संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि
(7)
जेलों की सलाखों में.....
जेलों की सलाखों में, अब वो दम कहाँ ।
खा- म - खा उलझ रहे, क्यों कोतवाल से ।
जमाने का चलन बदला है, कुछ आज इस कदर ।
गुनाहों की ताज पोशियाँ हैं, बेगुनाह दरबदर ।
गलियों के अब कुत्ते भी, समझदार हो गये ।
झुंडों में निकलते हैं, वे सिपहसलार हो गये ।
शहरों में अब बंद का, है जोर चल पड़ा ।
गुंडों सँग नेताओं का,भाई चारा बढ़ चला ।
कुछ सड़कें क्या बनीं, वे माला-माल हो गये ।
बस हल्की सी बरसात में,फिर गड्ढे बन गये ।
नई सड़कें उधड़ जायें, तू फिक्र क्यों करे ।
थिगड़े लगाने का, फिर टेंडर हमें मिले ।
चोर और सिपाही का, अब खेल चल पड़ा ।
इस खेल में ही दोनों का, सितारा चमक उठा ।
शिकायत करना चाहो तो, कर दो आराम से ।
हम क्यों डरें किसी से, जब जमाना हराम से ।
चिल्लाते हो चिल्लाते रहो, हमें क्या पड़ी ।
जिलेवार जिलाधीशों की, न्युक्तियाँ कर रखीं ।
जाकर थमा के आना, शिकायतों का पुलंदा ।
मिल-जुल कर हम वसूलेंगे, हर काम का चंदा ।
इंक्वारी कहेंगे, इंक्वारी करवाएँगे ।
आयोग कहेंगे, आयोग बिठवाएँगे ।
जो आप कहेंगे, वो जांच करवाएँगे ।
निष्पक्षता की आड़ में, वर्षों लटकाएँगे ।
पक्के निशानातों को, हम सब मिटवाएँगे ।
आरोपी के दागों को, घिसकर धुलवाएँगे ।
परवाह नहीं कोष की, करोड़ों लुटवाएँगे ।
गांधी के सिपाही हैं, हम सच दिखाएँगे ।
लानत है मुझे दोस्त, अगर यह न कर सके ।
तो भूल कर भी हम कभी, रिश्वत न खाएँगे ।
वेतन की चाह किसे है, बस काम करेंगे ।
अपने वतन के वास्ते, कमीशन पर जियेंगे ।
महाराणा के वंशज हैं, हम इतिहास रचेंगे ।
चारा को ही खाकर, हम पेट भरेंगे ।
सत्ता से हटाया तो, बीवी को लायेंगे ।
बीवी को हटाया तो, बेटों को लायेंगे ।
हर हाल में हम जनता की, सेवा में रहेंगे ।
सत्ता में जियेंगे, और सत्ता में मरेंगे ।
तिरंगे को ओढ़कर, हम शमशान जायेंगे ।
तोपों की सलामी से ही, हम मुक्ति पायेंगे ।
हर चौक में भी मूर्तियाँ, अपनी ही लगवायेंगे ।
आदर्शों पर भी चलने की, फिर कस्में दुहरायेंगे ।
हर आतंकियों की जान की, सुरक्षा भी करेंगे ।
जेलों में उनके आराम की, व्यवस्था भी करेंगे ।
खर्च की परवाह नहीं, खूब करेंगे ।
जनता ने जिताया है, हम जनता को धरेंगे ।
अन्ना हो या रामदेव, सब समान हैं ।
हमारे लिये ये तो, दुश्मन समान हैं ।
हमसे जो टकराएँगे, बेमौत मरेंगे ।
कानूनी दाँव पेंचों में, उलझ कर के रहेंगे ।
जमाने का चलन बदला है, कुछ आज इस कदर ।
गुनाहों की ताज पोशियाँ हैं, बेगुनाह दर बदर ।
***
मेरे देश में ये कैसी, आँधी है उठी .....
