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यादों का अटूट रिश्ता

“ यादों का अटूट रिश्ता ”

आर 0 के 0 लाल

आइए सर! बहुत दिन बाद आप का आना हुआ। कहीं बाहर चले गए थे क्या? मेरे स्टोर में बहुत नया सामान आया है। आप देख लीजिए। मॉल के चीफ मैनेजर मिस्टर आरिफ ने अपने कक्ष में मेरा स्वागत करते हुई ये बातें कहीं। आरिफ जी मेरे स्टूडेंट रह चुके हैं। मैं जब भी मॉल में जाता हूं तो उनके चेंबर में भी जाता हूं। वे मुझे कॉफी पिलाते हैं और सामान खरीदने में मदद भी करते हैं। उनके कमरे में लगे सी सी टी वी कैमरे के मॉनिटर पर ही वे पूरे मॉल की निगरानी करते हैं। मैं कॉफी की प्रतीक्षा और कुछ गपशप कर रहा था। अचानक आरिफ ने कहा- “सर! मैं आपको कुछ दिखाऊं? फिर सी सी टी वी कैमरे के मॉनिटर की ओर इशारा करते हुए कहा कि इन महाशय को गौर से थोड़ी देर देखते रहिए।“

कंप्यूटर के स्क्रीन पर मुझे वे महाशय दिखाई पड़े । उम्र कोई अस्सी के आसपास रही होगी। अमीरों जैसी वेशभूषा थी उनकी- नीले रंग का सूट, सिर पर अंग्रेजों वाली टोपी और पैरों में जूता। हाथ में एक छड़ी भी लिए थे। मॉल के प्रवेश द्वार पर उन्होंने एक ट्राली खींची। एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ से ट्रॉली के सहारे वे आगे बढ़ रहे थे। थोड़ी देर बाद उन्होंने छड़ी को उसी ट्रॉली में रख दिया। मैंने देखा कि वह बहुत ही मुश्किल से चल पा रहे थे। मैंने आरिफ से पूंछा कि इनमें कोई खास बात तो मुझे दिख नहीं रही है तुम क्या कहना चाहते हो?

आरिफ ने बताया- "ये महाशय पिछले एक महीने से हर दूसरे तीसरे दिन हमारे शॉपिंग कांप्लेक्स में आते हैं। लगभग एक घंटे तक हमारे मॉल में रहते हैं लेकिन जाते समय कोई सामान नहीं ले जाते।"

"ऐसे तो तमाम लोग मॉल में आते हैं, थोड़ी देर अपना मनोरंजन करते हैं और वापस चले जाते हैं इसमें कोई खास बात तो है नहीं । क्या यह सज्जन चोरी की नियत से आते हैं और कुछ सामान पार कर देते हैं? क्या इन्हें कभी चोरी करते पकड़ा गया है?" मैंने जानना चाहा। आरिफ ने कहा- " नहीं सर! ऐसी कोई बात नहीं है। ये बहुत ही सज्जन व्यक्ति हैं और बहुत ही सभ्यता से पेश आते हैं। अब तो सारे कर्मचारी इनको पहचान गए हैं। आप स्वयं उनके कार्यकलापों को देखिए।"

मैंने देखा कि वह बुजुर्ग सीधे महिलाओं के सेक्शन में पहुंच कर कुछ वस्तुओं को उठा-उठा कर देख रहे थे और कुछ को अपनी ट्रॉली में रख रहे थे। वूमेन क्लॉथिंग सेक्शन से फ्लोरल प्रिंट वाले एक गाउन को देखा और ले लिया । वेस्टर्न वियर कलेक्शन से एक कुर्ती, ज्वेलरी और मैक्सी भी उठाई। परफ्यूम के काउंटर पर पहुंच कर उन्होंने एक परफ्यूम उठाया, उसको अपने हाथ पर लगाकर सूंघा और ट्रॉली में रख लिया। कुछ साबुन, पाउडर और हेयर कलर भी उन्होंने लिए । मैं उन्हें देख पा रहा था कि वह बहुत तन्मयता से चीजों का चयन कर रहे थे। कभी वे ट्राली से कुछ सामान निकाल कर वापस उनकी जगह रख देते और आगे बढ़ जाते फिर वापस आ जाते और उन्हीं सामानों को उठा लेते। एक लेडीस गॉगल भी उन्होंने ट्राली में रख लिया। इन सब कार्यों में लगभग चालीस मिनट लगा। उन्होंने अपनी घड़ी देखी और पेमेंट काउंटर की ओर चल दिए। काउंटर के पहले ही रुके और ट्राली के सामानों को घूरने लगे। फिर मैंने देखा कि वे अपना रूमाल निकालकर आँखें पोंछ रहे थे। उन्होंने ट्राली किनारे करके वहीं छोड़ दी और एग्जिट दरवाजे से मॉल से बाहर निकल गए।

