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संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 4

संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि

(4)

बरखा ने पाती लिखी, मेघों के नाम.....

बरखा ने पाती लिखी, मेघों के नाम ।

जाने कब आओगे, मेरे घनश्याम ।।

अॅंखियाँ निहारे हैं, रोज सुबह- शाम ।

उमस भरी गर्मी से, हो गए बदनाम ।।

सूरज की गर्मी से, तपते मकान ।

बैरन दुपहरिया ने, हर लीन्हें प्रान ।

लू के थपेड़ों से, हो गए हैरान ।

सूने से गली कूचे, हो गए शमशान ।।

श्रम का सिपाही भी, कहे हाय राम ।

हर घर में मचा है, भारी कोहराम ।।

नदियाँ सब सूख कर, बन गयीं मैदान ।

हरे भरे वृक्षों ने, खो दी पहचान ।।

ताल भी बेताल से, प्रश्न करे मौन ।

मेरे इन घावों को, भरेगा अब कौन ।।

जंगल अकुलाते सब, पक्षी हैं मौन ।

उनकी व्यथाओं को, समझेगा कौन ।।

आँखों में आस लिये, बैठा किसान ।

मेघों के पानी में, छिपा है विहान ।।

पाती मैं बंद करूँ, लिखना क्या शेष ।

निर्मोही प्रियतम कब, हरोगे ये क्लेष ।।

पाती मैं भेज रही, लिख कर संदेश ।

पाते ही आ जाओ, तुम अपने देश ।।

***

पत्थर के शहर में अब .....

पत्थर के शहर में अब, दिलदार नहीं मिलते,

खोजो अगर अब तुम, दुश्मन हजार मिलते ।

जब अपने ही पराए, लगने लगे बौराये,

गैरों से नहीं हम तो, अपनो के हैं सताये ।

बेरुखी से अब तो, हैरान हो गया मैं,

अपने ही आशियाँ से, परेशान हो गया मैं ।

अखबारों में हैं छप रहे, किस्से हजार उनके,

बिके- बिके से लग रहे, पन्ने हजार उनके ।

खुद के मकान शीशों के, पर चला रहे हैं पत्थर,

सड़कों में हादसे हैं, हाथों में उठे खंजर ।

इस मुल्क को है क्या हुआ, भगवान ही है रक्षक,

अब सत्ता में भी घुस गये, जहरीले नाग तक्षक ।

कोई सपेरा आकर, चुन - चुन के अब पकड़ ले,

भय मुक्त देश करके, तिरंगे को ऊॅंचा कर दे ।

***

रह-रह के यूँ सताती थी .....

रह -रह के यूँ सताती थी, अहले वतन की चाहत,

चुपके से कभी सपनों में, दे जाती थी वो आहट ।

आँचल में बीता बचपन, आँगन में गुजरा यौवन,

गलियों में धींगा- मस्ती, खुशियों में भीगा जीवन।

हमने मकाँ बनाया था, शहरे अदब में अपने,

हर कोनों को तराशा था, गुरबत भरे दिनों में ।

हम छोड़ कर गये थे, गुलजारे इस चमन को,

अब लौट कर जो देखा, बदले हुये चमन को ।

अपनों में जी रहा था, अपनों सा प्यार पाकर,

तनहा सा हो गया मैं, अपनों के बीच आकर ।

अपने ही शहर में अब, अनजान हो गया मैं,

सपनों के इस महल में, पहचान खो गया मैं ।

***

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध .....

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ।

हारों की मुस्कानें सूखकर झरीं,

आशाएँ सपनों के सेज पर सजीं ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......

यादों की झोली में दुबिया सौगात,

माटी की खुशबू व फूल की बहार ।

शोषण - गुलामी के गहरे आघात,

आहुति से आया तब देश में सुराज ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......

आगत के स्वागत में अभिनन्दन गीत,

पुष्पों की मालाएँ प्रियतम संगीत ।

रोम-रोम पुलकित था आँगन उल्लास,

मन में तरंगों का सुन्दर मधुमास ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......

डाल-डाल कोयल की गॅूंजी थी कूक,

अमराई झूमी थी मस्ती में खूब ।

टेसू की मुस्कानें कह गईं संदेश,

आरती की थाल अब सजाओ रे देश ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......

मौसम के आँचल में बहुरंगी फूल,

राहों में काँटे और उड़ती है धूल ।

पैरों में शूल चुभे रिसते से घाव,

चेहरे में छाये उदासी के भाव ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......

***

धर्म- जाति - भाषा की उठती दीवार,

उग्रवाद, आतॅंक का छाया गुबार ।

लपटों और घपलों में झुलसा परिवेश,

प्रगति और एकता से भटका है देश ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......

