वैश्या वृतांत - 13 Yashvant Kothari द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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वैश्या वृतांत - 13

ऐसे स्वागत कीजिए जीवन की सांझ का

यशवंत कोठारी

देश में इस समय करोडो लोग ऐसे हैं जिनकी आयु 60 वर्प या उससे अधिक है। बड़े बूढ़ों का इस देश में हमेशा ही सम्मान और आदर रहा है, लेकिन बदलते हुए सामाजिक मूल्य, टूटते हुए परिवार और बढ़ता हुआ ओद्योगिकरण हमारी इस महत्वपूर्ण सामाजिक इकाई पर कहर ढा रहे हैं।

समाज और परिवार में इन बूढ़ों की स्थिति कैसी है, उनकी मानसिक दुनिया कैसी है वे अपने जमाने और आज की पीढ़ी के बारे में क्या सोचते हैं ?

अक्सर आपने पार्कों में, बगीचों और शा म को बेंचों पर बैठे इन बुजुर्गों को देखा होगा। वहां वे स्वयं से बतिया कर अपना समय काट रहे होते हैं। अकेलापन, बीमारी, बेकारी आर्थिक तंगी या बेटे बहू से दुखी उनकी जिंदगी एक ठहरे पानी सी है, जिसमें कंकड़ फेंकने पर तरंगे उठती हैं। थका हारा मन, बीमारियों से जर्जर शरीर और बूढ़ी ओखों में झाकता अतीत। क्या कारण है कि अपने समय के ये दिग्गज अब समाज और परिवार के हाशिये पर आ गये हैं। शा यद इसका कारण तेजी से बदलते हुए सामाजिक मूल्य है या फिर पीढ़ियों के अंतर से उत्पन्न खालीपन।

एक सज्जन हैं, जिनका अपना अच्छा खासा व्यापार है, वे घर के मुखिया हैं, मगर उदास हैं, कारण बुढ़ापा और शक्तिहीनता। बेटे, बहुओं की उपक्षा के शिकार वे घर के एक छोटे कमरे में जिन्दगी के दिन गुजार रहे हैं। वसीयत कर चुके हैं। पत्नी की मृत्यु के बाद और भी ज्यादा उदास और अकेले हो गये हैं। ऐसे ही एक नौकरी पेशा सज्जन रिटायर हुए तो जो पैसा मिला वह लड़के को व्यापार के लिए दे दिया और अब पैसे पैसे को मोहताज। पत्नी अक्सर बीमार, तीमारदारी का झंझट अलग से।

एक वृद्धा- विधवा जीवन, इस उम्र में भी चार घरों में चोका बर्तन, और झाडू पोंछा। बच्चे हैं, मगर मां को साथ नहीं रखना चाहते। विधवाएं वृन्दावन में भी रहती हैं,दयनीय स्थिति.

ये और ऐसे सैकड़ौ अन्य किस्से आपको अपने ही आस पास गांव, कस्बों में मिल जाएंगे। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपना अतीत हमारे वर्तमान के लिए त्याग दिया। ये वे हैं, जिन्होंने समाज को सुख और छाया दी। धूप को अपने हिस्से में ले लिया।

यह अनचाहा अकेलापन, तनाव और अभिषप्त आकाश ।

आज देश के उन बड़े नगरों में जहां विदेशि संस्कृति का अधकचरा पन हावी है, वृद्धावस्था शा प हो गया है। आज की नयी पीढ़ी के पास मां बाप से बात करने की फुर्सत नहीं है। बाप बेटे में हां ना भर की बातचीत का ताल्लुक रह गया है। दादा- दादी, नाना-नानी के पास तो बच्चे फटकना भी नहीं चाहते हैं। आज अक्सर अधिकांश वृद्ध स्त्री-पुरुप क्षितिज पर डूबते सूरज को देखते हुए अपने जीवन की संध्या गुजार रहे हैं।

मैं एक वृद्धा को जानता हूं। जो अस्पताल से घर नहीं जाना चाहती, क्योंकि घर उसे काटता है। वह घर में मृत्यु की कामना करती है। उसके अनुसार अस्पताल में लोग नर्स डाक्टर आदि उससे बातचीत करते हैं। अन्य लोग भी उससे बतियाते हैं, लेकिन घर में उसे बिना बातचीत के घुटना पड़ता है।

