कुछ आवाज़ें मरती नहीं
प्रियंका गुप्ता
मैं मरने वाली थी...आज नहीं तो कल, पर मेरा मरना तय था...। मरूँगी कैसे, ये भी पता था मुझे...। कितनी अजीब बात थी न...जिसकी ज़िन्दगी के खज़ाने का खात्मा होने वाला था, जिसकी पूँजी थी, उसे ही कुछ तय करने का अधिकार नहीं था कि उस दौलत को आखिर खर्च कैसे करना है...। करना है भी या नहीं...? ये तो अवश्यम्भावी था न कि ये ज़िन्दगी की दौलत हमेशा साथ नहीं रहती, पर कम-से-कम इतना अधिकार तो होना ही चाहिए न कि हम उस दौलत को कब, कितना और कैसे खर्च करना चाहते हैं...।
औरों के साथ क्या होता है, नहीं पता...। मैं जानना भी नहीं चाहती थी। मेरा पूरा ध्यान तो सिर्फ़ इस बात में आकर अटक जाता था कि मैं उन चन्द लोगों में से हूँ, जिन्हें अपनी ही सम्पत्ति से बड़ी बेदर्दी के साथ बेदख़ल कर दिया जाता है...। सारे काग़ज़ात लाकर सामने पटक दिए जाते हैं कि लो जी, अब से तुम्हारा मालिकाना हक़ ख़त्म...चुपचाप साइन करो और रफ़ा-दफ़ा हो जाओ यहाँ से...। मरता क्या न करेगा...? मुँह पिटा कर साइन ही तो कर देगा न...? कहीं किसी कोर्ट-कचहरी...पुलिस-थाना में सुनवाई की उम्मीद बाकी हो तो अपील की भी जाए...विरोध दर्ज़ कराया भी जाए...। पर यहाँ तो जाने कब गुपचुप सारी साज़िशें भी हो गई और मुझे भनक तक नहीं लगी...। सारी क़ायनात जो इस एक काम के पीछे हाथ-मुँह सब धोकर पड़ गई थी...।
उफ़्फ़...! अब ये दर्द नहीं सहा जाता...। सुबह मुआ डॉक्टर भी आकर मातमी सूरत दिखा गया था...हिम्मत रखिए...डोन्ट लूज़ होप...। सब ठीक हो जाएगा...। अरे, क्या ख़ाक ठीक हो जाएगा कम्बख़्तों...। मरोंऽऽऽ...कोई तो दवा होगी न जो इस जानलेवा दर्द से राहत दिला सके...। पर शायद न भी हो...ऐसी भी तो सम्भावना है न...? होती तो ज़रूर अब तक आ गई होती...। घरवाले इतना तो कर ही देंगे न मेरे लिए...? आखिर सब सगे ही तो हैं मेरे...एक खून...। वो भला मुझे यूँ तड़पता देख पाएँगे क्या...? और फिर किसी पर कोई बोझ भी तो नहीं पड़ना न...। मेरी इतनी जमा-पूँजी आखिर किस दिन काम आएगी...?
एक बात बताऊँ...? जाने क्यों मैं ये कह तो रही, पर अन्दर से मान नहीं पा रही खुद ही...। ये दुनिया में इतने अपराध...इतनी हत्याएँ वगैरह जो होती हैं, वो भी तो ज़्यादातर अपने ही लोग करते हैं न...? चोरी-डकैती वगैरह की तो उनकी तुलना में कम वजहें देखी हैं मैने...। या क्या पता, ऐसी बातें सोच रही मैं...फ़िज़ूल ही हों...। कुछ ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता न आज के ज़माने में...। पर ये भी तो कितना पुराना...घिसा-पिटा सा डायलॉग है न...? मेरे ही नहीं, शायद अपने माता-पिता के मुँह से भी आप सब सुन चुके होंगे...और वो लोग अपने माता-पिता की ज़ुबान से...। हर पीढ़ी अपने से अगली पीढ़ी को कोसते समय यही कहती है...क्या ज़माना आ गया है...। पर असल में होता तो ये है कि कोई ज़माना न आता है, न जाता है...वो यहीं रहता है...बिलकुल वैसा ही जैसा पिछली पीढ़ी उसे छोड़ कर जाती है...। ये तो हम-आप जैसे लोग इस ज़माने को अलविदा कह जाते हैं...।
