दहलीज़ के पार - 13 Dr kavita Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दहलीज़ के पार - 13

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(13)

दो दिन कान्ता मौसी के घर रहकर गरिमा अपने पिता के घर वापिस लौट आयी । जब वह घर लौट कर आयी, आशुतोष उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। आशुतोष का कहना था कि उसकी माँ ने वह समय, जब गरिमा की परीक्षाएँ चल रही थी, अपनी बहू तथा पोते की याद मे तड़पते हुए व्यतीत किया था। इसलिए अब एक दिन भी व्यर्थ गँवाये बिना गरिमा को तुरन्त अपनी सास के घर पहुँच जाना चाहिए। आशुतोष के आग्रह से गरिमा अगले ही दिन ससुराल पहुँच गयी।

ससुराल मे पहुँचकर इस बार गरिमा ने अनुभव किया कि वहाँ के वातावरण मे पर्याप्त परिवर्तन आ चुका था। श्रुति की परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थी। अब उसके व्यवहार मे और उसकी रुचियो मे परिवर्तन हो रहा था, जो उस समाज मे और सस्कृति मे मान्य नही था, फिर भी, उसकी माँ उसके साथ थी। माँ का समर्थन प्राप्त होने से उसके भाई अथवा समाज के अन्य कोई व्यक्ति कुछ भी कहने का साहस नही कर पा रहे थे। श्रुति के कार्य—व्यवहार उनके लिए किसी चुनौती से कम नही थे। चाहते हुए भी वे श्रुति पर नियत्रण नही कर पा रहे थे। उस पर नियत्रण करने मे जितना विलब हो रहा था, समस्या उतनी ही बड़ी होती जा रही थी, क्योकि अब श्रुति अकेली नही थी। अब उसको गाँव की अनेक लड़कियो का समर्थन मिलने लगा था। उसकी कार्यशैली, उसका स्वतत्रतापूर्वक घूमना—फिरना, नये फैशन का पहनावा आदि गाँव की अन्य लड़कियो के लिए आकर्षण का विषय बन रहा था। जो लड़कियाँ आरम्भ मे श्रुति की आलोचना करती थी, अब वे भी धीरे—धीरे उसी राह पर चलने का प्रयास करने लगी थी, जिस पर श्रुति चल रही थी।

लगभग दो माह पश्चात्‌ परीक्षाओ के परिणाम घोषित हो गये। श्रुति ने अपने विद्यालय मे प्रथम स्थान तथा जिले मे तृतीय स्थान प्राप्त किया था। परिणाम घोषित होते ही प्रभा ने श्रुति को यह शुभ सूचना दी और समाचार पत्र मे उसका नाम छपवाने के लिए एक फोटो माँगा। श्रुति पहले तो फोटो देने मे सकुचायी—घबरायी, परन्तु, जब प्रभा ने उसे समझाया कि एक ऐसी लड़की, जिसकी शिक्षा पर परिवार वाले और समाज प्रतिबन्ध लगाते है, उसका अपने विद्यालय मे तथा जिले मे स्थान प्राप्त करना बड़े गर्व का विषय है, इसलिए समाचार पत्र मे उसका नाम और फोटो अवश्य छपना चाहिए, तब श्रुति प्रभा से सहमत हो गयी और उसने प्रसन्नता से अपना एक फोटो प्रभा को दे दिया।

प्रभा, विनय तथा अथर्व के प्रयास से श्रुति का फोटो और नाम उसकी प्रतिकूल परिस्थितियो की कहानी के साथ अगले दिन समाचार पत्र मे प्रकाशित हो गेया। समाचार पत्र मे प्रकाशित होने के पश्चात्‌ ‘महिला मच' की मासिक पत्रिका मे भी श्रुति की सफलता, कर्मठमा तथा सघर्षशीलता को मोटे अक्षरो मे छापा गया। ‘महिला मच' की पत्रिका मे श्रुति की सफलता का उसकी रूढिवादी—सामाजिक पृष्ठभूमि के सदभोर् मे विशेष रूप से उल्लेखनीय बताया गया था कि आगे बढ़ने की लगन ही किसी स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति होती है, जो बड़ी—से—बड़ी चुनौतियो तथा रूढियो और प्रतिबन्धो को पार करने मे सक्षम बनाती है। श्रुति के सम्बन्ध मे प्रशसात्मक टिप्पणियो के साथ ही पत्रिका मे उसके समाज की शैक्षिक दशा तथा स्त्रियो की दशा का भी वर्णन किया गया था कि इक्कीसवी शताब्दी के आगमन पर भी हमारे भारत मे ऐसे समाजो का वर्चस्व समाप्त नही हुआ है, जिसमे स्त्रियाँ घर की चारदीवारी मे अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है। यदि वे स्त्रियाँ कभी घर से बाहर कदम रखती भी है तो साड़ी मे लिपटी हुई लम्बा घूँघट निकालकर बाहर निकलती है, ताकि वे बाहरी दुनिया से परिचित न हो सके और उन पर किसी की दृष्टि न पड़ सके।

प्रभा की प्रेरणा से, अथर्व और विनय के प्रयास से तथा ‘महिला मच' के सहयोग से श्रुति दूसरी महिलाओ के लिए प्रेरणादायक चर्चा का विषय बन गयी थी। वह अपना नाम तथा फोटो छपा हुआ समाचार पत्र देखकर अत्यधिक प्रसन्न थी। उसने समाचार का फोटो वाला पृष्ठ लाकर अपनी माँ को दिखाया, तो माँ भी प्रसन्न हुई थी, परन्तु, माँ ने धीमे स्वर मे उस पत्र को मोड़कर श्रुति के हाथो मे सौपते हुए सावधान किया था कि वह अपने नाम तथा फोटो छपे हुए पत्र को कही छिपाकर रख दे। माँ ने अपना भय प्रकट करते हुए श्रुति को बताया था कि यदि उसके भाईयो को तथा उसके पिता को इस विषय मे कुछ ज्ञात हुआ, तो परिणाम शुभ नही होगा। माँ के निर्देश से श्रुति ने वह पत्र और पत्रिका अपने पास छिपाकर रख लिए थे, परन्तु उन पत्र—पत्रिकाओ की अनेक प्रतियाँ अभी भी अनेक लोगो के पास सुरक्षित थी, श्रुति की माँ यह नही जानती थी। शायद श्रुति के परिवार मे कोई भी यह नही जानता था कि श्रुति सघर्षशील और कर्मठ ग्रामीण महिलाओ की सूची मे अपना नाम दर्ज करा चुकी है और अपनी सफलता का झडा गाड़कर स्त्रियो की चर्चा का केन्द्र बन चुकी है। प्रभा ने गाँव की प्रत्येक लड़की को तथा उनकी माँओ को घर—घर जाकर श्रुति का नाम—फोटो छपी पत्र—पत्रिका दिखायी थी। पत्र—पत्रिका मे श्रुति का फोटो देखकर कुछ स्त्रियो ने प्रत्यक्षतः आलोचना भी की थी, लेकिन परोक्षतः सभी पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा था। गाँव की कई लड़कियो की आँखो मे यह सपना तैरने लगा था कि यदि वे पढ़—लिख ले, तो एक दिन श्रुति की भाँति उनका फोटो भी पत्र—पत्रिकाओ मे छप सकता है। कई लड़कियो के माता—पिता की आँखे भी इसी सपने को देख रही थी।

परीक्षाओे के परिणाम आने के कुछ ही दिन पश्चात्‌ अगले शैक्षिक—सत्र के प्रवेश प्रारम्भ हो गये थे। पहली बार इस वर्ष के शैक्षिक—सत्र मे उस गाँव की लड़कियो की दूसरे गाँव मे स्थापित विद्यालय मे भीड़ लगी थी। अब तक गाँव की अधिकाश लड़कियाँ अनपढ़ रहती थी। कुछ ही लड़कियो को शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता था और वे भी आठवी कक्षा तक पढ़कर अपनी शिक्षा को विराम देने के लिए विवश हो जाती थी। आठवी कक्षा से आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए दूसरे गाँव मे जाना पड़ता था, इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से भी माता—पिता अपनी बेटियो की शिक्षा आठवी कक्षा के पश्चात्‌ बन्द कर देते थे। ऐसे माता—पिता अपनी बेटियो की शिक्षा का आकलन उन लड़कियो के सापेक्ष करते थे, जिनके माता—पिता अपनी बेटियो को विद्यालय के दर्शन भी नही कराते थे। उन्हे लगता था कि वे अपनी बेटी को आठवी तक कर शिक्षा दिलाकर उसके प्रति अपने कर्तव्य का पूर्ण—निर्वाह कर चुके है और रूढ़ियो को तोड़कर नये समाज के निर्माता बन गये है।

किन्तु श्रुति ने उन सब को पीछे छोड़कर नये प्रतिमान स्थापित कर दिये थे। उससे प्रेरणा लेकर कई परिवारो ने अपनी बेटियो को दूसरे गाँव के विद्यालय मे जाकर पढ़ने की अनुमति दे दी थी। यही कारण था कि जिस गाँव से पिछले शैक्षिक—सत्र मे मात्र एक लड़की ने दसवी की परीक्षा दी थी, नये शैक्षिक—सत्र मे उस गाँव की लड़कियो की विद्यालय मे भीड़ लग गयी थी। जिन्होने पिछले शैक्षिक—सत्र मे आठवी की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, वे नौवी मे प्रवेश लेने के लिए तथा जिन लड़कियो ने कई—कई वर्ष पहले पढ़ाई बन्द कर दी थी, वे पुनः शिक्षा प्रारम्भ करने सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के लिए विद्यालय मे जा रही थी। कुछ लड़कियाँ अपने—अपने अभिभावको के साथ जा रही थी, तो कुछ लड़कियाँ एक साथ अनेक लड़कियो का समूह बनाकर गयी थी।

गाँव की अनेक लड़कियो मे पढ़ने की तथा उनके परिवारो मे उन्हे पढ़ाने की चेतना का उन्मेष हो रहा था, किन्तु आज भी पूरे गाँव के सापेक्ष इन परिवारो की गणना की जाती, तो ऐसे परिवारो की सख्या बहुत कम थी। अब भी अधिकाश परिवार ऐसे ही थे, जो लड़कियो की शिक्षा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण ही रखते थे। श्रुति का परिवार भी उन्ही मे से एक था।

