फेसबुकिया बुद्धिजीवी
परिचय
जन्म तिथि- 16 जुलाई 1956
पेशे से चिकित्सा भौतिकीविद एवं विकिरण सुरक्षा विशेषज्ञ। पूरा नाम तो वैसे अरविन्द कुमार तिवारी है, पर लेखन में अरविन्द कुमार के नाम से ही सक्रिय। आठवें दशक के उत्तरार्ध से अनियमित रूप से कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा और अखबारों में स्तंभ लेखन। लगभग तीस कहानियाँ, पचास के करीब कवितायें और तीन नाटक बिभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित। सात कहानियों के एक संग्रह "रात के ख़िलाफ" और एक नुक्कड़ नाटक "बोल री मछली कितना पानी" के प्रकाशन से सहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में एक विशिष्ट पहचान बनी। आजकल विभिन्न अख़बारों और वेब-पत्रिकाओं में नियमित रूप से व्यंग्य लेखन। अब तक करीब सौ से ऊपर व्यंग्य रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कविता संग्रह “आओ कोई ख्वाब बुनें” और एक व्यंग्य संग्रह “राजनीतिक किराना स्टोर” अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति—चिकित्सा महाविद्यालय, मेरठ (उ० प्र०) में आचार्य (चिकित्सा भौतिकी)
ई-मेल: tkarvind@yahoo.com
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एक मशहूर कहावत है। करेला और नीम चढ़ा। मतलब कि कड़वे करैले की लतायें अगर नीम के पेड़ पर चढ़ जायें, तो करैला और कड़वा हो जाता है। लेकिन आज कल एक नया मुहावरा ईजाद हुआ है। और इंटरनेट की दुनिया में बड़ी तेजी से वाइरल हो रहा है। बुदि्धजीवी और वह भी फेसबुकिया।
हम सभी जानते हैं कि बुदि्धजीवी वह होता है, जो सिर्फ सोचता है। वह धरती पर सिर्फ सोचने के लिए ही पैदा...माफ़ कीजियेगा अवतरित हुआ है। वह करता वरता कुछ नहीं, सिर्फ सोचता है। उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते यहाँ तक कि नहाते-गुसल करते हुए भी वह सोचता है। देश में अकाल पड़ जाय तो वह सोचता है। गरीबी बढ़ जाए, तो वह सोचता है। महँगाई डायन नोंच-नोंच कर खाने लगे, तो वह सोचता है। वह भ्रष्टाचार पर सोचता है। आतंकवाद पर सोचता है। भाजपा और कांग्रेस पर सोचता है। वह सपा, बसपा, टीएमसी, डीएमके, एडीएमके, बीजेडी, आरजेडी, सीपीआई, सीपीएम, माले और आप के बारे में सोचता है। वह पाकिस्तान, चीन, सीरिया, ईराक और अमेरिका पर सोचता है। वह दंगो पर सोचता है। बलात्कार पर सोचता है। आतंकवाद पर सोचता है। वह इतना सोचता है कि दुःख के मारे अधमरा हो जाता है। रातों को उसे नींद नहीं आती। भूख-प्यास नहीं लगती। उसका चैन-वैन सब उजड़ जाता है। उसकी हालत ऐसी हुयी रहती है कि कभी वह हँसता है। कभी उदास होता है। और कभी छाती पीट पीट कर विलाप करने लगता है। लेकिन करता वरता कुछ नहीं है। बस सोचता है। और इतना सोचता है कि कब्ज़ का शिकार हो जाता है।
पहले के ज़माने में ये बुद्धिजीवी या तो कॉफ़ी हाऊसों में मिलते थे या फिर लईब्रेरियों में या फिर धुंआती हुयी किसी कैंटीन के आख़िरी कोने में। ये सिगरेट, बीड़ी, शराब और कुछ तो सिगार पीते थे। और बहस कर-कर के अक्सर अपने अन्दर की गैस को वायुमंडल में छोड़ कर उसे गंधाते रहते थे। और उस गंध से उत्तेजित होकर वे चाय या काफी के प्यालों में ही नहीं, पूरे माहौल में तूफ़ान-सा खड़ा कर देते थे। उनकी बातों से ऐसा लगने लगता था कि क्रांति अब आयी कि तब आयी। वे सिर्फ क्रांति की अगवानी करना चाहते थे, पर उसका हिस्सा बनना बिलकुल नहीं चाहते थे।
