दहलीज़ के पार - 17 Dr kavita Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दहलीज़ के पार - 17

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(17)

अपनी माँ से आशीर्वाद लेकर श्रुति अपनी सखी प्रभा और उसके भाई अथर्व के साथ गाँव छोड़कर शहर के लिए चल पड़ी। भाई से डरकर रहना अब उसकी प्रकृति नही रह गयी थी। अपने रूढ़िवादी समाज की स्त्रियो मे चेतना जाग्रत करने के उसके सकल्प के लिए भी उसका भयमुक्त रहना आवश्यक था। अपने सकल्प का स्मरण करते हुए उसने निर्भयतापूर्वक गरिमा तथा अपनी माँ से कहा था—

आप मेरी चिन्ता मत करना ! मै जल्दी ही इस गाँव मे एक नये रूप मे लौटकर आऊँगी ! जाते—जाते वह पुनः वापिस मुड़ी और कागज के एक टुकड़े पर अथर्व का मोबाइल नम्बर लिखकर गरिमा के हाथ मे थमाती हुई आशामयी स्वर मे बोली —

भाभी, इस नम्बर पर मुझसे सम्पर्क किया जा सकता है ! यह अथर्व के मोबाइल का नम्बर है। कभी अवसर मिले, तो मुझसे बाते करके माँ को मेरी कुशलता के बारे मे बताकर उन्हे सन्तुष्ट रखना ! नमस्ते !

घर से निकलते समय श्रुति की आँखो मे आँसू भरे हुए थे, किन्तु उसके चेहरे पर कठोरता थी। उसके अन्तः से एक अज्ञात—सी शका और भय मे डूबा—हुआ एक प्रश्न बार—बार उठकर उसको विचलित कर रहा था —

माँ और भाभी से कहे गये मेरे शब्दो मे सत्य का कितना अश है विद्यमान है ? क्या मै इस गाँव मे दोबारा लौटकर आ सकूँगी ? क्या कभी मेरा लौटकर आना सम्भव होगा ? मेरे जाने के बाद माँ मेरी चिन्ता ना करे, क्या यह सम्भव है ? ...लेकिन इन शब्दो के अतिरिक्त मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नही था, तो मै माँ से क्या कहती? वैसे भी मुझे हारकर तो नही बैठना है !

गाँव से शहर मे आकर सबसे पहले प्रभा, श्रुति और अथर्व के समक्ष खाने—रहने की समस्या आयी। श्रुति का कहना था कि अथर्व के भाई के घर रहना सुरक्षा की दृष्टि से उचित रहेगा, किन्तु अथर्व का मत था कि गाँव के अधिकाश व्यक्ति उसके भाई के निवास के विषय मे जानते है। वहाँ रहने पर गाँव के वे सवेदनाहीन—व्यक्ति किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचा सकते है, जो उनके परिवार के प्रति सद्‌भावना नही रखते है। अथर्व अपने भाई को किसी भी सकट मे नही डालना चाहता था।

प्रभा ने अथर्व को समझाया कि जब तक अपना कुछ प्रबन्ध न हो जाए, तब तक बड़े भाई के घर पर रहना ही उचित रहेगा। अपने लिए शीघ्र ही एक किराये पर मकान लेकर भाई का घर छोड़ने मे कोई हर्ज नही है। प्रभा के कहने पर अथर्व सहमत हो गया और उसी समय तीनो अक्षय के घर पर चले गये।

वहाँ जाकर श्रुति ने भविष्य मे क्या करना है ? कैसे करना है? आदि प्रश्नो पर चर्चा करना आरम्भ कर दिया। प्रभा और अथर्व नही चाहते थे कि भाई को अपने आने का वास्तविक कारण बताया जाए। अतः वे दोनो श्रुति को भी इस विषय पर चर्चा करने से रोक रहे थे। श्रुति का मत अथर्व और प्रभा से भिन्न था। वह कहती थी कि यह विषय छिपाने का नही है, बल्कि सबको बताने का है, अपनो को भी और परायो को भी। उसने स्पष्ट शब्दो मे कहा था कि आज नही तो कल, प्रशान्त अपने सभी साथियो सहित बाहर आ ही जायेगा ! उसको पूरा विश्वास था कि घूस देकर अब वह शीघ्र ही लौटकर आ जायेगा और वहाँ से लौटकर वह शान्त नही बैठेगा।

श्रुति के मतानुसार, जब तक प्रशान्त जेल से छूटकर नही आता है, तब तक ही उनके पास इतना समय है कि अपनी सुरक्षा हेतु अपनी शक्ति का विकास कर सके। अन्यथा कीड़ो—मकोड़ो की मौत मरना उनकी नियति बन जाएगी, क्योकि प्रशान्त इस बार योजना बनाकर अपने प्रतिशोध की ज्वाला ठड़ी करेगा। वह अपने प्रतिशोध को पूरा करने के लिए पुलिस को अपने विश्वास मे लेकर घायल शेर की भाँति उन पर टूट पड़ेगा और उनका अस्तित्व मिटा देगा। शक्ति—विस्तार के लिए श्रुति ने सामाजिक सम्पर्क के द्वारा लोगो तक अपनी समस्या को पे्रषित करने का तथा उसके समाधान के लिए उनसे एकजुट होने का आग्रह करने का सुझाव दिया।

श्रुति के सुझाव से अथर्व तुरन्त सहमत हो गया, किन्तु प्रभा मे एक बार फिर साहस कम होने लगा था। प्रशान्त के विरुद्ध तथा समाज की नकारात्मक धारणाओ के विरुद्ध लम्बी लड़ाई लड़ने का जो साहस उसको गरिमा की प्रेरणादायी बातो से मिला था, गाँव छोड़ने के पश्चात्‌ वह निरन्तर कम होता जा रहा था। श्रुति की बातो से प्रशान्त की शक्ति और धूर्तता के विषय मे नित्य नई जानकारी मिलने से उसका साहस कायरता मे तथा उसकी आशा निराशा मे बदलती जा रही थी। उसने अपनी निराशा को छिपाते हुए श्रुति को समझाया कि इतने बड़े शहर मे प्रशान्त को ज्ञात भी नही हो पायेगा कि उसकी बहन कहाँ रह रही है। अतः उचित यह रहेगा कि वह अपना घर बसाकर शान्तिपूवर्क अपना जीवन व्यतीत करे ओर प्रशान्त को भूल जाए।