शिक्षा के लिए श्रुति के बढ़े हुए कदमो को उसके छोटे भाई अपने परिवार की मान—मर्यादा के लिए घातक मान रहे थे। उसके कार्य—व्यवहारो तथा रहन—सहन मे आ रहे परिवर्तनो से उसके परिवार तथा बिरादरी—समाज मे बेचैनी का वातावरण बन रहा था। छोटी—छोटी बातो को लक्ष्य करके श्रुति पर निशाना साधा जाने लगा था। चूँकि वह अपने दुपट्‌टे को सिर पर ओढ़ने के बजाय उसे फैलाकर गले मे डालने लगी थी, इसलिए समाज मे इस विषय को लेकर ही लम्बी चर्चा छिड़ जाती थी कि पढ़—लिखकर लड़कियाँ अपनी सस्कृति को चोट पहुँचा रही है। इसी क्रम मे जब एक दिन श्रुति ने अपने लम्बे बालो को सुन्दर आकार देने के लिए उन्हे नीचे से थोड़ा—थोड़ा—सा काट दिया, तब अनेक स्त्रियो ने उस पर कटाक्ष करते हुए व्यग्य—बाणाे की वर्षा करके अपनी सामर्थ्य—भर प्रयास किया कि श्रुति अपने उस कार्य को सस्कृति के विरुद्ध आचरण के रूप मे स्वीकार करने के लिए विवश हो जाए। किन्तु, श्रुति अब दुर्बल व्यक्तित्व की लड़की नही रह गयी थी। अपनी दसवी की परीक्षा मे सफलता प्राप्त करने के बाद जब से वह महिला मच की कुछ कार्यकर्ताओ से मिली थी, तब से उसके व्यक्तित्व मे अतिरिक्त दृढ़ता तथा अपने अधिकारो के लिए सघर्ष करने की इच्छा—शक्ति आ गयी थी। अतः अपने ऊपर कटाक्ष करने वाली स्त्रियो की सभावनाओ को तत्काल समूल उखाड़ फेकते हुए श्रुति ने तर्क—शक्ति का सहारा लिया। श्रुति ने उनसे कहा—

अपने बालो को सुन्दर आकार देने से उनकी सस्कृति को किसी प्रकार की हानि नही होती है, बल्कि बालो की उचित देखरेख के अभाव मे सस्कृति नष्ट होती जाती है। आप सबने टी.वी. मे नही देखा था कि रामायण मे सीता माता भी अपने बालो की देखरेख बड़े यत्न से करती थी। आज इक्कीसवी सदी मे यदि मैने अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए अपने बालो को काट लिया, तो आपको क्यो टैशन हो रही है ? इतिहास गवाह है कि हमारी पूर्वज स्त्रियो ने अपनी सुदरता को बनाये रखने के लिए या अपनी सुदरता को बढ़ाने के लिए किसी प्रकार का सकोच नही किया ! न ही कभी किसी ने उन पर प्रतिबन्ध लगाया या इस प्रकार का कटाक्ष किया, जैसे आप मुझ पर कर रही है ! सच पूछो, मुझे आप की बातो मे कुछ सत्य नही दिखता है !

श्रुति का तर्क सुनकर वे ग्रामीण स्त्रियाँ, जो वहाँ पर अब तक बड़ी सख्या मे एकत्र हो चकी थी, चुप होकर उसकी ओर देखने लगी। किसी को कुछ नही सूझ रहा था कि प्रत्युत्तर मे क्या कहे ? तभी एक ईर्ष्यालु महिला ने अपनी ईर्ष्या को अभिव्यक्त करते हुए कहा—

अब तो बोल्ली बी अग्रेज्जी बोल्लण लगी यू कल की लौडिया! क्यूँ री, गाँव की बोल्ली बोलणे मै सरम आवै है तुझै, जो अग्रेज्जी झाडरी है ?

एक स्त्री के बोलते ही अन्य स्त्रियो का साहस भी बढ़ गया। एक अन्य स्त्री ने श्रुति की युक्ति तर्क देते हुए अपने अपने कटाक्ष के पक्ष मे विचार प्रस्तुत किया—

जो औरत पहले सै ई बणाव—सिगार करकै अपणा रूप बढ़ात्ती आयी है, वे ब्याही—थ्याई रहैवै है, तेरी तरयो कुँवारी रहैकै बाप—दाद्‌दाओ की इज्जत किसी नै निल्लम ना करी होयेगी !

सुन्दर लगने के निए ब्याही—कुँवारी से क्या फर्क पड़ता है ?

जिसका मन चाहे अपना सौन्दर्य सँवार सकता है ! श्रुति ने उस स्त्री का तर्क काटा।

फरक क्यूँ नी पड़ता, भोत फरक पड़ै है ! ब्याही हुई औरत अपणे मरद कू रिझाणे कू बणाव—सिगार करै है। ब्याही हुई औरत सोहणी—सुतरी रहैवेगी, तो अपणे मरद कू अपणे पल्ले सै बाँध कै राक्खेगी ! तू बता, तू किसै रिझाणे की लियो सजी—समरी फिरै है? एक अन्य स्त्री ने श्रुति के तर्क को काटकर ऐसा व्यग—बाण छोड़ा कि श्रुति तिलमिला गयी —

तुम सब अनपढ़ गँवार औरतो से ज्ञान की बाते करना, भैस के आगे बीन बजाना है ! तुम्हे समझाकर मेरी खोपड़ी खाली हो जायेगी, पर तुम समझने की बजाय उल्टे मुझ पर व्यग्य कसती जा रही हो ! तुम सब अनपढ़ औरते ऐसी हो, जैसी हमने एक कहानी पढ़ी थी कि गौरैया ने बन्दर को अच्छी शिक्षा दी, तो बन्दर ने बेचारी गौरैया का घौसला ही तोड़ डाला !

श्रुति अपनी बात पूरी करके गाँव की स्त्रियो के झुड से आगे निकल गयी। उसने आगे जाते हुए एक बार भी पीछे मुड़कर नही देखा। उसने यह सुनने की भी आवश्यकता नही समझी कि गाँव की वे स्त्रियाँ उसकी कही हुई बातो का क्या उत्तर देगी, जिन्हे क्षण—भर पहले अनपढ़, गँवार तथा नासमझ बन्दर की सज्ञा जाने—अनजाने मे दे डाली थी।

श्रुति के व्यवहार से उसके गाँव की स्त्रियाँ बौखला उठी। उसके जाने के पश्चात्‌ भी पर्याप्त समय तक श्रुति के विषय मे चर्चा करती रही। उन सभी स्त्रियो की टिप्पणियो मे पर्याप्त भिन्नता थी— कुछ स्त्रियाँ श्रुति के परिवार के इतिहास का सकारात्मक पक्ष उजागर करके उस पर आरोप लगा रही थी कि वह पूर्वजो द्वारा परिश्रम से अर्जित की गयी मान—मर्यादा को नष्ट कर रही है। इन्ही मे से कुछ स्त्रियाँ श्रुति के कुल के नकारात्मक पक्ष का अनावरण करती हुई कह रही थी कि इस खानदान मे यह कोई नयी बात नही है। इस परिवार मे ऐसी घटनाएँ पहले ही होती आयी है, आर्थिक—सामाजिक सम्पन्नता तथा शक्ति के प्रभाव से कभी किसी ने अपना मुँह नही खोला। पर अब वे दिन गये, जब न कोई कहने वाला था, न कोई सुनने वाला था। अब उस परिवार की बराबरी करने वालो की गाँव मे कमी नही है। अपने घर मे रहकर कोई कुछ करे, तो किसी सीमा तक चुप रहा जा सकता है। घर के बाहर गाँव का माहौल कोई बिगाड़े, यह सहन नही किया जायेगा।

श्रुति से आरम्भ करके उसके पूर्वजो तक यात्रा करके उन स्त्रियो की चर्चा वर्तमान स्थिति पर लौट आयी थी। यूँ तो प्रत्यक्षतः सभी स्त्रियो की टिप्पणियाँ एक—दूसरी से भिन्न थी, लेकिन कुछ बाते सभी की टिप्पणियो मे समान रूप से देखी जा सकती थी। वहाँ उपस्थित शायद सभी स्त्रियो को यह अनुभव हो रहा था कि श्रुति पढ़—लिखकर उन सबकी अपेक्षा अधिक उन्नतशील हो गयी है, जिसमे उसकी माँ समाज की मान्यताओ को पीछे छोड़कर अपनी बेटी को सहयोग कर रही है। इस विषय मे चूँकि सभी की मनःस्थिति एक जैसी थी, इसलिए अधिकाश के अन्तःकरण मे ईर्ष्या का उदय हो चुका था और अब द्वेष पनप रहा था। उनकी टिप्पणियो मे अपनी सस्कृति का भाव कम ही दिखायी पड़ता था। इस भाव की अपेक्षा उनके चेहरे पर ईर्ष्या—द्वेष स्पष्ट झलक रहा था और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके जीवन का एकमात्र उद्‌देश्य श्रुति के मार्ग मे अवरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नही सकता। अपने इसी उद्‌देश्य को पूरा करने के लिए वे सभी एक जुट हो गयी थी और अपने समर्थको की सख्या—विस्तार की दिशा मे प्रयत्नशील थी। उनके इस प्रयत्न को सफल बनाने मे सहयोग किया श्रुति के एक अन्य कार्य—व्यवहार ने।

श्रुति अपने बालो को सुन्दर आकार मे काटकर उड़नपरी बन गयी है और अब उसके पाँव धरती पर नही टिकते है, यह चर्चा जगल की आग की तरह पूरे गाँव फैल गयी थी। यह बात उड़ती—सी उसके भाइयो के कानो मे पहुची थी, लेकिन उन्होने एक—दो बार कठोर दृष्टि से घूरकर श्रुति की ओर देखने के अतिरिक्त कोई प्रतिक्रिया नही की। अपने भाईयो की दृष्टि से श्रुति ने अनुमान लगा लिया था कि उसके विषय मे गाँव—समाज मे आज फिर चर्चा गर्म हो गयी है। जब से श्रुति की माँ ने उसका समर्थन किया था, तब से उसके भाई उसके विरुद्ध कोई टिप्पणी समाज मे सुनकर अपना क्रोध इसी प्रकार प्रकट करते थे। भाईयो का क्रोध देखकर अब वह भयभीत नही होती थी। कभी—कभी जब उसे स्वय ही यह अनुभव होता था कि उसका कोई कार्य—व्यवहार अनुचित है, तब वह कुछ सहम—सी जाती थी। परन्तु, जब उसे स्वय पर अपने कायोर् के प्रति पूर्ण विश्वास रहता था कि वह अनुचित नही है, तब वह आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर भाईयो के समक्ष दृढ़—भाव से खड़ी होती थी और तर्क—वितर्क के लिए तत्पर रहती थी। आज भी श्रुति की ऐसी दशा ही थी, इसलिए वह दृढ़ होकर भाईयो की कठोर दृष्टि के समक्ष खड़ी होकर स्वय को उत्तर देने के लिए तैयार कर रही थी। लेकिन, आज तक ऐसा अवसर नही आया था कि उसे भाईयो के साथ तर्क—वितर्क करना पड़े, क्योकि माँ का सकेत पाकर उसके भाई उसके प्रति एक भी कठोर या अप्रिय शब्द नही कहते थे।

