कलर-ब्लाइण्ड
प्रियंका गुप्ता
वह कलर-ब्लाइण्ड था। आम भाषा में कहा जाए तो वह रंगों को ठीक से पहचान नहीं पाता था...खास तौर से लाल और हरे में अन्तर करना उसके लिए मुश्किल था...लगभग नामुमकिन...। उसे तो सावन का अन्धा भी नहीं कहा जा सकता था, जिसे सब कुछ हरा दिखता है...। यह रंगों का अन्धापन उसे विरासत में मिला था। उसके पिता लाल और हरे को नहीं पहचान पाते थे, उसके दादा तो लाल-हरे के साथ-साथ पीले और नीले को भी नहीं पहचानते थे...। सो जब कोई इन रंगों की बात करता तो उसे अजीब लगता था...। कई बार उसे कोफ़्त होती थी, पर माँ जब तक ज़िन्दा रही, उसे यही कह कर सान्त्वना देती कि वह सिर्फ़ रंगों के लिए अन्धा है, कहीं पूरी दुनिया ही उसके लिए अन्धेरी होती तो वह क्या करता...?
उसे अब भी वह दिन अच्छी तरह याद है...जब स्कूल में रंगों की पहचान कराई जा रही थी। किसी भी लाल या हरे रंग की चीज़ पर आकर वह अटक जाता था। मास्साब जब कई कोशिश कर के हार गए तो उसे शैतानी करता समझ तीन-चार झापड़ रसीद कर दिए थे...। वह रोता-बिसूरता अपनी ग़लती समझने की कोशिश करता रहा था, पर फिर भी कुछ समझ नहीं आया था। कई दिन बीतने पर भी जब उसमें सुधार नहीं आया था तो हार कर मास्साब ने उसके पिता को तलब किया था। पिता तो खुद ही उस तकलीफ़ से गुज़र चुके थे, सो किसी तरह उन्होंने मास्साब को समझा ही दिया कि प्रॉब्लम उसमें नहीं, उसकी आँखों...और कुछ उसकी किस्मत में है, जो वह कलर-ब्लाइण्ड होने का खानदानी शाप झेल रहा।
स्कूल में यह बात फैलने पर बदमाश बच्चे उसे महाभारत की स्टाइल में चिढ़ाने लगे थे...अन्धे का बेटा अन्धा...। पहले तो वह चिढ़ कर उन्हें मारने दौड़ा करता, पर फिर उसने सब कुछ अनसुना-अनदेखा करना शुरू कर दिया...। धीरे-धीरे उसे छेड़ने में सब की रुचि भी ख़त्म होने लगी और अब तो भूले-बिसरे ही कोई याद करता है कि वह रंगों के लिए अन्धा है...। कई बार तो उसे खुद भी याद नहीं रहता कि ऐसा कुछ है भी...।
समय के साथ सब सुचारू चलने लगा था। पहले उसके स्कूल की पढ़ाई पूरी हुई, फिर कॉलेज की पढ़ाई...। उसे औरों की तरह इंजीनियर-डॉक्टर बनने का कोई शौक नहीं था। माँ ने तो कभी चूल्हे-चौके और आस-पड़ोस के आगे की दुनिया देखी ही नहीं थी, सो पढ़ाई या कैरियर को लेकर उनका कभी कोई विशेष आग्रह रहा भी नहीं...। रहे पिता, तो वे शुरू से बच्चों पर अपने सपने थोपने के सख़्त खिलाफ़ थे। उनका मानना था कि सबकी अपनी आइडेण्टिटी और पर्सनैल्टी होती है, सो हर किसी को अपनी राह चुनने की आज़ादी मिलनी ही चाहिए...। उसने भी अपनी राह चुन ली, जो उसे बिल्डिंगों तक ले जाती थी...बिल्डर बन गया वो...। रंगों का कोई झंझट ही नहीं...। ईंट, गारे, सीमेण्ट, सरिया...न तो इनमें रंगों का कोई काम था और न मजदूर-मिस्त्रियों संग...। ज़िन्दगी ढर्रे पर चल रही थी...उसे अपने काम में आनन्द आता था...। पैसा भी खूब था, उसे अपने भविष्य को लेकर कोई चिन्ता नहीं थी...पर पता नहीं क्यों माँ अक्सर बिसूरती,"उमर निकली जा रही है बेटा, शादी कर ले...अब भी देर नहीं हुई...। कल को हम नहीं रहे तो रोटी-पानी के लाले पड़ जाएँगे...। ये सीमेण्ट-चूने से पेट नहीं भरता, गेहूँ के आटे की रोटी पोनी पड़ती है...। बुढ्ढा हो जाएगा तो अकेले पड़ा रहेगा...कोई दवा-दारू देने वाला चाहिए कि नहीं...?"
