पल जो यूँ गुज़रे - 16 Lajpat Rai Garg द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पल जो यूँ गुज़रे - 16

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(16)

जाह्नवी के इन्टरव्यू की तिथि से चार दिन पूर्व की बात है। मुँह—अँधेरे निर्मल की नींद खुल गयी। कारण जाह्नवी को लगातार तीन—चार बहुत जोर की छींकें आर्इं। निर्मल ने गद्दे से उठते हुए बेड के नज़दीक जाकर पूछा — ‘क्या हुआ जाह्नवी, तबीयत ठीक नहीं है क्या?'

‘सॉरी निर्मल, तुम्हारी नींद डिस्टर्ब कर दी।'

‘सॉरी वाली कोई बात नहीं', कहने के साथ ही उसने जाह्नवी के माथे पर हाथ रखा। माथा थोड़ा—सा गर्म था। ‘तुम्हें तो बुखार लगता है?'

‘नहीं रे, बुखार नहीं, थोड़ा ‘कोल्ड' हो गया है, उसकी वजह से तुम्हें माथा गर्म लगा होगा।'

‘तुम्हारे पास कोई टेबलट वगैरह है क्या?'

‘नहीं। कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। तुम सो जाओ।'

‘तुम्हें नींद आ जायेगी?'

‘कोशिश करती हूँ।'

‘नींद न आती हो तो मैं बैठ जाता हूँ तुम्हारे पास।'

‘ऐसे में अब नींद आनी तो मुश्किल लगती है, लेकिन पास बैठने से तुम भी ‘कोल्ड' की पकड़ में आ सकते हो, इसलिये बेहतर होगा कि तुम अपने बिस्तर में ही लेटो।'

‘अब नींद तो मुझे भी नहीं आने वाली। तुम्हें लाईट से दिक्कत न हो तो मैं कोई मैग्ज़ीन पढ़ लेता हूँ।'

‘मुझे तो कोई दिक्कत नहीं। वैसे घंटा—डेढ घंटा सो लेते तो तुम्हारे लिये अच्छा रहता।'

‘दिन में सो लूँगा।'

सात बजे से पहले होटल में चाय नहीं मिलती थी। अतः जब सात बजे तो निर्मल ने रूम—सर्विस का नम्बर डायल करके चाय का ऑर्डर दिया तो साथ ही हिदायत दी कि चाय में अदरक और काली मिर्च जरूर उबाल दें। चाय पीकर जाह्नवी को कुछ राहत महसूस हुई।

निर्मल — ‘आओ, थोड़ी देर बाहर घूम आते हैं। ताज़ी हवा में नाक खुल जायेगी।'

‘निर्मल, तुम घूम आओ। मैं नहीं जा सकती, मेरा सारा शरीर टूट रहा है।'

‘ठीक है, तुम आराम करो। मैं देखता हूँ, कोई मेडिकल स्टोर खुला हुआ तो दवाई लेकर आता हूँ। मैं रूम की चाबी लेकर जा रहा हूँ, अगर तुम्हें नींद आ जाये तो सो जाना।'

जब निर्मल वापस आया तो जाह्नवी गहरी नींद में थी। ढाई—तीन बजे से जाग रही थी। नाक बन्द होने की वजह से नींद नहीं आ रही थी। अदरक—काली मिर्च वाली चाय पीने से नाक तो खुली ही, शरीर की अकड़न भी काफी हद तक दूर हुई। अतः निर्मल के जाने के बाद उसे नींद आ गयी। निर्मल ने बहुत आहिस्ता से दरवाज़ा खोला था। अब उसने उतनी ही सावधनी से अपने कपड़े आदि निकाले और दूसरे कमरे में नहाने के लिये चला गया।

जब निर्मल तैयार होकर आया तब तक जाह्नवी जाग चुकी थी और बेड पर पीछे की तरफ पीठ लगाये रज़ाई में बैठी समाचारपत्र पढ़ रही थी।