जब तक श्रुति अपने भाईयो के क्रोध से भयभीत होती थी, तब तक वह प्रतिक्षण इस विषय मे भी चिन्ता करती थी कि भाई उसके प्रति क्रोधित न हो जाएँ। तब वह ऐसे कार्य करने से बचने का प्रयास करती थी, जिनसे उसके भाईयो का क्रोध बढ़ने की सभावना होती थी। अब श्रुति का वह भय और चिन्ता पूर्णरूपेण समाप्त हो चुके थे। भाई की कठोर दृष्टि से भी अब उस पर ऐसा कोई प्रभाव नही पड़ता था कि वह अपने व्यवहार—परिवर्तनो की गति को कम करे या विराम दे या उसकी दिशा मे किसी प्रकार का परिवर्तन कर ले। अपनी इसी प्रवृत्ति से सचालित श्रुति अपने कार्य—व्यवहारोे को उसी दिशा मे गति प्रदान करती हुई आगे बढ़ती रही थी, इसलिए बालो के काटने से सम्बन्धित चर्चा के तूल पकड़ने के बाद उसके अगले दिन यह समस्या अपेक्षाकृत अधिक गम्भीर हो गयी।

अगले दिन श्रुति अपने कटे बालो को धोकर उन्हे बाँधे बिना ही गले मे दुपट्‌टा डालकर प्रभा के घर जाने के लिए अपने घर से निकली थी। जब तक वह प्रभा के घर पहुँची, मार्ग मे अनेक स्थानो पर उसने अनेक महिलाओ को समूह मे बाते करते हुए देखा। उन्हे देखकर उसको अनुमान हो रहा था कि वे उसी के विषय मे बाते कर रही है। अपने अनुमान से वह स्वय पर गर्व का अनुभव करके स्वतः ही कह उठी—

मेरे कटे—बिखरे केशो ने आज मेरे सौन्दर्य मे चार चाँद लगा दिये है , तो मेरे सिवा इनके पास बाते करने का कोई अन्य विषय हो ही नही सकता ! अपनी इसी सोच के साथ वह कुछ समय पश्चात्‌ प्रभा के घर पहुँच गयी। प्रभा के घर मे प्रवेश करते ही उसकी भेट अथर्व से हो गयी। अथर्व ने श्रुति को देखते ही कहा— श्रुति ! तुम्हे देखकर कोई नही कह सकता है कि तुम इसी गाँव की रहने वाली हो! अथर्व का कथन पूरा होने से पहले ही वहाँ पर प्रभा आ गयी और बोली—

सच श्रुति, आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो ! एकदम स्वर्ग की अप्सरा लग रही हो तुम ! पर एक बात कहूँ मै तुमसे ?

हाँ, कहो !

तुम गाँव मे अपने घर से बाहर अपने बालो की चोटी गूँथकर रखा करो, वरना पूरे गाँव मे बवडर हो जाएगा !

क्यो ? श्रुति ने प्रभा का प्रतिरोध करते हुए कहा।

तुम जानती हो ना श्रुति, गाँव के रीति—रिवाजो के विषय मे? तुम्हे इस प्रकार रहते हुए देखकर गाँव के लोग अनेक प्रकार से चर्चा करेगे ! इन्ही चर्चाओ से बचने के लिए न तो मै कभी सिर से दुपट्‌टा उतारती हूँ, न किसी को यह पता चलने देती हूँ कि मेरे बाल सुन्दर डिजाइन मे कटे हुए है !

तू डरती है, पर मै नही डरती हूँ ! मै जैसे रहना चाहती हूँ, वैसे ही रहती हूँ !

श्रुति ने प्रभा का परामर्श स्वीकार नही किया। सामजस्य करना अब उसकी प्रकृति नही थी, इसलिए वह जो कुछ करना चाहती थी, उससे पीछे हटना भी उसको स्वीकार्य नही था। यह अलग बात थी कि उसके बालो को काटने वाला कोई और नही, प्रभा ही थी। प्रभा के कटे हुए बिखरे बालो को देखकर ही वह अपने बालो को कटवाने के लिए प्रेरित हुई थी। प्रभा ने उसको बताया था कि जब वह शहर मे अपने कॉलिज या अन्य कही ऐसे ही स्थानो पर जाती है, तब बालो को खोलकर गले मे दुपट्‌टा डालती है, क्योकि शहर मे शहरी सस्कृति के अनुसार रहना ही अच्छा लगता है। प्रभा से शहरी सस्कृति के विषय मे सुनकर ही श्रुति ने उससे बाल काटने का आग्रह किया था। श्रुति ने अपने गाँव मे ही उस ढग से रहने का निश्चय किया, जैसे प्रभा शहर मे जाने के बाद रहती थी। अपने इस निश्चय को कार्यरूप मे परिणत होने के पश्चात्‌ क्या होगा ? इस विषय पर श्रुति ने विचार ही नही किया था।

प्रभा के घर पर उससे तथा अथर्व से अपने रूप—सौन्दर्य की प्रशसा सुनकर श्रुति स्वय पर गर्व कर रही थी। वह गर्व कर रही थी अपनी विचार—शैली पर और अपनी वीरता पर कि उसने अपने गाँव—समाज मे वषोर् से चली आ रही रूढ़ियो को तोड़कर नया मार्ग बनाया है। इसी विषय पर वह प्रभा के साथ घटो तक बाते करती रही। उस समय अथर्व भी वही पर बैठा था और प्रभा का समर्थन करके उसका उत्साहवर्द्धन कर रहा था। परन्तु उनमे से किसी को यह ज्ञात नही था कि जिस बहादुरी पर तथा विचार शैली पर श्रुति गर्व कर रही है, गाँव मे वही जीवन—शैली उसके विरोध का आधार बन चुकी है। उनमे से किसी को ज्ञात नही था कि गाँव मे उसकी जीवन शैली का विरोध इतना प्रबल हो चुका है कि धीरे—धीरे वह एक तूफान का रूप धारण कर चुका है, जो शीघ्र ही प्रकट होकर कुछ अनिष्ट अवश्य करेगा।

पर्याप्त समय तक प्रभा तथा अथर्व से बाते करने के पश्चात्‌ जब श्रुति अपने घर वापिस लौटी, तभी वहाँ आकर एक व्यक्ति ने सूचना दी कि प्रशान्त, निशान्त तथा उसके पिता को प्रधान जी ने बुलाया है। उस व्यक्ति की सूचना से श्रुति की माँ का माथा ठनक गया। उन्होने तुरन्त ही आवेश मे आकर श्रुति को क्रोध—भरी दृष्टि से देखते हुए कहा— आज कहा करकै आयी है बाहर ? घर मै किसी कू चैन से जीण देगी तू या ना !

मै कुछ भी गलत करके नही आयी हूँ ! अपने घर से प्रभा के घर गयी थी और वहाँ से सीधी अपने घर आयी हूँ। मै रास्ते मे किसी से बोली भी नही थी !

चल जा, अब अग्रेज्जी छोड़कै घर का काम कर ! न्यू तो मुझै पता है तू कितने काम गलत करै अर कितने काम ठीक करै ! पर, तैन्नै आज कुछ बी गलत नी करा, तो परधान नै तेरे बाप—भइया कू क्यूँ बुलवाये है ? यह कहकर श्रुति की माँ अपने दोनो हाथो से सिर पकड़कर बैठ गयी। अपनी माँ को तनावग्रस्त देखकर श्रुति अपना पक्ष प्रस्तुत करती रही और माँ को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करती रही कि उसने कोई भी अनुचित कार्य नही किया है। सूचना देने वाला व्यक्ति उस समय तक वही खड़ा था, श्रुति की माँ यह भूल ही गयी थी। अचानक उन्हे याद आया, तो उन्होने सूचना देने वाले व्यक्ति को बैठने का सकेत किया। व्यक्ति ने समय का अभाव बताकर बैठने मे असमर्थता प्रकट की और एक बार पुनः कहा कि वे निशान्त, प्रशान्त तथा उनके पिता को शीघ्र ही प्रधान जी के पास भेज दे। अब तक श्रुति के प्रति अपने क्रोध पर उसकी माँ पर्याप्त नियन्त्रण कर चुकी थी। अतः सयत होकर उन्होने उस व्यक्ति को बताया कि निशान्त, प्रशान्त तथा उसके पिता मे से कोई भी इस समय घर पर नही है।

कुछ समय तक श्रुति की माँ उस व्यक्ति के साथ इधर—उधर की निरर्थक बाते करती रही। तत्पश्चात्‌ उन्होने अप्रत्यक्ष रूप से यह जानकारी प्राप्त करने के लिए ही बाते करना आरम्भ किया कि प्रधान जी ने उसके द्वारा जो सूचना भेजी है, वह किस सदर्भ मे है। सूचना देने वाला व्यक्ति प्रशान्त के प्रति सद्‌भाव रखता था, उसके परिवार का शुभचिन्तक था। वह भली—भाँति जानता था कि प्रशान्त के परिवार पर सामाजिक प्रकोप के रूप मे विपत्ति पड़ने वाली है। उसने श्रुति के माँ के हृदय मे उठ रहे चिन्ता तथा आशका के तूफान को भी भाँप लिया था। अतः अत्यत विनम्रता से सद्‌भावनापूर्वक उसने एक बार श्रुति की ओर देखा। उसके बाद उसने श्रुति की माँ को बताया कि गाँव के कई व्यक्ति प्रधान जी के पास श्रुति की शिकायत लेकर आए थे। उसी सन्दर्भ मे बातचीत करने के लिए उन्होने श्रुति के भाईयो को तथा पिता को बुलवाया है। माँ ने उससे यह भी जानने का प्रयास किया कि श्रुति की कौन—सी शिकायत उन्होने प्रधान जी से की थी, किन्तु इस विषय मे वह कोई सन्तोषजनक उत्तर नही दे सका।

प्रशान्त जब घर लौटा, माँ ने उसको बताया कि प्रधान जी ने सूचना भेजकर दोनो भाईयो सहित उसके पिता को अपनी बैठक मे बुलवाया है। माँ से प्रधान द्वारा भेजी गयी सूचना के विषय मे सुनते ही प्रशान्त का पारा चढ़ गया—

हमै तो पहले ही पता हा इन सब बात्तो का ! आज पहली अर आखिरी बेर ना बुलवारा ऐ परधान ! अब देखते रह्‌यो, आये दिन अपनी बैठक पै बुलवावेगा, जब तक यू इस घर मै रहैवेगी ! अतिम वाक्य उसने श्रुति की ओर देखते हुए कहा। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे उसको पहले से ही इस विषय मे पर्याप्त जानकारी थी कि प्रधान जी उन्हे क्यो बुलाया है ? बेटे के क्रोध को मन—ही—मन न्यायोचित स्वीकार करके माँ मौन थी। उनकी मुद्रा उस समय ऐसी थी, मानो मूक वाणी मे कह रही हो— बेटा अपने परिवार की मान—प्रतिष्ठा को यथास्थिति सम्हाल लेना, तेरे अतिरिक्त इसकी रक्षा कोई नही कर सकता है !