अलविदा कहने से याद आया...मैं कभी किसी को जल्दी अलविदा नहीं कहती। मन में कहीं एक आशा दबी रहती है कि इस छोटी सी दुनिया में किसी रास्ते...किसी मोड़ पर तो हम फिर से टकरा सकते हैं न...तब तो कोई एक-दूजे पर ये इलज़ाम न दे पाए...तुम ही तो विदा हुए थे...अलविदा कह कर...। सारी आशाएँ ख़त्म कर के...सारे सपने तोड़ कर...। सच कहूँ तो अभी मैं अपनी ज़िन्दगी को भी अलविदा कहने के बिल्कुल भी मूड में नहीं हूँ...पर इस बेवफ़ा को शर्म आए तब न...।
अभी तो मेरे कितने काम बाकी हैं...कितने सपने अधूरे हैं...। उम्र ही कितनी हुई है मेरी अभी...मात्र पैंतीस साल ही तो...। अभी तो उस ज़मीन का बयाना भी नहीं दिया जिसे मैंने अपने डाँस इन्स्टीट्यूट के लिए पसन्द किया था...। तीन महीने हो गए...जाने किसी और को बेच न दिया हो उसने...। अगर धीरज भेड़ न मार देता तो कब की वो ज़मीन मेरी हो चुकी होती और उस पर एक शानदार बिल्डिंग भी बन चुकी होती...। नहीं-नहीं...बिल्डिंग कहाँ इतने कम समय में बन पाती है...कम-से-कम एक साल का वक़्त लगता...तब कहीं जाकर मेरा एक सपना अपना आकार ले पाता...। पुराने गुरुकुल की परम्परा पर चलता एक अनोखा डाँस स्कूल...। वहाँ व्यापार नहीं, पूजा होती...कला की पूजा...। पर इस धीरज के बच्चे को जाने क्या सूझा...सीधा माँ को भड़का दिया। मुझसे छः साल छोटा है...पर रोब तो ऐसा जमाता है जैसे मेरा बाप हो...। अरे, पैसा मेरा...सपना मेरा...पर अड़ंगा उसका...।
लेकिन चलो, जो हुआ अच्छा हुआ...। मेरा सपना मेरी आँखों से निकल कर ज़मीन पर रूप धरता भी तो मैं होती क्या उसे देखने...उसे पोसने के लिए...? कितना अजीब है ये...बिल्डिंग बनने में और मुझे मरने में...दोनो में कितना वक़्त लगना था, ये मुझे पता था...। एक तरफ़ मैं अपने सपने को ज़िन्दगी देने की फ़िराक में थी...दूसरी ओर मेरी ज़िन्दगी मौत के अन्धे कुएँ में गिरती जा रही थी… पल-पल...छिन-छिन...।
अस्पताल का ये सफ़ेद-सफ़्फ़ाक कमरा भी मुझे किसी कुएँ की तरह ही अन्धेरों से घिरा दिखता है...और ये डॉक्टर, नर्सें, वॉर्ड-ब्यॉय...सब किसी यमदूत से कम नहीं लगते...। साले सब हमदर्दी का मुखौटा लगाए घूमते हैं...। जाने क्यों मुझे लगने लगा है...मेरे आसपास सिर्फ़ मुखौटे हैं, इन्सान तो कोई है ही नहीं...। यहाँ तक कि माँ भी जैसे अपने ऊबे चेहरे पर एक झीना-सा नक़ाब लगाए दिखती हैं...। मुझे ग़लत न समझिएगा...पर मैं जानती हूँ...माँ भी तो आखिर इसी दुनिया की एक इन्सान है...। ‘माँ’ होना तो उनका एक ओहदा है...। पर ऊबना उस ओहदे के लिए मना तो नहीं है न...?
