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मुक्ति और भय

मुक्ति और भय

वह पिछले पैतीस वर्षों से रोज अपने ऑफिस में कलम घिसते आ रहे थे, इस आशा में कि यह घिसाई शायद किसी के हित का हेतु बन जाये, पर उनकी यह घिसाई फाइलों के लाल फीते से बंध कर रह जाती या किसी और की कलम घिसाई के नीचे दब जाती. वे रोज मजबूर लोगों को व्यवस्था की चक्की में पिसते देखते, ईमानदारी पर बेईमानी की जीत देखते. शाम तक उनकी जीवन उर्जा क्षीण हो उठती. उन्हें लगता कि वे अभी इसी वक्त इस व्यवस्था के मुंह पर अपना इस्तीफ़ा मार कर फिर कभी वापस न आने के लिए निकल जाएँ. इस दुर्दमनीय इच्छा के बावजूद हर महीने एक तारीख को मिलने वाला वेतन उनके क़दमों की गिरह बन जाता.

वे जब चुक कर शाम को घर वापस आते तो घर का कोई सदस्य उनके इंतजार में न रहता. बहू-बेटे, पोतों की अपनी जिंदगी थी. हां, जब पत्नी थी, तो वह रोज पलक-पांवड़े बिछाए इंतजार करते जरूर मिलती थीं. अब उनकी बगिया ही उनकी जीवन उर्जा थी. उनके घर आते ही बगिया की बेलें नृत्य-निपुण नायिका सी बल खाती उनका स्वागत करतीं. अमलताश की सूखी फलियाँ घुंघरुओं सी बज उठतीं. वे चिड़ियाँ चहकने लगतीं जिन्हें वह रोज सुबह दाना देते. बेला, जूही, मोगरा खुशबू बिखेरने लगते. अमलताश, पारिजात अपनी शाखाएं हिलाने लगते. उनसे निकलती ठंडी हवायें उनके तन-मन को राहत पहुँचाने लगती. वे अपने आज और कल के लिए जीवन उर्जा बटोरने लगते.

हर सुबह वह बगिया से बटोरी कुछ उर्जा बगिया की सेवा में लगाते. जिसे बगिया कई गुना करके हर शाम लौटा देती. वे सुबह पौधों की निराई- गुड़ाई करते, खाद-पानी देते, चिड़ियों के लिए दाना डालते, सूखी पत्तियां हटाते. पौधों में नयीं कलियाँ आती तो वे ऐसे खुश हो जाते जैसे घर पर कोई नन्हा मेहमान आने वाला हो. एक दिन वे सेवानिवृत्त हो गए. जीवन उर्जा क्षीण होने का कारण ख़त्म होने से भी उनका जीवन उत्साह से नहीं भरा.

यूँ ही उनकी सपाट सी जिंदगी बगिया भरोसे चलती रही. एक दिन उनकी बगिया में घोंघों का आतंक छा गया. पहले घोंघे इक्के-दुक्के दिखते रहे. कुछ ही दिन में वे सैकड़ों की संख्या में दिखने लगे. बगिया में रखा कोई भी पत्थर उठाने पर उसके नीचे सैकड़ों की संख्या में घोंघे के अंडे मिलते. बारिश होती तो ये घोंघे गीली दीवार में किसी कलाकृति से जम जाते, ये घोंघे पौधों की सारी पत्तियाँ चर जाने लगे. पेड़ों की छाल खा जाने लगे. इन घोंघों की वजह से उनकी बगिया उजड़ने लगी.

शुरू में तो वह जब भी घोंघा दिखता, उसे कुचल कर मार देते, लेकिन एक-एक घोंघे को कुचल कर मारना सैकड़ों घोंघों के लिए कोई कारगर इलाज नहीं था. अब वे रोज सुबह एक बाल्टी लेते, इसमें घोंघे इकट्ठे करते, फिर उन पर नमक बुरक देते. नमक डालते ही घोंघे ऐसे गलने लगते, जैसे उनपर तेज़ाब डाल दिया हो. बगिया जो उन्हें जीवन उर्जा देती थी, उसने अब उन्हें जीवनहर्ता बना दिया. हर रोज वे घोंघों में नमक डाल उन्हें पसीजते, बुलबुले छोड़ते, लसलसे पानी में बदलते देखते. इसे देखते हुए एक घिनौने आनंद, परपीड़क सुख से भरते जाते, जो उनके दिल में एक तीखी सी चुभन भी भर देता.