आज के समय में बुढ़ापे की तीन बड़ी बीमारियां है। एक अकेलापन, दूसरा शा रीरिक अवस्थता और तीसरा सामाजिक उपेक्षा। अकेलेपन का मामला छोटी जगहों पर नहीं है। वहां पर बड़े बूढे़ फिर भी चैपाल आदि में बैठ कर बतिया लेते हैं। यह समस्या वास्तव में बड़े श हरों की है।

स्वास्थ्य के मामले में भी बुढ़ापे के कारण अक्सर अनेक बीमारियां घर कर जाती हैं। वृद्धों में हृदय, गुर्दा, यकृत, फेफड़ों आदि की बीमारियां आम होती हैं। इसके अलावा छोटी मोटी मौसमी बीमारियां भी उन्हें परेशा न करती हैं, और गठिया जैसे रोग भी हो जाते हैं। लेकिन ये बीमारियां शा रीरिक कम और मानसिक ज्यादा होती हैं। बूढे़ शा यद यह चाहते हैं कि बेटे बहू उनकी देखभाल करें, पोते पोतियां प्यार करें और जिन्दगी के दिन हंसी खुशी बीत जाएं। जिन वृद्धों को घर में इस तरह का वातावरण मिलता है वे इन बीमारियों के चलते भी हंसी खुशी अपने दिन बिताते रहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भले चंगे स्वस्थ वृद्धों की भी घर में उपेक्षा ही की जाती है।

अकेलापन से ही जुड़ी है सामाजिक उपेक्षा। आज के बदलते सामाजिक मूल्यों ने बड़े बूढ़ों को सीमित दायरों में बांध दिया है। लेखकों, डाक्टरों, और राजनेताओं के अलावा बूढ़े लोगों को उपेक्षा ही झेलनी पड़ती है। ऐसी उपेक्षा उनके मानसिक संतुलन को गड़बड़ा देती है।

सच पूछा जाए तो बुढ़ापा हमारे जीवन के अवकाश का समय है। इसलिए वृद्ध लोगों को इस उम्र में बहुत अधिक नहीं सोचना चाहिए ओर हमेशा प्रसन्नचित रहने का प्रयत्न करना चाहिए। अनावष्यक सोच के बजाय यदि कुछ काम शुरू कर दिया जाए तो उससे भी वृद्धावस्था में व्यक्ति खुश रह सकता है। हां, इतना अवष्य कि वृद्ध व्यक्ति को तभी कोई काम शुरू करना चाहिए ज ब वह स्वयं को मानसिक और शा रीरिक रुप से स्वयं को योग्य समझे।

वृद्धावस्था में अकेलेपन और उदासी से बचने के लिए नयी पीढ़ी को अपने तरीके से चलने दें।उसकी भावनाओं को समझें और यदि संभव हो तो थोड़ा बहुत स्वयं को भी उनके अनुसार ढालने की कोशीश करें। नयी पीढ़ी के साथ तालमेल बिठाना अति आवष्यक है। डूबते सूरज को निहारने के बजाए जिन्दगी के फूलों की खुश बू लीजिए। आसपास की दुनिया में रुचि लीजिए। बुढ़ापा मजबूरी नहीं हमसफर बन जाएगा।

वृद्धों को तो जितनी नसीहतें दें दी जाएं, वह तो उसी तरह अपनी जिंदगी बसर करने की कोशीश करते रहते है इसलिए नयी पीढ़ी के विचारों में बदलाव की आवष्यकता है यदि नयी पीढ़ी बुजुर्गों के साथ जरा भी विनम्रता का व्यवहार करती है तो वृद्ध बाग-बाग रहते हैं। आखिर ये वृद्ध ही हमारी सांस्कृतिक विरासत है। ये ही तो हमारी पीढ़ी को मार्ग दिखाते हे। जिनसे सीख लेकर हम आगे बढ़ सकते हैं। नहीं तो पष्चिम की तरह वृद्ध एक दयनीय और बीमार जिन्दगी जी कर इस दुनिया से रुखसत हो जायंगे.

