ख़्वाबगाह - 7 Suraj Prakash द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ख़्वाबगाह - 7

ख़्वाबगाह

उपन्यासिका

सूरज प्रकाश

सात

मैंने उसी दिन से लिस्ट बनानी शुरू की दी थी कि कौन कौन सी चीजें इस ख़्वाबगाह में आयेंगी। ड्राइंग रूम बीस फुट लंबा और बारह फुट चौड़ा था। दरवाजा खोलते ही सामने शो केस रखने की जगह और फिर ड्राइंग रूम था। दायीं तरफ कांच के स्लाइडिंग डोर और उसके पीछे बहुत बड़ी बाल्कनी थी। ड्राइंग रूम के सामने की दीवार की तरफ किचन और दोनों तरफ अटैच्ड बाथरूम वाले बैडरूम थे। मेरी निगाह में सिर्फ ड्रांइग रूम और बाल्कनी थे।

मेरी लिस्ट का सारा सामान, सब कुछ मेरी आंखों के सामने झिलमिला रहा था, बस लाना बाकी था। मुझे पता था कि मेरी पसंद की चीजें कहां कहां मिलेंगी। कई चीजें तो मैं देख कर पहले पसंद कर ही चुकी थी कि ये सब कभी न कभी जरूर खरीदूंगी। अब वह मौका आ गया था।

बहुत कुछ ऐसा था जो परंपरागत था और बहुत कुछ ऐसा भी था जो इस घर में उस काम के लिए न लाया जाता जिसके लिए वह बना है। उन चीजों के दूसरे इस्तेमाल मेरी निगाह में थे।

उस घर में फर्नीचर की कोई जगह नहीं रहने वाली थी। तीन दीवारों से सटा, लगभग आधे कमरे को घेरने वाला खूबसूरत कालीन, बीसियों गाव तकिये, कई मसनद, खादी ग्रामोद्योग से अलग अलग साइज के कुछ लेटने लायक और कुछ बैठने लायक रंगीन नमदे, खास मेरी पसंद के परदे जिनमें घुंघरू बंधे हों। मैंने एक कुम्हार का पता लगा कर और उसके पास बैठ कर खाने और पीने के लिए मिट्टी के बरतन बनवाये थे और उसे नियत दिन को सीधे फ्लैट में पहुंचाने के लिए कहा था। छोटी छोटी कई खूबसूरत सुराहियां थीं, पानी के लिए, बीयर, वोदका, वाइन और स्कॉच भर कर रखने के लिए और पीने के लिए मिट्टी के ही प्याले थे, कसोरे थे, कुल्हड़ थे या कुल्हड़ की शक्ल के बर्तन थे। कुछ मल्टी पर्पस मटके थे। इन सब को रंगीन चुन्नियां बांधकर सजाया गया था।

हर साइज की अलग रंग की बीसियों गेंदें खरीदी गयीं। सबसे छोटी गेंद टेनिस बॉल के आकार की और सबसे बड़ी गेंद जिम बॉल थी जिस पर आराम से बैठा जा सकता था। मेरी बहुत पुरानी हसरत थी कि आप कमरे में कहीं भी बैठें, आपके हाथ में एकाध गेंद होनी चाहिये।

दरवाजे की घंटी हटा कर एक खूबसूरत डोरी बांध दी गयी थी। डोरी खींचने पर घर के अंदर कई सारी पीतल की घंटियां टुनटुनाने लगती थीं। ये घंटियां तिब्बती मंदिरों वाली घंटियां थीं। दरअसल पूरे घर में घंटियों और घुंघरुओं का भरपूर इस्तेमाल किया गया था। दरवाजे के पास ही लकड़ी के अलग अलग बाक्स बना कर उन पर कई मूर्तियां सज गयी थीं। दरवाजे पर ही एक खूबसूरत पेंटिंग लगायी गयी थी। ड्राइंगरूम में खुलने वाले दरवाजे को अंदर की तरफ से अलग ही शेप दे दी गयी थी। केरल इम्पोरियम और वेस्ट बंगाल इम्पोरियम से जूट की अलग अलग गुड़ियाएं मिल गयी थीं और राजस्थान इम्पोरियम से कठपुतलियां और दूसरी कलात्मक चीजें पहुंच गयी थीं।

