चाँद प्रियंका गुप्ता द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चाँद

चाँद

प्रियंका गुप्ता

रात जाने कितनी जा चुकी थी पर नींद थी कि जैसे उसकी आँखों का रास्ता ही भूल गई थी। कुछ पल को ही सही, एक गहरी नींद लेने की कितनी कोशिश कर रहा था नरेश...। प्यास से चटकते गले को भी उसने इसी लिए कुछ देर नज़र‍अंदाज़ किया कि कहीं उठने पर उसकी सोने की रही-सही आशा भी न चली जाए। पर जब प्यास बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उठना ही पड़ा। सन्नाटा अपने सारे शोर के साथ चारो ओर पसरा हुआ था। मधु और तीनो बच्चे गहरी नींद की आगोश में थे। छोटी की तो रह-रह कर नाक भी बज रही थी। उनके चेहरे कितने मासूम लगते हैं नींद में, इस बात का अहसास उसे पहली बार हुआ। पानी पीकर उसने मोबाइल जला कर टाइम देखा, साढ़े तीन बज रहे थे| अब सोने से क्या फायदा...? जब तक नींद आएगी, तब तक तो उठने का समय हो जाएगा...| सो वापस बिस्तर पर जाने की बजाए वह खिड़की पर आकर खड़ा हो गया| खिड़की से ठण्डी हवा भी जैसे अलसाई सी आ रही थी...। उसने सामने मुस्कराते चाँद की ओर देखा, बिल्कुल टिन्नी सा था...। कल तो पूरा ही गायब हो जाएगा, फिर भी दिलेरी देखो, बेख़ौफ़ मुस्करा रहा था।

अब जब नींद से वो परे हट गया था, छोटी के शब्द फिर उसके कानों में फुसफुसाने लगे थे,"अब की बार ढेर सारे पटाखे लाना पापा...और मेरा एक फ़्रॉक भी..." और उसके भोले से चेहरे पर उगा एक सवाल...लाओगे न...? उसके सवाल पर तो वह सिर्फ़ मुस्करा दिया था, पर अपने अन्दर उग रहे सवालों का वह क्या करे...? और सामानों की लिस्ट पकड़ाते समय मधु के चेहरे पर जो चस्पा था...उनके जवाब तो उसे खुद भी नहीं मिल रहे थे...|

उसने कुर्ते की जेब से निकाल कर लिस्ट एक बार फिर पढ़ने की कोशिश की, पर खिड़की के पास भी उसके मन जितना ही अँधेरा था, सो वह दूसरे कमरे में चला गया| त्योहार के सभी सामानों की लिस्ट बना दी थी मधु ने...लाई, लावा, गट्टा, चीनी का खिलौना, लायची दाना, गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति, माला, जनेऊ, पान, सुपारी, लौंग...पांच तरह के फल, पूजा के लिए लड्डू...क्या नहीं था उस लिस्ट में...| वैसे भी मधु बड़े नेम-धरम वाली थी...| पूजा तो इतने लगन से करती थी कि बस...| यह तो वही था जो फटाफट हाथ-वाथ जोड़ कर ही भक्ति-भाव को विराम दे देता था...| इसी एक बात पर मधु तुनक जाती थी, सो शांति बनाए रखने के लिए वह जैसा बताती थी, पूजा करते समय वह वैसा ही करता जाता था| इस लिस्ट के आलावा दबी ज़बान से मधु ने उसे सूचित भी कर दिया था,"सुनिए, अगर हो पाएगा तो दो किलो आटा भी ले लीजिएगा और हाँ, इसमें रिफ़ाइण्ड लिखना भूल गई, वो सबसे ज़रूरी है...। अभी देखा, चौथाई डिब्बा ही बचा है...और थोडा बेसन और मैदा ले लेते तो...बच्चों के लिए लड्डू और मठरी बना देती...| तीन-चार दिन की छुट्टी है न...कुछ खाने को तो चाहिए ही न उन्हें...|”