श्रुति को प्रभा का सुझाव किसी भी दशा मे स्वीकार्य नही था। उसने प्रभा को स्पष्ट शब्दो मे उत्तर दिया कि वह प्रशान्त को उसके साथियो सहित उनके कुकृत्य का दण्ड दिलाकर ही सुख—चैन से जीवन व्यतीत करने के विषय मे विचार करेगी। साथ ही उसने यह भी कहा कि प्रशान्त से छिपकर अज्ञातवास मे जीने की अपेक्षा मरने मे वह गर्व का अनुभव करेगी, परन्तु, वह अपने जीवन को या मृत्यु को व्यर्थ नही गवाना चाहती है। वह मरेगी, तो मुक्ति पाने के लिए और जीयेगी, तो मुक्त होकर।

श्रुति का साहस और उत्साह देखकर जीवन के प्रति प्रभा के दृष्टिकोण मे एक पुनः परिवर्तन आया। श्रुति से प्रेरणा पाकर एक बार पुनः प्रभा को अनुभव हुआ कि उसके अन्दर एक नयी चेतना का—नयी ऊर्जा का सचार हो रहा है। उसने अनुभव किया कि निरन्तर सघर्ष ही व्यक्ति को जीवित बनाता है, इसके विपरीत सघर्ष से पलायन एक जीवित व्यक्ति को मृतप्राय बना देता है। अपनी अनुभूति को प्रकट करते हुए प्रभा ने श्रुति के समक्ष स्वीकार किया कि साहस और धैर्य ही उसके जीवन की सार्थकता है। अब किसी प्रकार की विषम परिस्थति मे अपने लक्ष्य से हटना उन्हे स्वीकार्य नही होगा।

श्रुति की बातो से प्रेरित—प्रभावित होकर प्रभा अब उससे शत—प्रतिशत सहमत हो चुकी थी। फलस्वरूप उसने अथर्व के मोबाइल से अपने परिचितो—अपरिचितो को मैसेज भेजना आरम्भ कर दिया और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जन—सचार के अन्य साधनो पर विचार करने लगी। उसका विचार था कि प्रिट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सहयोग मिलने पर उनके लक्ष्य प्राप्ति की सफलता सुलभ और निश्चित हो जाएगी। अथर्व और श्रुति भी प्रभा के विचार से सहमत हो गये।

दो दिन पश्चात्‌ शहर के अधिकाश समाचार—पत्रो मे तथा टी.वी. चैनलो पर ये समाचार सुर्ख्िायो मे था — ‘बहन की हत्या का प्रयास और उसकी सहेली के ़साथ सामूहिक—दुष्कर्म, पुलिस अपराधियो को पकड़ने मे असफल।' मीडिया मे इस समाचार के आने तक सोशल साइट्‌स तथा मोबाइल द्वारा भेजे गये मैसेजेज़ से भी युवा—समाज मे यह विषय अपना स्थान बना चुका था कि विकृत मानसिकता रखने वाले असामाजिक तत्वो से समाज की रक्षा करने के लिए एकजुट होना अत्यन्त आवश्यक है। प्रभा और श्रुति के पास इस लड़ाई की पहल करने के लिए बधाई तथा पूर्ण सहयोग करने का आश्वासन देने वालो के फोन—कॉल्स सुबह से ही आने आरम्भ हो गये थे।

फोन—कॉल्स तथा समाचार—पत्रो से अक्षय को प्रभा के साथ घटित घटना के विषय मे ज्ञात हुआ, तो वह आश्चर्य, क्रोध, पीड़ा और ग्लानि के मिश्रित भावो मे डूब गया। अक्षय को प्रशान्त के प्रति क्रोध आ रहा था, तो बहन के प्रति सवेदना से उसके हृदय मे पीड़ा हो रही थी। सर्वाधिक पीड़ा उसको अपनी इस भूल के लिए हो रही थी कि अपने परिवार से शारीरिक दूरी बढ़ने के साथ—साथ उनकी आत्मीयता इतनी कम हो गयी है कि अपने ही परिवार के साथ घटित इतनी बड़ी दुर्घटना के विषय मे उसे समाचार—पत्रो तथा टी.वी.चैनलो द्वारा ज्ञात हुआ है। अपने प्रति भाई—बहन तथा माँ की इस उपेक्षा का कारण स्वय को मानकर अक्षय आत्मग्लानि से भर गया। अपनी भूल को सुधारने के लिए अब वह अथर्व और प्रभा का पूर्ण सहयोग करना चाहता था। सहयोग ही नही, अब वह अपने छोटे बहन—भाई का अवलम्ब बनना चाहता था।

अक्षय यह निश्चय नही कर पा रहा था कि वह ऐसा क्या करे? जिससे वह प्रभा और अथर्व के सुखी जीवन का अधार बन सके। अक्षय प्रभा के विषय मे मीडिया मे फैली सूचना को उसके हित मे नही देखता था, इसलिए वह प्रभा को इस मार्ग पर चलने से रोकना चाहता था। परन्तु ऐसा करने के विषय मे सोचते ही उसका आत्मविश्वास डगमगा जाता था। उसके अन्तःकरण से बार—बार एक आवाज आने लगती थी —

प्रभा और अथर्व यही सोचेगे, मै उनका साथ नही देना चाहता हूँ, इसलिए उन्हे रोक—टोक कर रहा हूँ। अपनी इस दुविधा मे फँसकर अक्षय न तो उनके समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त कर सका, न ही उनको उस मार्ग पर चलने से मना कर सका और न ही उनको सहयोग करने का आश्वासन दे सका। इस विषय पर सोचते—सोचते उसका पूरा दिन निकल गया।

