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कुछ किस्से अफ़साने नहीं होते

कुछ किस्से अफ़साने नहीं होते

प्रियंका गुप्ता

ज़िन्दगी में अचानक ही चलते-चलते किसी अप्रत्याशित से मोड़ पर हम उनसे मिल जाते हैं, जिनसे मिलने की सपने में भी उम्मीद नहीं होती...। कुछ लोग हमारे जीवन के पुराने अध्यायों में कुछ इस तरह गुम हो चुके होते हैं, कि अगर कभी उन भूले-बिसरे सफ़ों को पलटो भी, तो भी उन यादों की लिखावट धुँधली होने के कारण पढ़ना लगभग नामुमकिन हो जाता है...। पर कौन जानता है कि उन धुँधली-सी यादों से निकल कर जब कोई पात्र आपके सामने आ खड़ा होता है तो उसका चेहरा-मोहरा ही नहीं, बल्कि उससे जुड़ी एक-एक बात किसी बिल्लौरी शीशे सी चमक उठती है...।

आप शायद नहीं मानेंगे ये बात...कुछ समय पहले तक मैं भी न मानता जी...अगर कोई और ये कहता मुझसे...। पर अब जिस दिन से अचानक गोनू भैया आँखों के आगे आकर खड़े हो गए, उस दिन से मैं भी मानने लगा...। गोनू भैया यानि गुंजन बाबू...। हाँ जी, मेरे ददिहाल वाली गली में सब उनको बड़ी इज्ज़त से गुंजन बाबू ही तो कहते थे...। ये तो मैं था जिसने पता नहीं कब अपनी तोतली ज़ुबान में गुंजन बाबू में जाने कौन सा सन्धि का नियम लागू करते हुए उसे गोनू कर दिया...। खुद से पन्द्रह साल बड़े लड़के को सिर्फ़ नाम से बुलाना तमीज़ के दायरे से बाहर था, सो गोनू के साथ ‘भैया’ जुड़ना तो लाजिमी था न...। मोहल्ले के सारे बच्चों में मैं सबसे तहज़ीबदार बच्चा था, सो सबका लाडला-दुलारा भी था। साँवले-लम्बे...चौड़े कन्धों वाले गोनू भैया के भोले-भाले मुखड़े में जाने कैसी चुम्बकीय शक्ति थी जो मैं उनकी ओर खिंचता चला गया था। गोनू भैया कसरत के बड़े शौकीन थे, इलाके के दंगलों में भी बढ़-चढ़ के हिस्सा लेते थे...कई सारे मुकाबले तो जीते भी थे, पर उस बलिष्ठ शरीर के अन्दर उनका दिल बिल्कुल मोम की तरह था। बड़ी-बड़ी हारी-बीमारी तो छोड़िए, मोहल्ले के किसी घर में अगर कोई छींक भी देता तो उसकी सेवा में वे ऐसे जुट जाते जैसे उन्हीं के घर का कोई सदस्य हो...। सच कहूँ तो मोहल्ले के लगभग सारे जवान-जहान लड़कों ने गोनू भैया के कारण अपनी-अपनी माँओं से बहुत ताने-गालियाँ सुनी...। हर माँ उस बिन माँ के लड़के को देख कर आहें भरती...ये मेरा कोख-जाया क्यों न हुआ...? मोहल्ले की भाभियाँ कनखियों से उनके गठे शरीर को देख ठण्डी साँस भर जब कोई ठिठोली करती, वे धीमे से मुस्करा कर, बिना कोई जवाब दिए चुपचाप नज़रें झुका के निकल जाते...। उनकी इसी अदा पर कुछ चुलबुली भाभियाँ तो जल-भुन भी जाती थी...। तभी तो एक दिन उनके जैसे शान्त-शरीफ़-मिलनसार लड़के के उस निर्णय से जैसे पूरे मोहल्ले पर गाज़ ही गिर पड़ी थी।