टूट रहे बाँध सभी,नदी के उफान,

पुरवाई कहती है, बनके तूफान ।

कैसा ये मौसम है कैसा विहान,

कौन सी दिशा है ये कौन सा जहान ।

पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,

लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ........

***

राह देखता रहा तुम्हारी .....

राह देखता रहा तुम्हारी, मैं निशि दिन प्रियतम ।

कब आँजोगी आँखों में, तुम काजल सा प्रियतम ।।

नयनों की परिभाषा पढ़कर, मैंने छंद गढे़ ।

सुर -सरगम के ताल मेल से, अनगिन बंध पढ़े ।।

मेरे कलम की स्याही बनकर, गीत लिखा करती थीं ।

हारों और मनुहारों के सँग, प्रेम रचा करती थीं ।।

मेरे गीतों और गजलों में, तुमने रूप सॅंवारा ।

प्रेम समर्पण के भावों का, दर्शन मुझे कराया ।।

चाँद - चाँदनी ने आमंत्रण, पत्र बहुत भेजे ।

बिन सॅंग तेरे रास ना आया, वापस ही भेजे ।।

मन के आँगन में यादों की, बिजुरी सी गिरती है ।

और रात नागिन सी, रह - रहकर डसती हैं ।।

कविता,गीत,गजल गढ़ने को, मन फिर से अकुलाता ।

प्रियतम तेरे निष्ठुर दिल में, प्रेम न क्या हुलसाता ।।

***

गाँवों की गलियों में.....

गाँवों की गलियों में, दौड़ रही शाम,

श्रम के पसीने को, सोख रही शाम ।

आल्हा रामायण की, गूँज रही तान,

ढोलक मंजीरे से, झूम रही शाम ।

ननकू के आँगन में, बैठी चौपाल,

क्षण भर में सुलझे, दसईं के बवाल ।

बाजरे की रोटी सँग, गुड़ की मिठास,

मक्खन से बघरी है, सरसों की साग ।

अॅंधियारी रातों में, जुगनू जले,

घुँघटा की ओट से, बहुनी हॅंसे ।

कान्हा की वंशी से, राधा सजे,

झुरमुट के पीछे से, ग्वाले हॅंसें ।

शीतल है बहती, पुरवाई चहुँ ओर,

ऊपर से हॅंसता है, चंदा चकोर ।

चाँदनी ले आई है, नभ मे बारात,

वसुधा ने भेजी है, दुबिया सौगात ।

मेंढक और झींगुर, बजाते हैं साज,

कोयल की गूँजती है, मीठी आवाज ।

इठलाती नदियाँ और, झरनें पहाड़,

हरे- भरे खेतों का, पूछो ना हाल ।

***

प्रश्न करती दिख रही बैचेन सी .....

प्रश्न करती दिख रही बैचेन सी,

सदियों से इस खोज में है लेखनी ।

कौन उस गहराई तक जा पाएगा,

जो हथेली में वह मोती लाएगा ।

जिसके आने से महक खलिहान की,

भूख से पीड़ित दबे इन्सान की ।

लाए जो मुरझाए चेहरों में हॅंसी,

ना रहे आँखों में बेवस बेबसी ।

शांति की जो क्राँति लाए देश में,

ज्ञान की गंगा बहे परिवेश में ।

भ्रांतियों के बादलों को जो भगाये,

सूर्य बन कर जो धरा का तम हटाये ।

दाह के दारूण चलन, जो बदल दे,

नफरतों के बीज गर्भों में मसल दे ।

एकता के स्वर गुँजा दे जो गगन में,

प्रेम की धारा बहा दे जो वतन में ।

जो लगाए आग भारत देश में,

उनके हाथों को कुचल कर तोड़ दें ।

जो दिख़ाए आँख भारत की जमीं पर,

उनकी आँखों की पुतलियाँ फोड़ दें ।

इस प्रश्न का हल ढूँढ़ती बैचेन सी,

सदियों से इस खोज में है लेखनी ।

कौन उस गहराई तक जा पाएगा,

जो हथेली में वह मोती लाएगा ।

देश की खुशहालियों में प्राण दे,

जो तिरंगा हाथ में फिर थाम ले ।

ले चलें इस देश को स्वर्णिम युगों में,

गर्व से यह जग हमारा नाम ले ।

प्रगति पथ की सीढ़ियों में जो चढ़ा दे,

साज फिर निर्माण के सारे सजा दे ।

सुप्त प्राणों में मधुर संगीत भर दे,

जो सुरों में चेतना के गीत भर दे ।

***

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

यौवन बसंत के स्वागत में,

आमंत्रण दे - दे बुला रहा ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये,