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यशवंत कोठारी,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बहार जयपुर-३०२००२ ,मो-९४१४४६१२०७

ऐसे स्वागत कीजिए जीवन की सांझ का

यशवंत कोठारी

देश में इस समय करोडो लोग ऐसे हैं जिनकी आयु 60 वर्प या उससे अधिक है। बड़े बूढ़ों का इस देश में हमेशा ही सम्मान और आदर रहा है, लेकिन बदलते हुए सामाजिक मूल्य, टूटते हुए परिवार और बढ़ता हुआ ओद्योगिकरण हमारी इस महत्वपूर्ण सामाजिक इकाई पर कहर ढा रहे हैं।

समाज और परिवार में इन बूढ़ों की स्थिति कैसी है, उनकी मानसिक दुनिया कैसी है वे अपने जमाने और आज की पीढ़ी के बारे में क्या सोचते हैं ?

अक्सर आपने पार्कों में, बगीचों और शा म को बेंचों पर बैठे इन बुजुर्गों को देखा होगा। वहां वे स्वयं से बतिया कर अपना समय काट रहे होते हैं। अकेलापन, बीमारी, बेकारी आर्थिक तंगी या बेटे बहू से दुखी उनकी जिंदगी एक ठहरे पानी सी है, जिसमें कंकड़ फेंकने पर तरंगे उठती हैं। थका हारा मन, बीमारियों से जर्जर शरीर और बूढ़ी ओखों में झाकता अतीत। क्या कारण है कि अपने समय के ये दिग्गज अब समाज और परिवार के हाशिये पर आ गये हैं। शा यद इसका कारण तेजी से बदलते हुए सामाजिक मूल्य है या फिर पीढ़ियों के अंतर से उत्पन्न खालीपन।

एक सज्जन हैं, जिनका अपना अच्छा खासा व्यापार है, वे घर के मुखिया हैं, मगर उदास हैं, कारण बुढ़ापा और शक्तिहीनता। बेटे, बहुओं की उपक्षा के शिकार वे घर के एक छोटे कमरे में जिन्दगी के दिन गुजार रहे हैं। वसीयत कर चुके हैं। पत्नी की मृत्यु के बाद और भी ज्यादा उदास और अकेले हो गये हैं। ऐसे ही एक नौकरी पेशा सज्जन रिटायर हुए तो जो पैसा मिला वह लड़के को व्यापार के लिए दे दिया और अब पैसे पैसे को मोहताज। पत्नी अक्सर बीमार, तीमारदारी का झंझट अलग से।

एक वृद्धा- विधवा जीवन, इस उम्र में भी चार घरों में चोका बर्तन, और झाडू पोंछा। बच्चे हैं, मगर मां को साथ नहीं रखना चाहते। विधवाएं वृन्दावन में भी रहती हैं,दयनीय स्थिति.

ये और ऐसे सैकड़ौ अन्य किस्से आपको अपने ही आस पास गांव, कस्बों में मिल जाएंगे। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपना अतीत हमारे वर्तमान के लिए त्याग दिया। ये वे हैं, जिन्होंने समाज को सुख और छाया दी। धूप को अपने हिस्से में ले लिया।

यह अनचाहा अकेलापन, तनाव और अभिषप्त आकाश ।

आज देश के उन बड़े नगरों में जहां विदेशि संस्कृति का अधकचरा पन हावी है, वृद्धावस्था शा प हो गया है। आज की नयी पीढ़ी के पास मां बाप से बात करने की फुर्सत नहीं है। बाप बेटे में हां ना भर की बातचीत का ताल्लुक रह गया है। दादा- दादी, नाना-नानी के पास तो बच्चे फटकना भी नहीं चाहते हैं। आज अक्सर अधिकांश वृद्ध स्त्री-पुरुप क्षितिज पर डूबते सूरज को देखते हुए अपने जीवन की संध्या गुजार रहे हैं।

मैं एक वृद्धा को जानता हूं। जो अस्पताल से घर नहीं जाना चाहती, क्योंकि घर उसे काटता है। वह घर में मृत्यु की कामना करती है। उसके अनुसार अस्पताल में लोग नर्स डाक्टर आदि उससे बातचीत करते हैं। अन्य लोग भी उससे बतियाते हैं, लेकिन घर में उसे बिना बातचीत के घुटना पड़ता है।