दिन—भर विचार—मथन करके भी अक्षय को समस्या का कोई समाधान नही सूझ रहा था। समस्या से स्वय को अलग रख पाना भी सम्भव नही था। इसके लिए उसकी अन्तरात्मा उसका साथ नही दे रही थी। उसके मस्तिष्क से बस एक ही विचार निष्पन्न हो रहा था कि यह आग केवल प्रशान्त को ही नही जलायेगी, दोनो परिवारो को जलाकर खाक कर देगी। दोनो परिवारो के पूर्वजो द्वारा कमाई हुई मान—प्रतिष्ठा के साथ ही प्रभा और अथर्व के भविष्य को अन्धकारमय बना देगी। पूरा दिन इसी तर्क—वितर्क मे बीतने के बाद जब अक्षय का मनःमस्तिष्क इतना बोझिल हो गया कि उसको वह बोझ असह्‌य हो गया, तब उसने अपनी माँ को समाचार—पत्रो मे छपे हुए प्रभा से सम्बन्धित समाचार के विषय मे बताया। समाचार—पत्रो मे, टी. वी.चैनलो पर बेटी से समबन्धित समाचार आने के विषय मे ज्ञात होने पर प्रभा की माँ चिन्ता से व्याकुल हो उठी—

पता नही, इसके भाग्य मे क्या लिक्खा है ! पहले तो परसान्त ने...! और अब प्रभा अपने आप ही अपने सुख—चैन मे आग लगा रही है ! इस सारे बवाल की जड़ सुरति है। ...खूब समझा ली, पर पिच्छा छोड़ने कू ही तैयार नही है !

अपनी भी तो समझ होनी चाहिए अथर्व और प्रभा मे ! अक्षय ने कहा।

बेट्‌टा, बुरे बखत मे दिमाग बी काम ना करता है!

माँ, आप उन दोनो को समझाने का प्रयास करो, शायद वे समझ पाये कि क्या करना उनके हित मे है।

प्रभा को समझाने का क्या परिणाम हो सकता है, उसकी माँ को यह भली—भाँति ज्ञात था। फिर भी, अक्षय के आग्रह पर माँ ने प्रभा को समझाया कि वह उस रास्ते पर न चले, जिस रास्ते पर चलकर उसका जीवन बद से बदतर हो जाए। माँ ने प्रभा को समझाया कि जब तक उसके साथ हुई दुष्कर्म की घटना के विषय मे समाज के कुछ गिने—चुने लोगाे को ज्ञात था, तब तक उसके भविष्य पर सकट भी छोटा था। किन्तु अब, जब अपेक्षाकृत अधिक लोग उस घटना के विषय मे जान जाएँगे, तब कोई उसको अपने साथ रखने के लिए या उसके साथ रहने के लिए तैयार नही होगा। माँ ने समझाया कि इस समाज मे बद से बदनाम बुरा माना जाता है। बदनाम होने के बाद झूठे दिखावे के लिए कुछ लोग साथ निभाने का दावा करेगे, किन्तु वास्तव मे वे लोग साथ निभाने वाले नही होगे।

माँ को चिन्तित देखकर प्रभा को अत्यन्त कष्ट हुआ था। परन्तु वह अब पीछे लौटना नही चाहती थी। उसने माँ से कहा कि जो लोग उसको समर्थन दे रहे है, वे मिथ्या—प्रदर्शन मात्र नही कर रहे है, बल्कि अपने अन्दर के असन्तोष को प्रकट कर रहे है। वे सभी जानते है कि आज जिस दुर्घटना का शिकार प्रभा हुई है, कल कोई अन्य हो सकती है। वह अन्य उनकी बहन—बेटी भी हो सकती है और वे स्वय भी हो सकती है। प्रभा ने माँ को सान्त्वना देकर कहा कि वे उसकी चिन्ता न करे, उसके साथ इससे दुखद कुछ नही हो सकता, जितना दुखद हो चुका है।

प्रभा के तर्क के समक्ष माँ अधिक कुछ नही कह सकी थी। किन्तु इसका तात्पर्य यह नही था कि माँ की चिन्ता कम हो गयी थी। उनकी चिन्ता ने उस समय विकराल रूप धारण कर लिया, जब शाम को प्रभा की होने वाली सास विजयलक्ष्मी जी का फोन आया। विजयलक्ष्मी जी की पहली कॉल अथर्व के मोबाइल पर आयी, जिसमे प्रभा से बाते करने की इच्छा व्यक्त की गयी थी। अथर्व ने उन्हे बताया कि वह प्रभा के साथ ही है, वे उससे बाते कर सकती है। इतना कहकर अथर्व ने अपना मोबाइल प्रभा के हाथ मे देते हुए बताया कि विजयलक्ष्मी जी का फोन है, वह अपराधी—की—सी मुद्रा मे अपनी माँ की ओर देखने लगा। विजयलक्ष्मी जी के फोन की सूचना पाते ही अक्षय तथा माँ पर तो जैसे तुषारपात हो गया था। दो मिनट की बातचीत के पश्चात्‌ सपर्क कट गया था। अब सभी की प्रश्नसूचक दृष्टि प्रभा पर केद्रित थी। उनकी दृष्टि मूकवाणी मे जो प्रश्न पूछ रही थी, प्रभा उसका भली—भाँति अनुमान कर सकती थी। उसने एक लबी गहरी साँस लेकर उनकी जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा —

कह रही थी, सुबह से गाँव का नबर लगा रही थी, पर फोन नही लग सका। हारकर अब अथर्व के मोबाइल पर करना पड़ा। मैने बता दिया, हम अक्षय भैया के पास है, इसलिए...!

और क्या कहा उन्होने ? माँ ने चिन्तातुर होकर पूछा। जानना चाहती थी कि समाचार—पत्रो मे तथा टी.वी. चैनलो पर फैली बाते अफवाह है या सच्चाई है ? यदि अफवाह नही है, तो इस समाचार मे सच्चाई कितनी है ? मुझसे पूरा घटनाक्रम सुनना चाहती थी। मैने कह दिया समाचार—पत्रो मे लिखा है, पढ़ लेना ! अपनी होने वाली सास से ऐसी बात कहने मे तुझे झिझक नही हुई ! सहानुभूति मे तुझसे पूछ रही थी, तो बता देती ! प्रभा की भाभी ने कहा। प्रभा ने भाभी की बात का उत्तर देना आवश्यक नही समझा। बस, भावशून्य नेत्राे से माँ की ओर देखने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि चिन्ताग्रस्त होने से उनके मन—मस्तिष्क और वाणी सत्वहीन हो गये हो। प्रभा की ऐसी दशा देखकर अक्षय ने पत्नी से कहा—

“अजू, तुम चुप रहो ! कुछ अच्छा नही बोल सकती, तो कम—से—कम ऐसे समय जली—कटी बाते मत ही बोलो !

