संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि
(1)
हे माँ वीणा वादिनी .....
हे माँ वीणा वादिनी, शत् शत् तुझे प्रणाम ।
हम तेरे सब भक्त हैं, जपते तेरा नाम ।।
शांत सौम्य आभा लिए, मुख में है मुस्कान ।
गूँज रही जयगान की, चर्तु दिशा में तान ।।
शुभ्र वसन धारण करें, आभा मंडल तेज ।
चरणों में जो झुक गये, पाते सुख की सेज ।।
मणियों की माला गले, दमकाती परिवेश ।
आराधक जो बन गये, मिटते मद औ द्वेष ।।
मधुर - मधुर वीणा बजे, पुलकित होते प्राण ।
अमृत के रस पान से, हो जाता कल्याण ।।
ग्रंथ हाथ धारण किये, विपुल असीमित ज्ञान ।
जो सानिध्य में आ गये, जीवन भर मुस्कान ।।
जीवन में भटका सदा, कहीं मिली ना ठाँव ।
तेरे दर पर ही मिली, सबको शीतल छाँव ।।
हंस वाहिनी हंस वत, सबको दो तुम ज्ञान ।
अंतर मन का तम हरो, दूर भगे अभिमान ।।
भक्ति औ वैराग्य का, सबको दो वरदान ।
मात वंदना मैं करूँ, सच में हम नादान ।।
अभिलाषा न स्वार्थ की, काम करें निष्काम ।
मानव की सेवा करें, हम सबका है काम ।।
कलम सिपाही मैं बनूँ, करूँ सृजन के काम ।
कृपा रहे सब पर सदा, हम सब करें प्रणाम ।।
***
स्मृतियों के आँगन में.....
स्मृतियों के आँगन में यह,
काव्य कुंज का प्रतिरोपण ।
रंग - बिरंगे पुष्पों जैसे,
भावों का तुमको अर्पण ।
कविताओं में अनजाने ही,
लिख बैठा मन की बातें ।
मैं कवि नहीं,न कविता जानूँ,
न जानूँ जग की घातें ।
आँखों से जो झलकी बॅूंदें,
उनको लिख कर सौंप रहा ।
मन के उमड़े भावों की मैं,
हृदय वेदना रोप रहा ।
माटी की यह सौंधी खुशबू,
जब छाएगी घर आँगन में ।
संस्कृतियों के स्वर गूँजगे,
सदा सभी के दामन में ।
यही धरोहर सौंप रहा मैं,
तुम मेरी कविताएँ पढ़ना ।
जब याद तुम्हें मैं आऊॅं तो,
अपने कुछ पल मुझको देना ।
***
अनमोल वचन .....
संगत ऐसी साधिए, जो सदगुण उपजाय ।
दुर्गुण आते ही सदा, सावधान कर जाय ।।
कर्मकांड कर भर लिये, कोठी और मकान ।
यजमानों के वास्ते, खोली नई दुकान ।।
वाणी में संयम रखें, सिद्ध होंय सब काज ।
बिगड़ी बातें भी बनें, सँवरें सारे काज ।।
कर्म, प्रेम, आराधना, सभी मुक्ति के द्वार ।
कहते वेद - पुराण भी, उससे हो उद्धार ।।
संविधान, कानून के, ढेरों पहरेदार ।
पावर फुल बन कर सभी, हो गए डंडी मार ।।
पाप - पुण्य के भेद पर, चर्चा हुई अनेक ।
आई जब मुश्किल घड़ी, भूल गए सब नेक ।।
झाड़ फूँक अरु टोटका, मन मस्तिष्क विकार ।
होता इसमें उलझ कर, तन - मन ही बीमार ।।
चारित्रिक सौन्दर्य से, ना कुछ सुन्दर होय ।
साँझ ढले, चेहरा ढले, जीवन दुखमय होय ।।
सही - सोच नीरोग - तन, जीवन मूलाधार ।
दीर्घ आयु,जीवन सुखी, सुखमय तब संसार ।।
सबकी जिव्हा चाहती, मीठे फल, पकवान ।
तन रोगी जब हो गया, फीकी लगे दुकान ।।
***
हल कुछ निकले तो सार्थक है.....