माँ की ऐसी मुद्रा देखकर तथा भाई का स्वय के प्रति क्रोध देखकर श्रुति कुछ क्षण तक किकर्तव्यविमूढ़—सी खड़ी रही। कुछ क्षणोपरान्त वह अपने भाई से मुखातिब होकर बोली—

मैने कुछ नही किया है, इसलिए मुझ पर क्रोध करने की आवश्यकता नही है आपको ! और हाँ, यदि प्रधान ने आपको मेरे विषय मे कोई बात करने के लिए बुलाया है, तो निश्चित रूप से वह सठिया गया है या उसे अपनी प्रधानी का घमण्ड चढ़ गया है !

चुप कर नासपिट्‌टी ! तू ढग—ढग सै रहैत्ती, तो आज यू आफत ना आत्ती ! माँ ने श्रुति को डाँटते हुए चुप करने का प्रयास किया, परन्तु उसने पुनः कहा—

भाई, तुझसे मेरे विषय मे प्रधान कुछ हुई—अनहुई कहे, इससे पहले मै तुझे सबकुछ बताना चाहती हूँ कि वह तुझसे क्या कह सकता है ?

तू एकदम चुप्प रह ! तेरे मै कुछ बोलणे की अर कुछ सही—गलत समझणे की अकल ना है। अब तेरे मुँह सै एक बी बोल लिकड़ा, तो ! श्रुति को डाँटने के पश्चात्‌ प्रशान्त ने माँ से कहा—

माँ, इसै चुप्प कर ले ! तुझै पता है, मै गुस्से मे ...! प्रशान्त की चेतावनी सुनकर माँ श्रुति को चुप कराने का पुनः

प्रयास कराने लगी। किन्तु श्रुति पर न तो प्रशान्त की डाँट—फटकार तथा उसके क्रोध का प्रभाव पडा था, न ही माँ के डाँटने और समझाने का प्रभाव पड़ रहा था। वह अपनी गति से निरन्तर बोलती रही। वह भाई को यह समझाने का प्रयास करती रही कि उसने कुछ भी अनुचित कार्य नही किया है, जो उसके परिवार की मान—प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाये। अपनी ओर से समझाने के प्रयास मे श्रुति ने उन्हे यह भी बता दिया कि उसके कटे हुए बालो को लेकर गाँव की अनपढ़ स्त्रियो मे निरर्थक चर्चा चल रही है, जो केवल विरोध करने का एक बहाना—भर है। इसके अतिरिक्त कुछ नही। धीरे—धीरे उसने पिछले दिन घटित सपूर्ण घटना का यथातथ्य वृतान्त सुना दिया, जो श्रुति तथा गाँव की कुछ स्त्रियो के बीच मे शाब्दिक रूप मे घटी थी। प्रशान्त तथा उसकी माँ न चाहते हुए भी चुपचाप उसके घटना—वृतान्त को सुनते रहे और उस समय की विषम स्थिति पर नियत्रण करने के विषय मे चिन्तन—मनन करते रहे। श्रुति की बात पूरी होने के पश्चात्‌ प्रशान्त उठ खड़ा हुआ और माँ को यह बताते हुए कि वह प्रधान जी की बैठक पर जा रहा है, घर से बाहर की ओर चला गया।

घर से निकलने के पश्चात्‌ प्रशान्त ने प्रधान जी के बुलावे की सूचना अपने पिता तथा छोटे भाई निशान्त को दी। तत्पश्चात्‌ उसने अपने पक्षकार कुछ अन्य प्रभावशाली व्यक्तियो को यह सूचना दी और सबको सगठित करके प्रधान जी बैठक पर जाने की योजना बनायी। प्रशान्त के पिता, भाई तथा अन्य व्यक्ति, जो प्रशान्त के साथ सद्‌भाव रखते थे, उसकी इस योजना से अत्यधिक प्रभाावित हुए। उन्होने उसका समर्थन करते हुए प्रधान जी की बैठक पर उसके साथ चलने की सहमति प्रकट की। कुछ ही समय मे प्रशान्त ने एक दृढ़ सगठन तैयार कर लिया था, जो उसके पक्ष मे बोलने के के लिए और आवश्यकता पड़ने पर लड़ने के लिए भी तैयार था। सगठन तैयार करने के पश्चात्‌ प्रशान्त ने उस विषय पर चर्चा करना आरम्भ किया, जिस पर चर्चा करने के लिए उन्हे ग्राम—प्रधान ने बुलाया था। प्रशान्त ने अपने सगठन के प्रत्येक सदस्य को निर्देश दिया कि विपक्ष के समक्ष किसी भी विषय पर झुकना नही है। उसने कहा कि विपक्ष के प्रत्येक आरोप का मुँहतोड़ जवाब देकर ही अपना बचाव सभव है, वरना वे लोग निराधार आरोप लगाकर हमे दबाने का प्रयास करते रहेगे। प्रशान्त के विचार से उसके सभी साथी सहज ही सहमत हो गये और सीना तानकर उसके साथ प्रधान जी की बैठक की ओर प्रस्थान कर गये।

प्रशान्त अपने साथियो के साथ जिस समय ग्राम—प्रधान की बैठक पर पहुँचा, वहाँ पर विपक्ष के प्रभावशाली ग्रामीणो की मण्डली पहले से ही उपस्थित थी। वहाँ पर उपस्थित लोगो मे किसी गम्भीर विषय पर विचार—विमर्श चल रहा था। प्रशान्त को कुछ अन्य प्रभावशाली ग्रामीणो के साथ देखकर वे सभी हत्‌प्रभ होकर उसकी ओर देखने लगे। अब वहाँ पर उपस्थित ग्रामीणो के बीच चल रहे विचार—विनिमय पर पूर्ण—विराम लग चुका था, परन्तु उन सभी की भाव—भगिमा से स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता था कि उस चर्चा का केद्र प्रशान्त का परिवार था। प्रशान्त और उसके साथी यह समझकर भी अविचलित—मौन धारण करके खडे़ रहे। उन्हे मौन खड़े देखकर वहाँ पर उपस्थित ग्रामीणो मे बेचैनी—सी होने लगी और वे परस्पर एक—दूसरे को ताकने लगे। कई लोग परस्पर सकेत करके अपने भ्रम का निवारण करने का प्रयास करने लगे। प्रधान जी ग्राम—प्रधान होने केे नाते उन सब के मुखिया थे— पक्ष के भी और विपक्ष के भी। उन्हे शीघ्र ही यह अनुभव हो गया था कि वहाँ पर पहले से ही उपस्थित ग्रामीण प्रशान्त के पहुँचने के बाद जहाँ थोड़े—से असहज हो गये है, वही प्रशान्त तथा उसके साथी अभी तक खड़े हुए है। अपनी भूल का अनुभव करते हुए प्रधान जी ने शीघ्रतापूर्वक प्रशान्त और उसके सभी साथियो को औपचारिकता का निर्वाह करते हुए बैठने का आग्रह किया। प्रधान जी का आग्रह स्वीकार करते हुए वे सभी यथास्थान बैठ गये। बैठने के पश्चात्‌ प्रशान्त ने सपाट शब्दो मे तीखे अदाज के साथ प्रधान जी से पूछा कि उन्हे वहाँ पर क्यो बुलवाया गया है ? प्रशान्त के प्रश्न का उत्तर प्रधान जी देते, उससे पहले ही वहाँ पर उपस्थित एक अन्य व्यक्ति बोल उठा—

चौधरी, अब पाणी सिर सै ऊप्पर जा लिया है ! तेरी बहण नै सारे गाँव की हवा खराब कर रखी है। ऊ गाँव मै सिर फकेर कै अर बाल बिखेर कै फिरै है, उससे गाँव का माहौल बिगड़रा है ! उसै देख—देख कै गाँव की और लाैडिया भी बड़े—छोट्‌टे का लिहाज खोत्ती जा रही है !

परधान जी, मेरी बहण नै कुछ ऐब तो करा ना है, जो तमनै हम यह्‌ाँ बुलवाये है ! म्हारी बहण अर भाब्बी पढ़ी—लिक्खी है ! वे पढ़े—लिक्खो की तरयो रहैवेगी, तमै यू बात तो समझनी चाहिए ! तो तू न्यू कहणा चाहरा है— पढ़ी—लिक्खी लौडिया सिर पै पल्ला नी धर सकती ? एक तेरी बहण ई निराली पढ़ी—लिक्खी है, जिन्नै नयी रीत काड्‌ढी है अक सिर पै पल्ला मत ओड्‌ढो अर सिर के बाल मत बाद्‌धो !

कोई लौडिया अपणे सिर पै पल्ला धरै या ना धरै, सिर के बाल बाद्‌धै या ना बाद्‌धै यू उसकी मरजी है। पर हाँ, एक बात सुण ल्यो, म्हारी बहण जब बी कुछ गलत करेगी, हम अपणे आप रोक्केगे। किसी बाहर के आदमी की म्हारे घर की बहण—बेट्‌टी पै उँगली उठेगी, तो उसी आदमी कू भारी पड़ेगा !

प्रशान्त चेतावनी सुनकर बैठक मे उपस्थित लोग एक—दूसरे की ओर देखने लगे। प्रधान जी भी उन लोगो को विचलित होते हुए देखकर अपना पक्ष बदलने का विचार करने लगे। कुछ समय तक वे चुप रहकर स्थिति का अध्ययन करते रहे। जब उन्हे विश्वास हो गया कि प्रशान्त का पक्ष दृढ़ हो रहा है, जबकि विपक्षी ग्रामीण धीरे—धीरे इधर—उधर खिसकने लगे है, तब उन्होने प्रशान्त के सवाद का समर्थन करते हुए कहा—

हमै थारे ऊप्पर पूरा भरोस्सा है। तम अपणी बहण की गलत हरकत पै चुप्प नी बैठ्‌ठोगे ! पर, तमै उसका कुछ जादैई ध्यान राखणा पड़ेगा ! थारी बहण भोली—भाली बालक है, किसी के बरगलाणे सै रस्ता ना भटक जावै, इस बात के लियो तमै हर घड़ी चौकस रहैणा पड़ेगा !