ठीक ही तो कह रही है बहू ! अपनी होने वाली सास से पिरभा को ऐसा नही कहना चाहिए था ! चुप रह जात्ती ; दो बात सुन लेत्ती ! पता नही भगवान कैसे दिन दिखावेगा !

प्रभा के लिए अब चुप रहना कठिन हो गया था। उसने माँ की बात पर अपनी प्रतिक्रिया देना ही उचित समझा और कहा— माँ, जिसे सहानुभूति होती है, वह सारा घटनाक्रम फोन पर सुनाने का आग्रह नही करता है ! यदि उन्हे इतनी ही सहानुभूति है, तो घर आकर प्रकट कर सकती थी ! लेकिन...!

“लेकिन क्या ? माँ की चिन्ता बढ़ने लगी थी।

“लेकिन उनके स्वर मे सहानुभूति नही थी ! मुझे तो लगता है, उन्हे ईश्वर ने वह हृदय नही दिया, जिसमे सवेदना और सहानुभूति जैसे कोमल भावो को स्थान मिल सके ! सच कहूँ, तो मानवता से उनका दूर—दूर तक कोई सम्बन्ध नही है !

कहते—कहते प्रभा के चेहरे पर अवाछित उपेक्षा और कठोरता झलकने लगी। अपने हृदयस्थ भावो को छिपाने के लिए वह कमरे से बाहर जाने लगी। तभी फोन की घटी बज उठी। वह ठिठककर रुक गयी। उसके मस्तिष्क मे एक अज्ञात—सी आशका होने लगी और वह किसी अज्ञात शक्ति से सचालित—सी फोन उठाने के लिए चल पड़ी।

दूसरी ओर से अक्षय आ गया। प्रभा से पहले ही अक्षय ने आकर फोन उठा लिया और हैलो—हैलो बोलकर दूसरी ओर से आने वाले स्वर को सुनने लगा। फोन सुनते ही अक्षय की मुखमुद्रा मे आये परिवर्तन को देखकर सबके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ खिचने लगी। सभी के कान रिसीवर की ओर लग गये। दूसरी ओर का स्वर अक्षय के अतिरिक्त किसी के कानो मे नही पड़ सकता था, फिर भी, सभी सुनने का असफल प्रयास कर रहे थे। अन्त मे निराश होकर अनुमान की नाव मे सवार होकर किनारे तक शीघ्रातिशीघ्र पहुँचने का प्रयास कर रहे थे। अनुमान की यह नाव अक्षय द्वारा बोले गये शब्दो से और उसके चेहरे के क्षण—क्षण मे परिवर्तित भावो से निर्मित हो रही थी। अक्षय फोन पर प्रार्थनापूर्ण स्वर मेे निवेदन कर रहा था—

नही—नही, आप ऐसा नही कर सकती ! प्लीज़ ! ऐसा मत कहिए ! आप एक बार, बस एक बार उसकी दशा के विषय मे विचार करके देखिए, आपकी सारी शिकायते स्वय ही दूर हो जाएँगी !...

आपने यदि ऐसा किया, तो वह टूट जाएगी ! प्लीज़ ! अक्षय बोलता रहा था और दूसरी ओर से सम्पर्क कट चुका था। अक्षय के बिना बताये ही वहाँ पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति यह अनुमान लगा चुका था कि किसका फोन है ? और क्या बात हो रही थी ? फिर भी माँ ने पूछ ही लिया—

अक्षय, किसका फोन था ?

विनय की माँ का था !

विजय लक्ष्मी जी का ? क्या कह रही थी ?

कह रही थी, अब प्रभा अपवित्र हो चुकी है, इसलिए वे प्रभा को अपने घर की बहू के रूप मे स्वीकार नही कर सकती है ! न ही वे उस घर से सम्बन्ध जोड़ सकती है, जिस घर का बेटा अपनी मान—प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर एक लड़की को बगरगलाकर उसके घर से भगा लाया हो !

क्या ? अथर्व ने उत्तेजित होकर कहा।

इतना ही नही ! वे कह रही थी, ऐसा निर्लज्ल्ज खानदान उन्होने आज तक नही देखा, जो अपने गलत आचरण को समाचार—पत्रो मे छपवाये ! ऐसे बदनाम खानदान के साथ सम्बन्ध जोड़कर हमे अपनी नाक नही कटवानी है !

भैया ! माँ ! आप मेरे विवाह की चिन्ता बिल्कुल न करे !

बनती—फिरती है महिलाओ की हितैषी और महिला—मच की अध्यक्षा ! विजयलक्ष्मी के इस असली रूप को भी अब सबके सामने लाना पड़ेगा, तभी इसका अहकार टूटेगा !

तू ऐसा कुछ नही करेगी, जिससे बात और अधिक बिगड़ जाए ! समझी तू ! अक्षय ने अधिकारपूर्ण कठोर स्वर मे कहा।

आप बात बिगड़ने की चिन्ता छोड़ दीजिए और विजयलक्ष्मी से बात बनने की आशा भी छोड़ दीजिए ! उसका वश चले, तो वह विनय का विवाह मेरे साथ कभी न होने देगी ! परन्तु...!

परन्तु क्या ? अक्षय ने पूछा।

जाने दीजिए !