‘कैसी है तबीयत अब? अभी अखबार मत पढ़ो। जुकाम में पढ़ने से आँखों पर दबाव पड़ता है।'

‘अब मैं काफी ठीक हूँ, अच्छी नींद आई। तुम्हारे आने और दूसरे रूम में जाने का पता ही नहीं चला।'

‘आज का दिन नहाना मत और मैं जो टेबलेट लेकर आया हूँ, नाश्ते के बाद ले लेना। बिल्कुल ठीक हो जाओगी।'

‘नहाये बिना तो मैं नहीं रह सकती। घंटे—दो घंटे बाद नहा लूँगी।'

‘मैं तो कहूँगा कि आज नहाओ मत, बाकी तुम्हारी मर्जी।'

‘निर्मल, इतने दिनों से होटल में रहते—रहते दम घुटने लगा है। क्यों न आज कहीं बाहर घूमकर आयें?'

‘बात तो तुम्हारी ठीक है, लेकिन आज तो काफी समय हो गया, कल सुबह—सुबह चलते हैं।'

‘कहाँ लेकर जाओगे?'

‘कल वृन्दावन चलते हैं। रात तक लौट आयेंगे। और अगर आज ही चलना चाहती हो तो रात वहाँ रुककर कल वापस आ जायेंगे। बांके जी की शयन—आरती देखने का सुअवसर भी मिल जायेगा।'

‘आज ही चलते हैं। मैं इस दमघोटु माहौल से कहीं दूर जाना चाहती हूँ। एक बार यहाँ से बाहर निकलकर ही मैं ठीक हो पाऊँगी।'

‘ऐसा है तो तैयार होओ, अभी चलते हैं। शुभ कार्य में देरी क्यों?'

वृन्दावन जाते हुए जाह्नवी ने पूछा — ‘निर्मल, तुम पहले भी वृन्दावन आये हो ना?'

‘हाँ, कॉलेज—टूर में आया था।'

‘वृन्दावन में क्या कुछ है देखने को?'

‘वृन्दावन ब्रज—भूमि के हृदय का ताज है और ब्रज—भूमि चौरासी कोस में फैली है। ऐसी मान्यता है कि एक बार यशोदा मैया और नन्द बाबा ने चार—धाम की यात्रा करने की इच्छा जाहिर की। श्री कृष्ण जी ने उनकी वृद्धावस्था को देखते हुए चारों धामों को ब्रज में ही बुला लिया ताकि बूढ़े माँ—बाप की इच्छा पूर्ण हो सके। ऐसा भी माना जाता है कि सनातन हिन्दू—धर्म के सभी तीर्थ चौरासी—कोस ब्रज—भूमि में विद्यमान हैं, अतः चौरासी कोस की परिक्रमा लगाने से चौरासी लाख योनियों में भटकने से मुक्ति मिल जाती है। और वृन्दावन तो ऐसा स्थल है, जहाँ कण—कण में श्री राधा—कृष्ण रमण करते हैं, गली—गली, घर—घर में इनके मन्दिर हैं, लेकिन भक्त—लोगों की आस्था का मुख्य केन्द्र है — श्री बांके बिहारी जी का मन्दिर। लाखों श्रद्धालु इनकी बांकी, अलबेली छवि निहारने के लिये खचे चले आते हैं। इसके अतिरिक्त श्री राधा वल्लभ मन्दिर, निधिवन, सेवा—कुँज, श्री रंगनाथ जी का मन्दिर, टेढ़े खम्भों वाला शाहजी का मन्दिर, गोपेश्वर महादेव जी का मन्दिर, बलदाऊ जी का मन्दिर, मीराबाई का मन्दिर, कालीदह आदि अनेक दर्शनीय स्थल हैं।'

‘चौरासी—कोस की यात्रा तो करनी पड़ेगी चौरासी लाख योनियों में भटकने से छुटकारा पाने के लिये, किन्तु उसमें तो बहुत समय लगता होगा?'

‘हाँ, चौरासी कोस की परिक्रमा करने में तो आठ—दस दिन लग जाते हैं।'

‘तुमने यह परिक्रमा की है?'