मेरे देश में ये कैसी, आँधी है उठी,
चारों ओर घर -घर, आग है लगी ।
आज अपने देश को, बचाना पड़ेगा,
सोये हुए लोगों को, जगाना पड़ेगा ।
मेरे देश रोना मत, सपूत हैं अभी,
तेरे आँसू पोंछने को, वीर हैं अभी ।
माता तेरे शेर ये, दहाड़ेंगे जहाँ,
दुश्मन तेरे देश में,टिकेगें फिर कहाँ ।
ये किनके हाथ बढ़े हैं, सुलगाने के लिये,
लगता है भारत को, जलाने के लिये ।
हमें इनके हाथों को, कुचलना पड़ेगा,
अपने प्यारे भारत को, बचाना पड़ेगा ।
गोलियों की बौछारों से, छातियाँ छिदी,
बमों के धमाकों से है, धरती हिल उठी ।
शांति मेरे देश की, घबराने लगी है,
आतंकी घटनाएँ कैसे, बढ़ने लगी हैं ।
हमने तो ये चाहा था, सब शांति से रहें,
भाईयों से भाईयों को, जुदा न करें ।
अपने -अपने घरों में, सब प्रेम से रहें,
देश के विकास में, सहभागी सब बनें।
राम की धरा है, ये कृष्ण की जमीं,
गौतम की है भूमि, महावीर की जमीं ।
कबीर का है देश, रसखान की जमीं,
ईसा और नानक, पैगम्बर की जमीं ।
जिन्ना जैसे नेता थे, जो जिन्न बन गये,
घृणा और नफरतों के, बीज बो गये ।
क्षुद्र राजनीति से तो, देश था बटा,
बॅंटवारे की चालों ने ही, देश को छला ।
बॅंटवारों से दिलों में, जो दीवारें बनीं,
ढहाने में पाक की, ना दिलचस्पी रही ।
ईर्ष्या और द्वेश को, बढ़ाते रहे हैं,
जनता को बस युद्ध में, बहलाते रहे हैं ।
हजारों साल लड़ने की, तकरीर दे रहीं,
बजीरे पाकिस्तानी जो, चुनौती दे रहीं ।
मियाँ भुट्टो की जुबान, जो बोल रहीं हैं,
पिता श्री के हश्र को, क्यों भूल रही हैं ।
ऐसी धमकी को फिर, कुचलना पड़ेगा,
देश की सीमाओं को, बढ़ाना पड़ेगा ।
खोये हुए पाक को, मिलाना चाहिये,
गलती बॅंटवारे की, सुधारना चाहिये ।
देश में नेताओं की जो, बाढ़ बढ़ रही,
देश-प्रेम, त्याग-श्रद्धा, भक्ति की कमी ।
राष्ट्रीयता की भावना, मर्माहत हो रही,
देश की अखण्डता को, खंडित कर रही ।
नेताओं की भीड़ में, जो भेड़िया घुसे,
भेड़ियों की ओट में, जो शेर हैं बने ।
इनसे अपने देश को, बचाना पड़ेगा,
भेड़ियों को गोली से, उड़ाना पड़ेगा ।
घोटाले इस देश में, अब रोज हो रहे,
किसने कितनी जेबें भरीं, साथ मिल रहे ।
भ्रष्ट कारनामों का ये, खेल कैसा है,
चोटी के नेताओं का, ये मेल कैसा है ।
कितने हर्षद दाउद और, हितेन बढ़ेगें,
साँप बन जन- जन को, ये डसते रहेंगे ।
बमों के धमाके, कब तक करते रहेंगे,
देश को न जाने, कितना और छलेंगें ।
पूँजी और अफसरों में, खेल चल रहा,
चारागाह देश को, समझ के चर रहा ।
देश में पैसों का, जो तालाब बन रहा,
गरीबों के लिये तो, अभिशाप बन रहा ।
गरीबों के हक छीन, जो तिजोरियाँ भरें,
उनके ही पेटों में, जो घुटनों को धरें ।
ऐसे शोषकों को अब, मिटाना चाहिए,
वक्त रहते इनको, हटाना चाहिए ।
विज्ञापनों की होड़ में, जो दाम हैं बढ़े,
महॅंगाई की मार में, सहायक हैं बने ।
वक्त रहते इनको, समझना पड़ेगा,
