भूमिजा
मीना पाठक
(1)
फुलमतिया अपने गाँव की इकलौती नाउन ठकुराइन है | गाँव भर में किसी के घर भी जचकी होती तो जच्चा-बच्चा की मालिश वही करती है | अपने गाँव ही क्या, वह आस-पास के गाँवों में भी मालिश के लिए बुलाई जाती है| निडर और जबर महिला है फुलमतिया | रात-बिरात कहीं भी जाना हो, वह निधड़क चल देती है | उसका पति हज्जामत बनाने का काम करता है और वह गाँव भर के शुभ-अशुभ हर कार्य में जा कर रीति-रिवाज संपन्न कराती है |
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धीरे-धीरे अपनी बहू के कमरे का किंवाड़ खटखटा रही है फुलमतिया | अंधेरी रात है और भोर होने में कुछ पहर शेष है | अभी थोड़ी देर बाद ‘लौटने’ वालों का तांता लग जाएगा | वह चाहती है की नवकी बहुरिया जल्दी से ‘लौट’ आये, भले ही आ कर फिर सो जाय | इसी लिए वह बहू को जगा रही है | दो-चार बार खटखटाने पर बहुरिया भीतर से कुंडी खोल कर सिर पर साड़ी का पल्ला संभालती हुयी धीरे से बाहर आ गयी |
“झड़क के चला..नाहीं त अंजोर हो जायी |” कहते हुए पानी वाला लोटा बहू को थमा कर टार्च के सहारे रास्ता देखते-दिखाते गाँव के बाहर बागीचे के दूसरे छोर की ओर चल दी दोनों | भूत-प्रेत के डर के मारे रात के अँधेरे में बगीचे के उस ओर कम ही लोग जाते थे, काहे कि इस ओर गाँव के लोग कभी-कभी मुर्दे भी फूँक दिया करते थे| इसी लिए उस ओर बैठने के लिए साफ स्थान मिल जाता था | टार्च की रौशनी से अँधेरे का सीना चीरती हुई दोनों बगीचे में गिरे सूखे पत्तों को पैरों तले रौंदते हुए उस छोर पर पहुँच गयीं जहाँ से गन्ने के खेत शुरू हो जाते हैं और थोड़ी दूर बाद ही दूसरे गाँव की सीमा प्रारम्भ हो जाती थी | वह वहीं टार्च से साफ़ स्थान देख कर पहले लोटा रखवा कर बहू को बैठने को कह कर खुद कुछ दूर आगे बढ़ कर बैठ गयी | कुछ ही मिनट हुए होंगे कि धप्प-धप्प की आवाज से उसके कान खड़े हो गए | ये डर किसी भूत-प्रेत का नहीं था; पर रात के इस पहर में उन दोनो के अलावा भी कोई था आस-पास, इस बात से वह भय खा रही थी | वह अकेले होती तो शायद ना डरती पर उसके साथ उसकी जवान बहू थी जिसके कारण उसका दिल जोर-जोर से धड़क उठा | उसने उधर देखा जिधर बहू को बैठा आयी थी, वह अपनी जगह पर नही थी | अब तो ऐसा लगा कि करेजा निकल के बाहर आ गया..वह लगभग दौड़ती हुयी उस ओर भागी..जहाँ बहू को बैठा आयी थी..वहाँ पहुँच कर धीरे से आवाज लगायी बहू को.. बहू लाज के मारे थोड़ी दूर पेड़ की आड़ में खिसक गयी थी..आवाज सुन कर वह पेड़ के पीछे से निकल आयी | उसे देख कर फूलमतिया की जान में जान आयी | सीने पर हाथ रख कर उसने राहत की एक लम्बी साँस भरी |
“का भईल माई |” बहू ने पूछा |
“कुच्छु नाहीं, जा बईठा |” बहुरिया के हाथ में टार्च पकड़ाते हुए उसे बैठने को कह कर वह खुद भी थोड़ी दूर जा कर बैठ गयी कि तभी फिर से आवाज आयी, अब की बार फुलमतिया सतर्क हो गयी | उसने आवाज की दिशा में अपने कान लगा दिए |
बागीचे से थोड़ी दूर पर एक पोखर था, जहाँ एक पीपल का पुराना पेड़ था और उसके चारो तरफ खेत ! पोखर गहरा था, जहाँ बारहों मास पानी भरा रहता था | गर्मियों में पानी कुछ कम हो जाता; पर बरसात के दिनों में वह लबालब भरा रहता | चरने वाले गाय-गोरू पानी पीते और पीपल के नीचे छाँव में बैठ कर रम्भाते, जुगाली करते | वहीं से आवाज आ रही थी |
वह आशंकित हो उठी इस समय कौन है वहाँ ? उसने बहू की ओर देखा, वह अभी पेड़ की आड़ में ही थी| वह सोचने लगी, क्या करूँ ? बहू को अकेली छोड़ कर जाना ठीक नहीं, जमाना खराब है, आये दिन बहू-बेटियों के साथ ‘लौटते’ समय अप्रिय घटनाएँ घटती रहती हैं | कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गया तो क्या जवाब दूँगी घर में और आज तो शायद मैं कुछ जल्दी ही निकल आयी हूँ ?