तम बेफिकर रहो परधान जी, जिस दिन ऐसी कुछ बी बात म्हारे कान्नो मै पड़ जावेगी, ऊ दिन म्हारी बहण का बी अर उसै बरगलाने वालो का बी इस दुनिया मै समझल्यो आखिरी दिन होवेगा! प्रशान्त ने अपनी रूढ़िवादी सस्कृति के प्रति अपनी निष्ठा आर प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए कहा। प्रधान जी ने भी उसकी प्रतिबद्धता को प्रोत्साहित करते हुए उसका समर्थन किया—

हमै भरोस्सा है थारे ऊप्पर ! थारे जैसे नौजवान लाैडो पै भरोस्सा ना करेगे, तो किसपै करेगे। अपने ग्राम—समाज अर खानदान की मान—मरजाद की रक्छा करनै पै थारा कुणबा सबसै आग्गै रह्‌या है आज तक !

प्रधान जी का समर्थन प्राप्त करके प्रशान्त अपने साथियो को वहाँ से अपने साथ लेकर बैठक (यह शब्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे एक ऐसे स्थान विशेष के लिए प्रयुक्त होता है, जहाँ पर बैठकर पुरुष वर्ग किसी भी विषय पर विचार—विमर्श करते है ; गप्पे मारते है तथा ताश के पत्ते खेलते है) पर आ गया। अपनी जीत से आज वह बहुत उत्साहित था। घर के नेतृत्व की शक्ति को आज उसने अपने हाथो मे दृढ़तापूर्वक ग्रहण करने की मूक घोषणा कर दी थी जिसके लिए सभी की सहमति उसे सहज ही मिल गयी थी। उसे वह सहमति तब मिली, जब वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ प्रधान जी बैठक मे जाने के लिए घर से निकला था। अब, जबकि वहाँ से वह विजयी होकर लौट आया था, तब उसकी योग्यता पर स्वय उसको या अन्य किसी को सन्देह नही रह गया था।

उसकी योग्यता की बधाई के सुअवसर पर कुछ देर तक खाना—पीना चलता रहा था। तत्पश्चात्‌ प्रशान्त बैठक मे से उठकर घर आया और शान्त मुद्रा मे कुछ क्षणो तक खड़ा होकर सोचता रहा कि किससे क्या कहे ? किस मुद्रा मे कहे ? कुछ क्षणोपरात उसने नेतृत्व की दमदार शैली मे माँ को पुकारा। माँ प्रशान्त का ऊँचा स्वर सुनते ही बाहर निकल आयी। माँ को अकेली बाहर आयी देखकर उसी प्रकार ऊँचे स्वर मे प्रशान्त ने माँ को कहा कि श्रुति को अभी उसके समक्ष बुलाकर वे उसकी चेतावनी भली—भाँति समझा दे। तब तक श्रुति भी आँगन मे आकर उसी स्थान पर आकर खड़ी हो गयी, जहाँ पर उसकी माँ तथा भाई प्रशान्त खड़ा था। श्रुति के बाहर आतेे ही प्रशान्त की मुद्रा पहले की अपेक्षा अधिक कठोर हो गयी। उसने श्रुति की ओर कठोर दृष्टि डालते हुए नपे—तुले शब्दो मे अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी, जो कुछ समय पूर्व उसने प्रधान जी के समक्ष प्रकट की थी। प्रशान्त ने श्रुति को चेतावनी दी कि वह बाल काटने और सिर पर पल्लू नही रखने जैसी निरर्थक बातो से उलझकर अपना समय नही गँवाता है। पर यदि उसने श्रुति के चरित्र के बारे मे कुछ भी ऐसा सुना, जो उसके परिवार की मान—मर्यादा के विरुद्ध हुआ, तो वह श्रुति से उसी दिन जीने का अधिकार छीन लेगा।

प्रशान्त की मुद्रा देखकर उसकी चेतावनी से श्रुति मे भय की एक लहर—सी आयी और चली गयी। किन्तु उसकी माँ के रोम—रोम मे भय व्याप्त हो गया था। अपने भय को नियत्रित करते हुए छिपाने के प्रयास मे माँ ने प्रशान्त से पूछा कि उन्हे प्रधान जी ने क्यो बुलाया था ? माँ के प्रश्न को सुनकर प्रशान्त ने लापरवाही से उत्तर देते हुए बताया कि प्रधान जी ने कुछ विपक्षी ग्रामीणो की दाब मानकर उन्ही निरर्थक बातो की शिकायत करने के लिए बुलाया था, जिनके विषय मे बात करना वह अपने व्यक्तित्व के अनुरूप नही मानता है और स्वय प्रधान जी भी यह स्वीकार करते है। प्रशान्त ने अपनी माँ से कहा कि उनके बेटे मे गाँव के लोगो को चुप कराने की सामर्थ्य है, इसलिए गाँव के लोग अब उसके परिवार के विरुद्ध मुँह खोलने का साहस नही करेगे। लेकिन स्वय उसकी बहन ने मर्यादा की रेखा पार करने का प्रयास किया, तो वह उसकी साँस बन्द करने मे भी सकोच नही करेगा। अब उस पर निर्भर है कि वह मान—सम्मान के साथ जीना चाहती है या मर्यादाहीन आचरण करने के अपराध मे मरना चाहती है।

प्रशान्त की चेतावनी सुनकर तथा उसकी कठोर दृढ़ मुद्रा को देखकर माँ के हृदय का भय बढ़ता ही जा रहा था। उन्होने प्रशान्त को शान्त करने का प्रयास किया। उन्होने प्रशान्त के हृदय मे बहन के प्रति विश्वास तथा स्नेह के भावो को उसी रूप मे पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिस रूप मे वे दोनो अपनी अबोध—अवस्था मे परस्पर स्नेह—विश्वास के सूत्र मे बँधे हुए थे। परन्तु अपनी सामर्थ्य—भर प्रयास के बाद भी माँ को प्रशान्त के चेहरे पर किसी प्रकार की कोमल भाव—भगिमा के दर्शन नही हो सके। माँ अपने शब्दो से उसको प्रेरित करने का प्रयास करती रही और प्रशान्त कठोर मुद्रा मे माँ को घूरता हुआ उनकी बातो को सुनता रहा, मानो कह रहा हो कि माँ के शब्दो का जाल अब उसे नही रोक पाएगा। कुछ मिनट बाद माँ की बातो के प्रति उपेक्षा—सी प्रकट करते हुए प्रशान्त वहाँ से चला गया।

प्रशान्त के जाने के पश्चात्‌ माँ के भय ने क्रोध का रूप धारण कर लिया। वे श्रुति पर बरस पड़ी कि यदि वह सीधी—सादी गाँव की लड़कियाे की भाँति अपना रहन—सहन रखती और उन्ही की भाँति अपने आचरणो पर नियत्रण रखती, तो उन्हे इस विषम परिस्थिति का सामना नही करना पड़ता।

श्रुति पर माँ के आरोपो या डाँट—फटकार का कोई प्रभाव नही पड़ रहा था। वह अनुभव कर रही थी कि माँ के क्रोध मे उनका भय और किसी अनिष्ट की आशका ही अपने चरम पर अभिव्यक्त हो रही है। अतः उसने विनम्र और मधुर शब्दो मे माँ को समझाने का पर्याप्त प्रयास किया कि वे अपनी भय से प्रेरित आशका से मुक्त होकर प्रसन्नचित्‌ रहे। श्रुति ने माँ को विश्वास दिलाया कि वह कभी भी ऐसा कोई कार्य नही करेगी, जिससे उसके परिवार की मर्यादा भग हो। यह अलग विषय था कि श्रुति के हृदय मे न स्वय अपने द्वारा कहे गये शब्दो के प्रति पूर्ण निष्ठा थी, न माँ को उसके शब्दोे पर पूर्ण विश्वास था। उन्होने श्रुति को जन्म दिया था; उसका पालन—पोषण किया था, इसलिए वह उसकी प्रकृति से भली—भाँति परिचित थी। वे उसके स्वभाव का इतना ज्ञान रखती थी, जितना स्वय श्रुति भी अपनी प्रकृति से परिचित नही थी। श्रुति की माँ जानती थी कि प्रशान्त की चेतावनी से सब कुछ बदल सकता है, परन्तु, श्रुति की प्रकृति मे परिवर्तन असभव है।

प्रशान्त की चेतावनी का अथवा माँ के क्रोध, भय तथा आशका का अथवा माँ को दिये हुए स्वय के वचन का श्रुति के मन—मस्तिष्क पर अनुकूल गम्भीर प्रभाव नही दिखाई दिया। उसके कार्य—व्यवहारो मे किसी प्रकार का परिवर्तन नही आया। प्रशान्त की चेतावनी के अगले दिन ही उसने माँ से कहा कि वह प्रभा के घर जा रही है। उसके बिखरे, किन्तु व्यवस्थित बालो को तथा गले मे पड़े दुपट्‌टे के साथ हँसते—खिलते चेहरे को देखकर विश्वासपूर्वक कहा जा सकता था कि पिछले दिन की घटना को लेकर वह गम्भीर नही थी। सामाजिक रूढ़ियो तथा मान—मर्यादाओ की उन सीमा—रेखाओ का महत्व उसके मन—मस्तिष्क मे नगण्य था, जो उसके लिए निर्धारित कर दी गयी थी। इसलिए उसके चेहरे पर किसी प्रकार के भय या चिन्ता की रेखाएँ नही थी। माँ ने श्रुति के सिर की ओर घूरते हुए अपनी निराशा व्यक्त की—

कल सै अब तक तू सारी बात भूलगी, जो परसान्त नै तेरे सै कही है, म्ैान्नै तेरे से कही है ? म्हारी छोड़, तू तो अपणी कही हुई बी भूलगी, जो तैन्नै म्हारे सै कही ही !

माँ, अब मैने क्या कर दिया ? सिर पर दुपट्‌टा नही रखने की और बालो को नही बाँधने की छूट तो भाई ने भी दे दी है ! तुम व्यर्थ मे ही क्रोध कर रही हो ? श्रुति ने माँ की दृष्टि को गम्भीरतापूर्वक ग्रहण न करने की लापरवाही से उत्तर दिया और उसी मुद्रा मे खिलखिलाती हुई घर से निकल गयी।

जिस समय श्रुति प्रभा केे घर पहुँची, प्रभा कप्यूटर पर कुछ सर्च कर रही थी। श्रुति के यह पूछने पर कि वह क्या सर्च कर रही है ? प्रभा ने बताया— मै अपना फॉर्म भर रही थी। पहले किसी भी परीक्षा का फॉर्म भरकर डाक से भेजा जाता था, लेकिन प्रायः सभी प्रकार के फॉर्म ऑनलाइन भरे जाते है ! इसलिए मुझे भी अपना फॉर्म ऑनलाइन ही भेजना पड़ता है !