हल कुछ निकले तो सार्थक है, लिखना और सुनाना ।
वर्ना क्या रचना, क्या गाना, क्या मन को बहलाना ।।
अविरल नियति-नटी सा चलता, महा काल का पहिया ।
विषधर सा फुफकार लगाता, समय आज का भैया ।।
भीष्म - द्रोण अरु कृपाचार्य सब, बैठे अविचल भाव से ।
ज्ञानी - ध्यानी मौन साधकर, बंधे हुये सत्ता सुख से ।।
ताल ठोंकते दुर्योधन हैं, घूम रहे निष्कंटक ।
पांचों पांडव भटक रहे हैं, वन-बीहड़ पथ-कंटक ।।
धृतराष्ट्र सत्ता में बैठे, पट्टी बाँधे गांधारी ।
स्वार्थ मोह की राजनीति से, धधक रही है चिनगारी ।।
गांधारी भ्राता शकुनि ने, चौपड़ पुनः बिछाई है ।
और द्रौपदी दाँव जीतने, चौसर - सभा बुलाई है ।।
शाश्वत मूल्यों की रक्षा में, अभिमन्यु की जय है ।
किन्तु आज भी चक्रव्यूह के, भेदन में संशय है ।।
क्या परिपाटी बदल सकेगी, छॅंट पायेगी घोर निशा ।
खुशहाली की फसल कटेगी, करवट लेगी नई दिशा ।।
***
चेतना का सूर्य
मेंढक का टर्र-टर्र चिल्लाना
और शिकारी सर्प द्वारा
उसे जबड़ों में दबोचे
धीरे-धीरे
जिंदा ही निगलना ।
दूसरी ओर मूक दर्शक
भीड़ का निहारते रहना -
कितना अजीब सा लगता है,
संसार का यह तमाशाई खेल ।
जो युगों-युगों से इसी तरह
चलता चला आ रहा है ।
इसे विवशता कहें या लाचारी,
धर्म कहें या अधर्म
या कहें अकर्मण्यता ।
कुछ समझ में नहीं आता।
जब कभी कोई बचाने भीड़ से
आगे बढ़ता है,
तो तर्कशाही उसे
पीछे की ओर खींच ले जाता है ।
कोई कहता
यही उसकी नियति है,
तो कोई कहता है-
यही उसका आहार है
और निराहार का कौर छीनना
तो बड़ा भारी पाप है।
तभी एक कहता है -
मेरे भाई ,
यह सब मिथ्या है।
मेंढक तो एक जीव ही है
और सांप तो काल चक्र का
एक प्रतीक है ।
यही तो है,
जो उसे मुक्ति दिलाकर
पुनर्जन्म के
द्वार खोल रहा है ।
और तू है, जो अभी तक
इस सर्प को ही
कोस रहा है ।
कोई कहता है, सर्प को
पत्थर मार कर
भगाने के लिये
न जाने कितनों से
लड़ना होगा,
और हो सकता है,
विधि के विधान को भी
नकारना होगा ।
किन्तु
सच्चाई तो यही है, साथियो
सर्प आराम से
इन सुरक्षा कवचों में
सुरक्षित
निगल रहा है,
उस निरीह मेंढक को ।
जो अब तक केवल
मौत की बाट
जोह रहा है
और जानते हुये भी
यह मुक्ति का संघर्ष
उसे ही करना है ।
फिर भी वह
टर्र...टर्र..., टर्र... टर्र..
चिल्लाए जा रहा है ।
शायद कभी
इस क्षितिज पर
चेतना का नया सूर्य
ऊग आए
और मुझे इस सर्प से
मुक्ति दिला जाए ।
***
श्री गोर्बा चोव
विश्व के शक्तिशाली
राष्ट्र के नेता
स्वाभिमान और
गर्व के प्रणेता
श्री गोर्बा चोव
पिछले दिनों अपने रूस से
सीधे भारत पधारे ।
हिन्दुस्थान के मंच पर बैठे,
बड़े गर्व से मुस्कराए ।
किन्तु सत्ताधीशॉ से मिलकर
बुरी तरह अचकचाए ।
और अपनी अर्धागिनी की
व्यंग्य भरी मुस्कान को देख
फरमाये, प्रिये ...