‘अभी तक तो नहीं। बिहारी जी की कृपा हुई, तो तुम्हारे साथ ही करूँगा।'

‘निर्मल, तुम्हारे वृन्दावन को ब्रज—भूमि के हृदय का ताज कहने से याद आया, अब घूमने तो निकले ही हैं, क्यों न हम रात आगरा में बितायें? चाँदनी रातें हैं। कहते हैं कि चाँदनी रात में ताज का नज़ारा देखते ही बनता है। आज संयोग से हमें यह अवसर मिल रहा है, इसका फायदा उठा लें तो कम—से—कम मुझे तो बहुत अच्छा लगेगा।'

‘तेरी खुशी के लिये ही निकले हैं, लेकिन इस प्रकार वृन्दावन में दो—तीन जगह ही जा पायेंगे।'

‘पहले सीधे श्री बांके बिहारी जी के मन्दिर चलते हैं। दर्शन करने के बाद जैसा समय होगा, देख लेंगे।'

बस आगरा जाने वाली थी, इसलिये उन्हें जीटी रोड पर छटीकरा में ही उतरना पड़ा। वहाँ से वे ऑटोरिक्शा में बैठकर वृन्दावन आये। श्री बिहारीे जी के दर्शन करके जब मन्दिर से बाहर आये तो जाह्नवी ने पूछा — ‘निर्मल, ये पुजारी लोग बिहारी जी की मूर्ति के आगे थोड़ी—थोड़ी देर बाद परदा क्यों खींच रहे थे?'

‘श्री बांके बिहारी जी की रसिकता जगत्‌ प्रसिद्ध है। कहते हैं कि एक बार एक भक्त इनके दर्शनार्थ आये और इनके प्रेम में इतने मग्न हुए कि टकटकी लग गयी। बिहारी जी भी अपने भक्त की भक्ति पर रीझ गये। जब भक्त चलने लगा तो बिहारी जी भी उसके पीछे—पीछे चल पड़े। गुसांई जी बड़ी अनुनय—विनय कर इन्हें निज—स्थान पर लौटाने में सफल हुए। सम्भवतः यही कारण है कि बिहारी जी के दर्शन के लिये जब मन्दिर के पट खुले होते हैं तो गुसांई लोग बीच—बीच में परदा कर देते हैं ताकि भक्त और बिहारी जी एक—दूसरे के सम्मोहन में न आ पायें।....... जाह्नवी, कभी कुल्हड़ में लस्सी पी है? यहाँ की लस्सी बड़ी स्वादिष्ट होती है।'

‘चलो ट्राई कर लेती हूँ, पहले तो कभी कुल्हड़ में लस्सी पीने का अवसर नहीं मिला।'

वहाँ से वे निधिवन और सेवा—कुँज गए। दोनों जगह यह जानकर जाह्नवी को आश्चर्य हुआ कि इन स्थलों पर शाम ढलने के पश्चात्‌ आदमी तो क्या, कोई जानवर—पक्षी तक अन्दर नहीं रह पाता क्योंकि ऐसी मान्यता है कि रात्रि—समय में श्री कृष्ण राधा संग विहार करते हैं। सेवा—कुँज में श्री कृष्ण जी का राधा जी के चरणों की सेवा करने वाला विग्रह देखकर जाह्नवी को रसखान का यह सवैया स्मरण हो आया जो उसने निर्मल को सुनाया —

ब्रह्म मैं ढूँढ्‌यो पुरानन गानन वेद—रिचा सुनि चौगुने चायन।

देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितूँ वह सरूप औ कैसे सुभायन।।

टेरत हेरत हारि पर्‌यौ रसखानि बतायो न लोग लुगायन।

देख्यौ दुर्‌यौ वह कुंज—कुटीर में बैठ्‌यौ पलोटत राधिका—पायन।।

‘समय और स्थिति के अनुसार जो तुम अपने स्मृति—भण्डार से प्रस्तुत करती हो, लाजवाब होता है। अब मीराबाई का मन्दिर देखते हैं और फिर आगरा के लिये निकल लेंगे।'

मीराबाई के मन्दिर में उपस्थित पुजारी जैसे दिखने वाले बुजुर्ग से जाह्नवी ने पूछा — ‘बाबा, क्या मीरा जी वृन्दावन के प्रवास के दौरान यहीं रही थीं?'