मैने कितनी मेहनत...कितनी लगन से एक-एक पैसा जोड़ा था अपने इस सपने को साकार करने के लिए...। अपनी नौकरी पर पैदल जाती थी मैं ताकि सवारी पर खर्च होने वाले पैसे बचा सकूँ...। कंजूस होने की हद तक मितव्ययी हो गई थी मैं...। खुद पर कई बार इतना कम खर्च करती कि एक दिन माँ ने आखिर झल्ला कर कह ही दिया...क्या करोगी इतनी सूमड़ी बन के...ऊपर ले जाओगी क्या...? कह कर माँ ने तुरन्त जीभ काट ली थी...पर होनी तो अपनी भविष्यवाणी कर ही चुकी थी...।
माँ भी ये बात अच्छे से जानती थी कि ये सूमड़ापन सिर्फ़ मेरे खर्चों के लिए था...। वरना धीरज, श्वेता और शालिनी के अधिकाँश खर्चे तो मैं ही उठाती थी...चाहे वो कपड़ा-लत्ता हो या उनकी किताबें...या फिर उनके साज-सिंगार का सामान...। इतना सब करने के बाद अगर खुद पर भी खुले हाथों खर्च करती तो फिर तो हो चुकी थी बचत...। और फिर खुद के लिए खर्च करके जो खुशी मिलती वो तो अपने इन भाई-बहनों के चेहरे की चमक देख कर खुद ब खुद मिल जाती थी...। मुझे वैसे भी सजने-संवरने का कोई खास शौक तो था नहीं...। एक बागवानी का शौक था, तो वो कोई इतना मँहगा तो था नहीं...।
बागवानी का नाम लेते ही मुझे अपने लगाए पौधों की याद आने लगी है...। जाने कोई सही से पानी दे रहा होगा कि नहीं...। उनकी गोड़ाई-निराई...खाद...कीटनाशक...कितना तो ध्यान रखती थी मैं उनका...। किसी और को तो राई-रत्ती भर चिन्ता नहीं उनकी...। मुरझाते-मरते हैं तो मरने दो...कौन सा उनसे कोई फ़ायदा मिलता है...। उल्टा देखभाल में समय और मेहनत दोनो जाया करो...। अरे, जब तक चल रहे हैं, चलने दो...उसके बाद जड़ से उखाड़ो और फ़ेंक दो...। खल्लास...! पर मेरी तो जान बसती है उनमें...।
वैसे इस समय मैं और मेरे पौधे...दोनो एक ही स्थिति में हैं...। अपनी-अपनी ज़िन्दगियों के लिए लड़ते हुए...निराश्रित...पराश्रित...। न वो खुद से कहीं जा सकते हैं...न मैं...। मुझे उनके बारे में सोचते हुए रोना आने लगता है...मैं न हूँगी तो उनकी देखभाल कौन करेगा...? मेरा सालों से सजाया-सँवारा बागीचा भी असमय काल-कवलित हो जाएगा क्या...?
इस अस्पताल के कमरे में लेटे-लेटे इसकी मनहूस सी छत ताकते हुए जाने क्यों मुझमें सांसारिकता जागने लगी है...। मैं तो ऐसी न थी...। अपने सामानों के लिए मुझे कभी एकाधिकार की भावना नहीं आई...। कभी नहीं सोचा कि कुछ है जो सिर्फ़ मेरा है...। तो अब क्यों...? मेरी अलमारी...मेरी किताबें...मेरी एक्सेसरीज़...इतनी क्यों याद आ रही कि लगता है बस उड़ के एक बार घर पहुँच जाऊँ और लपक कर हर एक चीज़ को दुलराऊँ...सीने से लगा के पूछूँ...मिस किया मुझे...? अपना सामान ही नहीं...मुझे तो घर का...अपने स्कूल का...हर गली...हर चौराहे का मोह जाग रहा था...। घर के तकिए...पर्दे और चादरों तक को मिस कर रही थी मैं...। बड़ा अजीब-सा अहसास था...जब मैं नहीं रहूँगी...तब इनमें से कौन-कौन मुझे मिस करेगा...? करेगा भी या नहीं...? दुनिया को मैने लोगो के जाने के बाद भी बिल्कुल वैसा ही चलते देखा है जैसे वो हमेशा रहती है...भागती-दौड़ती...अपने में गुम सी...। उन सब को जब कोई याद नहीं करता तो भला मुझमें कौन से सुर्ख़ाब के पर लगे हैं जो मेरे जाने के बाद ये दुनिया थम कर दो बूँद आँसू टपकाती फिरेगी...।