अब आरिफ ने बताया- " जब भी ये आते हैं, ऐसा ही करते हैं और अपने आंसुओं को पूछते हुए मॉल से चले जाते हैं। कर्मचारियों ने हमें बताया कि उन्हें कई बार ट्रॉली से सामान वापस शोकेस में लगाना पड़ा है इसलिए वे चाहते थे कि ऐसे व्यक्ति को मॉल में आने ही न दिया जाए। मगर मैंने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया है। मुझे समझ नहीं आता कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? मेरे पास तो इतना समय नहीं है कि मैं उनकी समस्याओं का पता लगा सकूं।"

मेरी कॉफी भी समाप्त हो चुकी थी। मैंने आरिफ को धन्यवाद दिया और अपनी पर्चेजिंग करने चला गया। बाहर निकला तो देखा सीढ़ियों पर वही बुजुर्ग बैठे थे। मैंने सोचा कि उनसे बात की जाए और उनकी भावनाओं को समझा जाए। मैं उनके बगल में जाकर बैठ गया। बात शुरू करने के उद्देश्य मैंने उनसे कहा- "मैं शायद आपको पहचानता हूं लेकिन मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है कि आप से कहां मिला हूं।"

उन्होंने बताया- " मैं यही पास में हाईकोर्ट के सामने एक बंगले में रहता हूं। अकेला हूं। कुछ समय बिताने के लिए यहां चला अता हूं। थक गया हूं इसलिए यहीं पर बैठ गया हूं।" वे मान नहीं रहे थे फिर भी मैंने जिद करके उन्हें घर पहुंचाने के लिए अपनी गाड़ी में बैठा लिया और उनके घर पहुंच गया। उन्होंने स्वयं घर का दरवाजा खोला और मुझे अंदर आने के लिए कहा।उनकी नौकरानी भी उसी समय आ गई इसलिए उन्होंने मुझे चाय पीकर जाने को कहा।

मैंने उन्हें बताया- उस मॉल में काफी लोग आपको पहचानते हैं, मगर आप के विषय मे जानते नहीं । आप अक्सर वहां जाते हैं परंतु बिना कुछ लिए वापस चले आते हैं। शायद आपको पता नहीं हो लेकिन आपकी सारी बातें सी सी टी वी कैमरा में रिकॉर्ड होती रहती है।"

उन्हें लगा कि उनकी चोरी पकड़ी गई। बोले- आगे से ऐसा नहीं करूंगा। क्या करूं, यादों का रिश्ता ही ऐसा है जो टूटता नहीं। वो मुझे तीन महीने पहले अचानक छोड़ कर चली ही गई। न जाने उसकी याद क्यों सताती है। रात में जब याद आती है तो नींद नहीं आती, बेचैन हो उठता हूं, लगता है दम ही घुट जाएगा। आप ने बात उठाई है तो आपको मेरी कहानी सुननी ही पड़ेगी।"

फिर भावुक होकर बोले - "जब कभी भी हमें उसकी याद आती है तो कुछ बातों को याद करके हम हर्षित होते हैं, तो कुछ बातों को लेकर अश्रुधारा बहने लगती है। हम गांव में रहते थे जब हमारी शादी हुई थी। उस जमाने में बाल विवाह होता था। हमारी उम्र चौदह साल थी और वह बारह साल की रही होगी। कहा जा सकता है कि हम लोग बचपन से ही साथ साथ बड़े हुए। लोग हंसते थे, मगर हमारे बाबूजी ने हम दोनों को एक ही स्कूल में पढ़ाया। साथ स्कूल जाते और खूब लड़ते झगड़ते। दो चोटियों वाली वह लड़की खूब गुस्सा करती। अम्मा कहती यह तुम्हारी पत्नी है, उसी तरह उसके साथ रहो, लेकिन हमें उस समय उसका मतलब कम ही समझ आता था। कई सालों तक तो वह अम्मा के साथ ही सोती थी।