तभी फिर से आवाज आयी | अब वह अपनी जिज्ञासा शांत नहीं रख पायी और उठ कर जल्दी-जल्दी कदम बाढाती हुए उधर चल दी | थोड़ी दूर से ही उसने देखा, दो परछाइयाँ थीं | जिसमें एक ने शायद अपने हाथों में कुछ संभाल रखा था और दूसरा पोखर की नम मिटटी खोदने में लगा था | वैसे तो वहाँ पर मृत नन्हें शिशुओं को दफनाया ही जाता था; पर इतने अँधेरे में ?? वह अपने मन में हजारों सवाल लिए उल्टे पाँव लौट आयी, उसे बहू की चिंता थी |
बहू राजकिशोरी वहीं पर खड़ी मिली, उसने बहू के हाथ से टार्च ले लिया और जल्दी चलने को कह कर वह आगे बढ़ गयी | आवाज तो राजकिशोरी भी सुन रही थी पर उसने इस बात को गम्भीरता से नहीं लिया, सोचा कि कोई पानी खोल रहा होगा खेतों के लिए |
अभी भी चलखुर नहीं हुआ था | फुलमतिया मन ही मन सोच रही थी कि ‘किसी अभागिन ने फिर से बेटी जनी है शायद जिसकी आँख पर ढेला रखने को दोनों वहाँ आये हैं |’ उसका मन बेचैन हो उठा | वातावरण अभी भी अंधेरे से घिरा है |
घर पहुँच कर बहू से दरवाजा भीतर से बंद करने को कह कर फुलमतिया ने धीरे से कुदाल उठाया और तेज कदमों से बगीचा लांघती हुई पोखर की ओर बढ़ गयी | मन में अनेक शंकाएं उठ रही थीं | जरूर वो लोग बच्चा गाड़ गए होगें | बच्चा या तो किसी बिन ब्याही माँ का होगा या किसी अभागिन ने फिर से बेटी जनी होगी, नहीं तो सुबह होने की प्रतीक्षा क्यों नहीं की उन लोगो ने ? यूँ रात के अंधेरे में सब से छुप कर क्यों गाड़ रहे ? अबतक तो गाड़ कर चले भी गए होंगे वो लोग !
