पल जो यूँ गुज़रे - 13 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पल जो यूँ गुज़रे - 13

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(13)

जब निर्मल सिरसा पहुँचा तो रात हो गयी थी। सर्दियों की रात। कृष्ण पक्ष की द्वादश और कोहरे का आतंक। रिक्शा पर आते हुए तीव्र शीत लहर उसकी हडि्‌डयों को चीरती हुई बह रही थी। स्ट्रीट—लाईट्‌स भी जैसे कृपण हो गयी थीं अपनी रोशनी देने में। गली में घुप्प अँधेरा था, कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन घर पहुँचा तो सब घर पर थे। परमानन्द भी दुकान बन्द करके घर आ चुका था। रिक्शावाला जब सेब की पेटी निर्मल के साथ घर के अन्दर रखने गया तो कमला ही सामने मिली। सेब की पेटी देखकर बोली — ‘नमस्ते भाई।.....अरे वाह, एक और पेटी सेब, सीधे बाग से!'

निर्मल ने पहले पापा, जो बैठक में बैठे थे, के चरणस्पर्श किये। आशीर्वाद देने के बाद परमानन्द ने पूछा — ‘निर्मल, कमला ने बताया था कि तेरी फ्रेंड के डैडी का देहान्त हो गया। क्या तकलीफ थी उन्हें? अभी तो वे नौकरी में ही थे?'

‘हॉर्ट अटैक। हाँ, अभी वे सर्विस में ही थे।'

‘ओह्‌ह! परमात्मा की मर्जी के आगे किस का जोर! जाओ, हाथ—मुँह धेकर खाना खा लो।'

सावित्री रसोई में बैठी चूल्हे पर चपातियाँ सेंक रही थी। जब निर्मल उसके पैर छूने के लिये झुकने लगा तो उसने तवा एक तरफ रखते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा। फिर रसोई से उठकर कमरे में आते हुए पूछा — ‘बेटा, जाह्नवी कैसी है, पापा की मौत के सदमे से कुछ उबरी कि नहीं, बेचारी की माँ पहले ही चल बसी थी और अब अचानक पापा?'

‘माँ, जाह्नवी की भाभी और भाई बहुत अच्छे हैं। भाभी तो उसे बिल्कुल बेटी की तरह रखती है।'

‘हाँ बेटे, अच्छे हैं तभी तो उसकी खुशी के लिये हमें सेबों की पेटी भिजवाई, फिर अपने घर पर रहने के लिये तुझे बुलाया वरना कौन मोल लेता है इतनी ज़हमत? चल बेटे, पहले तू खाना खा ले, फिर आराम से बातें करेंगे।'

‘माँ, बन्टु आया इन दिनों में?'

‘कहाँ? उसे छुट्टी ही नहीं मिलती। अलबत्ता कभी—कभार फोन जरूर कर लेता है।.... तू तो वह भी नहीं करता,' सावित्री ने अपनी बात थोड़े उलाहने भरे स्वर में खत्म की।

‘माँ, मुझे फोन करने के लिये काफी दूर जाना पड़ता है। मेरी पढ़ाई का हर्ज़ होता है, इसलिये नहीं कर पाता।'

‘चल कोई बात नहीं। आ जा, मैं तेरे लिये थाली लगाती हूँ।'

खाना खाकर सोने के लिये निर्मल जब अपने कमरे में पहुँचा तो पीछे—पीछे कमला भी आ गयी। आते ही पूछा — ‘भाई, मैं अपनी चारपाई यहीं ले आऊँ?'

‘शिमला की बातें सुनना चाहती है?' उसके जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही कहा — ‘जा ले आ।'

कमला ने अपनी चारपाई लगाई, बिस्तर बिछाया और अच्छी तरह रज़ाई लपेट कर निर्मल की ओर मुँह करके पूछा — ‘भाई, अब सुनाओ, शिमला का ट्रिप कैसा रहा, ‘भाभी' ने हमारे बारे में भी कोई बात की या फुरसत ही नहीं मिली?'

‘जितनी बार तेरा जिक्र आया, जाह्नवी ने हमेशा ‘कमला दीदी' या ‘दीदी' कहकर बात की। तेरी पढ़ाई के बारे में पूछा, तेरी हॉबीज़ के बारे जानना चाहा और पूछा कि ‘दीदी' ने भी कोई लड़का पसन्द कर रखा है क्या?'