ऑनलाइन ? यह क्या होता है ? श्रुति ने उत्साहपूर्वक पूछा। प्रभा ने श्रुति की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए उसे बताया कि किस प्रकार कप्यूटर पर इटरनेट के माध्यम से किसी भी विषय से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती है और अपनी कोई भी सूचनाएँ साधारण डाक की अपेक्षा त्वरित गति से अपने अभीप्सित व्यक्ति तक पहुँचायी जा सकती है। प्रभा ने उसको अपने कप्यूटर मे दिखाया कि किस प्रकार कुछ ही सैकेड मे उसका फॉर्म वहाँ पहुँच गया था, जहाँ पर उसे पहुँचने मे कई सप्ताह का समय लग सकता था। प्रभा से यह जानकर कि कुछ सैकेड मे उसको अपने फॉर्म के वहाँ पहुँचने की सूचना भी प्राप्त हो गयी है, श्रुति आश्चर्यपूर्वक कभी कप्यूटर को देखती थी, कभी प्रभा को। अब तक अथर्व भी वहाँ पर आ चुका था। वह श्रुति की भ्रमित—अवस्था का उपहास करने लगा।

श्रुति ने उसका यह व्यवहार अपने लिए एक चुनौती के रूप मे ग्रहण किया और प्रभा से निवेदन करने लगी कि वह उसको भी कप्यूटर सिखा दे। श्रुति की लगन देखकर अथर्व गम्भीर होकर बोला—

कप्यूटर सीखने के लिए पहले तुम्हे अपनी अग्रेजी की नॉलिज स्ट्राँग करनी पड़ेगी ! जब तक तुम्हारी अग्रेजी स्ट्राँग नही होगी, कप्यूटर सीखना कठिन है !

अग्रेजी ? पर मुझे कौन सिखायेगा अग्रेजी ? श्रुति ने प्रभा की ओर प्रश्न और आशा भरी दृष्टि से देखते हुए कहा। श्रुति की आँखो मे अपने लिए प्रश्न और आशा देखकर प्रभा असमजस मे पड़ गयी। उसे कोई उत्तर नही सूझ रहा था, इसलिए वह अथर्व की ओर देखने लगी, मानो पूछ रही थी कि श्रुति को वह क्या उत्तर देकर सतुष्ट करे? वह उसको अग्रेजी सिखाने के लिए ‘हाँ' नही कर सकती थी, क्याेकि उसको अपनी परीक्षा की तैयारी करनी थी। वह उसे ‘ना' कहकर निराश भी नही करना चाहती थी, क्योकि उससे प्रेरणा लेकर ही श्रुति आगे और निरन्तर आगे बढ़ रही थी। प्रभा अनुभव करती थी कि जिस साहस के साथ श्रुति सामाजिक रूढ़ियो की जजीरो को तोड़ रही है, इस साहस के बिना कोई भी स्त्री स्वय पर लगे अर्थहीन प्रतिबन्धो से मुक्ति नही पा सकती है।

प्रभा को अनुभव हो रहा था कि स्वय उसमे भी उस समाज मे फैले हुए नितान्त नकारात्मक विचारो का विरोध करने का उतना साहस नही है, जितना श्रुति मे है। श्रुति जैसी लड़कियाँ ही स्त्री जाति को इस नर्क से निकाल सकती है, जहाँ पर शोषण, अत्याचार और भिन्न—भिन्न प्रकार के प्रतिबन्धो को सहकर वह तिल—तिल करके जीती तथा मरती है। खाने—पीने पर प्रतिबन्ध, ऊँचे स्वर मे बोलने पर प्रतिबन्ध, गाँव की बहुओ के लिए मुँह से घूँघट हटाने पर प्रतिबन्ध और लड़कियो के लिए सिर से पल्लू उतारने पर प्रतिबन्ध जैसे ही और भी अनेक प्रतिबन्ध है, जिनसे मुक्ति के लिए प्रत्येक स्त्री का हृदय क्षणे—क्षणे छटपटाता है। लेकिन किसी भी साधरण स्त्री मे न तो इतना ज्ञान है, न इतना साहस है कि वह इस दयनीय दशा से अपनी जाति का उद्धार कर सके। पूरे गाँव मे श्रुति ही एक ऐसी लड़की है, जो असाधारण है और स्त्री जाति का यथासामर्थ्य उद्धार करने के लिए ; उसे मुक्ति दिलाने के लिए सघर्षरत है।

प्रभा को एकटक अपनी ओर असमजस—भाव से देखते पाकर क्षण—भर के लिए अथर्व असहज—सा हो गया। वह प्रभा के हृदयस्थ भावो का अनुमान करने का प्रयास कर रहा था कि आखिर किस समस्या को लेकर वह ऊहापोह है ? अन्त मे अथर्व ने श्रुति के प्रश्न को प्रभा की समस्या मानकर उसका समाधान प्रस्तुत कर हँसते हुए कहा—

मै सिखा दूँगा तुम्हे अग्रेजी पढ़ना—लिखना तथा बोलना और समझना !

तुम्हे भी आती है अग्रेजी ? फिर तो तुम्हे कप्यूटर भी आता होगा ? अथर्व से प्रश्न करते हुए भी श्रुति उसकी ओर नही देख रही थी, बल्कि श्रुति की दृष्टि अब भी प्रभा पर थी और वह उसी से उत्तर पाने की प्रतीक्षा कर रही थी। अथर्व और श्रुति की अपेक्षा के अनुरूप प्रभा ने भी अथर्व का समर्थन किया—

हाँ, मुझे भी अथर्व ने ही सिखाया था कप्यूटर, वरना मुझे भी इसके सिवा कौन सिखाता ? और अग्रेजी मे तो मै आज भी इतनी कमजोर हूँ कि अनेक बार मुझे अथर्व की सहायता की आवश्यकता पड़ती है !

ठीक है, मै अथर्व से ही सीख लूँगी ! श्रुति ने अपनी सहमति व्यक्त की।

पर श्रुति, एक बात का ध्यान रखना, यह जितना विनम्र और मधुर व्यवहार सामान्य अवस्था मे करता है, कुछ पढ़ाते समय या समझाते समय यह उतना ही कठोर बन जाता है। बिल्कुल एक अध्यापक की भाँति ! समझी तुम ! प्रभा ने श्रुति के समक्ष उस मुद्रा का अभिनय करके दिखाना आरम्भ कर दिया, जिस मुद्रा को वह पढ़ाते समय अनायास ही ग्रहण कर लेता था। उसी समय अथर्व ने अपनी एक शर्त बताते हुए श्रुति से कहा—

मेरी एक शर्त है, जो तुम्हे माननी पड़ेगी !

शर्त ? कैसी शर्त ? श्रुति ने घबराहटयुक्त स्वर मे पूछा। उसे आशका होने लगी थी कि अथर्व कुछ ऐसी शर्त न बता दे जिसे वह मान न सके और तब अथर्व उसे अग्रेजी और कप्यूटर सिखाने के लिए तैयार न हो। श्रुति के चेहरे पर निराशा और घबराहट देखकर अथर्व एक बार पुनः हँस पड़ा और फिर स्वय ही अपनी भूल का अनुभव करके बोला—

सॉरी ! आपकी घबराहट देखकर मुझे हँसी आ गयी थी, अब नही हसूँगा मै ! सॉरी, वेरी—वेरी सॉरी !

ठीक है, ठीक है ! अपनी शर्त बताओ !

मेरी शर्त है कि तुम मुझसे अग्रेजी और कप्यूटर सीखते समय प्रभा को डिस्टर्ब नही करोगी ! इनकी स्टडी मे किसी भी प्रकार का डिस्टबेर्स मुझे स्वीकार नही है ! अथर्व ने मुस्कुराकर कहा।

मै प्रभा को डिस्टर्ब क्यो करुँगी ? मुझे तुमसे सीखना है, तो तुम्ही को डिस्टर्ब करुँगी ! क्यो, प्रभा ठीक कह रही हूँ ना मै ? अतिम वाक्य श्रुति ने प्रभा से मुखातिब होकर कहा, जबकि उससे पहले वह अथर्व से बाते कर रही थी। श्रुति का प्रश्न सुनकर प्रभा जोर से हँस पड़ी—

बिल्कुल ठीक कह रही है श्रुति तू ! अब सेर को सवा सेर मिला है ! प्रभा का उत्तर सुनकर श्रुति और अथर्व दानो एक साथ हँस पड़े। धीरे—धीरे सारा वातावरण हल्का हो गया और तीनो की परस्पर सार्थक बातो का स्थान निरर्थक हास—परिहस ने ले लिया। कुछ समय तक तीनो के बीच हास—परिहास होता रहा। तत्पश्चात्‌ श्रुति ने अथर्व और प्रभा से कप्यूटर तथा अग्रेजी सिखाने के लिए समय—सूची निश्चित करने का निवेदन किया। उन्होने श्रुति की सुविधानुसार उसको प्रतिदिन उसी समय आने का निर्देश दिया, जिस समय वह आज तक उनके घर पर आती रही थी। समय का निर्देश पाकर श्रुति उठ खड़ी हुई और अपने घर लौटने की अनुमति माँगी।

उस दिन के पश्चात्‌ श्रुति प्रतिदिन निश्चित समय पर प्रभा के घर जाने लगी। प्रतिदिन एक निश्चित समय पर श्रुति को प्रभा के घर जाते हुए देखकर गाँव की स्त्रियो मे इस विषय पर चर्चा होने लगी। सभी के मस्तिष्क मे और होठो पर एक ही प्रश्न था—

सुरति पिरभा के घर रोज—रोज क्यूँ जावै है ? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए सभी बेचैन थे, पर किसी को साहस नही होता था, जो श्रुति से इस विषय कोई प्रश्न करे। यदि कोई इतना साहस करता भी, तो श्रुति से उसका सीधा उत्तर पाने की आशा नही की जा सकती थी। यही कारण था कि श्रुति से इस विषय मे प्रश्न पूछने से भी परहेज करते थे। अब गाँव की महिलाओ के पास दो ही विकल्प बचे थे— एक, श्रुति की माँ तथा दूसरा, प्रभा और प्रभा की माँ। गाँव की महिलाएँ दानो ही विकल्पो पर निरन्तर ध्यान रख रही थी और एक भी अवसर चूकना नही चाहती थी। अपने उद्‌देश्य को प्राप्त करने के लिए अब नित्य प्रति कोई—न—कोई स्त्री श्रुति की माँ के कानो मे इस बात को डाल देती थी कि उनकी बेटी को लेकर गाँव मे भिन्न—भिन्न प्रकार की बाते की जा रही है। अपनी चर्चा के बीच मे ही वह स्त्रियाँ यह जानने का भी प्रयास करती थी कि श्रुति प्रतिदिन प्रभा के घर क्यो जाती है ?

