पल जो यूँ गुज़रे - 6 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पल जो यूँ गुज़रे - 6

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(6)

अगस्त का दूसरा सप्ताह चल रहा था। एक दिन निर्मल जब क्लासिज़ लगाकर हॉस्टल पहुँचा तो कमरे में उसे डाक में आया एक बन्द लिफाफा मिला। लिफाफे पर प्रेशक का नाम—पता न होने के बावजूद अपने नाम—पते की हस्तलिपि देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि पत्र जाह्नवी का है। यह पहला पत्र था जो जाह्नवी ने लिखा था। पत्र के साथ था नोट्‌स का पुलदा।

‘प्रिय निर्मल,

मधुर स्मरण!

तुम्हारा पत्र मिला। पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुमने मेरी प्रार्थना की लाज रखी। यह जानकर मन और खुश हुआ कि तुम्हारे छोटे भाई बन्टु को मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल गया है। बहुत—बहुत बधाई! अपनी बहिन कमला के बारे में तुमने जो फैसला लिया और अंकल जी को उससे सहमत करवाया, वह बिल्कुल उचित है। मेरी स्टडीज़ ठीक चल रही है। तुम अपनी स्टडीज़ पर पूरा ध्यान देना। साथ में नोट्‌स भेज रही हूँ, आगे भी भेजती रहूँगी। तुम भी बीच—बीच में इसी तरह लिखते रहना।

तुम्हारी,

जाह्नवी'

पत्र खोलने से पहले निर्मल मन—ही—मन सोच रहा था कि पता नहीं जाह्नवी ने पत्र में क्या लिखा होगा, कुछ ऊट—पटाँग न लिख दिया हो। लेकिन पत्र पढ़ने के पश्चात्‌ जाह्नवी के चरित्र की परिपक्वता देखकर उसे मानसिक प्रसन्नता हुई। पत्र का सम्बोधन और समाप्ति पर ‘तुम्हारी जाह्नवी' पढ़कर अवश्य मन में सुखद अनुभूति का अहसास हुआ, मन—रूपी सितार के तार भी झंकृत हुए। मन—ही—मन सोचने लगा कि यदि जाह्नवी मेरी जीवन—संगिनी बनती है, जिसका इज़हार वह खुलकर भी कर चुकी है जब उसने कहा था — मैं दिल की गहराइयों से कामना करती हूँ कि तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी हो.....तुम्हारी मुझे पाने की ख्वाहिश भी।.....तुम पूछ सकते हो, क्यों मैं तुम्हारे बिन नहीं रह सकती? तुम्हें पाने के लिये मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ, तुम्हारा प्यार पाने के लिये मुझे बार—बार जन्म लेना पड़े तो मैं लूँगी — मेरे से अधिक सौभाग्यशाली इस धरती पर कौन होगा?......उसे मेरी कितनी फिक्र है, ये नोट्‌स इस बात के गवाह हैं। इन्हें लिखने में उसने कितना समय लगाया होगा? हर किसी के लिये इतना समय कौन लगाता है? लेकिन सबसे बड़ी अड़चन है हम दोनों के परिवारों की आर्थिक विषमता। और यह विचार आते ही सुखद अनुभूतियों की कल्पना की उड़ान मन्द पड़ने लग गई।

मित्र वह होता है जो सुख—दुःख का साथी हो, सुख—दुःख में सहारा बने, जिससे व्यक्ति अपने हृदय की हर तरह की बातें साझा कर लेता है, कुछ ऐसी भी जो वह अपने निकटतम पारिवारिक सम्बन्धों में करने से भी हिचकिचाता है अथवा कभी नहीं करता। सामान्यतः मित्रों की सँख्या मनुष्य के दोनों हाथों की अँगुलियों की गिनती में ही रह जाती है, परिचय का दायरा असीमित हो सकता है। कई बार हम परिचय और मित्रता के भेद को ठीक तरह से नहीं समझ पाते। परिणामतः हम अपने किसी परिचित से कुछ अधिक अपेक्षाएँ लगा बैठते हैं और उनके पूरा न होने पर मानसिक कुण्ठाओं के शिकार हो जाते हैं। जिन को दोस्त की संज्ञा दी जा सकती है, ऐसे चार—पाँच विद्यार्थी ही निर्मल के करीबी थे। यूनिवर्सिटी में पढ़ते तथा हॉस्टल में रहते हुए परिचय तो बहुतों से था। इसी तरह का एक परिचित था मनोज। वह निर्मल के साथ ही लॉ कर रहा था। वह उन लोगों में से था, जिनके लिये कहावत बनी है — मान न मान, मैं तेरा मेहमान। एक दिन शाम के लगभग छः बजे वह निर्मल के कमरे पर आ धमका। आते ही बोला — ‘निर्मल, मुझे पता चला है कि तू आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा है और दिल्ली से कोचग लेकर आया है। भई, मैंने भी फॉर्म भरा है। अब मैं तेरे जितना पढ़ाकू तो हूँ नहीं। पिता जी के दबाव में आकर मैंने यह हिमाकत की है वरना मैं किस खेत की मूली हूँ! अब जब समुद्र में छलाँग लगा ही दी है तो सोचता हूँ, थोड़े—बहुत हाथ—पैर मार ही लूँ, क्या पता किस्मत किसी छोर पर पहुँचा दे। इसीलिये तेरे पास आया हूँ। घंटा—आध घंटा मैं तेरे साथ बैठ कर पढ़ लिया करूँगा। कुछ तेरे से समझ लिया करूँगा, कुछ तेरे नोट्‌स से हेल्प मिल जायेगी।'