‘भाई, मज़ाक मत करो। यह अपने पास से जोड़ रहे हो, है ना? और भाभी को लिख देना कि मुझे दीदी मत कहा करें, मैं उनसे छोटी हूँ।'

‘चल अपने पास से ही सही। कोई पसन्द कर रखा हो तो बता देना। तेरी पसन्द अगर ठीक हुई, तो पापा—माँ को मनाना मेरी जिम्मेदारी।'

‘भाई, तुम्हारी बात मानकर पापा ने मुझे बी.एड. करने दिया, अब आगे भी तुम्हारी पसन्द ही मेरी पसन्द होगी। अब थोड़ा—बहुत ट्रिप का भी बताओ।'

‘कमला, जाह्नवी के भाई और भाभी दोनों बहुत ही सुलझे हुए विचारों वाले इन्सान हैं। जाह्नवी ने हमारे परिवार के बारे में सब कुछ उनको बता रखा है। उनमें बड़प्पन की बू तक नहीं। नौकर—चाकर होते हुए भी भाभी खुद खाना सर्व करती रहीं। जाह्नवी अपने पापा की मृत्यु के बाद से भीतर से बहुत टूटी हुई थी। उसी को खुश देखने के लिये उसके भाई—भाभी ने आग्रह करके मुझे बुलाया था। इसलिये एक दिन हमें पिकनिक पर तॅतापानी भेजा, जहाँ सतलुज नदी के किनारे गर्म पानी के चश्मे हैं। क्रिसमस वाले दिन सारा परिवार मॉल रोड पर आया, किन्तु बरसात की वजह से पूरा आनन्द नहीं उठा पाये। हाँ, इस बहाने शिमला के बेहतरीन चर्च में चल रहे क्रिसमस—कार्यक्रम की अद्‌भुत झलकियाँ देखने का अवसर जरूर मिल गया। कमला, जिस परिवेश में वे रह रहे हैं, वह अलौकिक है, स्वर्ग से कम नहीं।'

‘भाई, भाभी को देखने का मन करता है। आपको तो उनकी फोटो की जरूरत नहीं, एक फोटो मँगवा कर मेरे पास भेज देना।'

‘मैं तुझे एड्रैस दे देता हूँ, तू खुद ही पत्र—व्यवहार कर लेना।'

‘ना बाबा ना। आप ही मँगवा लेना। चाहे लिख देना कि कमला ने मँगवाई है।'

इस तरह बहिन—भाई देर रात तक बातें करते रहे।

आदतानुसार निर्मल की नींद समय से खुल गयी। उठकर बाहर झाँका। घनघोर अँधेरा था। कोहरे की गहरी परत छाई हुई थी। कमला गहरी नींद में थी। वह कमरे का दरवाज़ा उढ़का कर नीचे आ गया। माँ उठी हुई थी। पापा सैर को जा चुके थे। उसने माँ को प्रणाम किया। माँ ने पूछा — ‘चाय बना दूँ?'

‘नहीं माँ। मैं सैर को जा रहा हूँ, वापसी पर जितेन्द्र के यहाँ हो आकर आऊँगा।'

‘बेटे, इतनी सुबह उनके घर ना जाना।'

‘क्यों माँ?'

‘जितेन्द्र की बहू परसों ‘बीमार' हो गयी थी।'

‘बीमार, मतलब?'

‘बहू पेट से थी। पैर कहीं ऊँचा—नीचा पड़ने से वह गिर गयी। डॉक्टर के पास लेकर गये तो उसने बताया कि बच्चे को नहीं बचाया जा सकता।'

‘मतलब, भाभी का ‘मिसकैरीज़' हो गया।'

‘हाँ, वही। इसलिये दिन में किसी वक्त जा आना।'

‘ओह्‌ह! ठीक है माँ।'

यह समाचार सुनकर उसके मन में उदासी छा गयी। उसने माँ को चाय बनाने के लिये कहा। चाय जब बन गयी तो चाय लेकर अपने कमरे में आ गया। जूते उतारे और बिस्तर में बैठकर चाय पीने लगा।