ड्राइंग रूम की दीवारों का रंग बेहद सुकून देने वाला क्रीम कलर था। कमरे में सिर्फ नटराज की मूर्ति रहने वाली थी और मेरी पसंद की सिर्फ एक ही पेंटिंग रहती। मैं जितना भी सामान ला रही थी, वह बेशक मामूली और सस्ता था लेकिन मैंने हर शै को एक अलग ही रूप दे दिया था। मैंने दसियों लैंप शेड्स बनाए थे। कुछ टाट के, कुछ जूट के तो कुछ बेकार के सामान के। सब के सब जमीन पर रखे गये थे। होम थियेटर के स्पीकर इतने छोटे और प्यारे थे कि मैंने उन्हें दीवारों के रंग के हिसाब से एक तरह से गायब ही कर दिया था। उन्हें छोटी छोटी बांस की टोकरियों में रख दिया गया था। होम थियेटर भी पहली नज़र दिखायी नहीं देता था। घर के लिए सामान जुटाने के लिए मैंने अमूमन हर स्टेट के इम्पोरियम छान मारे थे और दिल्ली हाट के बीसियों चक्कर लगाये थे। ये टोकरियां और बहुत सा शानदार सामान मुझे असम इम्पोरियम में मिल गया था। हर आकार और शेप की खूबसूरत और खुशबूदार मोमबत्तियां थीं। दीवार पर घड़ी मैंने पेपरफ्राई से ऑनलाइन मंगवा ली थी। यह स्टेशनों पर लगने वाली सौ बरस पुरानी घड़ी का आभास देती थी। घर में प्लास्टिक या पालिथीन की कोई जगह नहीं थी। यहां तक कि कचरे की बाल्टी भी मेटल की थी। ज्यादातर सामान जूट, बांस, लकड़ी, कपड़े और इसी तरह की चीजों का था। लकड़ी का काफी सामान सहारनपुर के स्टाल पर मिल गया था।

त्रिपुरा इम्पोरियम से मुझे एक ऐसी बांसुरी मिल गयी थी जिसका बजाया जाने वाला सिरा खुली हुई बाल्कनी की दिशा में रखा जाना था। इस कई फुट लंबी बांसुरी को दोनों सीलिंग फैन्स के बीच इस तरह से लटकाया गया था कि जब खुली बाल्कनी से हवा अंदर आती तो बांसुरी अपने आप बजने लगती थी। इस बांसुरी से इतने मीठे सुर निकलते कि कोई सानी नहीं था इन सुरों का।

ये सारा सामान सिर्फ और सिर्फ ड्राइंगरूम में रहने वाला था और बेडरूम बहुत हुआ तो चेंजिंग रूम के तौर पर इस्तेमाल किये जाने वाले थे। सांप की पिटारी मैं कहीं से खोज कर ले आयी थी जिसे रंगीन रिबन बांध कर बेहद खूबसूरत शक्ल दे दी गयी थी। मैगजीन और किताबें रखने के लिए अनाज फटकने वाले सूप और शकोर लाये गये थे।