कई दिनो तक निरन्तर किसी—न—किसी स्त्री से ऐसी चर्चा सुनकर, जिसमे परोक्षतः उनकी बेटी पर प्रश्न दागे जाते थे, श्रुति की माँ का तनाव बढ़ने लगा था। उन्होने ऐसी चर्चा करने वाली महिलाआे को अब प्रश्न के रूप मे स्पष्ट और कटु उत्तर देना आरम्भ कर दिया था। वे अपनी बेटी केे पक्ष मे तर्क देती थी कि उनकी बेटी गाँव के ही एक शिक्षित परिवार की शिक्षित, सभ्य और सुशील लड़की से प्रतिदिन मिलने जाती है, तो इसमे कौन—सा अनर्थ करती है ? जिसे वे चर्चा का विषय बना रही है। इसके साथ ही वह चर्चा करने वाली प्रत्येक स्त्री के समक्ष उसके परिवार मे हो चुके असामाजिक और नकारात्मक कार्य—व्यवहारो की लम्बी सूची बताकार उनकी ऐसी बखिया उधेड़ती थी कि भविष्य मे वह स्त्री पुनः उनके समक्ष बोलने का साहस न करे।

गाँव की स्त्रियो को मुँहतोड़ जवाब देने के बाद उन्होने अपनी बेटी की जासूसी करना आरम्भ कर दिया। उन्होने स्वय श्रुति से पूछा कि वह प्रतिदिन प्रभा के घर क्या करने के लिए जाती है ? श्रुति से उत्तर पाने के पश्चात्‌ उन्होने प्रभा तथा उसकी माँ से भी इस विषय मे पूर्ण जानकारी प्राप्त की। उन्होने कई बार अचानक प्रभा केे घर स्वय जाकर देखा कि श्रुति वास्तव मे वहाँ पर कप्यूटर चलाना और अग्रेजी पढ़ना—लिखना—बोलना सीखती है ? या यह मनगढ़त कहानी थी। अपनी हर एक जाँच मे श्रुति को सत्य पाकर उसकी माँ सतुष्ट हो गयी और उसको प्रभा के घर निरन्तर जाते रहने की अनुमति प्रदान कर दी। परन्तु, उस गाँव—समाज की स्त्रियो मे तथा पुरुषो मे अब भी यह जिज्ञासा बनी हुई थी कि श्रुति वहाँ क्या करने के लिए जाती है ? कुछ निकटस्थ स्त्रियो को श्रुति की माँ ने बता दिया था कि उनकी बेटी प्रभा के पास पढ़ाई—लिखाई से सबधित कार्य करने जाती है। शीघ्र ही यह बात भी पूरे गाँव मे फैल चुकी थी, लेकिन गाँव—समाज इस प्रकार के सकारात्मक उत्तर को सहज ही स्वीकार नही कर पा रहा था।

नकारात्मक सोच रखने वाले समाज—बिरादरी के स्त्री—पुरुष श्रुति के विषय मे किसी ऐसे नकारात्मक बिन्दु की खोज कर रहे थे जिसका अवलम्ब लेकर वे उसके परिवार की भर्त्सना कर सके। यह बिन्दु उन्हे प्रभा के घर से ही प्राप्त हो सकता था, इसलिए नकारात्मक सोच वाले स्त्रियो तथा पुरुषो की दृष्टि प्रभा के घर पर ही लगी रहती थी। प्रभा का परिवार निरर्थक विषयो या व्यक्तियो मे रुचि नही लेता था। न ही ऐसे लोगो की घनिष्ठता मे विश्वास ही रखता था। प्रभा का परिवार गाँव के अन्य परिवारो से उतना ही सम्बन्ध रखता था, जितना अत्यावश्यक होता था। किसी प्रकार की आवश्यकता न होने पर उसका परिवार अपना बहुमूल्य समय निरर्थक बातो मे व्यर्थ नष्ट नही करता था। इसीलिए गाँव की अधिकाश स्त्रियो का इतना साहस नही होता था कि श्रुति के विषय मे किसी प्रकार की नकारात्मक सूचना प्राप्त करने के उद्‌देश्य से वे प्रभा के घर जाएँ या उससे बात कर सके। फिर भी वे निराश नही थे और अपनी नकारात्मक सोच और नकारात्मक दृष्टि के साथ ही अपने नापाक उद्‌देश्यो को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील थे।

प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी श्रुति कम्प्यूटर सीखने के लिए प्रभा के घर गयी हुई थी। पिछले दो दिन से गाँव मे बिजली नही आयी थी, इसलिए उस दिन प्रभा के घर मे न प्रकाश की व्यवस्था थी, न ही कम्प्यूटर की बैट्री चार्ज हो सकी थी। जिस कमरे मे बैठकर प्रभा, अथर्व तथा उनके साथ बैठकर श्रुति अध्ययन किया करती थी, उसमे सूर्य का सीधा प्रकाश भी नही जा पाता था, इसलिए अथर्व ने निश्चय किया कि जब तक बिजली नही आयेगी, तब तक वह श्रुति को आँगन मे बैठकर अग्रेजी सिखायेगा। दुर्भाग्यवश प्रभा के घर की बनावट ऐसी थी कि आँगन का सारा दृश्य पड़ोसियाे की छत पर से दिखाई देता था। प्रभा ने उस दिन प्रातः से घर से एक—एक स्थान तथा एक—एक सामान की सफाई की थी, इसलिए वह थककर सो गयी थी। अथर्व ने या श्रुति ने उसको जगाना न तो आवश्यक समझा, न उचित ही समझा क्योकि पहले दिन से आज तक अथर्व ही श्रुति को अग्रेजी और कप्यूटर सिखाता रहा था। आज जब प्रभा सो रही थी और उसकी माँ उसी के पास लेटी हुई थी, अथर्व के लिए उसको जगाने का कोई ठोस कारण या औचित्य नही था। अतः उसने श्रुति के समक्ष आँगन मे बैठकर अग्रेजी पढ़ने का प्रस्ताव रखा। श्रुति ने उसका प्रस्ताव तुरन्त स्वीकार कर लिया और अग्रेजी सीखने के लिए आँगन मे अथर्व के साथ बैठ गयी।

जिस समय श्रुति अग्रेजी पढ़ना सीख रही थी और अथर्व उसको किसी शब्द का उच्चारण सिखा रहा था, श्रुति को प्रसगवश हँसी आ गयी। अथर्व भी उसको हँसते हुए देखकर हँसने लगा। ठीक उसी समय उन दोनो की दृष्टि पड़ोसी की एक छत पर पड़ी, जहाँ पर दो—तीन स्त्रियाँ उनकी ओर घूर—घूरकर अत्यत निन्दनीय और तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देख रही थी और परस्पर वार्तालाप कर रही थी। उन स्त्रियो पर दृष्टि पड़ते ही अथर्व तथा श्रुति का हँसना बद हो गया। उसके बाद उनकी दृष्टि पुस्तक पर होकर भी चित्त बार—बार छत पर वार्तालाप कर रही स्त्रियो की ओर जा रहा था। वे दोनो अपना ध्यान उधर से हटाकर अपने लक्ष्य के प्रति एकचित्‌ करना चाहते थे, लेकिन यह कार्य उनके लिए आज अत्यधिक कठिन हो रहा था। उन स्त्रियाे का स्वर भी इतना ऊँचा हो गया था कि उनके कानो मे निरन्तर अपनी निन्दा के शब्द सुनाई पड़ रहे थे।

एक बार श्रुति के मन मे आया कि वह उन स्त्रियो को खरी—खोटी सुनाकर ईट का जवाब पत्थर से दे, किन्तु अथर्व का सकेत पाकर वह चुप बैठी रही। कुछ समय तक वे दोनो शान्त—गम्भीर अवस्था मे बैठे रहे। दोनो ही अनुभव कर रहे थे कि अब पढ़ाई मे ध् यान लगाना कठिन ही नही, असम्भव है। अपनी अनुभूति को प्रकट करने मे दोनो ही सकोच कर रहे थे क्योकि दोनो मे से कोई भी स्वय पर यह आक्षेप लेने के लिए तैयार नही था कि वह गाँव की रूढ़िवादी—अशिक्षित स्त्रियो की निर्रथक बातो से डरकर अपने लक्ष्य से पीछे हट रहा है या उसमे विषम परिस्थितियो से सघर्ष करने की क्षमता नही है। पर्याप्त समय तक गम्भीर—शान्त अवस्था मे बैठे रहने के पश्चात्‌ श्रुति ने अथर्व से बाते करना आरम्भ कर दिया। उसकी बाते उस समय पढ़ाई से सबधित न होकर निरर्थक थी तथा अपने ही समाज की आलोचना करने वाली टिप्पणियाँ थी। बीच—बीच मे श्रुति हँस भी रही थी और अथर्व उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रत्येक बात का उत्तर उसी मुद्रा मे दे रहा था, जिससे श्रुति को यह अनुभव हो सके कि अथर्व उसका पूर्ण समर्थन कर रहा है।

श्रुति को अथर्व के साथ हँस—हँसकर बाते करते हुए देखकर वे महिलाएँ हत्‌प्रभ हो गयी। पहले उन्होने सोचा था कि उन्हे देखकर तथा उनकी बाते सुनकर श्रुति अपराध—बोध से झुक जाएगी। यूँ तो श्रुति अचानक उन स्त्रियो को अथर्व के पड़ोसी के घर पर देखकर चौक गयी थी और उनकी तिरस्कारपूर्ण बाते सुनकर उसको क्रोध भी आया था, परन्तु उसे अपराध—बोध नही हुआ। उसके विचार से उसने कोई अपराध किया ही नही था, तो लज्जित होने का प्रश्न ही नही उठता था। उन स्त्रियो की सोच को मिथ्या सिद्ध करने के लिए ही श्रुति ने अथर्व के साथ बाते करना आरम्भ किया था।

श्रुति चाहती थी कि वे स्त्रियाँ भली—भाँति यह देख—समझ ले कि उस पर उनके व्यग्य बाणो का कोई प्रभाव नही पड़ता है। कुछ समय पश्चात्‌ श्रुति ने देखा कि जो कुछ वह चाहती थी, वही हुआ है। वे स्त्रियाँ, जो कुछ समय पूर्व छत पर खड़ी होकर श्रुति के विषय मे अभद्र टिप्पणियाँ कर रही थी, श्रुति के व्यवहार मे अपनी आशानुरूप प्रतिक्रिया न पाकर निराश होकर चली गयी थी। उनके जाने के पश्चात्‌ श्रुति ने अथर्व से निवेदन किया कि अब वह कुछ भी सीखने मे असमर्थ है । उसने कहा कि सीखने के लिए शिक्षार्थी का एकचित्‌ होना आवश्यक है, जबकि इस समय वह अपना चित्त पढ़ाई मे नही लगा पा रही है। अथर्व ने उसके प्रस्ताव का समर्थन करते हुए बताया कि उसका चित्‌ भी अब पढ़ने—पढ़ाने मे नही रम रहा है, इसलिए वह भी अवकाश चाहता है। अपनी आशानुरूप अथर्व का उत्तर पाकर श्रुति उसी समय अपने घर लौट गयी।