निर्मल सोचने लगा, यह क्या हो रहा है? दादी के निधन को दो महीने हुए नहीं कि इस बीच कितना कुछ घट गया। माना कि दादी अपनी उम्र लेकर गयी है, फिर भी मैंने उनके संघर्षपूर्ण जीवन से कितना कुछ सीखा है। स्वयं विपरीत एवं विषम परिस्थितियों में से गुज़रते हुए भी उन्होंने कभी किसी माँगने वाले को खाली हाथ नहीं जाने दिया। वे बताती थीं कि जो चाँदी के सौ रुपये वे अपने साथ लाई थीं, उनमें से आधे से अधिक तो एक—एक कर जरूरतमंदों को ही दे दिये थे। उनकी ज़िन्दगी का फलसफा था कि जब उम्रभर की कमाई धन—दौलत बँटवारे में पीछे छोड़नी पड़ी लेकिन जानें बच गर्इं तो भगवान्‌ ने बाँह पकड़कर दुबारा खड़ा भी तो कर दिया। किसी गरीब की सहायता करने पर उस द्वारा दी गयी दुआ व्यर्थ नहीं जाती, क्योंकि गरीब सच्चे मन से दुआ देता है, उसमें छल—कपट नहीं होता। यह सम्भवतः हमारी सभ्यता और संस्कृति की देन है कि हम निराश्रित और असहाय की सहायता करने से पीछे नहीं हटते। अब यही देख लो न, बांग्लादेश के दस लाख से अधिक शरणार्थियों को देश ने पनाह दी हुई है। खुद गरीबी से जूझते हुए भी बांग्लादेश के स्वाधीनता आन्दोलन में हर प्रकार का योगदान दिया।.......जाह्नवी के पापा का हॉर्ट अटैक से असमय में आकस्मिक देहान्त। जाह्नवी का मानसिक रूप से इस सदमे से अव्यवस्थित हो जाना स्वाभाविक था। चाहे मैंने उन्हें कभी देखा नहीं, लेकिन जिस तरह की बातें जाह्नवी से उनके बारे में सुनी हैं, उससे ज़ाहिर है कि वे बेहद संतुलित व्यक्तित्व के धनी रहे होंगे। उनके घर में नौकर—चाकरों को भी सम्मानजनक सुविधएँ उपलब्ध हैं।.......सुनन्दा भाभी का मिसकैरीज़! कैसी नियति है! एक जीव माँ के पेट में आता है, किन्तु इस संसार में आँखें खोलने से पहले ही दुनिया का सूत्रधार उसे अपने पास वापस बुला लेता है, क्या इसे भी साँसों का खेल कहेंगे? स्त्री माँ बनने की प्रक्रिया का, सृजन का कष्ट तो झेलती है, चाहे कुछ समय के लिये ही सही, किन्तु उसके आनन्द से वंचित कर दी जाती है। इसे क्या कहेंगे — कर्मों का भोग अथवा भाग्य की आँख—मिचौनी?....

निर्मल के मन में ख्याल आया कि अक्सर कहा और सुना जाता है कि भगवान्‌ जो भी करता है, भले के लिये करता है; जीवन से जुड़ी उपरोक्त घटनाओं में भला क्या भलाई छिपी हो सकती है? अब तक जो पढ़ा या सुना है, उसके आधार पर तो किसी निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं। कोई सन्त—महात्मा ही इन अनहोनी घटनाओं की व्याख्या कर सकता है। आम आदमी के बस की बात तो यह है नहीं। निर्मल आँखें बन्द किये इन्हीं गुत्थिओं को सुलझाने में उलझा हुआ था कि कमला जाग गयी। उसने देखा कि भाई अभी बिस्तर में ही है। उसे हैरानी हुई, क्योंकि भाई तो मुँह—अँधेरे सैर को जाने वालों में से था और आज आठ बजने वाले थे। इसलिये निर्मल जो आँखें बन्द किये लेटा था, के नजदीक जाकर उसने पूछा — ‘भाई, उठना नहीं क्या, तबीयत तो ठीक है?'

‘हाँ, तबीयत ठीक है। वैसे ही उठने को मन नहीं किया।'

छेड़ने के लहज़े में कमला ने कहा — ‘तीन दिन शिमला लगा कर आये हो, भाभी की याद आती होगी, इसलिये बिस्तर में से निकलने का मन नहीं कर रहा!'

‘नहीं रे, उठ तो मैं पाँच बजे ही गया था। माँ ने सुनन्दा भाभी के मिसकैरीज़ का बताया तो मन खराब हो गया। सैर को जाने की बजाय यहीं आकर लेट गया।'

‘हाँ भाई, यह तो बहुत बुरा हुआ। मैंने रात को इस बात का यह सोचकर जिक्र नहीं किया था कि आप लम्बे सफर से थके हुए आये थे, पता चलने पर आप सारी रात सो न पाते।.....चाय लाकर दूँ या नीचे आते हो?'

‘तू बड़ी अच्छी बहिना है। यहीं ला दे।'

दिन में निर्मल जितेन्द्र की दुकान पर गया। दुकान पर उस समय कोई ग्राहक नहीं था। जितेन्द्र के चेहरे पर सदा रहने वाली भीनी—भीनी मुस्कान आज गायब थी। उसने गद्दी से उठकर निर्मल से हाथ अवश्य मिलाया, किन्तु हाथ मिलाने में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं थी। जितेन्द्र ने ही बातचीत का सिलसिला शुरू करते हुए पूछा — ‘चण्डीगढ़ से कब आया?'