प्रत्युत्तर में वह सिर्फ `हूं’ कर के रह गया था| मधु की होशियारी वह समझ गया था, रात के समय वह गुस्सा होने से बचता है, ताकि नींद में खलल न पड़े...इसी लिए मधु ने उसके खाना खाने के बाद ही उसे यह कह कर लिस्ट पकड़ा दी कि सुबह भाग-दौड में वह भूल जाएगी...| वैसे भी इस समय वह गुस्सा कर ही नहीं सकता...| त्यौहार तो मनाना ही है न...और त्योहार मनेगा तो सामान भी आएगा ही...|

उसने खुद को समझाने के लिए यह सोच तो लिया पर अक्सर इन्हीं सब कारणों से वह घर से छुट्टी के दिन भी गायब हो जाता है। कोई दिन ऐसा नहीं जिस दिन पैसे की तंगी उसका मुँह न चिढ़ाती हो...| मँहगाई थी कि सुरसा का मुँह...फैलना बन्द ही नहीं करती...। ऐसे में अपनी जगह पर जस-की-तस अटकी तनख़्वाह घर-गृहस्थी के खर्चों के अथाह समुद्र में कुछ बूँदें ही तो साबित होती थी...। मधु का परेशानियों से कुम्हलाया चेहरा, बच्चों की फ़रमाइशें, उनकी इस चिल्ल-पों से कुढ़ने के बावजूद उसका अपने को ज़ब्त कर उन्हें झूठे आश्वासन देना...कितना बोझिल होता है यह सब, कोई उसके दिल से पूछे...। कहने वाले तो बड़े आराम से कह देते हैं, भैय्या, घर जैसा सकून और कहाँ, पर उसे तो लगता था, अगर मौका मिले तो वह घर छोड़ कर कहीं भी रह सकता है...। अगर कभी किसी से अपने दिल का हाल कहना भी चाहा तो सामने वाले ने छूटते ही उसे ही दोष दे डाला,"आज के समय में किसी डॉक्टर ने कहा था कि तीन बच्चे पैदा करो...लड़के की इतनी भी क्या चाह भैय्या...? अरे, अगर समझो और अपने आस-पास आँखें खोल कर देखना चाहो तो बेटियाँ ही माँ-बाप के नाम का परचम फैला रही हैं...।अब इस ज़माने में एक बच्चा ठीक से नहीं पाला जाता, तुम भैय्ये तीन बच्चों के साथ मन का चैन ढूँढ रहे...।"

बोलने वाले को अक्सर यह नहीं मालूम होता कि उसने तीन नहीं, चार बच्चे पैदा किए थे। कई बार वह सोचता है, अच्छा हुआ जो नीलम पाँच महीने का कष्ट देकर ही मर गई, वरना आज तीन में रो रहा, चार में तो पागलखाने ही भर्ती होना पड़ता...| सोचने को तो सोच लेता है, फिर घंटों खुद को ही धिक्कारता रहता है...ऐसे भी कोई भला अपने बच्चे की मौत पर राहत महसूस करता है क्या...? उसे आश्चर्य भी होता, कहीं उसके अंदर का राक्षस उसके अंदर के इंसान से ज्यादा ताकतवर तो नहीं...?

ऐसा नहीं था कि वह नहीं चाहता था कि उसके बीवी-बच्चे भी दूसरों की तरह सुख से रह सकें...वह कोशिश भी तो करता था| कभी ओवरटाइम, कभी बस की बजाए ऑफिस आने-जाने के लिए किसी से लिफ्ट लेना...किसी को चाय-नाश्ता तो वह कराता ही नहीं था, तभी ऑफिस में सब उसे `महाकंजूस-मक्खीचूस’ के नाम से भी छेड़ते हैं| पर अपनी स्थिति समझ वह कभी इन बातों से चिढ़ता या झेंपता नहीं...|

उसे लग रहा था कि अब की दीवाली में हालात फिछली बार से भी ज़्यादा खराब होने वाले हैं। इस बार बॉस ने साफ़ कह दिया था, कम्पनी मन्दी के दौर से उबर रही है, सो ‘नो दीवाली बोनस...’। दो-चार लोगों ने दबी ज़बान से इस कटौती का विरोध करना चाहा तो बॉस का सख़्त लहज़ा सुन चुप रह गए,"आप लोग शुक्र मनाइये कि और कम्पनियों की तरह मन्दी के चलते किसी की छंटनी नहीं की गई...। वरना आज आप में से कई लोग बोनस के लिए नहीं, दो निवालों के लिए रो रहे होते...। हाँ, आप सब की मिठाई आप लोगो को ज़रूर मिल जाएगी हमेशा की तरह...|”