प्रभा ने बात को आगे बढ़ाना उचित न समझते हुए कहा। तभी प्रभा की दृष्टि माँ की ओर गयी। माँ की चेतना धीरे—धीरे उनका साथ छोड़ रही थी। वह दौड़कर चीखती हुई माँ के पास आयी— ‘माँ—अ—अ ! किन्तु माँ कोई प्रतिक्रिया नही कर पायी। शायद अब तक माँ चेतनाशून्य हो चुकी थी। बेटी का रिश्ता टूटने की सूचना का वज्राघात वे सहन नही कर सकी थी। उसी समय माँ को अस्पताल ले जाया गया, जहाँ पर तुरन्त उनका उपचार आरम्भ हो गया था। परन्तु, कुछ ही समय मे निरीक्षण—परीक्षण करने के पश्चात्‌ डॉक्टरो ने बताया कि उनके जीवन को बचा पाना सम्भव नही है। वे कुछ ही समय की मेहमान है, इसलिए अपने अन्तिम समय मे वे जिससे मिलना चाहे, उससे उन्हे शीघ्र ही मिला दे।

डॉक्टर का निर्देश पाकर जब अथर्व, अक्षय और प्रभा माँ से मिलने के लिए पहुँचे, तब उन्होने अनुभव किया कि माँ उनसे कुछ कहना चाहती है। माँ की दृष्टि निर्निमेष प्रभा की ओर लगी थी। वे प्रभा से कुछ कहने का प्रयास कर रही थी। अपने हृदय के उद्‌गार माँ अपने होठो से व्यक्त नही कर पा रही थी, किन्तु उनकी नम आँखे जैसे सब कुछ कहने मे सक्षम थी और उनके बच्चे माँ की मूक वाणी का अर्थ ग्रहण करने मे पूर्ण समर्थ थे। माँ आँखो से कही गयी बातो का अर्थ समझकर प्रभा ने माँ से कहा —

माँ, आप मेरी चिन्ता मत करो ! मेरा विवाह विनय के साथ ही होगा। विनय बहुत ही नेक और समझदार लड़का है। वह अपनी मम्मी को इस विवाह के लिए अवश्य ही सहमत कर सकेगा ! बस, आप जल्दी से ठीक हो जाइये !

प्रभा ने माँ को अपने विवाह के विषय मे सकारात्मक बाते करके शीघ्र ही स्वस्थ होने के लिए कह दिया था। परन्तु माँ स्वय भी यह अनुभव कर रही थी कि अब उनका बच पाना अत्यन्त कठिन है और प्रभा, अथर्व और अक्षय के समक्ष उनकी माँ के प्राणो को बचा पाने की सम्भावना से डॉक्टर पहले ही नकार चुके थे। दो दिन तक माँ को कृत्रिम आक्सीजन के सहारे जीवित रखा जा सका। तीसरे दिन माँ का प्रणान्त हो गया। अपनी बेटी को दूल्हन के रूप मे देखने की इच्छा को अपने हृदय मे लिए हुए माँ स्वर्ग सिधार गयी । जिस समय प्रभा को माँ की सबसे अधिक आवश्यकता थी, उस समय विषम परिस्थिति मे फँसी हुई वह अपनी माँ के स्नेह के अभाव मे जीने के लिए विवश हो गयी। अपनी इस अभावमयी स्थिति के लिए वह विनय की माँ विजयलक्ष्मी को उत्तरदायी मान रही थी।

माँ के अन्तिम सस्कार के पश्चात्‌ प्रभा विनय के घर जा पहुँची। उस समय प्रभा के मन मे विजयलक्ष्मी जी के प्रति घृणा तथा क्रोध भरा हुआ था। उसने वहाँ पहुचकर शिष्टाचार की सभी सीमाएँ तोड़कर विजयलक्ष्मी जी को ललकारा कि वह स्त्री ‘महिला मच' की अध्यक्षा—पद के योग्य नही हो सकती, जो एक लड़की की समस्या के प्रति सवेदनशीलता नही रखती है ; जो एक माँ की पीड़ा को नही समझ सकती। प्रभा ने कहा कि उसकी माँ की हत्या की गयी है। वह हत्यारा कोई अन्य नही, बल्कि ‘महिला मच' की अध्यक्षा कहलाने वाली विजयलक्ष्मी ही है।

प्रभा का शोर सुनकर विजयलक्ष्मी के दरवाजे पर भीड़ इकट्‌ठी हो गयी। भीड़ के समक्ष अपने लिए अपमानजनक टिप्पणियाँ सुनकर विजयलक्ष्मी का पारा चढ़ गया। अभी तक वह चुप थी, किन्तु अब प्रभा को अपमानित करने मे अपनी भलाई देखते हुए ‘महिला मच की अध्यक्षा विजयलक्ष्मी ने उसके चरित्र पर लाछन लगाना आरम्भ कर दिया। अपने चरित्र पर लाछन लगते देखकर क्षण—भर के लिए प्रभा विचलित हो गयी और उसका हृदय रो उठा। किन्तु, अगले ही क्षण वह दृढ़ होकर बोली—

बलात्कार एक दुर्घटना है, जीवन का अन्त नही है ! दुर्भाग्यवश, मानसिक रूप से विकृत पुरुषो की दुर्भावना का शिकार कोई भी स्त्री हो सकती है, पर इसका यह अर्थ तो नही है कि वह लड़की अपने जीवन का अन्त कर ले या जीवन का महत्व भूलकर वह जीवन के प्रति उदासीन हो जाए!

प्रभा के तर्कमुक्त कथन का अपने पक्ष मे अर्थ ग्रहण करते हुए विजयलक्ष्मी ने भीड़ पर दृष्टिपात किया और भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा —

सुना अभी आपने, इस लड़की ने क्या कहा है ? इसने स्वय स्वीकार किया है कि इसके साथ गैग—रेप हुआ है ! टी.वी. और समाचार पत्रो मे इसने स्वय अपनी और अपने परिवार की इज्जत को नगा करके दिखाया है ! अब कहती है कि मै इसे अपने घर की बहू बना लूँ ! मूर्ख, दुश्चरित्रा लडकी ! जा, चली जा इस दरवाजे से, दुबारा कभी इधर पलटकर देखने की हिम्मत भी मत करना ! क्षण—भर तक चुप रहकर वह पुनः बोली — मै तो कहती हूँ, सब कुछ इसकी इच्छा से हुआ है। घटिया खानदान है इसका। इसका भाई भी अपने गाँव की एक जवान लड़की को भगा लाया है। उसी को बचाने के लिए लड़की के भाई को फँसाने का षडयन्त्र रचा है इस लड़की ने। किसी भले घर की लड़की होती, तो शरम के मारे किसी को मुँह दिखाने मे सकोच करती ! और एक यह निलज्ज है ...!