यूँ घोंघों से लड़ते–लड़ते उन्होंने एकदिन पाया कि वे भी घोंघा हो गए हैं. लिजलिजा, घिनौना, चिपचिपा घोंघा. जिसके एंटीना किसी के अपनेपन भरे स्पर्श के लिए, बातों के लिए तरसते हैं, हवा में हिलते-डुलते, कांपते रहते हैं. पूरा शरीर लिजलिजी सी, झुर्रियों भरी, ढीली, नम खाल से ढंका हुआ. आँखों के पोरों से रिसती नमी, होठों के कोनों से रिसती लार का लसलसापन उनके पूरे वजूद पर छाया हुआ. वह घर में जहाँ जाते, मानों उस लसलसे, चिपचिपे, घिनौने द्रव की लकीर खिंच जाती. जिससे घर के सभी सदस्य चार हाथ दूर से बच कर चलते.

उनकी बगिया में जैसे घोंघा अवांछित तत्व था, वैसे ही घर में अब वे अवांछित थे. बस अंतर यह था कि घोंघा बगिया के हर कोने में मौजूद था और वे एक कमरे तक सीमित. एक कमरे में सीमित होते हुए भी उनका वजूद घर के सदस्यों के लिए चहुँओर व्याप्त था. बच्चों को उनके कारण पढ़ने के लिए अलग कमरा नहीं मिल पा रहा था, बहू कमरे में उनकी उपस्थिति के अहसास से बैठक में भी अपनी सहेलियों के साथ खुलकर बातें नहीं कर पाती थी, बेटा अपने सोने के कमरे में उनके खांसने की आवाज से परेशान हो अपनी नींद पूरी नहीं कर पाता था.

घरवालों को परेशानी होती कि उन्होंने खाने के बाद अपनी थाली सिंक में सही जगह नहीं रखी, समाचार पत्र पढ़ने के बाद सही तरीके से नहीं मोड़ा, अपना चश्मा बैठक की सेंटर टेबल पर ही छोड़ दिया, पोते के दोस्त से बात करने की कोशिश की, बेटे को ऑफिस के लिए निकलते वक्त अपनी दवाइयां लाने के लिए टोक दिया, बहू की सहेली की उपस्थिति में कांटे चुभते गले को राहत देने, रसोई में जाने के लिए कमरे से बाहर निकल आये. उनका घोंघे का वजूद पूरे घर के कोने कोने में फैला हुआ था. एक दिन बहू ने आखिर कह ही दिया-

“मैं इस घोंघों से भरे घर में नहीं रह सकती. मुझे घिन आती है. पूरा घर लसलसा, चिपचिपा सा हो गया है.”

बेटे ने अपनी चुप्पी से उसका समर्थन और उसकी मजबूरी दोनों ही जता दी.

सालों पहले वह एक सीप थे. जो हर महीने एक खूबसूरत, चमकदार, अनगढ़ मोती ले कर घर आते थे. उनकी पत्नी इस मोती को तराश कर सबकी जरूरतें पूरी करती और तराशी हुई मोती भविष्य के लिए बचाकर रख लेती. जब तक वह थी, उन्हें किसी चीज के लिए कहना नहीं पड़ता था. उनकी सारी जरूरतें बिन कहे ही पूरी हो जाती थी.

उस वक्त उन्हें यह आभास भी नहीं था, कि उनका वजूद कभी घोंघे में बदल जायेगा. हर वक्त तरसता, अपने एंटीना हिलाता हुआ. कभी पानी के लिए, कभी खाने के लिए, कभी दवाइयों के लिए, कभी टूटे चश्मे के लिए, कभी एक आश्वस्त करते स्पर्श के लिए, तो कभी एक प्यार भरी नजर के लिए.

कल ही तो बहू के पास उसकी एक सहेली आई थी. वह बता रही थी कि शहर में सारे घोंघों के लिये एक आश्रम खुल गया है, जहाँ घोंघों की सुविधा की सारी चीजें हैं. उन्हें लगा कि उन्होंने गाँव में साधन न होने के नाम पर बचपन होस्टल में गुजारा था और सुविधा के नाम पर बुढ़ापा आश्रम में गुजारेंगे. हर कमरे में लाइन से लगे बिस्तरों पर विराजमान एक-एक घोंघा. अपनेपन भरे स्पर्श के लिए तरसता एंटीना, हिलाता हुआ.