जितनी जल्दी हो सके, बदलना पड़ेगा ।
महॅंगाई की मार से, जनता है दुखी,
ऊॅंची - ऊॅंची मीनारों में, लोग हैं सुखी ।
ये अर्थ की विषमता, मिटाना चाहिए,
देश में समानता को, लाना चाहिए ।
योजना विकास की, सब नीचे से बनें,
गाँवों से चलें और, शहरों को बढ़ें ।
काम हर हाथ को, दिलवाना पड़ेगा,
देश में उद्योगों को, बढ़ाना पड़ेगा ।
बेटियाँ हमारी सब, मातृ शक्ति हैं,
वे बेटों से नहीं हैं कम, आदि शक्ति हैं ।
देश के विकास में, सहभागी हैं रही,
कर्तव्यों के निर्वाहन में,वे आगे ही रही ।
समाज में अभिशाप की, जो मुहर है लगी,
ये दहेज की तराजू में, तुलने है लगीं ।
पासंगों में तुलीं जो, अंगारों में जलीं,
जलने से बची तो फिर, नर्क में जियीं ।
ऐसी बलिवेदी को, हटाना पड़ेगा,
जागरण का बिगुल भी, बजाना पड़ेगा ।
दण्ड के विधान को, बदलना चाहिए,
दोषियों को फाँसी पर, लटकना चाहिए ।
गिरते हुये लोगों को, उठाना सही है,
बढ़ते हुये लोगों को, गिराना नहीं है ।
छाये अॅंधकार को, हटाना सही है,
अर्थ से ही आरक्षण का, नाता सही है ।
ऐसी नीतियों को भी, बदलना पड़ेगा,
उच्च मापदण्डों को, अपनाना पड़ेगा ।
कुंठाओं से देश को, बचाना पड़ेगा,
जातिगत आरक्षण, हटाना पड़ेगा ।
***
राष्ट्रभाषा हिन्दी
हे स्वतंत्र भारत की
राष्ट्रभाषा हिन्दी
तू यहाँ क्यों जन्मी ?
अरी ओ बावली
तुझे यहाँ क्या मिला !
संविधान द्वारा घोषित
राष्ट्रभाषा का उपहार !
जिसमें अनेक संशोधनों के
पैबंद लगा दिए
और उसे
रोजी -रोटी की भाषा से
वंचित कर दिया है ।
तभी तो तेरा भक्त
आज जीवन भर पछताता है,
बेचारा चपरासी या
क्लर्क बनकर रह जाता है ।
हे स्वतंत्र भारत की
राष्ट्रभाषा हिन्दी !
तू यहाँ क्यों जन्मी ?
यदि जन्म लेना ही था,
तो रूस,चीन,जापान,जर्मनी
या इंग्लैंड, अमेरिका की
धरती पर जन्म लेती,
तो सचमुच
तेरे भाग्य खुल जाते ।
तेरे स्वागत में वे
पलक पांवड़े बिछाते ।
तब तेरे आँचल में
ज्ञान विज्ञान के
शब्द भंडार गढ़े जाते ।
तुझे इक्कीसवीं सदी में
ले जाने को दुल्हन जैसा
सजाते-सॅंवारते ।
और कम्प्यूटर की
पालकी में
बैठा कर देश- विदेश की
सैर कराते ।
फिर तेरी जय -जयकार से
सारे विश्व को गुँजाते ।
अरी ओ पगली !
तब तुझे अपने ही देश में
अपनी अस्मिता के लिए
गिड़गिड़ाना तो नहीं पड़ता।
तूने इन कृतघ्न
स्वार्थी कपूतों के बीच
रह कर क्या पाया ?
जितना पाया,
उससे कहीं अधिक खोया ।
क्या तू भूल गयी
अपनी जननी के हश्र को ।
जिसकी कोख से
न जाने कितनी भाषाएँ
जन्मी हैं ।
उसके आगे आज भी
विश्व की भाषाएँ
नतमस्तक हैं,मौन हैं ।
आज वही संस्कृत
अपने जीवन की
इनसे भीख माँग रही है ।
जब वे उसे नहीं बचा पाए,
तो तुझे क्या बचाएँगे ?
अभी तो ये और
गुलामी की चादर को
ओढ़ेंगे, बिछाएँगे
और उसमें ही भरमाएँगे ।
हे स्वतंत्र भारत की
राष्ट्रभाषा हिन्दी,
तू यहाँ क्यों जन्मी ?
तू यहाँ क्यों जन्मी ?