जंगल में लगी आग की तरह ये ख़बर हर घर में भभक उठी थी। एक-से-दूसरे...दूसरे-से-तीसरे...तीसरे-से-चौथे...हर घर में जैसे-जैसे अनदेखी-अनसुनी सी सूचना पहुँचती गई, हम जैसे मसें-फूटते बच्चों को घर के अन्दर भगा कर औरते-आदमी सब गली में इकठ्ठा होने लगे थे...। एक छोटी-मोटी पंचायत का सा नज़ारा था मानो...। बाकी सब की तरह मेरी उत्सुकता भी अपने चरम पर थी, पर हमेशा मेरी सारी इच्छा माँ-दादी से भी छुपा कर पूरी करने वाली चाची भी उस दिन बिल्कुल नहीं पसीजी और बाहर के दरवाज़े पर कुण्डा मार कर भागी चली गई, उस पंचायत का हिस्सा बनने...।

मेरे जैसे सब बच्चों ने बहुत कोशिश की थी जासूसी करने की...पर असल माज़रा हममें से किसी के समझ में नहीं आ रहा था। रात के खाने के समय भी माँ और चाची की धीमी-धीमी सुगबुगाहट जारी थी। ‘गुंजन से अ‍इसी उम्मीद न थी...’ ये सुन कर इतना तो समझ आ गया था कि बात गोनू भैया से सम्बन्धित है...पर क्या...? उम्मीद से परे जाकर आखिर भैया ने ऐसा क्या कर डाला...?

दूसरे दिन क्रिकेट के हमारे उस ऊबड़-खाबड़ मैदान में हम बच्चों की मीटिंग जमी थी। कोई किसी ठोस नतीज़े पर नहीं पहुँच पा रहा था। सब का हाल मेरे जैसा ही था। यूँ ही उड़ते-फिरते से जुमले उन सब के भी कानों में टपके थे, पर असल बात तक कोई भी नहीं पहुँच पाया था।

"चलो याऽऽऽर, हम सब किसी बहाने से गुंजन भैया के घर ही चलते हैं...। न हो तो अगले हफ़्ते के अपने मैच के लिए ही बुला लेंगे...चीफ़ गेस्ट बना के...।" प्रभात के इस सुझाव पर सुशांत ने उसे ठुनकिया दिया था,"अबे गधे, गुंजन भैया इस कस्बे से निकल कर शहर जा चुके हैं...अपनी नौकरी के लिए...। भुलाए गया है क्या सब...? एकदम्मे लोलू हो का...?"

"अरेऽऽऽ याऽऽऽर...यादहें नहीं रहता बे...। इत्ते साल से उनको अपने आसपास देखे की आदत पड़ गई है न...ऐही कारण...।" प्रभात ने अपना माथा ठोंकते हुए कहा था। उसके बाद बहुत माथापच्ची करके भी किसी के समझ में असल घटना जान पाने की कुछ तरकीब नहीं आई थी...। फिर दो-चार दिन बीतते-बीतते रात गई की तरह ये बात भी चली गई...। हाँ, इतना ज़रूर हुआ था कि हमेशा गुंजन-गुंजन की गूँज से डूबे उस मोहल्ले में जैसे ‘गुंजन’ नाम लेना भी पाप हो गया था। पहले लड़के ‘गुंजन की तरह क्यों नहीं हैं’, इस वजह से ताने सुनते थे, अब ‘ख़बरदार गुंजन का नाम लिया’, के कारण डाँट खाते थे...। पर पन्द्रह दिन बाद अचानक ही घर से बाहर बुला कर मधुप रहस्यमयी आवाज़ में ‘क्रिकेट मैदान...ग्यारह बजे...’ फुसफुसाते हुए नौ-दो-ग्यारह हो गया था। तय समय से दस मिनट पहले ही मैदान पहुँच के देखा था, अपनी पूरी टोली वहाँ थी। पता चला, टीम के जासूस अनुपम ने सब घटना खोद ही निकाली थी। बस गोनू भैया के नौकर से बात उगलवाने में जो पैसे खर्च हुए उसके, उसके एवज़ में हम सबको बारी-बारी से रोज़ शाम उसे नुक्कड़ वाले मुन्ना चायवाले के दो समोसे खिलाने होंगे। बात पक्की होते ही उसने विजयी अन्दाज़ में गला खंखार कर हम सब की ओर मुस्कराते हुए देखा, और रहस्योघाटन का बम फोड़ दिया...गुंजन भैया बेला दीदी को भगा ले गए...।