पिछले एक महीने से दूर थी मैं अपनी दुनिया से...पर लगा तो नहीं कि कहीं कुछ बदला...। यहाँ तक कि जो मेरा एकलौता फ़ेवरेट सीरियल है...उसमें भी कहानी जस-की-तस...। मैं पल-पल ख़त्म हो रही हूँ पर धारावाहिक नहीं...। शुरू की पीढ़ी भी अपनी चौथी पाँचवी पीढ़ियों के साथ वैसी ही हट्टी-कट्टी...और मैं...? जाने मेरे ख़त्म होने तक धरावाहिक का अन्त देख भी पाऊँगी या अधूरी कहानी छोड़ कर ही मुझे जाना होगा...। उसकी सुन्दर सी हीरोइन कभी नहीं जानेगी कि कोई अपनी साँसों की टूटती डोर के साथ भी उसे रोज़ उतनी ही मोहब्बत से ताकता है...। सच कहूँ, बड़ा धक्का-सा लगा था जब उस दिन शाम को आई शालिनी ने समय देख कर मेरे टी.वी ऑन करने पर छूटते ही कहा था...दीऽऽऽ...तुम भी न...। अभी भी देखती जा रही हो ये सीरियल...। कोई फ़ायदा है क्या अब इसे देखने का...? ऐसा ही बेफ़ायदा का काम लगा था धीरज को...मेरी किताबों का अब भी घर की एक बड़ी सी अलमारी को घेरे रखना...। तभी तो बिना मुझसे पूछे...बिना मुझे बताए पुरानी किताबों की दुकान में उन्हें बेच कर वो अपने लिए दो टी-शर्ट ले आया था...। जाते-जाते थोड़ा सा और फ़ायदा उठा ही लिया उसने अपनी दी का...।
आज की पीढ़ी भी न...सिर्फ़ फ़ायदा देखती है हर बात में...। इसमें फ़ायदा है तो आगे बढ़ के लपक लो...वरना लात मारो...। कुछ दिन पहले श्वेता के गले में अपनी जंजीर देख कर मैं चिहुँकी थी...। मेरी सुन्दर-अनोखी मँहगी-महँगी एक्सेसरीज़ पर हमेशा इन दोनो लड़कियों की नज़र रहती थी...। मैं उनकॊ पहनने के लिए तो दे देती थी, पर पर्मानेण्टली इस लिए नहीं देती थी कि दोनो अक्सर एक ही चीज़ के लिए मारपीट पर उतारू हो जाती थी। श्वेता से मैने यही कहा...अभी शालिनी देखेगी तो तेरा झोंटा नोच लेगी...। मैं एक दिन के लिए घर आती हूँ इस डॉक्टर की पर्मीशन लेकर...फिर तुम दोनो में बाँट दूँगी सब...। श्वेता लापरवाही से चेन उँगलियों में घुमाती बोली थी...कोई फ़ायदा नहीं दी...माँ के सामने ही हम दोनो ने तुम्हारा सामान बाँट लिया है...। अब लड़ाई का नो चान्स...। जाने ये धीरज, श्वेता और शालिनी अब हर बात में इतना फ़ायदा देखने लगे हैं या मेरा ही ध्यान अब ऐसी बातों की ओर ज़्यादा जाने लगा है...। अक्सर इतनी चुभ जाती हैं उनकी बातें कि बहुत बार तो छुप कर रो लेती हूँ...और कई बार सामने भी आँसू थामे नहीं जाते...। छुप कर रोने में तो किसी को पता नहीं चलता न...सिवाए इस सफ़ेद कवर वाली तकिया के...या उस काली-मलयाली नर्स के...जो सुबह-सवेरे आती है और मुस्करा कर पूछ लेती है...यू ब्रेव गर्ल...कल रात को फिर रोया था न...?
हाँ, मैं सच्ची में बहुत ‘ब्रेव गर्ल’ थी...शायद हूँ अब भी...। तभी तो मुझे कभी मौत से डर नहीं लगा...। जब मुझे ऑपरेशन के लिए ले जाने वाले थे, मैने नहा-धोकर चेहरे पर हल्का-सा मेकअप लगाने के साथ-साथ बिन्दी और लिपिस्टिक भी लगा लिया था...। डॉक्टर ने मुझे देखा तो हँस पड़ा...पार्टी की तैयारी है क्या...? जवाब में मैं उससे तेज़ खिलखिलाई थी...जी नहीं डॉक्टर साहब...। कुछ हैण्डसम डॉक्टर्स के साथ-साथ यमराज को भी एपॉइन्टमेण्ट दिया है हमने...। ऐसे में प्रेज़ेन्टेबिल रहना तो बनता ही है न...? क्या पता ऊपर मीटिंग फ़िक्स हो ही जाए...। सब आश्चर्यचकित थे मेरी बहादुरी से और मैं अपने स्वांग से संतुष्ट...।