‘बेटी, कहते हैं कि जब मीराबाई वृन्दावन आर्इं, उस समय श्री जीव गोस्वामी जी की भजन—साधना के लिये बहुत ख्याति थी। मीराबाई उनके आश्रम जो इसी जगह होता था, में आकर ठहरीं। मीरा के मन में बड़ी उत्कंठा थी अपने आराध्य के अनन्य भक्त के दर्शन की। उन्होंने श्री जीव स्वामी को सन्देश भिजवाया। लेकिन श्री जीव गोस्वामी ने यह कहकर मिलने से इन्कार कर दिया कि ‘मैं स्त्रियों के दर्शन नहीं करता'। तिसपर मीराबाई ने अपनी निश्ठानुसार कहला भेजा — ‘मैंने तो सुना था कि श्री वृन्दावन धाम में श्री कृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं, उनके अतिरिक्त कौन पट्टीदार पुरुष श्री वृन्दावन धम में विराज गये?' सन्देशवाहक से इतना सुनते ही श्री जीव गोस्वामी की आँखों से भ्रम का परदा उठ गया और वे भागे चले आये तथा मीराबाई के चरण पकड़कर क्षमा—याचना की।'

‘बाबा, इसका क्या अर्थ हुआ कि श्री वृन्दावन धाम में श्री कृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं?'

‘बेटी, इसका तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के अलावा सभी ब्रजवासी स्वयं को गोपी—रूप मानते हैं। यहाँ के महारास को देखने को तो देवता लोग भी तरसते हैं। यहाँ तक कि महादेव जी भी गोपी—रूप में महारास में सम्मिलित हुए थे। इसीलिये वृन्दावन में महादेव जी को गोपीश्वर महादेव करके पूजा जाता है और उनके मन्दिर को गोपेश्वर महादेव का मन्दिर कहा जाता है।'

‘बाबा, क्या मीरा जी जीवनपर्यन्त यहाँ रहीं?'

‘नहीं, यहाँ दस—पन्द्रह वर्ष रहने के बाद वे द्वारका जी चली गयी थीं। कहते हैं कि अन्त समय वे अपने आराध्य की मूर्ति में ही समावेश कर गर्इं।'

मन्दिर से निकलकर जाह्नवी ने कहा — ‘पाँच बजने वाले हैं, अब हमें आगरा के लिये निकल लेना चाहिये।'

‘अब छटीकरा की तरफ जाने की बजाय हम मथुरा बस स्टैंड पर चलते हैं, वहाँ से बसें आसानी से मिल जाती हैं।'

आगरा जाते हुए जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, वृन्दावन इस तरह भागम—भाग में देखने वाली जगह नहीं है। यहाँ तो कुछ दिन रहकर राधा—कृष्ण की लीलाओं का मानसिक आनन्द उठाने को दिल करता है।'

‘बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है। ऐसी जगहों पर पर्यटक की भाँति आने की बजाय भक्त की भाँति आकर ही वास्तविक आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। देखेंगे, फाइनल रिज़ल्ट ठीक—ठाक रहा तो आभार—स्वरूप गोवर्धन जी की परिक्रमा करने का मन है।'

‘उसमें कितना समय लगता है?'

