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भय और आडम्बर का प्रचार - वर्तमान में जातिभेद - 5

Part-5
Cast discrimination in present
जब मुझे पता चला कि मेरे गाँव के मंदिर में हो भण्डारे के आयोजन की तैयारी के लिए बैठक बुलाई गई । उस बैठक में लोगों को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी गई । लोगों से कितना चन्दा लेना है , किस व्यक्ति से कितना चन्दा लेना है , कौन से कार्यक्रम होगें आदि । जैसे कि बैठक व्यवस्था कौन देखेगा ? चूँकि उसी दिन पत्रिवर्ष मेला भी लगाया जाता था तो इस बात का भी निर्णय लिया गया सांस्कृतिक कार्यक्रम कौन सम्भालेगा । भोजन व्यवस्था कौन देखेगा , साफ सफाई कौन देखेगा । बैठक का निर्णय सुनने के लिए मैं वहाँ पर था तो नही । मेले वाले दिन से एक दिन पहले जब मैं गाँव आया तो । मेरी माँ ने बताया कि कल लक्ष्मणपुरी बाबा में मेला और भण्डारा है । चूँकि मैं ढोंग आडम्बर को त्याग ही चुका था । इसलिए माँ से कहने लगा कि तो क्या हुआ ? वैसे भी मैं मन्दिर मस्जिद जाता नही कोई अच्छा कार्यक्रम होगा तो शाम को देख आऊंगा । वहाँ खिलाने परोसने जाऊंगा नही । तब माँ ने बताया खिलाने परोसने के लिए वहाँ तुम्हे कोई लगाएगा ही नही । मुझे आश्चर्य हुआ कि माँ ऐसा क्यों कहा रही है , क्योंकि यह बात की मैं मंदिर मस्जिद नही जाता मेरे माता पिता के अतिरिक्त कोई और जनता नही , तो कोई आपत्ति क्यों करेगा ? जिज्ञासावश माँ से प्रश्न किया कि ऐसी क्या बात है कि मुझसे कोई नही कहेगा ? माँ ने जो बताया सुनकर मुझे बड़ी हँसी आई । कि वाह कुदरत भी लोगों को समझने का कितना अवसर देती है , फिर भी भोंदू लाल भोंदू ही हैं । माँ ने बताया कि गाँव में मीटिंग हुई थी जिसमें कहाँ गया है कि अनुसूचित जाति के लोग खाना बनाने और परोसने में नही रहेंगे क्योंकि वह भोजन पहले देवताओं को परोसा जाएगा इसलिए भोजन शुद्ध होना चाहिए , और हो सकता है अन्य जाति के आदमी बुरा मान जाए । मैंने कहा बात तो सही कही गई कि दूसरे की रसोई में कोई और क्यों घुसे ? एक बात यह जरूर गलत है कि देवताओं को भोजन परोसा जाएगा , अगर इसलिए नही तो वाकई गलत है । सबसे पहले तो जाती सूचक शब्द नही होने चाहिए थे (यहां जिन असंवैधानिक जाति वाचक शब्दों का प्रयोग किया गया था उनको मेरे द्वारा परिवर्तित किया गया है ) क्योंकि भण्डारा एक सामाजिक कार्यक्रम है । दूसरी बात यह कि उनको यह पता होना चाहिए जिस मन्दिर में मूर्ति रखी है उसकी हर ईंट को अनुसूचितजाति के लोगों ने छुआ है क्योंकि गाँव में यही वर्ग मजदूरी करता है । तब तो पूरा मन्दिर ही शुद्ध नही है , मंदिर को कितना भी धुला पोंछा गया हो फिर भी भीतर का ईंट गारा तो धुला नही ।
इस बात पर माँ को भी हँसी आ गई , कहने लगी पता है दुर्गा जी की मूरती किसने बनाई ?
मैंने आश्चर्य से पूँछा ! किसने ?
माँ ने बताया -अपनी ही बिरादरी के चमन भइया ने ।
मैंने कहा -तब तो और बढ़िया देवी को जन्म देने वाला ही उसे नही छू सकता ।
मैंने फिर पूछा-कि भंडारे का अनाज किसी घर से लिया गया ?
माँ ने बताया सबके घर से । मैंने कहा ठीक है तब मैं भी जाऊंगा लेकिन खाऊंगा नही । कोई कहेगा तो बोल दूँगा की अगर खिलाने वाला ही खा लेगा तो भंडारे का मतलब क्या रहा ! और अगर खाऊंगा तो पत्तल मुझे उठाना पड़ेगा मैं यह कर नही सकता । क्योंकि बात अब आत्म सम्मान की थी । कहना तो पड़ेगा कोई भले ही बुरा मान जाए । अगर कोई खिलाना चाहता है तो पत्तल भी उसे उठाना पड़ेगा । माँ ने कहा झगड़ा करने मत जाना भले न जाओ । जब गाँव में किसी और को दिक्कत नही तो तुमको क्या ? अगर दिक्कत है तो जाओ ही नही । अब माँ की बात थी , विरोध भी नही कर सकता था । वह व्यवस्था जहाँ जिल्लत की रोटी खाने वाले अपमानित लोग पत्तल उठा रहे हो , उसे मैं अपनी आंखों से देखना चाहता था । देखना चाहता था वह देवी क्या करती है ? जिसका मन्दिर और स्वयं उसे बनाने वाले सिर्फ पत्तल उठा रहे हों । क्या इस बात पर वह कोई आपत्ति करेगी ? क्या अपने बनाने वाले के अपमान का बदला लेगी ? एक साथ बहुत सारे प्रश्न थे मेरे मन में ।
इतने सारे प्रश्न और जवाब सिर्फ एक कि अगर वह प्रश्न है तो उत्तर उसी में होना चाहिए । जरूरत थी उसमें से हर प्रश्न का जवाब ढूंढने की । यह काम इतना आसान नही था क्योंकि पाखंडियो ने डरा रखा है लोगों को की भगवान पर शक न करो ।
अरे! भाई जब शक ही नही करेंगे तो प्रश्न कैसे उत्तपन्न होंगें ? वैसे भी ये प्रश्न ईश्वर पर शक के नही हैं , शक तो इस बात का कि क्या वाकई ईश्वर है या कोई सिर्फ डराने का प्रयास कर रहा है । क्या यह भेदभाव उसने बनाया ? अगर वह भेदभाव करता तो बराबर वायु , जल , समान आहार , समान रंग रूप , एक समान बाहरी और भीतरी अंग , एक जैसा रक्त , समान जरूरतें , एक समान दिनचर्या सबको क्यों देता ? कुछ तो अंतर करता ही । पाखंडियो ने जमीन पर कब्जेदारी कर ली , जल स्रोतों पर भी प्रतिबंध लगा दिया , भोजन हड़पने का प्रयास किया , लेकिन पूरी तरह छीन नही पाए । चूँकि वायु को वश में करना आसान नही था उस पर कोई प्रतिबंध नही लगा पाए । इस प्रकृति ने हमें जिंदा रखा , बचे खुचे भोजन ने हमें ऊर्जा दी । कैसा भी जल मिला हो लेकिन उसका एहसान है हम सब पर । तो क्यों न हम अपनी प्रकृति को जाने उसे समझें । उसको नष्ट होने से बचाएं ।
शेष अगले भाग में .....

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