ऐश ट्रे नारियल के बाहरी खोल से बनी हुई थी। बाल्कनी को अलग करने वाले कांच की स्लाइडिंग दरवाजों पर परदों की दो लेयर लगायी गयी थीं। एक जालीदार सफेद परदे और एक अलग अलग रंग के आठ परदे। मुझे गुजरात एम्पोरियम से बहुत सारा सामान मिल गया था। वहां पर बाल्कनी में बैठने के लिए मुझे एक बहुत खूबसूरत झूला मिल गया था। इस पर दो आदमी आराम से बैठ सकते थे और जरूरत पड़ने पर इस पर सो भी सकते थे। वहीं पर सौ बरस पुरानी एक गोल मेज मिल गयी थीं। कभी इसके बीच चक्की रख कर गेहूं पीसा जाता था। इस पर मैंने गोल कांच लगा कर खूबसूरत मेज बना दी थी। दराजों वाली एक खूबसूरत सी छोटी सी अल्मारी मुझे एक एग्जीबीशन में मिल गयी थी। ये हमारा बार होता। उसमें कम से कम बीस बोतलें तो रखी ही जा सकती थी। मुझे बताया गया था कि ये अल्मारी राजस्थान की है और कम से कम दो सौ साल पुरानी है।

छत पर मैंने आसमानी रंग का पेंट करवाया था और उसमें रात के वक्त तारों भरे आसमान का आभास देने वाली नन्हीं नन्हीं बत्तियां लगवायी थीं। कमरे की सारी बत्तियां बंद कर देने और सिर्फ वही बत्तियां जलाने पर तारों भरे आसमान तले बैठने का आभास होता था।

मेरे सपनों का घर, मेरी फैंटेसी का घर और मेरी बकेट लिस्ट का घर पूरी तरह से सज चुका था। ये घर मेरा खुद का घर नहीं था जिसे मैंने बहुत जतन से सजाया था लेकिन इतना जरूर था कि इस घर में आने, ठहरने, मौज मजा करने और अपनी अधूरी हसरतें पूरी करने के भरपूर मौके मिलने वाले थे। जब भी मैं विनय के घर के लिए कुछ नया खरीदती थी या वहां सजा कर आती थी तो घर आ कर खूब रोती थी। काश, ये सब मैं अपने घर के लिए कर पाती।

  • विनय और मेरी दोस्ती को पौने दो बरस होने को आये थे, विनय की शादी मेरी शादी से पहले हो चुकी थी और मेरी शादी को एक बरस बीत चुका था। इस बीच हमें एकांत में मिलने के कई आधे अधूरे मौके विनय के दोस्त के घर मिले थे। मार्निंग शो की फिल्मों में भी हमें कुछ एकांत मिल जाता था। एक बार हम तुगलकाबाद के किले पर भी गये थे। दो एक बार वह मेरे घर पर भी दिन गुजार कर गया था। हम जब भी मिले थे या तो पब्लिक प्लेस में मिले थे या विनय के दोस्त के घर मिले थे जहां मुलाकात की शुरुआत ही डर से शुरु होती थी। मेरे घर पर बेशक वह कुछेक बार आया था लेकिन वहां पर सबसे बड़ा खतरा किसी भी समय किसी के भी आ जाने का रहता और हम खुल कर मिल ही नहीं पाते थे। एक कान दरवाजे की घंटी की तरफ लगा रहता था।

    यही वजह थी कि हम अब तक शारीरिक रिश्ते में नहीं बंधे थे। कुछ था जो हर बार हम दोनों को रोक देता था और हम सुरक्षित पार उतर जाते थे। एक अलिखित सा समझौता भी था हम दोनों में। शायद हम दोनों ही किसी बेहतर मौके की तलाश कर रहे थे।

  • विनय का घर पूरी तरह से तैयार हो चुका था। वह अब छटपटा रहा था मेरा सजाया घर देखने के लिए। किसी तरह से खुद पर जज्ब किये हुए था। हर मुलाकात में उसकी बेचैनी देखी जा सकती थी लेकिन हम दोनों का गृह प्रवेश टल रहा था। कुछ संयोग ऐसा बनता चला गया था कि अगले दो तीन महीने तक मुकुल कहीं बाहर नहीं गया था। हालांकि मैं मायके जाने के बहाने घर से निकल कर विनय के साथ रात गुजार सकती थी लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था। मैं ये भी मान कर चल रही थी और इस बात के लिए खुद को तैयार भी कर लिया था कि मैं गृह प्रवेश के मौके पर रात भर वहां रहना चाहूंगी और सारे बंधन टूट जाने दूंगी। आखिर मैं विनय को बेहद प्यार करती थी और मानती थी कि जो रिश्ते प्यार से शुरू होते हैं उनमें कभी न कभी देह आ ही सकती है। बेशक देह से शुरू होने वाले रिश्तों में प्रेम पनपने की संभावना बहुत कम होती है। हमने अब तक इस मौके को शायद इसी ख़्वाबगाह के लिए बचा कर रखा हुआ था।