‘परिक्रमा इक्कीस किलोमीटर की है। कम—से—कम छः घंटे तो लगते ही हैं। वृन्दावन से आने—जाने में लगने वाले समय सहित पूरा दिन ही लग जाता है। बहुत से लोग रात को भी परिक्रमा करते हैं।.....वृन्दावन में तो किसी आश्रम में रुक सकते थे। आगरा में तो होटल—रूम ही लेना पड़ेगा।'

‘तो क्या हुआ? ले लेंगे होटल—रूम।'

आगरा पहुँच कर पहले होटल—रूम बुक किया। चाय पी। आधा घंटा विश्राम किया। फिर ताज देखने चल दिये।

मुख्य—द्वार से जैसे ही प्रवेष किया, चहुँ ओर छितरी धवल चाँदनी के बीचों—बीच एक विशाल मूलाधार चौकी के चारों किनारों पर बने गुम्बदों के मध्य निर्मित सफेद संगमरमर की इमारत, मानवी कृत्तियों में अद्वितीय, दुनिया—भर से लाखों पर्यटकों को आकर्षित करने वाले, भारतीय और इस्लामी वास्तु व स्थापत्य—कला के अनुपम रत्न, अमर प्रेम की अमर कृत्ति — ताजमहल — तथा ताज परिसर में दोनों ओर ऊँचे— ऊँचे हरे—भरे वृक्षों तथा बीचों—बीच बहती जलधारा को देखकर जाह्नवी एकाएक कह उठी — ‘वाह, क्या नज़ारा है! आज तक फिल्मों में या अखबार—मैग्ज़ीनों में ही तस्वीरें देखी थीं। वास्तव में कितना सुन्दर है!'

लगभग एक घंटा घूमने—देखने के बाद जब निर्मल ने पूछा — ‘चलें?'

‘यहाँ से जाने को मन नहीं करता। न केवल आँखों को शीतलता का अहसास हो रहा है, मन भी अनूठा सुकून महसूस कर रहा है।'

‘मन की गति तो ऐसी है कि कभी सन्तुष्ट होता ही नहीं। कुछ अच्छा लगा तो चाहता है, और—और। आओ, अब चलते हैं, सुबह से चलते—फिर रहे हैं। थकावट होने लगी है। शरीर आराम चाहता है।'

‘ओह्‌ह, हाँ यार, तुम तो रात तीन बजे के जाग रहे हो, मैं तो दो घंटे के करीब सो भी ली थी।...चलो।'

और वे वापस होटल आ गये। खाना खाया और निर्मल तो लेटते ही सो गया, किन्तु जाह्नवी कुछ देर तक ताज के सौन्दर्य से अभिभूत उसके बारे में ही सोचती रही।

सुबह जब चाय पी रहे थे तो जाह्नवी ने निर्मल को छेड़ने के इरादे से कहा — ‘रात को तो जनाब, लगता है, ताजमहल देखने के बाद हसीन ख्वाबों में ही खोये हुए बेसुध सोये रहे!'

‘ऐसा क्योंकर लगा तुम्हें?'

‘आधी रात के करीब बाथरूम जाने के लिये मेरी आँख खुली तो क्या देखती हूँ कि जनाब की दार्इं बाँह और टाँग की गिरफ्त में हूँ। मैंने आहिस्ता से पहले तुम्हारी बाँह और फिर टाँग को अपने शरीर से अलग किया, तब कहीं बाथरूम जा पायी।'

‘सॉरी, मुझे रंचमात्र भी अहसास नहीं कि मैंने ऐसा कुछ किया।'

‘सॉरी वाली कोई बात नहीं। मैं कोई गैर हूँ जो माफी माँग रहे हो। आओ, जी—भर कर मुझे बाँहों में लो और प्यार करो।'

‘नहीं जाह्नवी, मुझे कमज़ोर मत करो। निःसन्देह मैं भी तुम्हें उतना ही चाहता हूँ जितना तुम मुझे चाहती हो। फिर भी हमें सीमा का अतिक्रमण नहीं करना। घर—परिवार वालों ने हमें विश्वास करके अकेले में इकट्ठे रहने की छूट दी है तो उनके विश्वास को बनाये रखना हमारा कर्त्तव्य है।'