बॉस के इस आश्वासन के बाद दीवाली की मिठाई के इंतजाम को लेकर तो वह निश्चिन्त हो गया, पर अब उसे ही यह हिसाब लगाना था कि बोनस न मिलने से जो कमी पड़ेगी, उसे किन चीजों में कटौती कर के पूरा किया जा सकता है| कभी-कभी उसे कोफ़्त होने लगती थी...इतने बड़े ऑफिस में वही क्यों इतना परेशानहाल है...? किसी का परिवार छोटा था तो किसी की बीवी भी कमाती थी...और नहीं तो कितनों को तो अब भी अपने माँ-बाप का सहारा था...पर वह...? अब तो माँ-पिताजी रहे नहीं, पर जब तक थे भी तो कौन सा सहारा थे...? उलटे उन्हीं के लिए उसे कुछ-न-कुछ भेजते रहना पड़ता था|

ऐसा नहीं था कि वह माँ-पिताजी के लिए कुछ करना नहीं चाहता था, पर जब बात अपने बीवी-बच्चों और माँ-बाप के बीच चुनाव की आती थी, तो उसे अपने बीवी-बच्चों के प्रति अपना कर्तव्य ज्यादा ज़रूरी लगने लगता था| माँ-पिताजी ने कभी इस बात के लिए उसे दोषी नहीं माना, पर उसे फिर भी कई बार बहुत अपराध-बोध महसूस होता था| पर पिताजी की पेंशन उन दोनों के लिए ज़रूरत भर को काफी होती है, वो ऐसी ही बातें सोच अपने मन को तसल्ली दे लेता था| माँ-पिताजी शायद उसकी अपराध-भावना या बोझ को ज्यादा नहीं बढ़ाना चाहते थे, तभी तो उस से मिल कर गाँव लौटते समय दोनो एक-साथ ही बस-दुर्घटना में इस दुनिया से विदा हो गए...| पर इस झटके ने उसके अन्दर की ग्लानि और बढ़ा दी थी...। अक्सर एकान्त -पलों में वह सोचता, भगवान ने उसे उसके स्वार्थ का दण्ड दिया है, उन दोनो को यूँ अचानक उससे छीन कर...। वह कभी कुछ कर ही न पाया उनके लिए...और अब कभी कर भी नहीं पाएगा...।

इसी लिए तो अब उसका पूरा ध्यान मधु और बच्चों की तरफ़ है...कम-से-कम ऐसी ग्लानि कभी इन लोगों को लेकर तो न हो...। पर घूम-फिर कर वही एक सवाल...कहाँ से करेगा सब इन्तज़ाम...? कल ऑफिस हाफ-डे तक ही खुला है...सबको मिठाई के साथ ही उनका ओवरटाइम का पेमेंट भी किया जाएगा...| उसने हिसाब लगा कर देख लिया, ओवरटाइम के पैसे में तो पूजा का ही सामान निपट पाएगा...अभी तो सिलेंडर भी आना है...| कई दिन हो गए बुक करे...आज ही कल में आता होगा...उसका खर्चा...? फिर बच्चों के पटाखे...। हर बार जब ज़रा से पटाखे लाता है तो वो तो मानो झट से ख़त्म हो जाते हैं...। बेचारे बच्चे...हर साल कितनी हसरत से आसपास छूटते पटाखों को देखते हैं...। उस से जब उनका यह मायूस चेहरा देखा नहीं जाता तो वह `दोस्तों से मिल कर आता हूँ...’ कहता हुआ घर से ही निकल जाता है और फिर देर रात गए तब लौटता है, जब उसके उदास बच्चे सो चुके होते हैं...| उसे पता है, मधु कितना फुसला कर उन्हें समझाती है, “अरे, पटाखों का तो बस मज़ा ही लेना होता है न...फिर क्या फर्क पड़ता है कि उसे तुम छुटाओ या कोई और...? वैसे भी अभी तुम लोग बहुत छोटे हो...ऐसे खतरनाक पटाखे-वटाखे से खेलने कि उम्र नहीं है अभी तुम लोगों की...| जब पापा जितने बड़े हो जाना, तब खूब बड़े वाले पटाखे चलाना...ठीक...?”

