दाम्पत्य में दरार के बढ़ते कारक
यशवंत कोठारी
तब मैं विद्यार्थी था। कालेज में एक प्रोफेसर हमें पढ़ाती थीं। अचानक एक दिन सुना कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। कुछ समझ में नहीं आया। धीरे धीरे रहस्य की परतें खुलीं। वे विवाह के 25 वर्पों के बाद अपने नाकारा पति से समन्वय करते करते थक-हार कर प्राण दे बैठी। बच्चे बड़े और समझदार हो गए थे। चाहती तो बड़े आराम से तलाक से उस नाकारा पति से छुटकारा पा सकती थी। उसके पति 25 वर्पों से उनकी कमाई पर जिन्दा थे। अचानक उम्र के इस मोड़ पर एक 45 वर्पीय खूबसूरत विद्यवा सौतन ले आए। उनका कहना था कि अब और ज्यादा समय बदसूरत पत्नी के साथ नहीं गुजार सकते। पत्नी के विरोध पर उन्होंने उन पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया। स्थानीय पत्रों में नकली प्रेम कहानियां छप गई और बेचारी प्रोफेसर को जहर खा कर सो जाना पड़ा।
वे जब तलाक से अपने को अलग नहीं कर सकीं तो क्यों ?
वे कौन से कारण रहे जिनके रहते वे तलाक के मार्ग की और अग्रसर नहीं हो पाई।
सामाजिक बंधन, रुढ़िवादिता, प्रतिप्ठा या मानवीय संवेदना। फलां पुरुप या स्त्री तलाकशुदा है, यह सुनने में आज भी कितना अजीब और उपहासजनक लगता है।
हमरा देश एक प्राचीन संस्कृति का देश है। हमारी सांस्कृतिक विरासत और मूल्यों से ही हम जीने की कला सीखते हैं। समाज की आवश्यकता इकाई है परिवार और परिवार का आधार है विवाह। हमारे यहां जीवन में हर क्षेत्र आध्यात्मिक और आत्मा की ईमानदारी से जुड़ा है, विवाह को भी हमने एक आध्यात्मिक स्वरुप दिया है। हिन्दू विवाह संस्कार दो पवित्र आत्माओं का मिलन है। विवाह संस्कार में वे एक दूसरे के प्रति प्रतिज्ञा करते हैं कि-
मैं अपना हृदय तुमको देती हूं/देता हूं। तुम्हारा विचार अब से मेरा विचार है। तुम्हारी आवाज ही अब मेरी आवाज होगी। ईश्वर हमें अटूट बन्धन में बांधे।
वैदिक विवाह की यह पद्धति हमारी विरासत है। हम सभी इसके मूल्यों से बंधे हैं। वास्तव में विवाह दोनों पक्षों के बीच एक मधुर समझौता है, प्रेम के स्तर पर भावना के स्तर पर जो व्यक्ति को अकेलेपन से दूर करके ममता की शक्ति से बांध देता है। सच पूछा जाए तो तलाक या विवाह विच्छेद का प्रश्न आज का नहीं है, यह विवाह के साथ ही साथ उठ खड़ा हुआ प्रश्न है।
मूल रुप से भारतीयता में विवाह धर्म सनातनता और अध्यात्म से जुड़ा हुआ है। स्मृतिकार ने विवाह-विच्छेद का मूल अधिकार पति को दिया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धर्मनिरपेक्षता घोषित हुई। समाज के पिछड़े वर्ग की सामाजिक मान्यताएं भी बदलीं। मध्यवर्ग तेजी से विकसित हुआ और उपभोक्ता संस्कृति ने विवाह नामक संस्था को एक मखौल बना दिया। पाश्चात्य संस्कृति ने रही सही कसर पूरी कर दी। लिव इन रिलेशन , होमो सेक्स.लिस्बियन जैसे बिंदु सामने आये.