मन ही मन मंथन करती, लम्बे-लम्बे डग भरती हुई वह पोखर पर पहुँच गयी | दिल धौंकनी की तरह फूल पिचक रहा था जिसके कारण उसके माथे पर पसीने की बूँदें छलक पड़ीं, सुबह की शीतल मंद बयार भी उसके माथे पर छलक आयी बूंदों को सोख नही पा रही थी | चारो ओर सन्नाटा पसरा था | वो लोग जा चुके थे, उसने टार्च से वह स्थान ढूंढा, जो तुरंत ही मिल भी गया | उसने जल्दी से कुदाल से वहाँ की मिट्टी खोदनी शुरू कर दी, थोड़ी देर पहले ही खुदी हुई नम मिट्टी आसानी से खुद रही थी | थोड़ा खोदने के बाद उसने गड्ढे में टार्च की रौशनी डाली और हाथ से मिट्टी हटाने लगी | कुछ देर बाद ही उसके सामने जो दृश्य था, उसे देख कर उसकी घुटी-घुटी-सी चीख निकल गयी | उसने जल्दी से अपनी दोनों हथेलियों को ढक्कन बना अपना मुंह जोर से बंद कर लिया, देह थरथरा उठी, लगा कि अभी चक्कर खा कर गिर जायेगी, परंतु कुछ पल ही लगा उसे स्वयं को संभालने में | उसकी शंका सही निकली | एक लाल रंग के कपड़े में लिपटा हुआ नवजात शिशु था, जल्दी से उठा लिया उसने | कितने नन्हें शिशुओं की मालिश करती थी वह पर आज इस नन्हें को गोद में उठाते हुए उसके हाथ काँप गए, आत्मा कराह उठी | बच्चा हाथ-पैर मार कर अपने जीवन के लिए मृत्यु से लड़ते हुए लम्बी-लम्बी स्वासें भर रहा था | उसने थोड़ा विलम्ब कर दिया होता तो शिशु का दम घुट चुका होता | मिट्टी की नमी से वह कपड़ा भीग गया था | जैसे ही उसने कपड़ा अलग किया, एक साथ कई बिच्छुओं का डंक लगा, एक बार फिर उसके पाँवों तले जमीन खिसक गयी, सिर पर आसमान फट गया ! ठगी-सी वह आँखे फाड़े टार्च की रौशनी में उसे देखने लगी | उसकी समझ में अब सब आ चुका था | वह मन ही मन सोचने लगी, “तो इसी लिए वो लोग इस नन्ही जान से छुटकारा पा गए; ओह्ह! पर अब मैं क्या करूँ ? क्या मैं भी फिर से शिशु को वहीं गाड़ दूँ ? नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती, फिर मुझमें और उन लोगों में क्या अंतर रह जाएगा, जो रात के अँधेरे में उसे मौत के मुंह में धकेल गए थे ? उपरवाले ने इस बच्चे के जीवन की रक्षा हेतु मुझे चुना है तो जरूर कुछ सोचा होगा; पर अब मैं क्या करूँ इस बच्चे का ? किसे दूँ ? घर ले गयी तो मेरी खैर नहीं ! हे भगवान ! मुझे राह दिखाओ..अब क्या करूँ मैं ?”
तभी बच्चा कुनमुनाया, फुलमतिया चौंक पड़ी, दो पल के लिए उसका ध्यान उस शिशु से हट गया था | जल्दी से उसने बच्चे को थपथपाया उसके नन्हें तलवों को हथेली से रगड़ कर गर्मी दी फिर उसे अपने आंचल में लपेट कर अपने सीने से लगा लिया ताकि उसके शरीर की गर्मी बच्चे तक पहुँच सके |
बच्चा कहीं रो-रो कर आसमान सिर पर ना उठा ले, उससे पूर्व ही वह उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना चाहती थी | एक बार फिर वह सोच में पड़ गयी| बच्चे को ले कर वह कहाँ जाय?
उसका दिल जोर-जोर से धड़क उठा | अचानक उसकी आँखे चमक उठीं | अब वहाँ ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं था | उसने बच्चे को अच्छे से आंचल में छुपाया और गाँव की ओर तेज कदमों से बढ़ गयी |
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भूधर राय गाँव के सबसे प्रतिष्ठित और संभ्रान्त व्यक्ति हैं | भारी संपत्ति उन्हें पुरखो से विरासत में मिली है | पुरानी हवेलीनुमा मकान की मरम्मत करा कर उन्होंने नया रंग-रूप दे दिया है | घर के काम हों या खेती-बाड़ी के, नौकर-चाकरों की कमी नहीं, कृषि के काम आने वाली सारी प्रौद्योगिकी उनके द्वार पर मौजूद है | गाँव के लोग भी उसका उपयोग किराया चुका कर करते हैं | आज वही पुश्तैनी हवेली दुल्हन की तरह सजाई गयी है | पूरी हवेली में चहल-पहल है | तरह-तरह के पकवान बनाए जा रहे हैं | रात्रि में जलसे का आयोजन किया गया है | जिसमें बड़े-बड़े अधिकारीगण और गाँव-गिराँव के लोग आमंत्रित हैं | उनकी पत्नी उर्मिला देवी की खुशी का ठिकाना नहीं है | वह घूम-घूम कर सारी व्यवस्था देख रहीं हैं ताकि कहीं कोई कमी ना रह जाय | थोड़ी देर आराम करने के लिए वह अपने कक्ष में आ कर पलंग पर लेट गयीं और तभी उन्हें याद आता है अतीत का वो पल, जब हाँफती हुई फुलमतिया आयी थी |
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