बच्चे तो आखिर बच्चे ही थे न...मान ही जाते...| वह तो भाग लेता है, पर मधु कहाँ जाती...? वह जानता है, मधु कितनी मुश्किल से यह सब सहन करती होगी...। आखिर माँ जो थी। ख़ैर! कल का इंतज़ाम कल देख लेगा...अभी दो पल कमर तो सीधी कर ले...। यही सोच कर वह वापस पलंग पर आकर लेटा तो जाने कब आँख झपक गई जो सीधी मधु के झकझोर कर जगाने पर ही खुली। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। सात बज रहे थे और उसे आठ बजे तक ऑफिस पहुंचना था| सामने उसके पायताने उसके तीनो बच्चे बड़ी शान्ति से बैठे थे। उन्हें यूँ लाइन से बैठे देख अचानक उसे गाँधी जी के तीन बन्दर याद आ गए और बरबस ही उसकी हँसी फूट पड़ी। बच्चे उसके हँसने का कारण तो नहीं समझे पर उसकी हँसी ने उनके चेहरे पर जो चमक पैदा की थी, वह उसे गुनगुनी धूप-सी भिगो गई...। उसी धूप में नहाया वह जल्दी-जल्दी तैयार हो ऑफ़िस निकल गया।

शाम को जैसे ही सब सामान लेकर वह घर पहुँचा, मधु और तीनो बच्चे उसे घेर कर बैठ गए। वह एक-एक सामान निकाल कर देता गया और मधु संतुष्टि से गर्दन हिलाती गई। वह बहुत ध्यान से मधु के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था, सामानों की कम मात्रा कहीं उसे खल तो नहीं रही, पर लाख प्रयत्न करके भी उसे ऐसा कुछ नहीं मिला| वह तो अपनी लिस्ट के सभी सामानों को पाकर ही खुश थी| उसे थोडा चैन मिला, चलो...पत्नी खुश तो जग खुश...| इस बीच बच्चे ज़रूर शोरगुल मचाए थे...| पापा बहुत ढेर सारा तो नहीं, पर पिछली बार से ज्यादा ही पटाखा जो लाए थे| मधु ने ऑफ़िस से लाई मिठाई सम्हाल कर फ़्रिज में रख दी। शरीफ़ा देख बच्चों के चेहरे पर जो लालच उपजा था, उसे मधु ताड़ गई थी...आखिर तीनो को यह फल इतना पसन्द जो था। यही कारण था कि दीवाली पर शरीफ़ा लाना वह कभी नहीं भूलता था। चाहे कितना ही मँहगा क्यों न मिले, तीनो के हिस्से का एक-एक शरीफ़ा तो वह ज़रूर लाता था, चाहे ऑफ़िस की अपनी चाय में उसे दो-चार दिन की कटौती ही क्यों न करनी पड़े...।

"कोई भी किसी खाने की चीज़ को पूजा से पहले हाथ नहीं लगाएगा...पूजा हो जाए, तो प्रसाद में सब चीज़ खाने को मिलेगी...।" मधु ने उन्हें नकली डाँट लगाते हुए धमकाया तो बच्चे ‘होऽऽऽ’ करते हुए खुशी से कूदने लगे थे।

इस आपाधापी में छोटी अपनी नई फ़्रॉक की बात शायद भूल ही गई थी। उसने राहत की साँस ली। चाहता तो वह भी था कि इस दीवाली वह मधु और अपने न सही, पर बच्चों के नए कपड़े तो ला ही दे...। पर सिर पर सर्दी आ रही थी...और बच्चों के स्कूल की विंटर-यूनिफ़ॉर्म लाना ज़्यादा ज़रूरी था। अगर नए कपड़े आते तो यूनिफ़ॉर्म का इन्तज़ाम कैसे करता...?

