ख़्वाबगाह - 4 Suraj Prakash द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ख़्वाबगाह - 4

ख़्वाबगाह

उपन्यासिका

सूरज प्रकाश

चार

उसका बेपनाह मोहब्बत करना, मेरा ख्याल रखना, मेरे लिए महंगे महंगे उपहार लाना, मेरी छोटी से छोटी जिद पूरी करना और मेरी हर बत्तमीजी को हंसते हंसते झेल जाना, और इन सबके ऊपर उसका अपनेपन से सराबोर व्यवहार मुझे बेहद आकर्षित करता और मैं हर मुलाकात के बाद पिछली मुलाकात की तुलना में उसके प्रति और समर्पित होती जाती। दिन हो या रात, जब भी फोन आता, बावरी की तरह अटेंड करती। यह कितनी बार हुआ कि हम रात रात भर बात करते रहे और इस बात का मुझे कभी मलाल नहीं हुआ कि मुझे इस संबंध में इतना आगे नहीं जाना चाहिए कि जिनके पता चलने पर मेरे घर वाले मुझसे नाराज या परेशान हो सकते हैं।

  • तभी बड़े भाई को भनक लग गयी थी कि कोई तो है जिससे मैं कुछ ज्यादा ही मिल रही हूं और कुछ ज्यादा ही पा भी रही हूं। मेरे चेहरे की बदलती रंगत, मेरे नये नये कपड़े और दूसरे सामान मेरी चुगली खाने लगे थे। तब तक मुझे घर वालों की तरफ से मोबाइल नहीं दिया गया था और मैं लैंडलाइन से ही विनय से बात करती थी। अक्सर विनय ही तय करके या देर रात को फोन करता था। कई बार मैं भी विनय को फोन करती ही थी। टेलिफोन के बढ़े हुए बिल और किये गये कॉलों की लिस्ट में एक नये और अनजान नंबर ने मेरी दूसरी चुगली खायी थी। नतीजा ये हुआ कि टेलिफोन मेरी पहुंच से बाहर कर दिया गया था। मैं भाई से बहुत डरती थी और एक गलत काम के लिए उनका विरोध भी नहीं कर सकती थी।

    तब विनय ने मुझे पहला मोबाइल फोन उपहार में दिया था। ये मोबाइल मैं लगभग छ: महीने तक, जब तक भाई ने मुझे खुद का मोबाइल नहीं दिलवा दिया था, छुप छुप के इस्तेमाल करती रही थी। अरसे तक मोबाइल का बिल भी वही भरता रहा था।

  • अपना मोबाइल मिलने से पहले उसके गिफ्ट किये गये मोबाइल के इस्तेमाल के अलावा उससे मिलने के लिए मुझे हर तरफ से झूठ बोलना पड़ता, बहाने बनाने पड़ते, योजना बनानी पड़ती और अपने आप को समझाना पड़ता कि मैं सही ही कर रही हूं जबकि मुझे पता है कि सच तो यह होता था कि मैं रत्ती भर भी सही नहीं होती थी। लेकिन प्यार में यह सब बातें नहीं देखी जाती, प्यार में यह देखा जाता है कि हम दोनों एक दूसरे के प्रति कितने समर्पित हैं और कितने जरूरी हैं और कितने केयरिंग हैं।

    मुझे याद आते हैं वे पल जब थोड़ी देर के लिए मुलाकात होने पर वह घंटों मुझे वापस ना आने देता। मेरी सांसें ऊपर की ऊपर और नीचे के नीचे रह जाती। घर में देर से पहुंचने के मेरे सारे बहाने, सारे किस्से खत्म हो चुके होते और विनय मुझे आने नहीं ना देता। एक तरफ उसका स्नेह, प्यार भरा, दुलार भरा व्यवहार और अपनेपन की असीम खुशी से भरी मुलाकात होती और दूसरी तरफ घर में देर से पहुंचने के लिए हर दिन नया बहाना बनाने के लिए जद्दोजहद।

  • विनय मेरा पहला प्यार था और मैं उसके प्यार में पागल हो गई थी। वह जब कहता, जहां कहता, जितनी देर के लिए कहता, मैं भागी भागी उसके पास पहुंच जाती। न यह देखती कि मैं इस अपनी हरकत के लिए अपने घर पर कितनी तरह के झूठ बोलती हूं और न यह देखती कि मुलाकात के बाद अपने आप को कैसे संभालती हूं।