***
मानव और स्तब्ध प्रतिमा
भ्रष्टाचार
और अराजकता की
नवयुगी रणचण्डी
लपलपाती जिव्हा से
इंसानी लहू चाटती
पैशाचिक नृत्य करती
रक्त रंजित सूर्पनखों से
मानव कंकालों में फँसे
सूखे मांस को
लपकती झपटती
भूखी अग्नि सी
भूख बुझाती
विचर रही,
और मरघट की
नीरवता लाने
मचल रही ।
बेचारा बेबस मौन मानव
शून्य में खोया
निहारे जा रहा है
लगता है आकाश से
किसी चमत्कार की
प्रतीक्षा कर रहा है
किन्तु मंदिर की
स्तब्ध प्रतिमा
कर्ण विहीन सी
मौन बेजान खड़ी है ।
इस युग के असंख्य
कंसों और रावणों से
कैसे निपटा जाये
यही सोच कर
परेशान हो रही है ।
***
गवाही
मूँछ उमेठते थानेदार ने
एक ड्राइवर को
थाने में लाते ही
घुमा के दो-चार डंडे जमाये ।
और उस पर
बुरी तरह झल्लाये,
क्यों बे -
एक्सीडेंट करके भी
मुस्करा रहा है।
गोया थाने में ही कानून की
खिल्ली उड़ा रहा है।
क्या तुझे इंसान और
जानवर में
कोई फर्क नजर नहीं आया।
जो सड़क के बीच में चल रही
भैंस को तो बचा आया
किन्तु फुटपाथ में जा रहे
इंसान को कुचल आया ।
थानेदार के फिर उठे डंडे को
उसने बीच में पकड़ कर कहा -
श्री मान् थानेदार साहब,
मैं आज
इंसान और भैंस की कीमत
अच्छी तरह जानता हूँ ।
तभी तो इस कृत्य से
अपने को धन्य मानता हूँ ।
थानेदार साहब -
भैंस की कीमत के सामने
आज इंसान
की क्या औकात है?
भैंस की कीमत तो
हजारों की होती है,
और इंसान की कीमत
बस दो कौड़ी की होती है
फिर तुम्हारा कानून तो
गवाहों पर टिका होता है ।
किसे समय है,
जो गवाही के लिये
फालतू में
चक्कर लगायेगा ।
हजारों चढ़ोत्तरी करके भी
तुम्हारे सामने
गिड़गिड़ाएगा ।
इसलिए श्रीमान्
आज मैं मुस्करा रहा हूँ,
गवाही के अभाव में
अब मैं घर जा रहा हूँ ।
***
जीना जो चाहते हैं .....
जीना जो चाहते हैं,
मत उन्हें छलो ।
राहों में काँटों की,
डाल मत धरो ।।
आशा विश्वासों की,
डोर में बॅंधो ।
दुखियारी आँखों की,
कोर में बसो ।।
प्रेम को तुम महकाओ,
गंध की तरह ।
जीवन में मुस्कराओ,
फूल की तरह ।।
भागे यह अॅंधियारा,
दीप सा जलो ।
काँटों संग रहकर भी,
फूल - सा हॅंसो ।।
दे सको यदि छाया,
तो तान दो वजूद ।
भूखे पथिक का,
पाथेय तुम धरो ।।
***
बीत ही जायेगी साथी .....
बीत ही जायेगी साथी,
रात की यह कालिमा ।
नई सुबह की रोशनी में,
रँग भरेगी लालिमा ।
हम मुसाफिर राह के,
चलना हमारी शान है ।
शूल पथ में लाख बिखरें,
बढ़ना हमारी आन है ।
लाख मुश्किल हों डगर में,
पर हमें विश्वास है ।
दिल में बस यह चाह मचले,
छू लें मंजिल पास हैं ।
दूर कितनी मंजिलें हैं,
यह हमें क्यों सोचना ।
हर कदम आगे बढ़ें,
बस यही अरमान है ।
कौन जाने नैन ‘वय’ के,
पृष्ठ अंतिम कब पढ़ें ।
चल मुसाफिर और चल,
कुछ और पग आगे बढ़ें ।
जिस डगर पर चल पड़ें,
उस डगर की शान हो।
जिस जगह हम थम गये,
बस जिंदगी का धाम हो ।
***