक क्षण में ही दुख ने उसे घेर लिया | शरीर व दिल दोनों ही तड़फड़ाने लगे | क्या हो गया है इन्हें ! ये किस पाताल लोक में उसके जीवन का चक्र घूम रहा है, बार-बार गड्ढे में फँस जाता है ! उसका ही अनुसरण कर रही है ये भी ? गीता के मुख पर ये विद्रोह, ये नफरत..... शादी की बात ही सुनना पसंद न कर उठ कर चले जाना इसका क्या अर्थ है ?
यात्रा तो एक महीने पहले ही हुआ | उससे पहले गीता में कोई बदलाव नहीं दिखा क्या ? इसके पहले वह शांत हो चुपचाप बैठती थी तब सोचा था कुछ नहीं है सोच कर छोड़ दिया था तो भी – अब इस क्षण तो इसका अर्थ दूसरा ही नजर आ रहा है | ऐसा सोच पेरुंदेवी के दिल में भयंकर तूफान उठने लगा | जो चली गई उसके समान ही ये भी अंधेरा, एकांत आदि में डूब रही है क्या ? वह न समझ आने वाला दुख जैसा ही इसका भी अंत है क्या ? ये उसी की परछाई नहीं क्या ?
‘हे भगवान, इसे तुम ही बुला रहें हो तो भी नहीं ! मैं इसे तुम्हें नहीं दूँगी | मेरे मन को मत तोड़ो | इसे इस संसार के लिए छोड़ दो | एक बार प्रार्थना कर धोखा खा गई, पर अब यह मुझे मिलनी चाहिए | इसे शर्मीली बहू, प्यार भरी पत्नी, भरे-पूरे परिवार की मुखिया और प्रेम बरसने वाली जैसे इसे देखना चाहती हूँ | इसके पैर मिट्टी में जाए तो मिट्टी को उससे चिपकने दो | मेरा जो ताजा जख्म है उसे इसके द्वारा भरने दो | इसे मत उठा लेना, इसे छोड़ दें, छोड़ दें…….! पेरुंदेवी हृदय से प्रार्थना कर भगवान से याचना करने लगी |
तड़फड़ाते मन से आँखों में नफरत व दीवानी दृष्टि और आँसू लिए चेहरा, बंद दरवाजा, प्रार्थना.......
‘हे प्रभु, छोड़ दे, मेरे हृदय को एक बार फिर से मत तोड़, मैं सह नहीं पाऊँगी, अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं है.....’ बड़बड़ाते हुए पेरूँदेवी का हृदय टूटने लगा | उसे ऐसा लगा हृदय से पिघलकर पानी बह रहा है | पानी ....... कहाँ जा रहा है ? उसका....... कोई आकार है..... ऐसा लग रहा है मेरे अंदर पानी छोटी सी जगह से इकट्ठा हो गया | कुएँ जैसे |
अगले कुछ दिनों वह गीता के कार्य-कलापों को घबराहट के साथ ध्यान पूर्वक देख रही थी |
इससे पहले तो भगवान के कमरे में इतनी देर वह नहीं रहती थी ? इतनी प्रार्थना किस लिए व क्या प्रार्थना करती है ? क्या उसकी छाया के बिना ही ये फूल भी भगवान को अर्पित हो जाएगा ? पेरुंदेवी घबराई व अन्दर ही अन्दर हिल गई | एक तरफ सफेद दूसरी तरफ काला दोनों तरफ के जीवन उसे धोखा देकर चले जाएगें क्या ?
गीता बहुत देर तक किसी सोच में डूबी रहती थी | आँखों में वेदना सी भरी कई बार रहती थी | रात में कई बार परेशान होकर कमरे के बाहर घूमती रहती है | क्या करे उसके समझ में नहीं आता और परेशान हो बार-बार दौड़-दौड़ कर पूजा के कमरे में जाती और बद्रीनारायण की तस्वीर के सामने सिर झुकाती, मुरझाई सी रहती|
उस दिन भी वह नहा धोकर पूजा घर में घंटों आँखें बंद कर प्रार्थना में लीन थी, फिर जैसे कोई जरूरी फैसला कर पेरुंदेवी को पूजा के कमरे में बुलाया |
“अम्मा, थोड़ा यहाँ आकर बैठो ना |”
उसके कहते ही वह आ कर बैठ गई | उसके पैर जैसे अशक्त हो गए थे |
गीता तुरंत न बोली मौन रह चिंतन कर रही थी | वह उसे कैसे बताए | पेटी में से एक-एक मोती निकालकर देख कर फिर उसी में रखते जैसे अपने शब्दों को निकाल-निकाल कर परख रही हो जैसे ‘ये पूरा नहीं है, ‘ये ठीक नहीं, ’ ‘ये ज्यादा हो जाएगा, ’ ‘ये उनको समझा नहीं पाएगा’, ‘ये उनको दुखी कर देगा’ ऐसा सोच कुछ नहीं कह पाई |
उनसे कैसे कहे एसा सोचते हुए उसकी आँखें बंद होती कभी आँखें खुल कर चमकने लगती | ये क्या प्यारी भगवान को ही समर्पित हो जाएगी ? ये क्या मीरा है ? कोदा तपस्विनी उसका हृदय काँपा और क्या ‘कन्या’ ही रहेगी | बुजुर्ग औरत कांपी व अपने होठों को काटने लगी उसका पूरा शरीर पसीने से भीग गया, वह सिहर गई |
अंत में एक तरफ गीता ने अपने मन को अपने भावों को शब्दों का, कपडों जैसे उसने जामा पहनाया, उसे सजाया, संवारा, उसे तैयार किया | गर्दन को सीधी कर, बिना मुसकराहट के गंभीरता से बोली “अम्मा, मैं तुमसे एक बहुत ही जरूरी और खास बात बोलने वाली हूँ |”
अचानक पेरुंदेवी का सर चकराने लगा | उसका पूरा शरीर ही बेकार एक टूटे खाली बर्तन जैसे शक्तिविहीन हो गया | उसके सूखे मुंह में जीभ को भी हिलाना मुश्किल हो गया | उसे एक अजीब से डर ने कमजोर कर दिया उसे उसने महसूस किया | नहीं हो सकता, उससे गीता की बातों को नहीं सुना जाएगा | इस समय इसके पास उसे सुनने लायक साहस उसमें नहीं | बाद में देखेंगे, इस समय नहीं | उसने उसके कहने वाली बात के बारे में अनुमान लगा लिया तो भी उसकी बातों को सुनने के लिए मन तैयार नहीं था वह संकोच से भर गई| शब्दों में जब तक न सुने तो सच नहीं होता | उस समय तक तो एक भरोसा होता है ना........
“गीता, अभी मुझे कुछ काम है | आज एकादशी है ना, तुम्हारे ताता (नाना) को एक समय ही खाना है अत: इडली बनानी है | रसोइया भी ठीक से नहीं आ रहे है | तुम्हें जो बोलना है उसे फिर सुनेगी......”
अशक्त हुए पैरो को शक्ति दे वह जल्दी से उठ कर बाहर चली गई |
उसे पता है | गीता बोलेगी, “मैं शादी नहीं करूंगी |” ऐसा |
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