  • मैं शुरू-शुरू के दिन याद करती हूं कि जब हमें मिलने के लिए कोई जगह नहीं मिलती थी। तब हम साकेत में रहते थे और विनय मालवीय नगर में रहता था। मेरी शादी नहीं हुई थी। विनय से नया नया परिचय हुआ था और मैं उस पर बुरी तरह से फिदा थी। मैं किसी भी तरह से एकाध दिन छोड़ कर उससे मिलने का मौका निकाल ही लेती बेशक घर वापिस जाने पर मुझे हर बार देर से आने के लिए नया बहाना गढ़ना पड़ता। कितनी बार कॉलेज बंक किये, एक्स्ट्रा क्लासेस का बहाना बनाया, सारी सखियों के जन्म दिन बार बार मनाये और उनके साथ पिकनिक पर जाने के बहाने बनाये और इन सारे बहानों से मैं विनय से मिलती रही। फिर भी मुलाकातें ज्यादा थीं और बहाने कम पड़ जाते। आखिर इतने बहाने भी मैं कहां से लाती।

  • उन्हीं दिनों साकेत में एक नया मॉल खुला था - सिटीवॉक। हम हर सुबह वहीं थियेटर में जाकर बैठ जाते। मैं पूरा हफ्ता कॉलेज नहीं गयी। हम वहां कई दिन तक रोजाना बदल बदल कर एक दो फिल्में देखते रहे क्योंकि फिल्म के सुबह के शो में बहुत कम लोग होते थे और गोल्ड क्लास में तो कई बार हम दोनों के अलावा पूरे थियेटर में दो चार प्रेमी जोड़े ही होते। हम एकांत का पूरा फायदा उठाते। परदे पर कोई और फिल्म चल रही होती और हम अपनी फिल्म बना रहे होते। वहां के एकांत का भरपूर फायदा उठाते। कई बार एक स्क्रीन से निकल कर दूसरे स्क्रीन में जा कर बैठ जाते। हमें कई बार पता भी न होता कि स्क्रीन पर कौन सी फिल्म चल रही है।

  • अब सोच के हंसी आती है कि मैं यह सब क्यों और कैसे करती रही लेकिन कुछ तो उम्र का तकाजा, कुछ विनय का बेहद पागल बना देने वाला प्यार, कुछ नया पाने की और कुछ नया करने की ललक मुझसे सब कराती रही और मैं पागल बनी उसके पीछे पीछे घूमती रही।

  • मुकुल से मेरी सगाई और शादी के बीच में 6 महीने का वक्त था और इस वक्त में भी मैंने मुकुल से कम और विनय से ज्यादा मुलाकातें की थीं।

    मैं तब विनय से बेहद प्यार करती थी और उसे किसी भी तरह से यह विश्वास दिलाना चाहती थी कि मैं मुकुल से शादी करने के बाद भी उसकी रहूंगी। हम दोनों पहले की ही तरह बेशक कम सही, मिलते रहेंगे। विनय मेरी जिंदगी में पहले आया था और जब मुकुल से मेरी सगाई हुई थी तो हमें मिलते हुए सात आठ महीने होने को आए थे।

  • कितनी बार ऐसा हुआ कि मैं दोनों के बीच में बुरी तरह से फंस गयी थी। तब मुकुल से सगाई हुए तीन महीने ही हुए थे। बेशक उसके साथ तीन चार बार लंच पर जा चुकी थी या इधर उधर घूमने के लिए जा चुकी थी। कभी खाना खाने के लिए जामा मस्जिद जाते तो कभी कहीं और। हमने एक एकाध फिल्म भी एक साथ देखी थी लेकिन दूरी के कारण हमारी मुलाकातें इतनी ज्यादा नहीं हो पाती थी। विनय थोड़ी दूर ही रहता था और मुकुल गाजियाबाद में। विनय हमारे ज्यादा करीब था, तो मुलाकातों के मौके भी ज्यादा मिल जाते थे।