एक बार मैं पेड़ से गिर गया था। मुझे बहुत चोट लगी थी तो उसने मेरी बड़ी सेवा की। तब मुझे समझ आई थी कि वो गुस्सा करने वाली निशा तो नकली थी, असली तो ये है जो अब मुझे प्यार कर रही है। उसी दौरान हम लोगों में शायद प्यार हो गया था। वह हमें नजर भर देखने के बहाने खोजती रहती, बात कर रही होती तो उसकी आंखों में एक विशेष प्रकार की चमक होती थी। सुबह सोकर उठने के बाद हमको देखकर मुस्कुराती और इस प्रकार अपने दिन की शुरुआत होती। मुझे भी वह बहुत प्यारी लगने लगी। उसके बिना समय बिताना नागवार गुजरता।

मेरी नौकरी लग जाने पर मुझे शहर आना पड़ा। वह गांव में ही रह गई। जब भी छुट्टी मिलती, मैं उसकी ओर दौड़ पड़ता। पहुंचते ही वह कहती आज छत पर कौवा कांव-कांव कर रहा था तभी मैंने समझ लिया था कि तुम आ रहे हो। खाने-पीने की पूरी तैयारी करके रखती। कहती इस बार हम भी तुम्हारे साथ ही चलेंगे। मन में ख्याल तो दूसरा होता था मगर कहती तुम दुबले होते जा रहे हो। हम चलेंगे और तुम्हारी सेवा करेंगे। वहां कोई खाना देने वाला नहीं है। फिर कहती अरे यहां अम्मा बाबू की सेवा भी करनी है। मैं कैसे जा सकती हूं। तुम्हारे साथ तो कभी भी चल सकती हूं। अभी बहुत जिंदगी बची है, खूब मौज करेंगे।" दूर रहते तो लम्बी लम्बी चिट्ठियां लिखती थी वो हमें। हर एक चिट्ठी के शब्दों में उसकी पूरी आकृति उभर आती। बरसात की खतों में तो तरह तरह के इत्र की खुशबू होती। उस समय ब्लैक एंड व्हाइट फोटो का जमाना था। सबकी फोटो खींच कर कैमरे की पूरी रील ही भेज देती और मै उसे डेवलप कराता।

कुछ दिनों बाद हमारा एक बेटा हो गया। अब उसका सारा ध्यान अपने बेटे की ओर होता और हम उसके जीवन का दो पल लेने को भी तरसते। वह बहुत व्यस्त रहती थी और मेरे लिए समय नहीं निकाल पाती। उसका केवल एक ही शौक रह गया था अपने बेटे को अच्छी तरह से परवरिश करना। बेटे के बाद एक बेटी भी आ गई तो उसे न खाने की फुर्सत रहती है न कहीं जाने की।

बाबू जी और अम्मा के देहांत के बाद वह मेरे साथ शहर आ गई। सुबह उठते ही बच्चों को तैयार करती, स्कूल भेजती और खाना बनाती। मैं दफ्तर से शाम को आता तो मेरी लिए नाश्ता बनाती और दफ्तर का पूरा हालचाल पूछती। कभी कभी सलाह भी देती। न जाने उसमें इतना ज्ञान कहां से आ गया था। कहा करती कि इस दुनिया में 'लॉ ऑफ अट्रैक्शन' काम करता है। जैसा सोचोगे, जैसा करोगे वैसा ही प्रकृति से खिंच कर वापस तुम्हारे पास आयेगा।"

जब मैं एस डी एम था तो मेरी एडवाइजर वही थी। पब्लिक की ज्यादातर समस्याओं को निपटाने का कोई न कोई रास्ता होता उसके पास। कभी कहता कि चलो कहीं घूमने चलते हैं तो कहती कि नहीं, अपने बच्चों को पहले बड़ा आदमी बनाना है। तुम्हारी तरह जब वे भी कुछ बन जाएंगे तब उनके साथ हम लोग घूमेंगे।"

भगवान के आशीर्वाद से हमारे बच्चे अच्छी पढ़ाई करके विदेश में नौकरी पा गए। मुझे याद है उनके चले जाने पर कितना रोई थी। मगर पड़ोसियों और रिश्तेदारी में बड़ी खुशी खुशी बताती कि हमारे बच्चों ने कितनी तरक्की की है।

हम दोनों अकेले हो गए थे। कभी कहता – “अब तो चलो घूमने। चलो कुछ तुम्हारे लिए गहने बनवा दें, तुम भी अपना शौक पूरा कर लो।“ मगर वह कहती कि अब हमारी उम्र हो गई है। गहने पहन कर क्या करूंगी। जो कुछ होगा वह मैं अपनी बहू को दूंगी।" कुछ दिनों बाद दोनों बच्चो कि शादियां हो गईं। बच्चों ने ऐसे कई दफे बुलाया लेकिन नौकरी के कारण हम नहीं जा पाते थे।

