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वो पहला पहला दिन


वो पहला दिन कीर्ति का शादी के बाद, एक अजीब सी उलझन में सिकुड़ी बैठी अपने बेड पर, बार बार लोगो का आना जाना, उसे देखना, ऐसा महसूस हो रहा था कि किसी अचंभित इंसान को कैद करके प्रदर्शन करने के लिए बैठाया गया हो, 
सुबह उठने के चक्कर मे रात कब आँखों ही आँखों मे निकल गयी ,उससे पहले रस्मों रिवाजों की थकान ने जकड़ डाला था, पर ये तो उसका फर्ज था, ना नुकुर किसे गवारा था, रात को सोते सोते 3 बज गए, उसमे भी हिदायत के साथ कि सुबह किरण निकलने से पहले तुम्हें नाहा कर तैयार होना है, 
पता नही सुबह क्या होगा कैसे मैं सबसे मिलूँगी ,क्या कहूँगी ,क्या पहनना होगा मुझे,क्या सारा दिन उस सारी में निकालना होगा, भूख लगी तो किसे बोलूँगी, कुछ अच्छा नही लगा तो किसे शिकायत करुँगी, मुझे तो सारी पहनना आता भी नही ,कैसे पूरा दिन मैं उसमें निकलूंगी, कैसे बात करनी है, कही ज्यादा बोल दी तो कोई क्या सोचेगा, नही जवाब दिया तो कही लोग ना कह दे कि कितनी घमंडी है, क्या करूँ कुछ समझ नही आ रहा, आत्मविश्वास तो जैसे खत्म ही हो गया था, ये पहले दिन की शुरुआत की सोच मेरे दिल में बैठी जा रही थी,
तभी मेरे सोच की पहलू ने रुख मोड़ कर मेरे ऑफिस के पहले दिन का जायज़ा किया,

हाँ ये सच है मुझे पूरी रात नींद नही आई थी सुबह सुबह मेरा ऑफिस में पहला दिन था, ख़यालो का पड़ाव कुछ ऐसा की, किस तरह में ऑफिस में बॉस को अपना परिचय दूँगी, कितनी पॉवर उसमें आत्मविश्वास की मिलाऊगी, हाँ क्यों नही मेरे नाम की पहचान बनने का ये पहला कदम था, जहाँ घबराहट बस मन में होनी चाहिए ,चेहरे पर नही, नए नए ऑफिस के लोगों से मिलना होगा, मुझे सारा दिन अपने आत्मविश्वास को बनाकर रखना होगा, सबके बीच एक अलग पहचान बनानी है,
तभी वर्तमान के रुख ने मुझे अपनी और खिंचा, क्या हो गया मुझे, 6 मीटर सारी में मैंने अपने आत्मविश्वास को इतना जकड़ लिया कि वो तड़प रहा था बाहर आने के लिए, मैं सहमी सी खुद की पहचान बनाना तो दूर इस परिवार की पहचान में खुद को भूल बैठी थी, मेरा नाम मेरे पति के नाम के आगे जरूर था,पर ख़ुद के वजूद का पलड़ा बहुत हल्का महसूस हो रहा था, यहाँ तो मुझे अपने शब्दों के साथ भी मोलभाव करना होगा, क्योंकि मेरी पहचान तो खत्म हो चुकी थी, अब तो लोगो को ये कहना पड़ेगा कि फला की बहू ऐसी है, मेरा नाम शायद यहाँ के रिश्तों में बंट जाने वाला है, शायद ये भी हो कि कभी कभी ही मुझे मेरे नाम के शब्द सुनाई दे,

कीर्ति भटनागर केबिन में आईये , आपका काम बहुत सराहनीय है, आपका प्रमोशन होने वाला है, लिस्ट में नाम आया है, जितना मन लगा कर मेहनत करोगी,उतनी तुम्हारी तरक़्क़ी होगी,उतना,वेतन बढेगा,और तुम्हारा नाम होगा, ये शब्द मुझे 7 वे आसमान पर ले गए थे,
पर यहाँ तो प्रमोशन होगा मैं बहु से माँ बन जाऊँगी, जी तोड़ तो काम यहाँ भी होगा पर मेरी मर्जी का नही,मैं उलझी फाइलों में कहा चकला बेलन के साथ दिन गुजारूंगी,किससे कहूँगी की मुझे ये अच्छा नही लगता, वेतन का तो दूर दूर तक मतलब ही नही, जब चाहिए हाथ फैलाए, क्यों चाहिए ,कितना चाहिए ये बताये,फ़िर जाकर उपलब्धि मिले,
बहुत अंतर हैं दोनों पहले दिनों में,एक मेरा आत्मविश्वास बढ़ाता है तो दूसरा तोड़ देता है, एक मुझे खुद के पैरों पर खड़ा होना सिखाता है तो दूसरा अपाहिज बना देता है, एक में प्रमोशन है तो एक में डिमोशन है। एक मेरी इच्छाओं को आसमान तक पहुँचता है तो एक वहीं से गिरता है,

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धन्यवाद
सोनिया चेतन कानूनगों

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