हम सब सन्नाटे में बैठे कुछ पलों तक एक-दूसरे का मुँह ही ताकते रह गए थे...। ऐसा कैसे हो सकता है भला...? गोनू भैया और बेला दी...? असम्भव...। एक तो बेला दी गोनू भैया से पाँच-छह साल बड़ी, ऊपर से विधवा...। एकदम गऊ की तरह सीधी-साधी...वो कैसे भाग सकती हैं भला...? और भगाने का इल्ज़ाम भी किस पर...? गुंजन भैया पर...? अगर सच था ये, तब तो घोर कलयुग...। दादी सच ही कहती हैं...चौथा चरण है ये कलयुग का...अब तो कल्की भगवान ही तारेंगे इस दुनिया को...अवतार लेकर...।

हम सब उस कच्ची उमर में भी दुविधाग्रस्त थे। गोनू भैया के इस कदम का क्या करें...? एक तरफ़ किसी फ़िल्मी हीरो की तरह अपने सपनों की दुनिया में अपने प्यार के साथ गुम हो जाना बहुत रोमांचकारी था, वहीं दूसरी ओर उस रोमांचक यात्रा पर निकल पड़े दोनो यात्रियों के बारे में सोच कर मन एक अजीब-सी जुगुप्सा से भर रहा था। कोई कैसे अपने से बड़ी...एक विधवा के साथ...छिः...।

वक़्त बीतता चला गया था और उसके साथ ही गोनू भैया उर्फ़ गुंजन बाबू के नाम...उनकी यादों… उनके ज़िक्र पर भी मिट्टी पड़ती गई थी। स्कूल ख़त्म कर अपनी आगे की पढ़ाई के लिए जिस दिन मैं दिल्ली आया था, क्या पता था, दुनिया सचमुच सिमट के इतनी छोटी हो चुकी होगी...। वरना क्या ऐसा सम्भव था कि सरिता विहार से राजीव चौक के इतने आम से रूट में गोनू भैया ठीक मेरे बगल में आकर ही बैठ जाते...? न केवल बैठे ही, बल्कि मेट्रो की उस भीड़ में मुझे पहचान भी गए...। उनको पहचान पाना वैसे मेरे लिए खासा मुश्किल रहा। एक झटके से न तो उनकी शक़्ल पहचानी लगी न गुंजन नाम ही कुछ घण्टी बजा पाया। पर जैसे ही उन्होंने कहा...‘अब भी नहीं पहचाने का...? हम तुम्हारे गोनू भैया...’ वैसे ही सब धूल जैसे एकदम साफ़ हो गई।

बहुत ध्यान से उनकी शक़्ल देखी। भोलापन उम्र की दरारों के बावजूद वैसा ही था...। बदन भले थोड़ा ढल गया था। दिल्ली वैसे ही इतना खून निचोड़ लेती है, भला इंसान पसीना बहा कर बदन कहाँ से बनाएगा...? चेहरे पर अब भी वही निश्छल मुस्कान...बात करते हुए वैसे ही अचानक नज़रें झुका लेना...। सब कुछ तो लगभग वैसा ही था गोनू भैया का...फिर वो बदले कहाँ से...?