पिछले कुछ वर्पो में एक नया वर्ग उभरा है जो नारी को समाज में उचित स्थान दिलाना चाहता है ओर अपनी पहचान की तलाश में प्रयासरत है। कुमारी ‘क’ डबल एम.ए. है, शादी की। अपनी हॉवी शास्त्रीय डांस नहीं छोड़ सकी। पति को छोड़ दिया और समाज में पहचान तलाश रही है। श्रीमान ‘क’ ने शादी मां बाप की मर्जी से की थी। मगर बात बनी नहीं ओर तलाक ले लिया। अब दूसरी शादी की कोशिश कर रहे हैं। कुमारी ‘ख’ कामकाजी महिला है। एक दकियानूसी परिवार में ब्याही गई है। बात बनने का प्रश्न ही नहीं था, आजकल अलग रहती हैं। श्रीमान् ‘ब’ को सर्वगुण सम्पन्न गृहिणी की आवश्यकता थी, मिली एक आधुनिका। परिणाम तलाक और तलाक।
आखिर ये सब क्यों ? हमारा सामाजिक पारिवारिक जीवन इतना खराब क्यों हो रहा है ? क्या कारण है इन बढ़ते तलाकों के ? बातचीत में कुछ प्रबुद्ध किस्म के लोगों ने स्वीकार किया कि सामान्यतया तलाक की पहली सीढ़ी शक है। कभी कोई संबंधी, कभी कोई मित्र, कभी कोई सहेली या फिर अनजाने में घर आया मेहमान तलाक का कारण बन जाता है। किन्हीं संकोचों में बंधे हुए पति-पत्नी खुल कर बात नहीं कर पाते और खाई बढ़ती चली जाती है। यदि दोनों कार्यरत हैं तो दफ्तरों में होने वाली खुसरपुसर ही काफी है।
विवाह-विच्छेद के कारणों की पड़ताल की जाए तो एम महत्वपूर्ण कारण दहेज साबित होता है। सोदेबाजी का जो बाजार आजकल पूरे देश में लगा हुआ है, उसकी गांठ वधू पक्ष के अन्तर्मन को कचोटती रहती है और उपर से सास, ससुर, देवर, ननदों के तानों का ताना-बाना तलाक का जाल बुन देता है। कभी कभी दम्पतियों के पितृकुलों में भारी अन्तर होने से भी बात नहीं बनती और तलाक हो जाते हैं।
साधारण कुल की कन्या अल्टामॉडर्न परिवार में नहीं खप पाती और शाकाहारी परिवार की मांसाहारी परिवार में घुटती ही रहती हे। शिक्षा के स्तर में बहुत ज्यादा अंतर होने से भी तलाक हो जाते हें। कार्यशील महिलाओं का दाम्पत्य तो हमेशा ही तलवार की धार है। जीवन के दौर में इंसान दोहरेपन कर शिकार हो जाता हे। दोहरे व्यक्तित्व के खंडित होने से जीवनसाथी अस्त व्यस्त हो जाता है। तलाक का चिरंतन और शाश्वत कारण है वह तीसरा याने प्रेम का त्रिभुज। दो पुरुप और एक महिला या दो महिलाएं और एक पुरुप। फिर आपसी खींचतान, दंभ, अक्खड़ और मनोमालिन्य। परिणाम विवाह में दरार, दाम्पत्य में कलह और परिणति तलाक या अलग अलग रहना।
तलाक के कारणों में देश के यंत्रीकरण और औद्योगिकरण का भी योगदान है। बड़े ष्शहरों में रहने वाले छोटे परिवारों में पति-पत्नी अपनी व्यस्तताओं के कारण एक दूसरे को समझने में भूल कर देते हैं और परिणाम-स्वरुप समझ नहीं रह पाती।
श्रमिक वर्ग में तलाक एक सामान्य प्रक्रिया है। पंचायत में मामला जाने के साथ ही हाथों हाथ दूसरा पति या दूसरी पत्नी भी प्राप्त कर ली जाती है।
पश्चिम से आई फ्री-सेक्स या मुक्त यौन संबंधों की विचारधारा भी तलाक का कारण है। क्योंकि मनो-विश्लेपकों के अनुसार लम्बे समय तक पति पत्नी के साथ रहने से एक उब पैदा होती हैं, जो साथी को बदल देने से खत्म हो जाती है। मानव जीवन अनगिनत पहेलियों का भंडार है और उसे सफलता पूर्वक चलाने के लिए अनगिनत शर्ते और तरीके होते हैं।
सुखी दाम्पत्य को कानून की किताबों से नहीं समझा जा सकता है। शादी एक समझौता है। छोटी छोटी बातों से अहम और टकराहट को बढ़ाना जीवन में कड़वाहट घोलना है। सच में तलाक आपका ही नहीं आने वाली पीढ़ियों का भी भविप्य बर्बाद करता है।