विजयलक्ष्मी का व्याख्यान सुनकर भीड़ की कुछ महिलाओ ने उसका पक्ष प्रबल करते हुए कहा — सच बात है ! बिलकुल सच ! इतना सबकुछ होने पर अच्छे—भले घर की लड़की लज्जा के मारे डूब मरती ! पर इसके चेहरे पर तो लज्जा की कोई शिकन तक नही है! क्यो आये मुझे लज्जा ? लज्जा उसे आती है, जो गलत काम करता है ! मै जानती हूँ, मैने कुछ गलत नही किया है, बल्कि मै तो अच्छा काम कर रही हूँ ! अपने समाज को दूषित करने वालो को, निन्दनीय और अमानवीय कुकृत्य करने वालो को उनके कुकर्मो का दड दिलाने का काम ! मै कहती हूँ, लज्जा तुम जैसे लोगो को आनी चाहिए, जो अत्याचार—अनाचार के विरुद्ध सघर्ष करने वालो को सहयोग देने के बजाय उनको हतोत्साहित करते है ! चुल्लू—भर पानी मे डूबकर मर जाना चाहिए आप जैसे लागे को, जो इज्जत और लज्जा के नाम पर अनजाने ही अपराधियो का सहयोग कर रहे है ! भीड़ पर प्रभा की नसीहत का सकारात्मक प्रभाव पड़ा। भीड़ मे

से तुरन्त ही कई स्वर उभरने लगे —

सही बात है ! बिलकुल ठीक कह रही है लड़की ! ऐसे जघन्य अपराधो के विरुद्ध हम सबकी आवाज एक हो जाए, तो अपराध का ग्राफ नीचे आ सकता है !

भीड़ मे उभरते हुए इन शब्दो से प्रभा को बल मिल रहा था। उसके अपने और श्रुति के उस निर्णय को अपेक्षित बल मिल रहा था, जो सघर्ष करने के लिए उन्होने अपने परिवार के सहयोग के बिना लिया था। उसके हृदय मे पीड़ा का ज्वार भी उठ रहा था। अपनी माँ की अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए प्रभा को विनय तथा उसकी माँ के सहयोग की अपेक्षा थी, जो उसको नही मिल सका था। उसकी स्मृति मे माँ का वह चित्र उतर आया, जब उसकी माँ मरणासन्न अवस्था मे अस्पताल मे थी और माँ की पानी मे भरी हुई आँखो मे दुल्हन के लिवास मे सजी—सँवरी अपनी बेटी को देखने की प्यास थी। उस समय उनकी अतृप्त प्यासी आँखो को देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोग तड़प उठे थे। काश ! उनकी उस अभिलाषा को तत्क्षण पूर्ण किया जा सकता ! अपनी पीड़ा की गहराई मे डूबकर प्रभा उस घृणा और क्रोध से मुक्त हो गयी थी, जिसे वह अपने हृदय मे आज विजयलक्ष्मी के प्रति लेकर आयी थी। अपनी माँ की स्मृतियो मे खोयी हुई पीड़ा का भार वहन किये, भारी कदमो से प्रभा वहाँ से खाली हाथ लौट गयी। वहाँ से लौटते समय उसका चित्त अशान्त था। बार—बार विचार कराने पर भी अपने चित्त की अशान्ति का कारण समझ मे नही आ रहा था। पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करके वह केवल इतना ही निष्कर्ष निकाल पायी थी कि अशान्ति का बीजारोपण विजयलक्ष्मी के घर मे होने वाले अमर्यादित, अतार्किक और असयमित—सवेदनाहीन वाग्व्यापार से हुआ था।

घर पहुँचकर प्रभा अशान्त चित्त से सबके बीच मे बिल्कुल शान्त अवस्था मे बैठ गयी। इतनी शान्त रहना उसकी प्रकृति नही थी। अथर्व जानता था कि प्रभा की शान्ति उसके चित्त की अशान्ति का परिणाम है। उसके हृदय की पीड़ा का कारण जानने के लिए अथर्व ने उससे पुछा —

कहाँ चली गयी थी तुम किसी को बताये बिना ?

वैसे तो प्रभा की पीड़ा के उस समय अनेक कारण हो सकते थे, परन्तु अथर्व को अनुभव हो रहा था कि इस बार प्रभा किसी अन्य विषय को लेकर व्यथित नही है। अतः प्रभा की ओर से शीघ्र कोई उत्तर नही मिलने पर अथर्व ने पुनः कहा —

प्रभा, कहाँ गयी थी तुम ?

इस बार भी प्रभा ने अथर्व के प्रश्न का कोई उत्तर नही दिया। एक क्षण के लिए अथर्व की ओर देखकर वह श्रुति की ओर देखने लगी। वहाँ पर बैठे हुए अक्षय, अश, अजु, अथर्व और श्रुति आदि मे से कोई भी उसकी दृष्टि का अर्थ नही समझ सका था। कुछ क्षणोपरात प्रभा वहाँँ से उठी ओर श्रुति का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ चलने का सकेत किया। श्रुति उठकर तुरन्त उसके साथ चल दी। कोई यह नही समझ पा रहा था कि प्रभा क्या चाहती है और श्रुति को लेकर कहाँ जा रही है ? यहाँ तक कि श्रुति भी इस विषय मे कुछ नही जानती थी, न ही कुछ अनुमान लगा पा रही थी। कुछ ही मिनट मे प्रभा घर के बाहर बने हुए पार्क मे जाकर खड़ी हो गयी। श्रुति भी उसके निकट खड़ी हो गयी। प्रभा ने निकट ही ईट—सीमेट से बने हुए एक चबूतरे पर उसको बैठने का सकेत किया और स्वय भी बैठ गयी। घर से आने के बाद अब तक वह एक शब्द भी नही बोली थी। श्रुति अब उसके बोलने की प्रतीक्षा मे उसकी ओर एकटक देख रही थी। उसे विश्वास था कि प्रभा शीघ्र ही किसी गम्भीर विषय पर चर्चा करना आरम्भ करेगी।