ऐसे में वह धीरे से माँ को छेड़ देता,"दवा देने के लिए तो डॉक्टर हैं माँ...और रही बात दारू की...तो उसकी चिन्ता तो बिल्कुल न करो...मेरे ऑफ़िस के बगल में ही दुकान है उसकी..जब चाहो, जितनी चाहो...मँगा दूँगा...।"
उसकी छेड़खानी से चिढ़ माँ मुँह फुला कर बैठ जाती और फिर कई दिनों तक उस की शादी का कोई जिक्र नहीं करती। पर उसकी यह चाल बहुत दिनों तक कामयाब नहीं हुई । आखिरकार एक दिन माँ ने अपना फ़ैसला सुना ही दिया,"मैने लड़की पसन्द कर ली है...तुझे देखनी हो तो देख लीजो, वरना मुहूर्त के समय पहुँच कर फेरा लगा लीजो...।"
माँ के इस हिटलरी फ़रमान के आगे आखिर उसे झुकना ही पड़ा। जाकर चुपचाप लड़की देख कर ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी। वैसे भी उसे इन सब दुनियादारी से न तो कोई मतलब था...और न ही उसे समझ थी...। आखिर पड़ा तो वह अपने पिता पर ही था...। उन्होंने भी कभी घर-गृहस्थी के चक्कर में खुद को नहीं फँसाया। माँ ने जैसा बताया, वैसा कर दिया...। अनपढ़ होने के बावजूद माँ दुनियादारी के ज्ञान में बहुत आगे थी। कई बार पिता कहते भी,"अगर तुम न होती तो लोग तो मुझे लूट खाते..." और माँ पहले तो अपनी तारीफ़ सुन कर खुश होती, फिर माथा पकड़ बैठ जाती,"यही तो चिन्ता है मुझे तुम बाप-बेटे की...मैं न रही तो तुम दोनो को ही दुनिया लूट खाएगी...।"
‘मैं न रही तो...’ कहते-कहते एक दिन वास्तव में माँ नहीं रही थी। जाते-जाते वह अपने सब से बड़े सपने को पूरा कर गई थी, उसकी शादी करवा कर...। उसके विवाह ने उन्हें सबसे ज़्यादा चिन्तामुक्त कर दिया था,"चलो...कम-से-कम मुझे अब तुम दोनो की रोटी-पानी की चिन्ता तो नहीं...बहू सब संभाल लेगी...।"
बहू ने वास्तव में आते ही सब सम्हाल लिया था...चूल्हे-चौके से लेकर तिजोरी तक...सब कुछ...। उसकी शादी के बाद माँ ज़्यादा दिनो तक बहू की सेवा का आनन्द नहीं ले सकी और बस एक पोते की आस लिए इस दुनिया से रुख़्सत हो गई। वह तो फिर भी किसी तरह संभल गया था, पर पिता बहुत अकेले पड़ गए थे। माँ हमेशा उनका सम्बल रही थी। घर की बड़ी-से-बड़ी चिन्ताओं से वह उन्हें मुक्त रखती थी और बाहर की छोटी-से-छोटी बातें वह माँ से शेयर कर अपना मन हल्का कर लेते। गाहे-बगाहे वह अपनी व्यवहारिक बुद्धि से उन्हें ज्ञान भी दे देती, तो पिता हँस कर उनके आगे सिर नवा देते थे...जय गुरुदेव...! मान गए आप को...। ऐसे में माँ भी पल्लू मुँह में दबा प्रसन्नता से हँस-हँस कर दोहरी हो जाती, फिर उन्हें नकली गुस्सा दिखाती..."हटो भी...मेरे आगे हाथ जोड़ कर मुझे नरक में ढकेलने का तुम्हारा षड़्यन्त्र खूब समझती हूँ...। जानते हो न, सुहागन मर कर सीधे स्वर्ग जाने वाली हूँ, इसी से जलते हो मुझसे...।"