एक बार हम लोग बेटे के यहां गए। वहां सास बहू में कुछ तकरार हो गई। मैंने सभी को डॉट लगाई। बेटे ने बहू का पक्ष लिया और मुझे भी कुछ उल्टा सीधा कह दिया। इस बात से वह बहुत कुपित हो गई थी। उसने कहा कि मुझे यहां नहीं रहना, तुरंत वापस चलो अपने घर रहेंगे। हमने उसे बहुत समझाने की कोशिश की मगर उसने कहा कि बेटा मेरे को कुछ कह देता तो कोई फर्क नहीं पड़ता मगर इन दोनों ने आपकी बेइज्जती की है। मैं अब कभी उनके पास नहीं आऊंगी। उसके बाद जब भी बेटा उसको बुलाता किसी न किसी बहाने से उसको टाल देती। धीरे धीरे दोनों बच्चे अपने परिवार में उलझ गए और फिर केवल फोन पर ही हम लोग के बीच संबंध रह गया।

रिटायरमेंट के बाद हम दोनों ही परिवार में बचे थे। इसलिए हम एक दूसरे का भरपूर साथ देते। सभी तरह का आनंद लेने की कोशिश करते। अब उसे समझ आ गया था कि अपने लिए भी जीना चाहिए। हम लोग ज्यादातर समय साथ साथ बिताते और चाहे जितना भी व्यस्त हों, हम एक दूसरे के लिए समय अवश्य निकालते और साथ ही मॉल जाकर समान खरीदते। यही वो डाइनिंग टेबल है जिस पर हम दोनों लोग साथ बैठते थे। हमारे बीच बात बात में मतभेद हो जाता था मगर वो बातें मनभेद में परिवर्तित नहीं हो पाती थी।

वे रुआंसे होकर बोले - "उस दिन हम लोग लखनऊ के एक माल में शॉपिंग कर रहे थे। वो कह रही थी मुझे अपने बाल काले करने है। बहुत दिनों से तुम डाई नहीं लाए, यह आदत तो तुम्हीं ने डलवाई है। मेरे तो सफेद बाल ही अच्छे लगते थे”। गॉगल के काउंटर पर मुझसे कहा - "मेरे पास कोई धूप का चश्मा नहीं है। अगले महीने जब मनाली चलेंगे तो वहां चश्मा लगा कर घूमेंगे और तुम्हारे साथ कई फोटो सेशन करेंगे। आजकल भी बहुत तेज धूप है, आंखें चुंधिया जाती हैं।" बहुत दिनों बाद उसने परफ्यूम लेने को भी कहा। वह जो- जो कह रही थी मैं उसे अलमारी से उठाकर ट्रॉली में रख रहा था कि अचानक उसे चक्कर आ गया। वह वहीं गिरने लगी। मैंने उसे संभालने की कोशिश की और वहीं पर बैठने को कहा। उसके माथे पर काफी पसीना आ रहा था इसलिए रुमाल से पोंछने लगा। मैंने ट्राली वहीं छोड़ दी और उसे लेकर माल से बाहर भागा। दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते उसकी हालत काफी खराब हो गई थी। वह बोल ही नहीं पा रही थी। कैब करके उसे अस्पताल ले गया। उसका हाथ मेरे हाथों में था, मैं कह रहा था कि परेशान मत हो अभी अस्पताल पहुंच जाते हैं। मगर अस्पताल पहुंचते ही पता चला कि वह हमसे काफी दूर जा चुकी थी जहां से कोई नहीं लौटता। मेरा सब कुछ छिन चुका था। अब इस शहर में मेरा कोई नहीं है। न जाने मैं किस ख्याल में माल पहुंच जाता हूं और उन्हीं चीजों को तलाशता हूं जिसे उसने आखिरी बार लेने को कहा था। फिर सोचता हूं कि किसके लिए ले रहा हूं तो ट्राली वहीं छोड़कर बाहर चला जाता हूं, अब तो मेरा कोई हमदम,कोई सहारा नहीं है।"

इतना कहकर वह चुप हो गए। मुझसे भी कोई जवाब नहीं देते बना। मैं भी रुमाल से अपना आंसू पोंछ रहा था।

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