पूजा का वक़्त हो रहा था। मधु कैसे इतनी फुर्ती से सारा काम निपटा लेती है, वह कभी समझ नहीं पाता था। थोड़ा आराम करने के बाद जब तक वह फ़्रेश होकर साफ़-सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहन कर बाहर निकला, न केवल पूजा की तैयारी हो चुकी थी, बल्कि मधु और बच्चे भी बिल्कुल तैयार थे। सादगी से तैयार मधु बहुत अच्छी लग रही थी। बड़े करीने से, साफ-सुथरे ढंग से तैयार बच्चे भी कितने प्यारे लग रहे थे| उसे इतने प्यार से अपनी ओर देखता पा मधु लजा गई|

पूजा पूरे नियम से निपटा सबको प्रसाद दे मधु ने फटाफट उन सबको खाना खाने बैठा दिया| बच्चे ज़रूर पहले पटाखा छुड़ाना चाह रहे थे, पर मधु नहीं मानी| ‘पहले पेट पूजा, फिर कोई काम दूजा...’ कह उसने सब को चुप करा दिया। एक-एक शरीफ़ा पाकर बच्चे एक कोने में चले गए| मुँह से एक-एक बीज़ निकाल अपने सामने इकठ्ठा करते देख उसे उत्सुकता हुई| ऐसे कायदे से तो वे कभी बीज एक जगह नहीं रखते| आखिर रहस्य सबसे वाचाल छोटी ने ही खोला, “हम कल सुबह ये बीज खाकर खूब पानी पी लेंगे...| तब पता है, हमारे पेट में इसका पेड़ निकलेगा और फिर अगली दीवाली हमारे पास खाने के लिए खूब ढेर सारे ये वाले फल होंगे ...|”

उनका प्लान सुन सहसा उमड़ आए आँसुओं को पोंछने के लिए वह वहाँ से उठ कर चल दिया। उसे इतना भी ध्यान नहीं रहा कि ऐसा कोई भी काम करने से वह बच्चों को मना कर सके। मधु ने भी तब तक खाना परोस सबको आवाज़ लगा दी थी। थोड़ा-थोड़ा ही सही, पर मधु ने उन सबकी पसन्द का कोई न कोई पकवान बनाया ज़रूर था। आज उसने भी उन सब के साथ ही अपनी थाली परोसी थी, वरना रोज़ तो वह बच्चों और उसे खिलाने के बाद ही खाती है। कहने को तो वह कहती है कि पति से पहले खाने से उसका परलोक बिगड़ता है, पर सच्चाई वह अच्छी तरह समझता था। इसी लिए शक़ होने पर वह जबरिया कई बार उसे अपनी थाली से ही खिला देता था।

बच्चे हर एक पकवान को देख कर खुशी से किलक रहे थे। अपने बनाए खाने की यूँ तारीफ़ होते देख मधु खुश थी, तो उन सबकी खुशी में वह एक असीम आनन्द का अनुभव कर रहा था| इन सबके बीच अपने अंदर उठ रहे झंझावत को उसने बड़ी कोशिश कर दबा दिया था, जो उसे बार-बार याद दिला रहे थे कि आज बॉस की चिरौरी कर लिए हुए एडवांस को अगले महीने जब तनख्वाह से कटवाने का वक्त आएगा, तब क्या होगा...?

खाना खत्म कर पटाखा छुड़ाने के लिए बच्चे शोर मचाते बाहर भागे, तो जैसे वह तन्द्रा से जागा| मधु ने भी जब इशारे से पूछा, तो मुस्करा कर उसने ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया| मधु भी बिना कुछ बोले सब समेटने रसोई की ओर चल दी तो हाथ धोकर वह जाकर खिड़की पर खड़ा हो गया। जो होगा, देखा जाएगा...| इस दुनिया में वह कोई अकेला तो नहीं, जिसे तंगी में दिन गुज़ारना पड रहा हो...| कईयों की स्थिति तो उस से भी खराब है...| कल के लिए वह आज के सुख खो दे, यह उसे मंज़ूर नहीं था| थोड़ी ही सही, पर बच्चों की खुशी में वह भी शामिल होना चाहता था। अचानक वह चौंक गया। बच्चों के पास शायद फुलझड़ी का आखिरी डिब्बा बचा था...। उस डिब्बे की हर फुलझड़ी छुड़ाने के लिए तीनों के सम्मिलित हाथ देख सहसा उसे लगा, कौन कहता है कि दीवाली पर अमावस्या होती है,,,? कुछ पल को ही सही,पर पूर्णिमा की आभा बिखेरता चाँद तो उसकी आँखों के सामने ही खिल रहा था...|

(प्रियंका गुप्ता)