जाह्नवी वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गयी। चेहरे पर मुर्दिनी छा गयी। मन में उठी मालती की गंध—सी अधीर उमंग को जैसे किसी ने कुचल दिया हो। उसकी इस दशा को लक्ष्य कर स्पष्टीकरण के अन्दाज़ में निर्मल बोला — ‘हमें एक बेड पर सोना ही नहीं चाहिये था, लेकिन मज़बूरी थी। डबल साईज का ब्लैंकट होते हुए होटल वालों को एक और ब्लैंकट के लिये भी नहीं कह सकते थे।'

‘निर्मल, तुमने मुझे पहले भी बाँहों में लिया है, चूमा भी है। माना, परिस्थितियाँ भि थीं। और मेरी कोई इतनी बड़ी माँग नहीं थी कि तुमने इतना लम्बा—चौड़ा भाषण दे डाला।'

निर्मल ने सोचा कि जाह्नवी एक तरफ पुरानी बातों का उल्लेख कर रही है, दूसरी ओर स्वयं ही मान रही है कि तब परिस्थितियाँ भि थीं। बड़ी दुविधा है। जाह्नवी इस समय सही—गलत को समझने की मनःस्थिति में नहीं है। उसे इस अवस्था से उबारना जरूरी है वरना दो दिन बाद उसका इन्टरव्यू प्रभावित हो सकता है। उसने मन को मार कर जाह्नवी का हाथ पकड़कर खड़ा किया और उसे बाँहों में भर लिया। जाह्नवी कुछ देर तक निर्मल के बालों में अँगुलियाँ फिराती रही। फिर उसे मुक्त करते हुए बोली — ‘चलो, तैयार होवो, हमें वापस भी चलना है।'

उसे सामान्य देखकर निर्मल की दुविधा भी दूर हो गई।

जब वे वापस होटल पहुँचे तो रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें बताया कि कल शाम को मि. विकास मैडम से मिलने के लिये आये थे और उन्हें बता दिया था कि आप लोग वृन्दावन घूमने गये हैं। वे आज शाम को आने के लिये कह गये हैं। आप चाहें तो उनसे फोन पर बात कर सकते हैं। फोन न करके वे कमरे में आ गये। दोपहर का खाना खाने के बाद जाह्नवी अपने कमरे में चली गयी।

थोड़ी देर समाचारपत्र पढ़ा। फिर बेड पर लेट गयी। ताजमहल का सौन्दर्य आँखों के आगे झलकने लगा। सोचने लगी कि एक बादशाह ने अपनी महबूब बेगम की याद को, उसके प्रति अपने प्रेम को अमर कर दिया एक ताज बनवा कर। दुनिया का अधिकांश साहित्य प्रेम को लेकर ही लिखा गया है, चाहे मिलन के मधुर क्षणों का वर्णन हो अथवा विरह की तड़पन का। आधुनिक काल में विज्ञान, विशेषकर मनोविज्ञान ने इसे परिभाषित, व्याख्यायित कर दिया है। अंततोगत्वा है तो यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति ही। आदिम काल से स्त्री और पुरुष का एक—दूसरे के प्रति आकर्षण है। अगर रात की घटना को याद कर मेरे मन में प्यार पाने की उमंग जाग्रत हुई तो क्या अस्वाभाविक था, अस्वाभाविक था तो वह थी निर्मल की प्रतिक्रिया। मुझे आवेशित देखकर अन्ततः उसने जो किया, वह अपने मन के विरुद्ध जाकर, केवल मुझे खुश करने के लिये। लेकिन यह भी सच है कि कुछ क्षणों बाद ही वह भी स्वाभाविक हो गया था। इसका मतलब यह हुआ कि निर्मल ने जो कहा था कि ‘मुझे कमज़ोर मत करो', वह सही था। मैं शरीर में उठे आवेश के अधीन थी, वह नैतिक स्तर पर सोच रहा था। यहाँ पहुँच कर जाह्नवी को निर्मल पर, अपने निर्मल पर गर्व हो आया और उसके मन का समस्त उद्वेग शान्त हो गया और उसे नींद आ गयी।