  • मैं शादी से पहले और शादी के बाद भी मुकुल को समझने की, जानने की पूरी कोशिश करती थी लेकिन हर बार तुलना के लिए विनय बीच में आ जाता था और मैं अपनी कोशिशों में फेल हो जाती थी। एक सोच ये भी थी कि दो तीन महीने बाद मुझे मुकुल के पास हमेशा के लिए जाना ही है, क्यों न तब तक का खूबसूरत वक्त विनय के साथ बिताऊं। यहीं मैं मुकुल के और निकट आने से चूक जाती थी।

  • मुसीबत तब हुई जब मेरे जन्मदिन पर दोनों ने मुझे एक साथ बुला लिया। मुकुल अपने ऑफिस से छुट्टी ले कर पूरा दिन मेरे साथ बिताना चाहता था। उसने पूरे दिन का शेड्यूल बना रखा था और इधर विनय मेरे जन्म दिन के लिए कुछ और ही सोचे बैठा था। उससे दोस्ती के बाद ये मेरा पहला जन्म दिन आ रहा था और वह भी पूरा दिन मेरे साथ गुजारने की तय किये बैठा था।

    मेरे लिए मुश्किल ये थी कि मैं मुकुल के सामने कोई बहाना नहीं बना सकती थी और इधर विनय को मनाना मुश्किल हो रहा था।

    मैं ही जानती हूं कि मैं किस तरह से अपने आपको और अपने समय को दोनों के बीच में बांटा था। अपना वह जन्म दिन मेरे लिए अच्छी खासी मुसीबतों की पोटली ले कर आया था।

    जब मैं दिन में मुकुल के साथ थी तो मना करने के बावजूद विनय बार बार फोन कर रहा था या मैसेज दे रहा था, मजबूरन मुझे फोन साइलेंट में रखना पड़ा था। मुकुल के पूछने पर यही बताया कि सारी सखियां जन्म दिन की विश कर रही हैं। पहले अपना जन्म दिन उन्हीं के साथ मनाती थी न, इसलिए वे आज के दिन मिस कर रही हैं।

    मुकुल के साथ दिन अच्छा गुजरे, मैं इसकी पूरी कोशिश कर रही थी। हमने लंच कनाट प्लेस के रिवाल्विंग रेस्तरां में लिया था और इधर उधर घूमते रहे थे।

    मुकुल से विदा लेते लेते शाम हो गयी थी। मुझे पता था कि विनय सुबह से गरम तवे पर बैठा होगा। अब जा कर उसे मनाना था। घर में पता था कि मैं मुकुल के साथ हूं तो वहां से निश्चिंत थी।

    विनय वाकई मुंह सुजाए बैठा था। मुलाकात के बाद पहली और आखिरी बार वह मिस काकुल का जन्म दिन मनाता। उसके बाद तो मैं मिसेज काकुल सोनी हो जाने वाली थी।

    हम बेशक फिल्म नहीं देख सकते थे लेकिन डिनर ही एक साथ कर सकते थे। अब मुझे क्या पता था कि विनय भी डिनर के लिए मुझे उसी रिवाल्विंग रेस्तरां ही ले कर जाएगा। एक ही रेस्तरां में लंच एक के साथ और डिनर दूसरे के साथ। मेरा बाइसवां जन्म दिन इस तरह से मनाया गया था।

    दिन में जब मैं मुकुल के साथ थी तो विनय ने बार बार फोन करके मेरी सांसें तेज कर रखी थीं और अब जब मैं विनय के साथ थी तो मुकुल के फोन आने शुरू हो गये कि घर पहुंच गयी क्या। वह खूब बातें करने के मूड में था। बड़ी मुश्किल से उसे समझा पायी थी कि सखियों के साथ डिनर ले रही हूं। रात को आराम से बात करेंगे।

    दोनों के गिफ्ट मेरी दूसरी मुसीबत बनते बनते रह गये थे। रात को दोनों के गिफ्ट खोलते समय मैं देर तक हंसती रही थी। दोनों ने ही मुझे मोबाइल फोन गिफ्ट में दिये थे। एक बहुत अच्छी बात ये थी कि दोनों के मोबाइल एक ही कंपनी के, एक ही मॉडल के और एक ही रंग के थे। मैं दोनों को ही ये बात नहीं बता सकती थी। अच्छी बात ये भी थी कि एक ही मोबाइल दोनों के सामने इस्तेमाल करते हुए दोनों को खुश रख सकती थी।

    ***