  • आखिर वह शुभ दिन आ ही गया था। मेरी किस्मत बहुत अच्छी थी कि बिजिनेस ट्रिप के लिए मुकुल को सात दिन के लिए सिंगापूर जाना था। अब ये वक्त मेरा था और मैं अपने हिसाब से कहीं भी गुजार सकती थी। मुझे हंसी आ रही थी कि मुकुल और मैं हनीमून के लिए मनाली चार दिन के लिए ही जा पाये थे। अब दो ही बरस में मैं दूसरा हनीमून अपने दोस्त के साथ मनाने जा रही थी और मेरी जेब में सात दिन थे।

  • एक तरफ मैं मुकुल के जाने की तैयारी कर रही थी और दूसरी ओर विनय के साथ अपने हनीमून मनाने की भी तैयारी कर रही थी।। मैं सारी चीजें जुटा रही थी। कुछ अपनी अटैची में रख रही थी तो कुछ मुकुल की। बीच बीच में हंसी भी आ रही थी और अपनी किस्मत पर रोना भी आ रहा था।

  • मैंने यह सोच लिया था कि मुकुल के जाने के बाद के अगले दिन से उसके वापिस आने से एक दिन पहले तक का समय मैं अपनी मेहनत से बनायी ख़्वाबगाह में ही बिताऊंगी। बेशक विनय आता जाता रहे, मैं वहीं पर भरपूर आराम भी करूंगी और एन्जाय भी करूंगी। सिर्फ ख़्वाबगाह ही नहीं, ऐसी बहुत सी फैंटेसी थीं जो मुझे वहां पूरी करनी थी। ख़्वाबगाह सज कर तैयार हो चुका था। बस उसका भरपूर इस्तेमाल करना बाकी था। बिल्डर की तरफ से फ्रिज, एसी, ओवन, वाशिंग मशीन वगैरह सब आ चुके थे और मैंने रसोई का सारा सामान, जरूरत भर का राशन और बर्तन वगैरह वहां पहुंचा दिये थे। फ्रिज खाने पीने के सामान से भरा जा चुका था।

    जब मैंने विनय को यह बात बतायी थी तो वह बहुत खुश हुआ था।

  • मुकुल के जाने के अगले दिन मैंने कामवाली को यह कहते हुए एक हफ्ते के लिए छुट्टी दे दी थी कि मैं यहां अकेली रह कर क्या करूंगी, मायके जा रही हूं। उसे मैंने छठे दिन आने के लिए कह दिया था। मैं जानती थी कि मुकुल के सिंगापूर और मेरे मायके जाने की खबर पड़ोसिनों तक पहुंचाने का काम वह घंटे भर में कर देगी।

  • मेकअप के लिए मैंने नोयडा के ही एक पार्लर में अपाइंटमेंट बुक कराया था। घर से भरी हुई अटैची ले कर मैं दोपहर में निकल गयी थी। अटैची फ्लैट में रखकर मैं वहीं से मेकअप के लिए निकल गयी थी। मेहंदी मैंने बहुत कम लगवायी थी और तय किया था कि मेहंदी लगाने की बाकी रस्म ख़्वाबगाह में ही पूरी की जाएगी। विनय ख़्वाबगाह में शाम ढले पहुंचने वाला था। मेरे पास भरपूर समय था।

    ***