उन दोनो की इस नोक-झोंक में भागीदार न होते हुए भी वह इसका पूरा आनन्द उठाता। अब सुहागन मर कर माँ वास्तव में स्वर्ग गई या नहीं, वह नहीं जानता, पर हाँ...पिता का अकेलापन उसे उनके लिए नर्क के समान ज़रूर लगता। पिता न कहीं जाना चाहते थे, न किसी से मिलना-जुलना उन्हें रास आ रहा था। माँ के साथ उन्हें छेड़ते हुए जो उनकी पसन्द के सीरियल देख लिया करते थे या बच्चों की तरह उनसे ऐसे में ही समाचार देखने की ज़िद करते हुए रिमोट छीना करते थे, वह तो बिल्कुल ही बन्द था। एक-दो बार उसने पिता के सामने टी.वी चला भी दिया तो वे बिना बोले ही उठ कर चले गए थे। ऐसे में कुछ समझ न आने पर उसने भी ठीक पिता की ही तरह पत्नी की शरण ली थी,"तुम्ही कुछ करो अब तो...मुझसे तो पिता जी की यह हालत देखी नहीं जाती...।"
"ऐसा करो न, उन्हें किसी अच्छे से वृद्ध आश्रम में भेज देते हैं...। वहाँ अपनी उम्र के लोगों के बीच रहेंगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और हमें भी किसी तरह का बन्धन नहीं रहेगा...।"
पत्नी की राय सुनते ही वह बिफ़र उठा था। उसके पिता और ‘बन्धन’...? पत्नी ने भी उसका यह रौद्र रूप पहली बार देखा था, सो घबरा कर चुपचाप वहाँ से हटने में ही अपनी भलाई समझी थी। उसने भी फिर पिता के बारे में फिर कभी पत्नी से जिक्र नहीं किया। वह भी कई दिनो तक कुछ कटी-कटी हई रही। पर समय के साथ वह भी इस बात को भूल-सा गया और पिता भी बहुत हद तक ढर्रे पर आते दिखे थे। कई बार उसने जब बहू के साथ उन्हें हँसते-बोलते देखा, तो राहत महसूस की थी...चलो, माँ के जाने का ग़म कुछ हद तो कम हुआ...।
पिता ने खाली वक़्त काटने का नया फ़ण्डा ढूँढ लिया था। बाज़ार से घर-गृहस्थी का सौदा-सुलफ़ लाने के अलावा अब वे रसोई में भी बहू का हाथ बँटाने की कोशिश करने लगे थे। बहू ने एक-आध बार उन्हें मना भी किया, पर वे ही नहीं माने। एक-दो बार बासी-खराब सब्ज़ी ले आने के कारण मुँह पीछे उसने पत्नी को बड़बड़ाते भी सुना, पर इस सुने को भी वह अनसुना कर गया। हाँलाकि वह जानता था कि रंगों से दुश्मनी के चलते वह या पिता, दोनो ही सब्ज़ी तो अच्छी खरीद कर नहीं ला सकते...। इस लिए इस बार ग़लती पत्नी की नहीं थी...। उसे कई बार उससे मन-ही-मन सहानुभूति होने लगती थी । पर वह भी क्या करता...? अगर पत्नी से कुछ कहता तो वह क्लेश करती, पिता से कह कर वह वापस उन्हें उनके दुःख और अकेलेपन के खोल में घुसाना नहीं चाहता था। सो जो जैसा चल रहा था, उसने उसे वैसा ही चलने दिया। पत्नी पिछले बार के अनुभव से अब की बार उससे पिता को लेकर सीधे कुछ नहीं कह रही थी।
कई दिन बीत चुके थे...पिता अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे थे। पत्नी ने आखिर एक दिन उसे अच्छे मूड में देख कर कह ही दिया,"सुनिए, आप अपने पिता जी को मना कर दीजिए...। मुझे यूँ उनका रसोई में आकर मेरे साथ काम कराना पसन्द नहीं...उलझन होती है मुझे...। आप फिर से गुस्सा करेंगे, पर सच कहूँ, मुझे घुटन सी होती है उनकी मौजूदगी से...।"