स्वांग तो वैसे भी यहाँ हर कोई करता है...। मेरे साथ-साथ हर कोई कतरा-कतरा झरती मेरी ज़िन्दगी के पूरी तरह झर जाने की प्रतीक्षा में है...पर दर्शाता नहीं...। भाई-बहन अपने कैरियर...पढ़ाई...भविष्य की उलझन में डूबे हैं तो कहीं-न-कहीं अस्पताल के लगातार बढ़ते जा रहे बिल से माँ का पारा भी चढ़ा रहता है...। कल होगा...इससे अच्छा आज ही हो जाए...कुछ-कुछ ऐसा ही फ़लसफ़ा नज़र आने लगा है उनका...मेरी आने वाली मौत को लेकर...। शायद मन के किसी हिस्से को वो मेरे बिना रहने का आदी बना चुकी हैं...तभी तो उस दिन रमा आँटी से दीदी के जिक्र के बहाने आज की लड़कियों के ग़लत निर्णय का रोना रो रही थी...ये आजकल की लड़कियों को क्या कहा जाए बहन जी...एक ही बच्चा रखेंगी...। होनी को कौन टाल सकता है...। कल को अगर उस एक औलाद को कुछ हो जाए तो जीवन सिर्फ़ रोते कटेगा...। वही दो-चार बच्चे हों और एक-दो दुर्भाग्यवश नहीं भी रहे तो इंसान बाकी बच्चों के सहारे ज़िन्दगी काट लेता है...। मन में आया, पूछूँ...माँ...मैं नहीं रहूँगी तो तुम भी काट ही लोगी न अपनी ज़िन्दगी...अपने बाकी बच्चों के सहारे...?
माँ तो यही थी न मेरी, जो हर महीने हाथों में मेरी पूरी तनख़्वाह लेते समय भावुक हो जाया करती थी...बहुत बड़ा सहारा है तू...। जब शादी के बाद तू चली जाएगी तो मैं तेरे बिना कैसे रहूँगी...नहीं जानती...। अब मैं हमेशा के लिए जा रही तो तुम बाकी बच्चों के सहारे ज़िन्दगी काटने को तैयार हो गई माँ...। उस दिन बड़ी इच्छा हुई थी...सेब का जूस पीने की...। माँ से धीमे से कहा भी तो जाने क्यों वो भी झल्ला गई...यहाँ पड़ी-पड़ी जानती भी हो सेब कितने रुपए किलो हो गया है...? घर-अस्पताल के बाकी खर्चों के बीच दूध-दही...राशन-पानी कितनी मुश्किल से जुटा रही, अन्दाज़ा भी है तुम्हें...? और फिर जूस पीने से कुछ फ़ायदा हो तो बात भी है...यहाँ तो दवा पर भी पैसा पानी में ही जा रहा...।
मैं पल भर जड़ रह गई थी...। एक झटके से जैसे सारे नक़ाब उतर गए थे। इतना भी नहीं याद दिला पाई कि ये खर्चे बीमा कम्पनी के मत्थे था...और न भी होता तो बरसों की सहेजी हुई जमा-पूँजी इतनी तो थी ही जिसमें ये सारे खर्चे निकाल कर भी मेरे सेब के जूस के लिए पैसे बच ही जाते...। न ही ये, कि रोज़ शाम को घर आते समय के लिए जब तुम मुझे तरह-तरह के सामानों की लिस्ट थमाती थी, तो मैने तो एक बार भी नहीं कहा था...जानती भी हो माँ...ये पैसा कितनी मेहनत से कमा रही मैं...? खून-पसीना बहा कर...। फिर आज तुम ऐसे कैसे कह गई...? मेरे मन में तुम सबके लिए ममता थी...और माँ तुम थी...।
न ऑपरेशन के वक़्त...न भीषण दर्द के समय मैं हारी...पर उस एक पल में मैं मौत से हार गई थी। मैने घुटने टेक दिए थे उसके आगे...आजा...अब लेजा मुझे...। पर वो मक्कारिन भी अभी तक दूर खड़ी ठहाका लगाए जा रही...। ज़िन्दगी सहम कर जाने कहाँ छिप गई थी...।