कुछ ही क्षणो मे श्रुति की प्रतीक्षा पूरी हो गयी। प्रभा ने श्रुति से कहा कि अब उनका अक्षय के घर पर रहना उचित नही होगा। जब माँ जीवित थी, तब अलग स्थिति थी। माता—पिता एक साबुत चने की भाँति अपनी सतान मे एक होने का भाव बनाकर उन्हे बाँधे रखते है। परन्तु छिलका हटते ही उसके दो भाग हो जाते है। जिन्हे किसी भी दशा मे एक नही किया जा सकता। ठीक उसी प्रकार माँ के मरने के बाद अक्षय और अथर्व अलग—अलग अस्तित्व धारण कर चुके है, जिनमे एक का भाव उत्पन्न नही किया जा सकता है। श्रुति भी प्रभा के दृष्टिकोण से सहमत थी। उसने प्रभा का समर्थन करते हुए सुझाव दिया कि अब तुरन्त ही कोई छोटा—सा मकान देखना आरम्भ कर देना चाहिए। ऐसा मकान जिसका किराया उनकी आर्थिक सामर्थ्यानुसार हो और जिसमे वे तुरन्त ही जाकर रह सके। अलग मकान लेकर रहने के विषय मे श्रुति की सहमति देखकर प्रभा ने विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा —

लेकिन उससे पहले तुम्हे एक कार्य और करना पड़ेगा ! एक कार्य और ?

हाँ !

कौन—सा कार्य ?

तुम्हे अथर्व के साथ विवाह करना होगा !

प्रभा, तुम यह क्या कह रही हो ?

वही, जो तुमने सुना है ! श्रुति तुम्हे अथर्व के साथ रहना है, तो तुम दोनो को विवाह करना पड़ेगा !... तुम्हे विवाह करना ही चाहिए!

प्रभा तुम अचानक ही अथर्व के साथ मेरे विवाह की रट क्यो लगाने लगी हो ? आखिर क्या हो गया तुम्हे ? मुझे भी तो बताओ ! हाँ बताऊँगी ! सब कुछ बताऊँगी तुम्हे ! यह कहकर प्रभा ने विजयलक्ष्मी के घर का सारा घटनाक्रम विस्तारपूर्वक सुना दिया। विजयलक्ष्मी के साथ हुए अपने कटु वाग्व्यापार का श्रुति के समक्ष वर्णन करते हुए प्रभा को अपने चित्त की अशान्ति का कारण समझ मेे आया था। अब उसको समझ मे आया था कि अथर्व के चरित्र पर की गयी टिप्पणी ने उसे बेचैन कर दिया था। विनय की माँ द्वारा की गयी अनेक निराधार टिप्पणियाँ, जो स्वय प्रभा पर की गयी थी, उन्हे सहन करना उसके लिए इतना दुष्कर और पीड़ादायक नही था जितना कि श्रुति को लेकर उसके भाई अथर्व पर की गयी टिप्पणियाँ। श्रुति धैर्य के साथ के साथ प्रभा की बाते सुनती रही। वह उसके हृदय की पीड़ा का अनुभव कर सकती थी। वह यह भी अनुभव करती थी कि प्रभा की इस पीड़ा का कारण वह स्वय है। यदि वह उस दिन अथर्व के साथ शहर नही आती, तब शायद प्रभा के साथ प्रशान्त दुष्कर्म करने का दुस्साहस नही करता। तब न ही प्रभा का विनय के साथ विवाह स्थगित होता और न ही बेटी का रिश्ता टूटने की सूचना से प्रभा की माँ का देहान्त होता !

फिर भी, प्रभा का प्रस्ताव श्रुति के लिए स्वीकार्य नही था। वह अथर्व के साथ विवाह के बन्धन मे बँधकर रहना नही चाहती थी। विवाह उसका लक्ष्य नही था। विवाह ही उसका लक्ष्य होता, तो वह अपने परिवार की सहायता से इस लक्ष्य को कई वर्ष पहले कर चुकी होती, जब उसके पिता और भाई उसका विवाह करना चाहते थे। उसका लक्ष्य तो अपनी आत्मा और शरीर, दोनो को स्वतत्र रखकर आगे बढ़ना — बढ़ते जाना था। परन्तु, आज प्रभा का प्रस्ताव स्वीकार न करने का आशय था, प्रभा की पीड़ा को बढ़ाना। उसकी पीड़ा श्रुति बढ़ाना नही चाहती थी। न ही उसका प्रस्ताव स्वीकार करके अपने लिए नयी बाधाएँ बढ़ाना चाहती थी। प्रभा की बात पूरी हो चुकी थी। वह श्रुति के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे आशा थी कि सकारात्मक सकेत मिलेगा। प्रभा के मनोभावो को पढ़कर अपना नकारात्मक उत्तर देने मे श्रुति को सकोच हो रहा था। फिर भी, उत्तर तो देना ही था। कुछ क्षण तक श्रुति मौन बैठी रही और प्रभा को निर्मिमेष देखती रही। कुछ क्षणोपरान्त उसने विनम्रतापूर्वक प्रभा से कहा —

प्रभा, तू ठीक कह रही है ! जो कुछ भी तू कह रही है, मेरे और अथर्व के हितार्थ कह रही है, यह मै अच्छी तरह समझती हूँ, लेकिन मै विवाह नही करना चाहती हूँ !

विवाह क्यो नही करना चाहती हो ? जबकि तुम इसके साथ रहना चाहती हो ! क्या रिश्ता है अथर्व के साथ तुम्हारा ?

अथर्व के साथ मेरा मित्रता का रिश्ता है !

नही श्रुति ! वयस्क लड़के—लड़की मे मित्रता का रिश्ता हमारा समाज स्वीकार नही करता है ! तुम्हे इस रिश्ते को ऐसा नाम देना ही पड़ेगा, जिसे हमारा समाज मान्यता देता है।

प्रभा, किस समाज की बात कर रही हो तुम ? जो समाज एक लड़की से जीने का अधिकार छीनकर गर्व का अनुभव करता है, उस समाज की ? प्रभा ! जो समाज स्त्री को अबला बनाने के लिए तो एक जुट हो सकता है, परन्तु स्त्री को न्याय दिलाने के नाम पर पीछे हट जाता है, मै उस समाज की परवाह नही करती हूँ ! क्षण—भर के लिए श्रुति चुप होकर प्रभा के चेहरे पर छाये हुए उसके मनोभावो के पढ़ने का प्रयास करने लगी। एक क्षणोपरान्त उसने पुनः कहा —

प्रभा, अथर्व और मै एक—दूसरे के अच्छे मित्र है, क्योकि हम दोनो के विचारो मे समानता है। हम दोनो प्रत्येक समय एक—दूसरे को सहयोग देने के लिए तत्पर रहते है, क्योकि हम दोनो को एक—दूसरे की आवश्यकता है। समाज के डर से अपने रिश्ते को नाम देने के लिए मै अथर्व से विवाह नही कर सकती हूँ ! ...तब तक तो कदापि नही, जब तक कि मै अपने लक्ष्य से दूर हूँ !