जाने गोनू भैया के आग्रह का असर था या फिर मन के किसी कोने में सब कुछ जान लेने की बलवती होती जा रही इच्छा का कमाल...मैं उनके साथ उनके घर जाने से खुद को रोक नहीं पाया था। भैया ने बताया नहीं, वे किस काम से जा रहे थे, पर जो भी काम था, उसे यूँ ही छोड़ वे मुझे लिए वापस चल दिए...। रास्ते भर वे सिर्फ़ मेरे बारे में ही बात करते रहे। मेरी पढ़ाई… कैरियर… भविष्य… सपने...जाने क्या-क्या...। मैं भी किसी रोबोट की तरह उनके सवालों के जवाब दे रहा था। किसी समय पतंग की डोर की तरह उनके पीछे घूमने वाला मैं पूरी तौर से अजनबियत के घेरे में था...। बदरपुर मेट्रो स्टेशन उतर कर उन्होंने बस एक बार पूछा था,"थोड़ा पैदल चल लोगे न...? यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है मेरा घर..." और फिर मेरे जवाब का इंतज़ार किए बिना वे हाथ से मुझे साथ चलने का इशारा करते हुए आगे बढ़ गए थे। बदरपुर की कई सारी अन्दरूनी गलियों से घुमाते हुए भैया आखिरकार एक गेट के सामने आ कर रुक गए,"लो...आ गया मेरा घर...।"

दूसरी मंज़िल पर था उनका घर...। घर क्या, एक स्टूडियो अपार्टमेण्ट था। दो मिनट तक उनके दरवाज़े पर खड़ा मैं कमरे का पूरा जायज़ा लेता रहा। इतना साफ़-सफ़्फ़ाक कमरा...हर चीज़ व्यवस्थित, बिल्कुल अपनी जगह पर...। मेरे सामने अपना कमरा घूम गया, जैसे कोई कबाड़खाना...। इतना सुरुचिपूर्ण कमरा रखना किसी कुँवारे के बस में नहीं, तो क्या सच में भैया और बेला दी...?

मेरे अन्दर की वितृष्णा फिर अपना सिर उठाने लगी थी। दिल किया, वहीं से उल्टे पाँव लौट जाऊँ...। यादों के जो पन्ने गल चुके, उन्हें दुबारा सहेजने की कोशिश भी क्यों करूँ...? पर इससे पहले कि मैं कुछ कर पाता, भैया ने हाथ पकड़ के मुझे अन्दर खींच लिया था। कुर्सी पर बैठा मैं अब भी खामोश था। चाय बनाते भैया ही बातों का सिरा पकड़े हुए थे। सहसा बात मेरी शादी की उठी तो जाने कैसे एक झटके से मेरे मुँह से निकल गया,"आपने तो कर ली होगी न...शादी...?" ज़ुबान से बात बाहर निकलते ही मैने जीभ काट ली। किसी के फटे में टाँग अड़ाने की आदत मेरी तो न थी, आज क्या हो गया मुझे...? भैया ने शादी की हो, बिना शादी किए साथ रह रहे हों, मुझे क्या लेना-देना...? दिल्ली की मेट्रो-संस्कृति अब भी मुझ पर हावी नहीं हो पाई थी...। मन से मैं शायद अब भी कस्बाई ही था...। हर जान-पहचान इंसान के आगा-पीछा में अपनी नाक घुसेड़ देना...हद है...।

भैया कुछ देर चाय का कप घुमाते हुए खामोश बैठे रहे थे...। नज़रें झुकी थी, पर मानो ज़मीन को भेद कुछ तलाश रही हों...। सहसा नज़रें उठी और मुझे अन्दर तक भेद गई,"बेला के बारे में सीधे ही क्यों नहीं पूछ लेता तू...? इत्ता बड़ा हो गया कि घुमा-फिरा के बातें करना भी सीख गया...?" मुझे सकपकाया देख वे फिर उसी भोली स्मित से सज गए थे,"बेला अपने दो बच्चों और पति के साथ बहुत खुश है...। मेरे ऑफ़िस में ही काम करती है...। शाम को चलना उसके घर...अपनी आँखों से देख कर तसल्ली कर लेना...।"

"पर भैया, बेला दी की शादी किसी और से...? तो आप और वो...?"