दोपहर की सुखद नींद के बाद जब जाह्नवी उठी और कमरे का परदा सरकाया तो बाहर साँझ के साये गहराने लगे थे। उसका मन किया कि अभी निर्मल से अपने सुबह के व्यवहार के लिये क्षमा याचना करे। लेकिन यह सोचकर कि निर्मल कहीं अपमानित महसूस न करे, उसने अपना इरादा बदल लिया और निर्मल के कमरे में जाकर बड़े सहज भाव से पूछा — ‘तुमने तो चाय पी ली होगी, मुझे नींद में टाइम का पता ही नहीं चला।'

‘मैंने तुम्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा। वैसे मैंने चाय अभी पीनी है। ऑर्डर करूँ?'

‘तुम्हें तो समय पर पी लेनी चाहिये थी।'

‘तुम्हारे यहाँ होते हुए अकेले चाय पीने की इच्छा नहीं हुई।'

जाह्नवी फिर सोचने लगी कि निर्मल को मेरी कितनी फिक्र है और उसका चेहरा आन्तरिक प्रसन्नता से खिल उठा। निर्मल ने रूम—सर्विस का नम्बर डॉयल कर हाफ—सैट चाय भेजने को कहा।

अभी उन्होंने चाय की दो घूँट ही भरी थी कि रिसेप्शनिस्ट का फोन आया। दूसरी तरफ विकास था। ‘नमस्ते भाई साहब, मैं नीचे आ रही हूँ।'

जाह्नवी ने विकास के पास पहुँचते ही हाथ जोड़कर दुबारा नमस्ते की। विकास ने बड़े भाई की तरह आशीर्वाद रूप में उसके कंधे को थपथपाया और वे ऊपर कमरे में आ गये। निर्मल ने खड़े होकर नमस्ते की।

विकास — ‘मेरे आने से तुम्हारी चाय बीच में ही रह गयी।'

निर्मल — ‘हमें अफसोस है कि कल आप आये और हम मिले नहीं।'

जाह्नवी— ‘निर्मल, यह चाय छोड़ो। फ्रैश चाय और कुछ स्नैक्स का ऑर्डर कर दो।'

विकास — ‘कैसा रहा तुम्हारा वृन्दावन ट्रिप?'

जाह्नवी— ‘कल सुबह मुझे कोल्ड हो गया था। इतने दिनों तक होटल में रहते—रहते ऐसा महसूस हुआ, जैसे मेरा दम घुट रहा है। मैंने निर्मल को कहा कि कहीं घूम कर आयें तो इन्होंने वृन्दावन चलने की कही। मैंने वृन्दावन देखा नहीं था, सो हम वृन्दावन चले गये। बड़ा आनन्द आया। कण—कण से भक्तिभाव की किरणें फूटती लगती हैं। हर ओर से आती ‘राधे—राधे' की मधुर स्वर—लहरियाँ बहुत ही कर्णप्रिय लगती हैं। मेरा तो वहाँ से आने को मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन मज़बूरी थी। फिर कभी जाने का मौका मिला तो कम—से—कम हफ्ता—दस दिन का प्रोग्राम बनाकर जाऊँगी।'

‘इसका मतलब हुआ कि तुम इन्टरव्यू के लिये पूरी तरह से रिलैक्स हो। यह बहुत अच्छी बात है। परसों इन्टरव्यू के बाद घर आ जाना। अपनी भाभी और बच्चों से मिल लेना।'

‘परसों तो नहीं भाई साहब। उसके दो दिन बाद निर्मल का इन्टरव्यू है। इन्होंने मुझे बहुत सपोर्ट किया है। इनके इन्टरव्यू तक सपोर्ट करना मेरा कर्त्तव्य है। उसके बाद हम आ जायेंगे।'

‘जैसा तुम्हें ठीक लगे। अब मैं चलता हूँ। बेस्ट ऑफ लक्क टू बोथ ऑफ यू।'

निर्मल ने विकास का धन्यवाद करते हुए कमरे में ही नमस्ते कर दी, किन्तु जाह्नवी उसे छोड़ने नीचे तक गयी।

***