बच्चों का क्या होगा ? हमारा क्या होगा ? संयुक्त परिवार का क्या होगा ? समाज और देश का क्या होगा आदि ऐसे प्रश्न हैं जो तलाक या विवाह विच्छेद की देहरी पर लगातार दस्तक दे रहे हैं। ऐसे नागरिक देश और समाज को क्या दे सकते हें, भटकाव और असुरक्षा के सिवाय।
पति पत्नी का रिश्ता अत्यंत कोमल है। प्रेम के धागे को चटका कर मत तोड़ो। लेकिन इन सबके बावजूद तलाक आधुनिक जीवन का एक हिस्सा बनता चला जा रहा है और इसे सामाजिक मान्यता मिलती जा रही है। आज तलाकशुदा पुरुप और औरतें सम्मान का जीवन जी रहे हैं और पुर्नविवाह कर शांति से जीवनयापन भी कर रहे है। अनुभूति और संवेदनाओं की गहराई से जो आवाज आए वही आवश्यक है चाहे वह तलाक की हो या फिर विवाह की।
जब छोटी सी नाराजगी झगड़ों में बदल जाती है तो मामला गंभीर हो जाता है। ज्यादातर तलाक दाम्पत्य जीवन में अन्य के प्रवेश के कारण होते हैं। संबंधित कानून में। 1. व्यभिचार 2. नपुंसकत्व 3. मानसिक या शारीरिक क्रूरता 4. परित्याग 5. पागलपन 6. छूतकी बीमारी आदि कारण प्रमुख माने जाते हैं। जब सब कुछ खत्म हो जाता है तो बच रहती है केवल घृणा, नफरत और बदला लेने की प्रवृति। तब अलग हो पाना एक वरदान ही है।
बदलते हुए समाज में गृहस्थी एक बोझ बन जाती है। स्वकेन्द्रित व्यक्ति, अपने दृप्टिकोण पर जम जाता है और उलझनें बढ़ जाती हैं। हमारे यहां संयुक्त परिवार की कुछ पुरानी मान्यताएं, रुढ़िवादिता के कारण दरार पैदा कर देती हैं। पुरानी पीढ़ी का धर्म और रस्मों से चिपका रहना भी परिवारों को तोड़ता है। आइए, तलाक को एक अन्य नजरिए से देखें। अब वो जमाना नहीं रहा कि तलाक उच्च वर्ग या श्रमिक वर्ग की ही बात हौ। बम्बई में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार कम मासिक आय वर्ग में तलाक के केस बहुत होने लगे हैं। दिल्ली में अब 1965 में एक जज की तुलना में अब 5 जज हैं जो तलाक के मामलेां को देखते हैं। हर बड़े शहर में फॅमिली कोर्ट खुल गए हैं
देश में तेजी से तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। सरकार ने बड़े शहरों में विचार समझौता कार्यालय भी खोले हैं। दिल्ली में हर रोज 25 मुकदमें तलाक के दाखिल होते हैं। पंजाब, हरियाणा में तलाक के मामले दस वर्पो में 147 प्रतिशत बढ़ गए हैं और त्रिवेन्द्रम में 328 प्रतिशत।
लेकिन हर समस्या का हल तलाक नहीं है। अधिकांश महिलाएं तलाक से आज भी डरती हैं क्योंकि बदनामी के अलावा सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा। एक और नई बात यह कि महिलाएं तलाक के बाद बच्चों पर अपना हक छोड़ने लग गई हैं, जो भावी पीढ़ियों के लिए अनिप्टकर है। उम्रदराज जोड़े भी तलाक ले रहे हैं, जो ज्यादा चिन्ताजनक है। आसन्न वृद्धावस्था में ये खतरनाक है।
तलाकशुदा स्त्री-पुरुपों के जीवन में सुख चैन की वृद्धि हो रही हो ऐसा नहीं है। बहुत कम लोग ही सुखी जीवन जी पाते हैं, अधिकांश के जीवन में वे पुरानी यादें प्रेतों की तरह छाई रहती हैं। तलाक लांछन नहीं है, कलंक नहीं है मगर आवश्यकता भी नहीं है।
तलाकशुदा मॉं-बाप के बच्चे