गोनू भैया एक फीकी हँसी हँस दिए। उसके बाद जो कहानी उनसे सुनने को मिली उसका कुल लब्बोलुआब जो निकला, उसने मुझे कुछ देर के लिए मानो स्तब्ध कर दिया था। कितनी बातें तो मैं भी जानता ही था उनकी पिछली ज़िन्दगी की, मसलन बेला दी विधवा होकर अपनी बूढ़ी माँ के पास रहने आई थी, जो पहले से ही गोनू भैया के पुश्तैनी मकान में किराएदार थी। पर चुप-चुप से रहने वाले, शर्मीले-से गोनू भैया कब और कैसे उनके इतने करीब आ गए...या उनके करीब थे भी...ये बात मुझे नहीं पता थी। शायद तब उम्र नासमझ थी, इस कारण...। और जब तक उम्र हुई, गोनू भैया-बेला दी की कहानियाँ विस्मृत की जा चुकी थी। भैया अब बता रहे थे, बेला दी के शिफ़्ट होने के बाद एक बार वे तीन दिन तक घर में निपट अकेले रहे थे...। पूरा परिवार एक रिश्तेदार की शादी में गाँव गया हुआ था। जाड़ों की उन रातों में इलाके में चोरों का आतंक इस कदर था कि घर दो औरतों के भरोसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। जिस दिन सब गए, उसी दिन शाम को भैया को ठण्ड लग के जो बुखार आया, उनके अन्दर उठने की भी शक्ति नहीं बची थी। किसी काम से दीदी नीचे आई तो देखा, पूरे खुले घर में भैया बेसुध पड़े थे। उनके लिए डॉक्टर बुलाने से लेकर अगले तीन दिनों तक उनके परिवार के लौट आने तक दी ने ही उनकी अथक सेवा-देखभाल की थी।

"तुझे पता है करन, उन तीन दिनों में बेला में मैने अपनी माँ, बहन और सखी...तीनो रूप देख लिए थे। मेरी देखभाल माँ की तरह करती थी, मेरे ना-नुकुर करने पर एक बड़ी बहन की तरह सख़्ती से मुझे डाँटती-फटकारती थी और मेरी उदासी एक सखी...एक दोस्त की तरह दूर कर देती थी। बहुत अलग...बहुत अनोखा रिश्ता बन गया था हमारा...दुनिया से निराला...। अपने हर सुख-दुःख में मैं बेला की शरण में जाने लगा था। वो भी चुपके से ऐसा ही कर जाती। चार साल बाद चाची की मौत के बाद कौन था उसका...? मेरे परिवारवालों ने जब वो मकान भी बेच दिया तो कहाँ फेंक देने देता उसको...? तब तक मैं भी बहुत डरता था न दुनिया से, समाज से...। इसी लिए तो दूसरी जगह उसे कमरा किराए पर दिला दिया था...। अपने मन की बात किससे कहता मैं...? मेरा भी कौन था...?"

"समाज और दुनिया से डर था तो उन्हें भगा के क्यों ले आए आप...?" जाने क्यों मैं न चाहते हुए भी थोड़ा तल्ख़ हो गया था। भैया बिना उत्तर दिए फिर मुस्करा दिए। कुछ देर हम दोनो जैसे नज़रों में ही एक-दूसरे को तौलते रहे, फिर भैया ने ही चुप्पी तोड़ी थी,"तेरा पूरा परिवार तो कृष्ण को बहुत मानता है न...?"

"हाँऽऽऽ...क्यों...?" ये अचानक विषय परिवर्तन मेरी समझ से बाहर था।

"नाऽऽऽ...कुछ खास नहीं...। सोच रहा हूँ, कृष्ण को भी एक टुकड़ा चीर का प्रतिदान देकर ऐसे ही सवालों का सामना करना पड़ा होगा क्या...?"