‘रात को ही पहुँचा था। आज सुबह सैर को निकलने लगा तो माँ ने भाभी के बारे में बताया। सुनकर मन इतना खराब हुआ कि सैर को जाने का भी मन नहीं किया।'

‘क्या किया जा सकता है? जो होना था, सो हो गया।'

‘चाची जी तो ठीक हैं ना?'

‘हाँ, माँ ऊपर से ठीक हैं, किन्तु वे भी अन्दर से टूटी हुई हैं। लेकिन वे अपना दुःख प्रकट नहीं करतीं वरना तो सुनन्दा को सम्भालना मुश्किल हो जाता। ताई जी और कमला अस्पताल में आई थीं। काफी देर रहीं। माँ और सुनन्दा को ढाढ़स बँधया। कमला रात को अस्पताल में रुकने को तैयार थी, लेकिन डॉक्टर ने शाम को छुट्टी दे दी।.... कितने दिन यहाँ है?'

‘दो तारीख को वापस जाऊँगा। आज तो नहीं, कल या परसों चाची जी और भाभी से मिलने आऊँगा।'

प्रत्येक माता—पिता अपनी सन्तान के भविष्य को लेकर चतित होते हैं। जुगल के बेटे दसवीं और आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। परमानन्द के बच्चों को पढ़ाई में निरन्तर आगे बढ़ते देखकर विशेषकर बन्टु के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन के बाद से तो जुगल के मन में भी

अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चता रहने लगी थी, क्योंकि नरेन्द्र और महेन्द्र दोनों ही मुश्किल से सैकड डिवीजन ले पाते थे। जुगल अच्छी तरह जानता था कि यदि बच्चों ने अभी से पढ़ाई की ओर ध्यान न दिया तो उनके लिये कोई ऊँचा मुकाम हासिल करना सम्भव नहीं होगा, वे दुकान पर बैठने लायक ही रह जायेंगे। अतः जुगल को जब निर्मल के आने का पता चला तो वह रात को नरेन्द्र को साथ लेकर उससे मिलने आया। निर्मल जितेन्द्र के घर गया हुआ था। नौ बजने वाले थे, लेकिन निर्मल अभी तक आया नहीं था। जुगल को आये भी आधा घंटा हो गया था। अभी तक वह परमानन्द के साथ कारोबार तथा घर—परिवार की बातें कर रहा था। लेट होते देख उसने कमला को जितेन्द्र के घर फोन करने को कहा। फोन करने पर पता चला कि निर्मल वहाँ से तो निकल चुका है तो जुगल ने थोड़ी देर और इन्तज़ार करना ही उचित समझा।

निर्मल ने आते ही जुगल के चरणस्पर्श किये। जुगल ने नरेन्द्र को सम्बोधित करते हुए कहा — ‘सीख बेटे, कुछ सीख बड़े भाई से। तुम घर आये किसी व्यक्ति के चरण छूने तो दूर रहे, ढंग से नमस्ते भी नहीं करते। मेहमान और बड़ों के आगे झुकने से आशीर्वाद—रूपी जो प्रसाद मिलता है, वही जीवन में सफलता दिलाने में सहायक होता है। बन्टु तेरे से दो साल बड़ा है और वह अब डॉक्टर बनकर ही आयेगा। परमात्मा की मेहर रही तो निर्मल बहुत बड़ा अफसर बनकर परिवार की शान बढ़ायेगा। अब जो दो ढाई महीने मैट्रिक की परीक्षा में रह गये हैं, अब भी अगर तू पूरे मन से पढ़ ले तो तेरी फर्स्ट डिवीजन कहीं नहीं गयी।...बेटे निर्मल, तू ही इसको समझा, तेरी तो इज्ज़त भी करता है।'

‘चाचा जी, आप फिक्र न करें। मैं और नदी कल बैठेंगे और आपके आशीर्वाद से फर्स्ट डिवीजन तो इसकी आयेगी ही।...ठीक है नदी, कल तू सुबह दस बजे आ जाना।.... चाचा जी, मैं और कमला इससे बात करके इसकी पढ़ाई का शड्‌यूल बनायेंगे ताकि मेरे चण्डीगढ़ जाने के बाद भी इसकी पढ़ाई कमला की देखरेख में ढंग से होती रहे।'

‘शाबाश बेटे, यह तुमने ठीक सोचा कि कमला का इसपर अंकुश रहे।'

जुगल को निर्मल से बात करने के बाद आशा की किरण दिखाई देने लगी कि अब नदी सही रास्ते पर आ जायेगा। अगर यह पढ़ाई में ठीक निकल गया तो छोटा भी ठीक हो जायेगा। वह मन—ही—मन निर्मल की सफलता की कामना करने लगा।

***