श्रुति जब तक अपने घर पहुँची, उससे पहले उसके घर यह सूचना पहुँच चुकी थी कि वह प्रभा के घर कप्यूटर सीखने के लिए नही जाती है, अपितु वह वहाँ पर अथर्व के साथ गप्पे मारने और हँसी—ठिठोली करने के लिए जाती है। श्रुति की माँ को यह सूचना भी मिली थी कि जिस समय उनकी बेटी प्रभा के घर जाती है, उस समय वहाँ पर प्रभा और उसकी माँ रहती ही नही है। श्रुति की माँ ने अपनी बेटी के विरुद्ध टिप्पणी सुनकर सूचना देने वाली स्त्री को तो खरी—खोटी सुनाकर हतोत्साहित कर दिया, परन्तु श्रुति के विषय मे सोचकर उनकेे तन—मन मे ज्वाला भड़क उठी। उन्होने उस स्त्री के जाते ही प्रभा के घर जाकर अपनी बेटी को अपने साथ लाने का निश्चय किया और निकल पड़ी। वे घर से निकलते हुए कह रही थी कि आज के बाद वे कभी भी श्रुति को प्रभा के घर नही जाने देगी, क्योकि उनकी बेटी अपनी माँ से मिले हुए समर्थन का और उनकी दी हुई छूट का गलत लाभ उठाने लगी है। स्वय से बाते करते हुए माँ घर से बाहर निकलने ही वाली थी, तभी उन्होने देखा कि श्रुति दरवाजे पर खड़ी है और अन्दर आने का उपक्रम करती हुई प्रश्नसूचक दृष्टि से माँ की ओर देख रही है कि उसकी माँ कहाँ जाने को तैयार हो रही है ? माँ ने उसके प्रश्न को समझकर भी उत्तर देने की आवश्यकता का अनुभव नही किया और क्रोधपूर्ण मुद्रा मे उसी से प्रश्न किया —

कही गयी ही तू ?

आप से पूछकर ही तो गयी थी मै प्रभा के घर, फिर आप इतने गुस्से मे क्यो बोल रही हो ?

प्रभा अर उसकी माँ अपणे घर मे ही आज ? जब तू व्‌हाँ कम्प्यूटर सीख री ही ! माँ ने अपनी शका को दूर करने के लिए श्रुति से पूछा, ताकि वे जान सके कि श्रुति अथर्व के साथ उसके घर मे अकेली थी या प्रभा भी उसके साथ थी।

हाँ ! अपने घर मे नही होती, तो कहाँ होती प्रभा और उसकी माँ ? पर पिछले दो दिन से बिजली नही आयी है, इसलिए आज कम्प्यूटर नही सीख पायी। आज मैने अँग्रेजी सीखी थी और मन नही लगा, तो थोड़ी देर सीख कर ही चली आयी हूँ ! प्रभा की तबियत आज ठीक नही थी, इसलिए कुछ भी सीखने मे चित्त नही रमा ! लेकिन, माँ, मुझे यह समझ मे नही आ रहा है कि आप इतनी क्रोधित क्यो है ? श्रुति ने अत्यन्त मधुर और आत्मीय भाव से अपनी माँ को अपने विषय मे बताया, तो माँ का क्रोध कुछ कम हो गया और वे शान्त हो गयी। बेटी पर अकारण ही क्रोध करने की भूल का अनुभव करके माँ ने ग्लानिपूर्वक कहा —

चल भित्तर चल ! भित्तर चलकै सारी बात बताऊँगी अर समझाऊँगी तुझै ! तुझै बताऊँगी इस दुनिया के कितने रग है अर इस बेढगी दुनिया सै बचकै कैसै र्‌हया जावै है ?

माँ की मुद्रा देखकर और उनके शब्दो को सुनकर श्रुति ने अनुमान लगा लिया कि माँ के क्रोध का कारण क्या हो सकता है ? किन्तु उसने माँ से कुछ भी कहा नही। अन्दर जाकर माँ ने श्रुति को बताया था कि प्रभा की पड़ोसिन ने घर आकर उन्हे बताया था कि उन्होने श्रुति को अथर्व के साथ हँसी—ठिठोली करते हुए प्रत्यक्षतः देखा है। पड़ोसिन की कही हुई सारी बाते बताने के पश्चात्‌ माँ ने उसे मर्यादा मे रहने का निर्देश दिया और साथ ही प्रशान्त द्वारा दी गयी चेतावनी के विषय मे भी श्रुति को स्मरण कराया। माँ का निर्देश सुनकर श्रुति कुछ क्षण के लिए गम्भीर हो गयी। उसने अपनी माँ को आश्वस्त किया कि वह कभी भी कोई अनुचित कार्य नही करेगी। उसने माँ को यह भी समझाने का प्रयास किया कि अब वह वयस्क हो चुकी है और पर्याप्त समझदार भी है, इसलिए अब वह अपना लक्ष्य तथा अपना मार्ग स्वय चुनना चाहती है। उसने स्पष्ट कहा कि समाज के उन पुरातनपथियो द्वारा दिखाये हुए रास्ते पर चलना उसे स्वीकार नही है, जो विधाता द्वारा सृजित इस सुन्दरतम ससार को निरर्थक प्रतिबधो से नरक बना देते है ; जिसमे स्त्री ईश्वर प्रदत्त अपने जीवन को वरदान मानने के बजाय अभिशाप मानने लगती है।

श्रुति के वक्तव्य से प्रभावित होकर उसकी माँ सोचने लगी कि उनकी बेटी शायद अनुचित मार्ग पर नही जा रही है। वह उसी दिशा मे सोच रही है और जाने का प्रयास कर रही है, जिस दिशा मे हर स्त्री को सोचना चाहिए, ताकि वहाँ एक मुक्त समाज का निर्माण हो सके, जिसमे प्रत्येक व्यक्ति भेदभाव से मुक्त होकर अपने जीवन का आनद ले सके, चाहे वह व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष, पिछड़ा हो या अगड़ा, दलित हो या सवर्ण। इन सुखद सकारात्मक विचारो मे खोयी हुई माँ एक मुक्त समाज की कल्पना कर ही रही थी, तभी उनके मन—मस्तिष्क मे भय मिश्रित आशका की लहर व्याप्त हो गयी और बार—बार एक ही प्रश्न उनके अन्तःकरण से उभरने लगा—

क्या ये समाज इस तथ्य को स्वीकार करेगा कि स्त्री को भी स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार रहने और जीने का अधिकार है ? पूरे समाज की बात छोड़ो, क्या उनका स्वय का बेटा प्रशान्त इस तथ्य को स्वीकार करके अपनी बहन श्रुति को अपना लक्ष्य चुनने और अभीप्सित अपने मार्ग पर चलने की छूट देगा ? क्या श्रुति को इतनी स्वतत्रता और सहयोग अपने परिवार से मिल पायेगा कि वह निश्चित होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सके ?

माँ, क्या सोचने लगी आप ?

कुछ नी सोच री ! बस, तेरी ई फिकर हो री है ! मुझै लगै है, तू जो कुछ कर री है, ठीक है, पर तेरे घर वाला मेे अर बिरादरी—समाज मे इतनी समझ ना है, जो तेरी बात कू समझ लेगे अर ठीक माण लेगे। बेट्‌टी, मुझै डर लग रा है, किसी दिन परसान्त के कान्नो मै यू ई बात पड़गी, जो आज पिरभा की उस पड़ोस्सण नै कही है, तो !

तो क्या ? माँ !

तो तुझै बी यू बबली की त.. त..तरयो..! माँ अपना वाक्य पूरा नही कर पायी और मुँह पर हाथ रखकर फफक—फफककर रोने लगी। श्रुति अपनी माँ का वाक्य पूरा हुए बिना ही उसका पूरा अर्थ समझ चुकी थी। उसने माँ से कहा—

माँ ! आप बिल्कुल भी चिन्ता मत करो ! मुझे कुछ भी नही होगा, क्योकि मेरी माँ का आशीर्वाद मेरे साथ है ! श्रुति ने माँ को सात्वना दी।

श्रुति की सात्वना से माँ चुप तो हो गयी थी, परन्तु उनके चित्त का भय और आशका उन्हे यथावत्‌ व्याकुल कर रहा था। अपने चित्त की व्याकुलतावाशात्‌ माँ ने एक बार पुनः श्रुति को समझाने का प्रयास किया कि वह अथर्व से कप्यूटर सीखना बद कर दे और प्रभा की सहायता से ही कप्यूटर तथा अग्रेजी सीखे। श्रुति ने उस समय तो माँ से सहमति प्रकट करते हुए कह दिया कि वह वैसा ही करेगी, जैसा उसकी माँ चाहेगी। किन्तु माँ ने भी यह अनुभव किया था कि श्रुति की बातो मे सत्य का अश अत्याल्प है। श्रुति स्वय भी यह अनुभव कर रही थी कि उसने जो शब्द माँ से कहे है, वह उनका पालन नही कर पायेगी। फिर भी वह विवश थी कि माँ को सतुष्ट करने के लिए वही सब कुछ कहे, जो कुछ माँ चाहती थी। उस दिन के पश्चात्‌ कुछ दिन के लिए श्रुति ने प्रभा के घर जाना बन्द कर दिया था। अब वह दिन—भर घर मे रहने लगी थी, इसलिए सदैव उसके चेहरे पर उदासी छायी रहती थी। अपनी पढ़ाई छूटने की पीड़ा उसे अदर—ही—अदर खोखला कर रही थी। उसके उदास और पीड़ामयी चेहरे को देखकर माँ की आँखो मे पानी भर आता था।

एक दिन माँ की ममता पराजित हो गयी। माँ ने श्रुति को अपने पास बुलाकर बिठाया और उसे समझाया कि एक माँ होने के नाते वे उसे दुखी नही देख सकती। यदि उसकी हठ है कि वह कप्यूटर सीखकर और अग्रेजी पढ़कर ही प्रसन्न रह सकती है, तो वह प्रभा के घर जाकर पुनः अपनी पढ़ाई आरम्भ कर सकती है। माँ की अनुमति पाकर श्रुति प्रसन्नता से झूम उठी। भाव विह्‌वलता के कारण उसकी आँखो मे भी पानी भर आया और वह माँ की छाती से लिपट गयी। उसके पश्चात्‌ वह प्रतिदिन पूर्वनिश्चित समय पर प्रभा के घर जाकर अथर्व से कप्यूटर तथा अग्रेजी पढ़ना—लिखना सीखने लगी। इसके बाद ज्यो—ज्यो श्रुति कप्यूटर और अग्रेजी मे निपुण होती गयी, त्यो—त्यो अथर्व के साथ उसका नाम जुड़ता गया और वह समाज की चर्चा का केद्रीय विषय बनती चली गयी।

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