आज के समय में बुढ़ापे की तीन बड़ी बीमारियां है। एक अकेलापन, दूसरा शा रीरिक अवस्थता और तीसरा सामाजिक उपेक्षा। अकेलेपन का मामला छोटी जगहों पर नहीं है। वहां पर बड़े बूढे़ फिर भी चैपाल आदि में बैठ कर बतिया लेते हैं। यह समस्या वास्तव में बड़े श हरों की है।

स्वास्थ्य के मामले में भी बुढ़ापे के कारण अक्सर अनेक बीमारियां घर कर जाती हैं। वृद्धों में हृदय, गुर्दा, यकृत, फेफड़ों आदि की बीमारियां आम होती हैं। इसके अलावा छोटी मोटी मौसमी बीमारियां भी उन्हें परेशा न करती हैं, और गठिया जैसे रोग भी हो जाते हैं। लेकिन ये बीमारियां शा रीरिक कम और मानसिक ज्यादा होती हैं। बूढे़ शा यद यह चाहते हैं कि बेटे बहू उनकी देखभाल करें, पोते पोतियां प्यार करें और जिन्दगी के दिन हंसी खुशी बीत जाएं। जिन वृद्धों को घर में इस तरह का वातावरण मिलता है वे इन बीमारियों के चलते भी हंसी खुशी अपने दिन बिताते रहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भले चंगे स्वस्थ वृद्धों की भी घर में उपेक्षा ही की जाती है।

अकेलापन से ही जुड़ी है सामाजिक उपेक्षा। आज के बदलते सामाजिक मूल्यों ने बड़े बूढ़ों को सीमित दायरों में बांध दिया है। लेखकों, डाक्टरों, और राजनेताओं के अलावा बूढ़े लोगों को उपेक्षा ही झेलनी पड़ती है। ऐसी उपेक्षा उनके मानसिक संतुलन को गड़बड़ा देती है।

सच पूछा जाए तो बुढ़ापा हमारे जीवन के अवकाश का समय है। इसलिए वृद्ध लोगों को इस उम्र में बहुत अधिक नहीं सोचना चाहिए ओर हमेशा प्रसन्नचित रहने का प्रयत्न करना चाहिए। अनावष्यक सोच के बजाय यदि कुछ काम शुरू कर दिया जाए तो उससे भी वृद्धावस्था में व्यक्ति खुश रह सकता है। हां, इतना अवष्य कि वृद्ध व्यक्ति को तभी कोई काम शुरू करना चाहिए ज ब वह स्वयं को मानसिक और शा रीरिक रुप से स्वयं को योग्य समझे।

वृद्धावस्था में अकेलेपन और उदासी से बचने के लिए नयी पीढ़ी को अपने तरीके से चलने दें।उसकी भावनाओं को समझें और यदि संभव हो तो थोड़ा बहुत स्वयं को भी उनके अनुसार ढालने की कोशीश करें। नयी पीढ़ी के साथ तालमेल बिठाना अति आवष्यक है। डूबते सूरज को निहारने के बजाए जिन्दगी के फूलों की खुश बू लीजिए। आसपास की दुनिया में रुचि लीजिए। बुढ़ापा मजबूरी नहीं हमसफर बन जाएगा।

वृद्धों को तो जितनी नसीहतें दें दी जाएं, वह तो उसी तरह अपनी जिंदगी बसर करने की कोशीश करते रहते है इसलिए नयी पीढ़ी के विचारों में बदलाव की आवष्यकता है यदि नयी पीढ़ी बुजुर्गों के साथ जरा भी विनम्रता का व्यवहार करती है तो वृद्ध बाग-बाग रहते हैं। आखिर ये वृद्ध ही हमारी सांस्कृतिक विरासत है। ये ही तो हमारी पीढ़ी को मार्ग दिखाते हे। जिनसे सीख लेकर हम आगे बढ़ सकते हैं। नहीं तो पष्चिम की तरह वृद्ध एक दयनीय और बीमार जिन्दगी जी कर इस दुनिया से रुखसत हो जायंगे.

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यशवंत कोठारी,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बहार जयपुर-३०२००२ ,मो-९४१४४६१२०७