‘भक्क’ से जैसे दिमाग की ट्यूबलाइट जल उठी थी। मैं अपने ही प्रश्न पर शर्मिन्दा था,"तो आपने कभी किसी को अपने ऐसे कदम का औचित्य समझाया क्यों नहीं...? बेला दी के साथ अपने रिश्ते को स्पष्ट क्यों नहीं किया सबके सामने...?"

"क्या करता किसी को स्पष्टीकरण देकर...? और फिर देता ही क्यों...? कोई समझता क्या...? मानता मेरी बात...? करन, बुरा न मानना...कहने को तू आज के ज़माने का लड़का है, दिल्ली जैसे बड़े शहर में आकर बस गया है...। फिर भी तेरे दिमाग़ ने इतना बताने के बाद भी क्या नया सोच लिया...? एक टुकड़ा चीर के बदले कान्हा ने वस्त्र के अम्बार में अपनी सखि को छुपा दिया था...। उसी सखी के लिए एक तिनके साग के बदले उन्होंने सहस्त्र ऋषियों की भूख शान्त की थी...। तो फिर एक माँ-बहन विहीन लड़के को उस ममत्व का अहसास कराने वाली अपनी सखी को भला मैं कैसे निराश्रित छोड़ देता...उस भूखे भेड़ियों के जंगल में...? तुझे क्या, शायद किसी को नहीं पता कि दूसरी जगह किराए का कमरा दिला कर, निश्चिन्त होकर जब इस शहर में मैं नौकरी करने आया था, तो मेरे ही चचेरे भाई ने उसके विश्वास का फ़ायदा उठाने की कोशिश की थी...। उस समय तो किस्मत से वो बच गई थी, पर अकेली-निस्सहाय लड़की कब तक यूँ बेसहारा अपनी रक्षा कर सकती थी...बता तो...? इसी लिए जैसे ही मुझे पता चला, मैं उसे अपने साथ ले आया। ज़माना अगर हमें कोसता है, गालियाँ देता है तो देता रहे...जब तक एक-दूसरे के लिए हम कुछ ग़लत नहीं करते, तब तक मुझे किसी की परवाह नहीं...। ये मन का रिश्ता है करन...ज़रूरी नहीं कि हर रिश्ते का कोई नाम हो ही...। कुछ बेनाम से रिश्ते भी सच्चे और पवित्र होते हैं...और अपने इस बेनामी रिश्ते पर हम दोनो को गर्व है...।"

"आपने उनकी शादी तो कर दी भैया, खुद क्यों नहीं की अब तक...?" जिज्ञासा का कीड़ा अब भी मेरे अन्दर कुलबुला ही रहा था।

"क्या ज़रूरत है मुझे शादी करने की...? दिन का खाना ऑफ़िस में बेला के टिफ़िन से खा ही लेता हूँ...। रात का कभी उसके घर जाकर...कभी खुद ही बना लेता हूँ...वरना होटल तो हैं ही...। रही बात मेरी हारी-बीमारी की...तो अब तो सखी के साथ साथ उसका पति भी मिल गया न...।" कहते हुए भैया ठठा कर हँस पड़े। चाय के कप उठा कर सिंक पर धोते हुए वे बड़े बेफ़िक्र से लगे मुझे… "आखिर और भी ग़म हैं ज़माने में, मोहब्बत के सिवा...। क्यों. हैं न...?"

फिर कभी आने पर बेला दी से मिलने का वादा करके गोनू भैया से विदा ले वापस मेट्रो स्टेशन की ओर जाते हुए बस एक ही बात मेरे मन में चल रही थी...कभी-कभी कुछ अफ़साने सच्चे किस्सों से तो लगते हैं...पर ज़रूरी नहीं, हर किस्सा अफ़साना ही हो...।

क्यों...है न...?

(प्रियंका गुप्ता)

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