अपने नरम स्वभाव के चलते निर्मल उसे ‘न' नहीं कर पाया। पाँच—सात दिन में ही निर्मल उसकी हरकतों से ऊब गया। उसका पढ़ाई में कम, इधर—उधर की गप्पबाजी करने में अधिक रुझान था। सीधे मना करने की बजाय निर्मल ने एक तरकीब सोची। जब तक मनोज आता, निर्मल दो अढाई घंटे पढ़ चुका होता था। मनोज के आते ही वह उसे स्टूडेंट सेन्टर तक चलकर कॉफी पीने के लिये कहता। निर्मल को इस बहाने थोड़ा विश्राम मिल जाता। आते—जाते निर्मल थोड़ा—बहुत मनोज से डिस्कस भी कर लेता ताकि उसे यह न लगे कि निर्मल उससे पीछा छुड़वाना चाहता है। इस तरह जो समय व्यर्थ जाने लगा, उसकी भरपाई के लिये निर्मल ने एक योजना बनाई। रात के खाने के बाद जल्दी सोने लग गया और रात के एक—डेढ़ से चार बजे तक पढ़ने के लिये उठने लगा। जब वह रात को पढ़ने के लिये उठता तो उसे लगता कि पेट कुछ खाने को माँगता है। निर्मल का पढ़ने का अपना तरीका था। वह बिना कुछ खाये—पीये पढ़ नहीं पाता था। उसने कई बार साथी विद्यार्थियों से सुना हुआ था कि पीजीआई के सामने वाले कुछ स्टॉल सारी रात खुले रहते हैं। उसने भी ऐसा कार्यक्रम बनाया कि उठने के बाद वहाँ जाता, एक—आध पराँठा खाता, चाय पीता और आकर पढ़ने बैठ जाता। यह ऐसा समय था जब वह निर्विघ्न दत्तचित्त होकर पढ़ सकता था। इसलिये थोड़े समय में ही वह काफी अधिक पढ़ लेता था।

जब किसी काम की तिथि निश्चित हो जाती है तो समय बीतते पता ही नहीं चलता। दस अक्तूबर से यूपीएससी की परीक्षा प्रारम्भ होनी थी। सितम्बर का अन्त आने वाला था कि एक दिन जाह्नवी का पत्र आया। लिखा था कि तीस सितम्बर को आखिरी क्लास लगाने के बाद एक अक्तूबर प्रातःकालीन बस से वह शिमला के लिये निकलेगी। दस तारीख से एक—दो दिन पूर्व चण्डीगढ़ आकर परीक्षा के अन्त तक किसी होटल में रहेगी। उसने लिखा था कि उसका परीक्षा—केन्द्र सेक्टर 10 में डीएवी कॉलेज में था। निर्मल का परीक्षा—केन्द्र सेक्टर 15 में लाला लाजपत राय भवन में था। निर्मल सोचने लगा कि तीन अनिवार्य पेपरों की समाप्ति पर ही जाह्नवी से मुलाकात हो पायेगी। जैसा उसने लिखा था कि वह एक—दो दिन पहले आकर होटल में रुकेगी तो हो सकता है, परीक्षा आरम्भ होने से पूर्व ही हॉस्टल में मिलने चली आये। निर्मल लाख कोशिश करता, मन को समझाता, लेकिन जाह्नवी के विषय में मन निरन्तर सोचता रहता। मन में उससे मिलने की ललक उमड़ती रहती। पढ़ते—पढ़ते कई बार मन उचाट हो उठता तो वह किताब—कापी बन्द कर गांधी भवन के लॉन में घूमने के लिये निकल जाता।

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