उनका मन हुआ कि पूछें, “क्या शहर में घोंघा घुलन गृह नहीं खुला? जहाँ शहर के सारे घोंघों को इकठ्ठा कर उनके ऊपर नमक डाल दिया जाये. जहाँ सारे घोंघे इस नमक में पसीज कर, बुदबुदाते, बुलबुले छोड़ते, लसलसे पानी में बदल जाएँ. मिट्टी-पानी की देह मिट्टी-पानी में मिल जाये और तुम सब चैन की नींद सो सको.”

बहू की सहेली से ऐसा पूछना तो घर भर में घोंघे का लसलसापन लबालब भर देना होता. जिसमे घुट कर सबसे पहले वे ही मर जाते.

उनके अपने कमरे में कैद हो जाने के बाद बगिया में घोंघो का आतंक घर की सीमा पार करने लगा तो एक दिन घोंघों को मारने की जिम्मेदारी उनके बेटे ने उठा ली. उसी शाम पोते ने बेटे से पूछा, ”पापा! आप बुड्ढ़े और पागल हो गए हो?”

“नहीं तो क्यों?” अचकचा कर बेटे ने पूछा.

“माँ दादा को कहती थी कि बुड्ढा घोंघा उठाने के लिए पागल है. अब आप घोंघा उठा रहे हो, तो आप भी बुड्ढ़े और पागल हो”

बेटे और बहू को ये सुन एक बारगी लगा कि वे दोनों भी भविष्य में घोंघे में बदल जायेंगे. तरसते, एंटीना हिलाते घोंघे. बस वह पल था कि भविष्य से भयभीत बेटे-बहू के लिए वह ‘वह’ बन गए.

उसी रात उन्होंने पाया कि एक घोंघा बिस्तर पर पड़ा है और वह वापस ‘वह’ बन गए हैं. उस दिन बहू उनके चरणों के पास बैठी रही, उनके पैरों पर अपना सिर भी रख दिया, बेटे ने आंसू भरी आँखों से उनका चेहरा अपने हाथों में ले लिया, बच्चों ने उनके हाथ अपने हाथों में ले लिए. उनके वही घोंघे की लिजलिजी सी झुर्रियों से भरे और ढीली खाल से ढंके पैर, उनकी आँखों के पोरों से रिसती लसलसी नमी, होठों के कोनों से रिसती लसलसी लार और लिजलिजी खाल से भरा चेहरा, किसी के अपनेपन भरे स्पर्श के लिए तरसते, कांपते उनके झुर्रियों भरे दोनों हाथ.

वह देखते रहे सब कुछ फिर एक तेज ज्योतिपुंज आया, जिसमें विलीन हो, वे सब से दूर जाने लगे. उन्होंने जाते हुए देखा कि उनके जिस घिनौने घोंघे के वजूद से घिनाते हुए, सब चार हाथ दूर से बच कर निकलने की कोशिश करते थे, उसी घोंघे के कवच को उन्होंने तस्वीर में फ्रेम करा भगवान के पास रख दिया है. भगवान की पूजा करते वक्त दो बार उनके कवच के सामने भी अगरबत्ती फेर लेते हैं. उन्होंने बच्चों को भी सीखा दिया है लेकिन उनके बेटे बहू को यह अहसास नही है कि दर्शनशास्त्र के अनुसार सिखाना और संस्कार देना दो अलग-अलग बातें हैं.

दूर बहुत दूर जाते हुए यह सब देख वे व्यंग्य से मुस्कुराते रहे कि अब उनकी पूजा क्यों न की जाये. अब वे लिजलिजे, चिपचिपे, लसलसे, घिनौने घोंघे नहीं रहे, उन्होंने खुद मुक्त हो, उन सबको मुक्ति जो दे दी है. इधर आगामी पीढ़ी को संस्कार देने का बहुमूल्य समय गँवा, बेटे-बहू भविष्य से भयभीत हो बच्चों को अक्सर सिखाते हैं कि बड़ों की बातें माननी चाहिए, उनकी सेवा करनी चाहिये.

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