लेकिन अब समय बदल गया है। हाई टेक ज़माना है। अब कॉफ़ी इंस्टेंट हो गयी है। कॉफ़ी हाउस नदारद हो गए हैं। किताबें और पत्रिकाएं भी अब ऑनलाइन हो गयी हैं। लाइब्रेरी डिजिटल हो गए हैं। इसलिए फेसबुक पर इन दिनों अचानक ही ढेर सारे बुद्धिजीवियों की बाढ़ सी आ गयी है। एक से बढ़ कर एक बुद्धिजीवी। कब्ज और एचटूएस की गंध वाले डकार से भरे हुए बुद्धिजीवी। हर समय भड़ास निकालने को तत्पर बुद्धिजीवी। इन्हीं को कहते हैं फेसबुकिया बुद्धिजीवी। इस नए ज़माने के इन नए बुद्धिजीवियों के अन्दर तो पुराने ज़माने के पुराने बुद्धिजीवियों से भी ज्यादा गैस भरी हुयी होती है। और वह भी इतनी कि वे कभी भी किसी को भी गरियाने लगते हैं। और कुछ तो अपनी बुद्धिमत्ता प्रदर्शित करने के लिए इतने आतुर दीखते हैं कि बिना सिर-पैर के अपने वाल पर कुछ भी लिख मारते हैं। और उनके लग्गू-भग्गू वाह-वाह करके लाइकों की ऐसी झड़ी लगा देते हैं कि उनका उनका सीना फूल कर उनकी अधिकतम औकात से ज्यादा चौड़ा हो जाता है।
कुछ तो इतने बेसबरे हो जाते हैं कि उनको लगने लगता है कि एक वे ही सच्चे देशभक्त हैं, बाकी सभी देशद्रोही हैं। मजेदार बात तो यह है कि उनकी देशभक्ति उनके अंदर हमेशा इतनी उबालें मारती रहती है कि वह उफन-उफन कर अक्सर फेसबुक को भी गीला करने लगती है। वे एक पार्टी या एक व्यक्ति के इतने अंध भक्त हो जाते हैं कि भावुकता में बह कर दूसरी पार्टी या दूसरे व्यक्ति को हमेशा गरियाते रहते हैं। कभी-कभी तो उनकी देशभक्ति की गर्मी उनके सिर पर इस कदर सवार हो जाती है कि वे अपने धर्म, अपनी जाति और अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी को महान देशभक्त मानते हुए दूसरे धर्म, दूसरी जाति और दूसरी पार्टी को देशद्रोही साबित करने के लिए कुतर्कों का ऐसा पिटारा खोल कर बैठ जाते हैं कि दुनिया के सारे कुतर्क भी शर्माने लगते हैं। बस इतना ही होता है उनका बुद्धिजीवी पन। और इतनी ही होती है उनकी राष्ट्र भक्ति।
दिन भर खाया-पिया। मोबाइल से इधर उधर बकवास की। नौकरी में हैं, तो अफसरों की जी-हूजूरी की। मक्खन-पालिश लगा कर नौकरी बचाने का जुगाड़ किया। और अगर बिजनेस है तो औने का माल पौने में बेचा। सेल टैक्स, इनकम टैक्स और सर्विस टैक्स की चोरी की। और मुनाफ़े को ब्लैक और व्हाईट करने के लिए रजिस्टरों में तमाम तरह की हेरा फेरी की। शाम को थके-हारे आये, सोफे पर पसरे और रिमोट हाँथ में लेकर चैनलों को बदलते हुए सरसरी तौर पर देश-दुनिया की खोज-खबर लेने लगे । बोर होकर दो-चार पेग लगाया। और देर रात को फेसबुक के ऊपर सवार हो गये।
भ्रष्टाचार के मुद्दे की खूब लानत-मालमत की, पर जब भी मौका मिला उसमें सशरीर डुबकी लगाने लगे। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार--छेड़ छाड़ और बलात्कार पर आँसू तो खूब बहाया, पर बगल से गुजरने वाली हर महिला को अपनी आँखे फाड़-फाड़ कर स्कैन ज़रूर किया। दंगों और आतंकी वारदातों का विरोध तो खूब किया पर अगले ही पल यह हिसाब लगाने लगे कि इन में किस धरम के लोग ज्यादे मरे। भंड़ास निकाली, पेट हल्का किया और चद्दर तान कर सो गए। कल की कल देखी जायेगी। ये भी न सड़कों पर उतरेंगे। न किसी संगठन में शामिल होंगे। और न ही किसी संघर्ष-आन्दोलन का हिस्सा बनेंगे। सिर्फ रोज़ फेसबुक पर अपडेट डाल कर मिले लाइक्स की गिनती करते रहेंगे। आखिर बेचारे बुद्धिजीवी जो ठहरे। फेसबुकिया बुद्धिजीवी।