अब की बार वह बिफ़रा नहीं...। पिता की हरकत उसे भी नाग़वार लगने लगी थी। आखिर बहुओं को भी तो थोड़ी खुल कर साँस लेने की जगह चाहिए न...? ये क्या, चौबीसों घण्टे उनके सिर पर सवार रहो...। पर फिर भी पिता के प्रति मोह के चलते वह यह सब उन्हें समझा कर दुःख नहीं पहुँचाना चाहता था। सो पत्नी को ही प्यार से समझा दिया,’अरे, तुम ही थोड़ा बर्दाश्त कर लो...। वो तुम्हारे प्रति ममता में ऐसा करते हैं...।"
पत्नी ने मुँह बिचका दिया,"अरे ममता न समता...वो मुझमे अम्मा को ढूँढते हैं...और कुछ नहीं...।"
पता नहीं क्यों उसे पत्नी के मुँह बिचकाने पर गुस्सा नहीं, हँसी आई...। पत्नी भी उसके सीने से लग झूठमूठ के मुक्के बरसाने लगी।
आज सुबह से पता नहीं क्यों उसका जी कुछ बेचैन था। गज़ब की उमस थी मौसम में...। ऑफ़िस में तो ए.सी चला रखा था, पर बीच में साइट पर जाना पड़ा तो जैसे प्राण हलक तक आ गए। बेचारे मजदूर...कैसे दिन भर इस सड़ी गर्मी में काम कर के दो वक़्त की रोटी कमाते हैं...। उससे तो रुका भी नहीं जा रहा था। ठेकेदार को काम समझा उसने गाड़ी सीधे घर की तरफ़ मोड़ दी। आज काम से छुट्टी...। घर जाकर ए.सी चला कर तान कर सोएगा...और अगर मौका मिला तो पत्नी के साथ कुछ रोमान्टिक पल भी बिता लेगा...सरप्राइज़ के तौर पर...। वह अपनी ही कल्पना पर मुस्करा रहा था, साथ ही बरसों बाद एक रोमान्टिक गाना भी खुद-ब-खुद उसके मुँह से गुनगुनाहट के रूप में निकलने लगा था।
गाड़ी घर के पोर्च में ले जाकर पार्क की ही थी कि तभी तीर की तरह पत्नी आकर उसके सीने से लिपट गई। वह हैरान था, पत्नी सिर्फ़ पेटीकोट-ब्लाउज में थी। ऐसे तो वह कभी कमरे के बाहर नहीं आती, फिर आज सीधे पोर्च में...? वह हैरान-परेशान उससे ’क्या हुआ-क्या हुआ’ पूछता ही रह गया, पर वह सिर्फ़ सुबक रही थी। किसी तरह उसे यूँ ही चिपटाए वह अन्दर घुसा।
सामने बरामदे में पिता खड़े थे...। उसी की तरह हैरान लगे। फिर सहसा उसकी निगाह उनके हाथ की ओर गई...उसमें पत्नी की साड़ी थी। वह सनाका खा गया...। पिता इस हद तक जा सकते हैं...? क्या अम्मा की कमी उन्हें इस तरह खल रही थी...? पत्नी को एक ओर लगभग धकेल वह तेज़ कदमों से पिता की ओर बढ़ा और उनके हाथों से साड़ी खींच पत्नी की ओर उछाल दी।
"मैं तो बस इसे छत से उतार कर तह..." पिता को आगे बोलने से उस की अंगारों भरी आँख ने रोक दिया। शायद वे भी उसकी आँखों की इस आग का कारण समझ गए थे, तभी तो धम्म से जहाँ थे, वहीं बैठ गए...।
"कोई और होता तो...," वो जैसे शब्द चबा-चबा कर बोल रहा था,"आप कहने को मेरे पिता हैं...इस लिए बेहतर यही होगा कि आज शाम तक आप अपना जो भी सामान चाहें, बाँध लें...मैं खुद चल कर आपको वृद्धाश्रम छोड़ कर आऊँगा...। मेरे घर में अब आपके लिए कोई जगह नहीं...।"
आँसू बहाती पिता की आँखें उस से बहुत कुछ कहना चाह रही थी, पर वह कुछ भी सुनना नहीं चाहता था। पिता शायद उसे कुछ दिखाना चाहते थे, पर फिर भी वो अपने पास ही एक गिरगिट को रंग बदलते नहीं देख पाया था...आखिर कलर-ब्लाइण्ड जो था...।
(प्रियंका गुप्ता)