श्रुति अपना वाक्य पूरा कर पाती, इससे पहले ही अथर्व ने आकर बताया कि उसकी भाभी गरिमा का फोन आया है। श्रुति ने अथर्व के हाथ से मोबाइल लेकर गरिमा से बाते करना आरम्भ कर दिया। कुछ क्षणो की औपचारिक बातचीत के बाद श्रुति ने अपनी भाभी को बताया कि अब तक वे तीनो अक्ष्य के घर मे रह रहे थे। अब यथाशीघ्र किराये का मकान लेकर रहने का कार्यक्रम है। अलग मकान लेकर रहने के विषय अथर्व से अभी तक चर्चा नही हुई थी, इसलिए वह सोचने लगा कि शायद अक्षय ने अथवा उसकी पत्नी अजू ने कुछ ऐसा कहा है, जो प्रभा को सहन नही हो सका और शायद इसीलिए प्रभा चुप और अत्यधिक दुखी थी। प्रभा अपने भाई के हृदय मे उठ रही शका को समझ रही थी। उसने अथर्व को समझाया कि अक्षय ने या अजू ने ऐसा कुछ नही कहा है, न ही ऐसा कुछ व्यवहार किया है, जिससे उनके प्रति अविश्वास किया जा सके। किन्तु उनके घर मे अधिक समय तक रहना उनके जीवन मे अनपेक्षित हस्तक्षेप होगा, जो नही होना चाहिए। माँ के स्वर्गवास के उपरान्त तो कदापि नही। अथर्व भी प्रभा के विचार से सहमत हो गया। उसने प्रभा से कहा —

अलग मकान लेकर रहने के लिए हम तीनो को कुछ काम करना होगा, ताकि हमारे खाने—रहने के लिए आर्थिक समस्या न बने!

अथर्व के अन्तिम शब्द श्रुति के कानो मे भी पड़ गये थे। तुरन्त उसके शब्दो का अर्थ ग्रहण करते हुए श्रुति ने बताया कि घर से चलते समय उसकी माँ ने अपने कुछ स्वर्ण निर्मित आभूषण दिये थे, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हे बेचकर धन प्राप्त किया जा सकता है। श्रुति के इस प्रस्ताव पर प्रभा को क्रोध आ गया। उसने क्रोधित होकर अधिकारपूर्ण मुद्रा मे श्रुति को डाँटते हुए क्हा —

माँ के गहने बेचने के लिए नही होते है। खर्च करने के लिए कमाना सीखो ! अपनी आत्मा भी सतुष्ट रहेगी, माँ के आभूषण भी बच जाएँगे !

ठीक है, पर...!

पर क्या ? प्रभा ने श्रुति के वाक्य को बीच मे ही काटते हुए कहा।

प्रभा के प्रश्न के उत्तरस्वरूप श्रुति ने अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहा कि आभूषणो के रूप मे धन—सग्रह करना पुरानी परम्परा है, जो आज भी प्रासगिक है। धन—सग्रह इसलिए किया जाता है, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसका सदुपयोग किया जा सके। जिस प्रकार कोई व्यक्ति थोड़ी—थोड़ी बचत करके बैक मे पैसा जमा करता है और आवश्यकता पड़ने पर बैक से निकालकर उसका उपयोग करता है, उसी प्रकार गहने बेचकर पैसा प्राप्त किया जा सकता है।

श्रुति के तर्क से प्रभा सहमत नही थी। अपनी माँ के स्वर्गवास के पश्चात्‌ माँ की महत्ता का जैसा उसने अनुभव किया है, वैसा अनुभव श्रुति अभी नही कर सकती थी। भले ही श्रुति अपनी माँ से दूर थी, परन्तु माँ से सदैव के लिए दूर हो जाना ही उसके अभाव की वास्तिविक अनुभूति हो सकती है, जो उस समय प्रभा को हो रही थी, श्रुति को नही। प्रभा की पीड़ा का अनुभव करते हुए श्रुति ने उसको वचन दिया कि वह कभी भी माँ के गहनो को नही बेचेगी, न ही कभी अपने मन मे ऐसा विचार लायेगी। श्रुति के वचन से प्रभा सतुष्ट हो गयी। इतना ही नही, अथर्व के साथ विवाह करने के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के कारण श्रुति के प्रति उसके हृदय मे आयी कटुता भी अब दूर हो गयी थी।

समाज के सम्बन्ध मे श्रुति के दृष्टिकोण और स्वर्णाभूषणो के विषय मे दिये गये उसके तर्क से प्रभा इतनी प्रभावित हो गयी थी कि वह स्वय को श्रुति के सापेक्ष बहुत ही कमतर अनुभव कर रही थी। प्रभा मन ही मन सोच रही थी कि जिस प्रकार श्रुति ने अपने परिवार तथा समाज के विरुद्ध जाकर समाज मे व्याप्त रूढ़ियो को तोड़ा है और नारी स्वतन्त्रता का पथ प्रशस्त किया है, यदि प्रत्येक स्त्री इसी प्रकार साहस और विवेक का परिचय दे सके, तो सम्पूर्ण समाज सुसमाज बन जाए ; नैतिकता और मानवता का साम्राज्य स्थापित हो जाए। काश ! ऐसा सम्भव हो सकता, तो स्त्रियाँ निर्भय होकर विचरण कर सकती, अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त करके किसी भी क्षेत्र मे कार्य कर सकती और अपनी इच्छानुसार अपने जीवन का आनन्दोपयोग करती ! जीवन को भार स्वरूप वहन करना तब किसी स्त्री की विवशता नही होती !

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