वीणा के तारों को छेड़ें ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

वह आम्रकुंज सरिता तीरे,

वह जल क्रीड़ा की उथल-पुथल।

नीलम नक्षत्र चुनरी ओढ़े,

चंदा नभ से है बुला रहा ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

प्रेम - दीप प्रज्ज्वलित करके,

फिर सरिता तट से बहायेंगे ।

हम प्रकृति की सुषमा देख-देख,

आह्लादित मन से गायेंगे ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

मैं गीत लिखूँगा प्यार भरे,

नयनों में डूब - डूब कर के ।

तू राग रागिनी में खो कर,

स्वर को बिखराना प्राण प्रिये ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

कोहरे ने जीवन सरिता को,

अदृश्य किया है नयनों से ।

हम नव प्रभात की किरणों से,

उजियारा जग में बिखरायें ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

भयभीत न होंगे सागर से,

हम उसको मित्र बनायेंगे ।

तल में जो मोती छिपे पड़े,

हम उन्हें खोज कर लायेंगे ।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

पलकों ने आज प्रतीक्षा में,

आँखों की नींद उड़ाई सखे ।

कचनार खिली है मधुवन में,

फिर दरश मिलन हुलसाई सखे।

मधुमास है छाया चलो प्रिये.....

***

पतझड़ बीता छाई बहारें .....

पतझड़ बीता छाई बहारें,

मधुप कली को चूम रहा है ।

प्रिय बरखा की यादें करके,

तन-मन सारा झूम रहा है ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

नभ में छाई घोर घटायें,

तेज हवा सॅंग दौड़ रही हैं ।

कड़-कड़ करती बिजली नभ से,

मेघों को मनुहार रही हैं ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

पावस की बॅूंदों की खातिर,

प्यासा चातक अकुलाया है ।

इन्द्र धनुष को देख मोर भी,

पंख पसारे मुसकाया है ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

मखमल दूब बिछोने खातिर,

पशु-पक्षी -वृन्द चहक रहे हैं ।

उमस भरी गर्मी से व्याकुल,

आतुर जंगल झुलस रहे हैं ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

झींगुर, मेंढक,जुगनू सारे,

आगत स्वागत में डोल रहे हैं ।

स्वर सरगम आतिश बाजी से,

रॅंग खुशियों के घोल रहे हैं ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

बरखा की बॅूंदे गिरते ही,

सौंधी खुशबू फैल गई है ।

गर्म हवाओं के झोंकों में,

अनुपम ठंडक घोल गई है ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

पोखर, नदियाँ, ताल - तलैयाँ,

यौवन में बौराये हैं ।

अमृत जल अॅंजुरी में भर कर,

हमें छकाने आये हैं ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

खेतों के व्याकुल बीजों ने,

मन मोहक अॅंगड़ाई ली है ।

श्रमी किसानों के चेहरों में,

पावस ने खुशियाँ भर दीं हैं ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

श्रम की बॅूंदों को बरखा ने,

जो समुचित सम्मान दिया है ।

वसुन्धरा को हरियाली का,

उसने ही परिधान दिया है ।

पतझड़ बीता छाई बहारें ........

***

मन भावन ऋतुराज है आया .....

मन भावन ऋतुराज है आया,

हिलमिल स्वागत कर लो ।

खुशियों की सौगातें लाया,

प्रेम की झोली भर लो ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

गूँज रहा मृदुगान मधुप का,

मधुर पराग लपेटे ।

कोयल कूक रही कुंजन में,

प्रियतम याद समेटे ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

पिऊ -पिऊ की रटन लगाये,

राह निहारे पपीहा ।

अधरों की कब प्यास बुझेगी,

सोच रहा है पपीहा ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

श्याम वर्ण अम्बर मुस्काया,

नीली चादर ओढ़े ।

घूँघट से वसुधा मुसकाई,

पीली चुनरी ओढ़े ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

वन पलाश के झूम रहे हैं,

सजा डालियाँ लाली से ।

रंग -बिरंगे फूल हंस रहे,

वसुधा की हरियाली से ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

कदंब, नाग-केसर और चम्पा,

सूरज - मुखी, चमेली ।

गेंदा, गुलाब, केतकी,सरसों,

लगती सभी रुपहली ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

अमराई में बौरें फूलीं,

खेतों में पीली सरसों ।

गेंहूँ की बालें हरषायीं,

खुशियाँ बरसी बरसों ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

रंग बिरंगी होली आ गई,

गले मिल रहे अपने ।

गलबहियों को डाल सुहाने,

झूम रहे हैं सपने ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

प्रेमासक्त लताएँ उलझी,

तरुवर भुजबल अंकन में ।

रंग रूप और गंध बसंती,

छाई चतुर्दिशाओं में ।

मन भावन ऋतुराज है आया.....

***

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