इन मां बापों के बच्चे न घर के रहते हैं न घाट के। काम-काजी महिलाएं बच्चों को अपने साथ नहीं रखना चाहती। उन्हें होस्टलों में बच्चों को रखने की इजाजत भी नहीं होती। अधिकांश महिलाएं बच्चों के अधिकार पर जोर भी नहीं देतीं। दोनों पक्षों में से कोई भी इन बच्चों की भावनाओं की कद्र नहीं करता। न उन्हें ठीक से प्यार ही मिलता है। ये एक उपेक्षित और त्रासद जीवन जीने को बाध्य होते है।
श्रमिक वर्ग में बचों को बाप खुशी से साथ रख लेता है क्योंकि बच्चों के हाथ उसे कमा कर देते हैं, मगर मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग में ऐसे बच्चे एक बोझ है, जिसे दोनों पक्षों में से कोई भी नहीं ढोना चाहता। विदेशों में ऐसे बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था होती है, मगर हमारे देश में वे दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर है।
स्कूलों में, मित्रों में, ऐसे बच्चे एक जैसे लगते हैं। मां बा पके प्यार के प्यासे। मगर मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हर बच्चों का अंदुरुनी संसार अलग होता है। मगर यह बान्तरिक विद्रोह, उसके बाल मन पर ज्यादा गहरे घाव करता है। बच्चों के लिए मानसिक तौर पर यह स्थिति ज्यादा दुखद होती है और बच्चे असामान्य और मानसिक रुप से कमजोर बन जाते है। एक पूरी भावी पीढ़ी नप्ट हो जाती है।
तलाकशुदा आदमी
त्लाक के बाद पुरुष क्या सोचता है ? क्या करता है और उसका जीवन कैसा बन जाता है ? आइए, अंदर झांके। समाज में ऐसे पुरुष कम है और तलाक के बाद अकेले जीवन गुजारते हैं, वे साथी तलाश करते हैं। कभी शराब के प्यालों में खो जाते हैं और कभी निराश, हताश और उदास हो कर जीवन से चले जाते हैं। जिन पुरुपों को बच्चों को भी पालना पड़ता है, वे बेचारे तो हर तरफ से कट जाते हें। कमाना, गृहस्थी चलाना, बच्चों की देखभाल, शिक्षा-दीक्षा और ऐसे में अपनी निजी जिन्दगी। अक्सर पास के पैसे के लालच में पास दूर के रिश्तेदार बच्चों की सारी सम्भल के नाम पर कब्जा कर जाते हें। समाज में शक की निगाह से देखे जाते हें। पहले जहां पति-पत्नी एक साथ मिलने जाते थे, अब तलाकशुदा मर्द को बुलाया ही नहीं जाता। एक तलाकशुदा मर्द के अनुसार-
कभी कभी लगता है मैने जीवन में भंयकर भूल कर ली है। लोग मेरे से दूर भागते हैं। मुझ में एक अजीब अपराध बोध जाग्रत हो रहा है। शाम और रात के बीच का समय काटे नहीं कटता। अकेलापन अखरता है, मगर क्या करुं ?
तलाकशुदा औरतें
आज भी भरतीय समाज में तलाकशुदा औरत एक पीड़ादायक अनुभूति है। वह एक लांछित और उपेक्षित जीवन जी रही है। यह औरत हमेशा ही कसूरवार मानी जाती है और गलती इसी की होगी यह एक आम धारणा है। महिला श्रमिक वर्ग की हो या उच्च बर्ग की, कुंठा ही अब उसका जीवन है क्योंकि तलाकशुदा है। तलाकशुदा औरत अशुभ है, यह मान्याता भी समाज में है। कार्यशील महिलाएं तो दफ्तर में समय यापन कर लेती हैं। मगर अन्य महिलाओं को घर परिवार और समाज स्वीकार नहीं करता। औरत का सामाजिक दर्जा और गिर जाता हे। उसे अछूत, अवांछिनीय मान लिया जाता है। दफ्तर के लोग और पुरुपों के प्रस्ताव एक अतिरिक्त समस्या है, जिससे इन औरतों को निपटना पड़ता है।
एक तलाकशुदा महिला के अनुसार-
मेरी सहेलियों का व्यवहार तो और भी अजीब है। अगर मैं उनके पतियों से बात भी कर लूं तो वे नाराज हो जाती हैं। मेरी मित्रों की निगाहें अब बदल गई हैं और बच्चे तो मुझे पहचानने से भी इंकार कर देते हैं। किसी भी सार्वजनिक समारोह में मुझे नहीं बुलाया जाता है।
विदेशों में तलाक: कब और कैसे ?