मेरा विश्वास रिश्तों से उठने लगा था। तभी तो जब सोनाली की छुट्टी होते ही दीदी कुछ दिनों के लिए घर आई, तो भी मुझे एक बार भी नहीं लगा कि वो मेरी मोहब्बत में आई हैं...। मेरा बस चलता तो मैं उनसे मिलती भी न...। क्या फ़ायदा था आखिर मिलने से...? पर बात वही थी...मेरा बस चलता, तब न...। दीदी आई भी तो मैं बस ‘हाँ-हूँ’ में जवाब देती रही...। लगातार मेरा माथा सहलाती दीदी जब बार-बार अपने आँसू छुपाने अचानक ही कई बार उठ कर वाशरूम गई तो उनमें मुझे सहसा ही अपनी पुरानी माँ दिखाई देने लगी थी...। ज़िन्दगी एक बार फिर बाहर आने को मचलने लगी थी...।
सोनाली भी तो कितनी प्यारी-प्यारी बातें कर रही थी...। इतने लोगों में वही एक थी शायद जो बिना किसी फ़ायदे के मुझसे जुड़ी हुई थी...। वो अपना नया लैपटॉप लेकर आई थी...ज़बर्दस्ती...मुझे दिखाने के लिए...। दीदी के बार-बार मना करने के बावजूद वो मेरी पलंग से हट ही नहीं रही थी...। उसकी मीठी-मीठी बातों से इतन सकून मिल रहा था कि पल भर को मैं जैसे भूल ही गई थी कि मैं कभी भी मरने वाली हूँ...। अचानक ही ज़िन्दगी के लिए भी मेरा मोह फिर जाग उठा था...। मैने कस कर दीदी का हाथ पकड़ लिया था...दीदी....कुछ करो...। बस किसी तरह बचा लो मुझे...। तुम जो चाहोगी मैं करूँगी...। अपनी सारी जमा-पूँजी तुम्हें सौंप दूँगी...। जो कमाऊँगी, सब तुम्हें दे दिया करूँगी...। बस...मैं जाना नहीं चाहती अभी...।
दीदी भी मेरे साथ फफक पड़ी थी...। सोनाली हतप्रभ बैठी कभी मुझे तो कभी अपनी माँ को देखे जा रही थी...बिटर-बिटर...। थोड़ी देर रोकर हम दोनो बहनें चुप हो गई थी...खुद-ब-खुद...। जाने क्यों हम उसके बाद आपस में नज़रें नहीं मिला पा रहे थे...। ज़िन्दगी फिर अपने खोल में दुबकने चली थी और मौत अपने पंजे खोले ठहठहाती आगे आ रही थी...।
इतनी गर्मी में भी माहौल में जो बर्फ़ जमने लगी थी, उसे सोनाली ने ही तोड़ा...जानती हो मौसी, माँ घर में भी ऐसे ही रोती थी...। नानी के यहाँ आकर भी रोई और अब देखो...यहाँ भी तुम दोनो रो रही...। माँ से पूछा...पापा से पूछा, कोई मुझे कुछ नहीं बताता...। बस माँ इतना ही बोलती है...अब हम कुछ दिनों बाद तुम्हारी मौसी को नहीं देख पाएँगे...। ऐसा भी होता है क्या...? हम लोग बाहर रहते हैं तो वैसे भी कौन सा तुमको देखते हैं...हैं न...? अभी तक तो माँ कभी नहीं रोती थी...अब बिल्कुल बुद्धू हो गई हैं...छोटे बेबी की तरह...।
मैं भी सोनाली को कुछ नहीं बताना चाहती थी, सो बस उसका जी बहलाने को कह दिया...मौसी बहुत दूर जा रही है न...इस लिए तुम सब से मिल नहीं पाएगी कभी...। कहते कहते मेरी आवाज़ भर्रा गई थी...।
तो क्या हुआ...? मौसी नहीं मिल पाएगी तो मौसी रो सकती है, पर हम लोग तो मौसी से जब चाहे मिल सकते हैं न...देखो...।
कहते हुए सोनाली ने अपना जादू का पिटारा...अपना लैपटॉप एक बार फिर खोल दिया था...। नन्हीं उँगलियों को उन पर थिरकाते उसने एक फ़ोल्डर खोला...। मुझे तो याद भी नहीं रहा था कि अभी कुछ महीने पहले तक मैं अपनी फोटो खिंचवाने...बात-बात पर वीडियो बनाने-बनवाने में कितनी रुचि रखती थी...। ये तो वही फ़ोल्डर था।
सहसा, एक आखिरी बार मौत की आँखों में पूरी ढिठाई से देख, उसे ललकार, खिलखिला कर हँसते हुए मैं किसी अँधेरे कुएँ में उतर चुकी थी...। मेरे चारो ओर मेरी खिलखिलाहट में घुली-मिली जानी-अनजानी आवाज़ें थी...और मुझे इतना तो पता ही था...कुछ आवाज़ें आसानी से तो मरती नहीं...।
(प्रियंका गुप्ता)