मुझे माफ करना
मैंने तो भारत के
अतीत के इतिहास को
पढ़कर सोचा था,
चलो आज तुम्हें
ऐसे देश से मिलवाएँगे
जहाँ से कभी
धर्म, सभ्यता और
संस्कृति की पताका
सारे विश्व में फहराई थी ।
यही सोच कर तो तुम्हें
धर्मगुरुओं के इस देश के
दर्शन करवाने लाया था ।
और मैं भी इस देश की
पवित्र गंगा से
बोल्गा का संगम
करवाने आया था ।
किन्तु प्रिये,
मैं तुम्हारी आँखों की
छिपी भाषा समझ रहा हूँ ।
मैं इनकी गुलामी को भी
भाँप रहा हूँ ।
तुम सही देख रही हो
यहाँ भाषाई धूलों के
उठते गुबारों को ।
जो अंधड़ बनने - कितने आतुर हैं ,
और इनकी एकता को
खण्डित करने
कितने व्याकुल हैं ।
प्रिये...
यदि सचमुच मुझे
यह मालूम होता ,
तो मैं स्वयं तो आता
किन्तु तुम्हें कभी न लाता ।
तुम्हें कभी ना लाता ..…
***
प्रलय तांडव कर दिया.....
घरों की दीवालों में, हजारों कीलें गड़ गयीं ।
चलते फिरते अपनों की, तस्वीरें फिर से टँग गयीं ।।
कल तलक वह भूमि, देवों की कही जाती रही ।
आज वह शमशान भूमि, बन कहर बरपा रही ।।
गंगा के वेगों को शिव ने, क्यों जटाओं में बाँधा नहीं ।
क्यों प्रलय के कहर को, रोका नहीं टोका नहीं ।।
भोले भंडारी का दिल क्या, पत्थरों का हो गया ।
या समाधि में कुछ उनकी, फिर खलल है पड़ गया ।।
भक्त ही तो थे तुम्हारे, दरश की अभिलाषा लिये ।
अनगिनत कष्टों को सहकर, द्वार तेरे अक्षत लिये ।।
भूल भक्तों से हुई थी, आप ईश्वर माफ करते ।
गाँव घर आँगन बगीचा, इस तरह से न उजड़ते ।।
प्रलय तांडव कर दिया, क्या ना बहा सैलाब से ।
फिर भी मस्तक तान कर, तुम निष्ठुर खड़े चट्टान से ।।
आराधना अब कर रहे, तुमसे तुम्हारे भक्त सारे ।
फिर प्रलय की वेदना को, ना सहें गर्दिश के मारे ।।
***
साथ पिता थे दुख नहीं.....
श्वेत - सुन्दर वसन में, लगें सदा अभिराम ।
धोती कुरता पहन कर, चले सदा अविराम ।।
सूरज की उस धूप में, बदल सका ना रंग ।
जितने छाया में जिये, हुये सभी बदरंग ।।
घर आयें जब अतिथि तब, मन उनका हर्षाय ।
उनके स्वागत के लिए, तन उनका अकुलाय ।।
शिकवा और शिकायतें, सदा सुनें खामोश ।
कभी नहीं उनने किया, अपनों पर आक्रोश ।।
खामोशी जब साधते, चिन्ता बढ़ती गैर ।
उनको चिंतित देखकर, तज देते सब बैर ।।
दुख के बदरा ना घिरें, घर आँगन औ द्वार ।
कर्म-भूमि में थे डटे, अपनी बाँह पसार ।।
यौवन के उन्माद में, थे जो भी बेहोश ।
समझा कर वे राह पर, ले आये खामोश ।।
सबकी चिन्ता है करी, रात दिवस प्रत्येक ।
अपने सब दुख भूलकर, सह दुख कष्ट अनेक ।।
साथ पिता थे दुख नहीं, घर आँगन मुसकाय ।
उनके जाते ही मुझे, घर काटन को धाय ।।
पूज्य पिता ने जो दिये, जीवन में उपदेश ।
शिरोधार्य करमैं चला, मिट गये सकल क्लेश ।।
***