आदिवासियों का अध्ययन करने पर पता जगता है कि पितृ-प्रधान कबीलों में स्त्रियॉं पुरुप की संपति होती थीं और होती हैं। पुरुप अक्सर उन्हें खरीद भी सकते थेऔर बेच भी सकते थे। ऐसी स्थिति में अपनी गलती के लिए स्त्री को तलाक की जगह मौत ही मिलती थी। कई समाजों में नाता प्रथा थी आज भी है ,तलक के बाद वापस शादी के मामले नये समाज में भी काफी बढे हैं.
मातृ-प्रधान कबीलों में जैसे कि अफ्रिका की बोगो जाति में, स्त्री को तलाक का अधिकार है, उस समय पति कुछ धन हर्जाने के रुप में उससे लेता है। यह धनराशि स्त्री का पिता, भाई या नवीन पति कोई भी दे सकता है। इस पैसे से पति, बच्चों का पालन-पोपण करेगा, ऐसा समझा जाता है। इन कबीलों में पर-पुरुपों से संबंध बनाने पर भी पत्नी को उतनी कड़ी सजा नहीं मिलती, जितनी पितृ-प्रधान कबीलों में।
संसार की आदिम जातियों में रेड इंडियनों का विशेप स्थान है। इन रेड इंडियनों में तलाक की प्रथा तो नहीं थीं, पर बहु-पत्नीवाद, थोडे़ समय के लिए शादियां करना या कुछ दिन के लिए दापंत्य संबंध बना लेना, जैसे रिवाज थे।
दक्षिण अमरीका के गोल्ड कास्ट की फैसिट जाति में पत्नी बिना किसी गंभीर कारण के भी अपने बच्चों को लेकर चली जा सकती है। हां, हर बच्चे की कीमत उसे अलग अलग अदा करनी पड़ती हे। आखिर बच्चों पर पिता का भी अधिकार है।
अबीसीनिया के आदिवासियों में विवाह एक स्वतंत्र व्यापार है। जितने दिन चाहे पति-पत्नी साथ रहें और फिर साथी बदल लें या अकेले ही आजरदी से रहें। इस अनुबंध के विघटन के समय बेटे मां की सम्पत्ति होते हैं और बेटियां पिता की।
अल्बीरिया के कुछ कबीलों में पत्नी को छोड़ने के लिए बेचने का अधिकार पति को है। इस विक्रय के समय वह घोपणा कर देता है अब उसके सके पति वाले अधिकार समाप्त हो गए हैं।
यूनानी जातियों में पहले तलाक का अधिकार पति को ही था और पति उसका खुल कर उपयोग भी करते थे, पर सभ्यता के विकास के साथ ही तलाक का उपयोग सकारण होता गया, यहां तक कि पति को पूरा दहेज व्याज सहित वापस करना पड़ता है।
आरंभिक रोमन-सभ्यता में भी तलाक का बहुत प्रचार था। जुबरेल ने भी एक स्त्री का जिक्र किया है, जिसने पांच साल में आठ विवाह किए थे और बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि स्त्री-पुरुप स्वतंत्रता से जल्दी जल्दी साथी बदलते थे। पर सभ्यता के विकास के साथ स्थिति सुधरती गयी। ईसाई का प्रचार होने के पहले ही स्थिति इतनी सुधर गयी कि पत्नी पति की संपत्ति नहीं रह गई थी। ईसाई धर्म के प्रचार से एक निप्ठता को बढ़ावा मिला। पति-पत्नी को छोड़ सकता है, यदि वह पर पुरुशगामिनी हो, विष की व्यापारी हो या हत्यारिन हो। पत्नी पुरुश को छोड़ सकती थी, यदि वह विप का व्यापारी हो या अधर्मी हो। रोम के एक सम्राट ने घोषणा की थी कि पति पत्नी का संबंध प्रेम का संबंध है, यदि प्रेम समाप्त हो जाए तो विवाह को समाप्त कर देना चाहिए।
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यशवंत कोठारी,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर जयपुर.२ मो-९४१४४६१२०७