पगडंडी... Shraddha Thawait द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पगडंडी...

पगडंडी

सुदूर जंगलों में जहाँ तक चौड़ी राहें न जाती, न आती हैं. लोग अपनी पुरानी मान्यताओं में जकड़े हुए हैं. जहाँ कई प्रसव जंगल में घास काटने, महुआ बीनने या लकड़ी इकठ्ठा करते हुए हो जाते हो. वहां से यदि कोई महिला अस्पताल में प्रसव का प्रण लेती है, तमाम शारीरिक और मानसिक परेशानियाँ झेलते हुए भी अस्पताल तक पहुंचती है अर्थात विषम परिस्थिति में, बिना किसी के सहयोग के अपना निर्णय स्वयं लेती है और उस निर्णय पर कायम रहने का जोखिम उठाती है तो यह वास्तविक स्त्री सशक्तीकरण है. किसी हरे मैदान या बंजर जमीन में राह बनाने के लिए उठा पहला कदम है. यह कहानी समर्पित है एक अनाम, अनजान आदिवासी महिला को जिसने अपने क्षेत्र में इस भविष्य की पगडण्डी पर पहला कदम रखने की हिम्मत और कोशिश की थी. यह कहानी का उद्देश्य इस कदम का स्वागत करने के साथ-साथ, आदिवासी अंचलों में पदस्थ डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की गंभीरता का अहसास कराना भी है किस तरह उनका अपने कर्तव्य से डिगा एक कदम भी; एक नयी पगडण्डी निर्मित होने की सम्भावना को ही ध्वस्त कर सकता है.

पगडण्डी

किसी घर का जंगल की छाँव में होना, छोटे से गाँव में होना, कितनी समस्याएं लाता है, ये कोई फूलो से पूछे. फूलो का घर सुदूर बस्तर के पठार की गोद में बसा है. गाँव में जीवन की आधारभूत सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं है- न सड़क है, न बिजली, न पानी. पानी की सुविधा के लिये लगभग पांच किलोमीटर दूर बहती एक नदी है. रोशनी के लिये ढिबरी, जिसके लिये मिट्टी का तेल लेने, बीस किलोमीटर दूर कस्बे में जाना होता है. सड़क के नाम पर घने जंगल से गुजरती एक पगडण्डी है, जो गाँव को कसबे से नहीं, कस्बे की ओर जाती सड़क से जोड़ती है. इस कस्बे में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है. जो इन दिनों, दिन रात फूलों के सपनों में आने वाली जगह बनी हुई है.

माँ नहीं है फूलो, पर माँ हो रही है. उसके माँ होने के घड़े में बूँद-बूँद कर मातृत्व भर रहा है. उसे इंतजार है, उस दिन का, जब पेट में हलचल से महसूस होता बच्चा, उसकी गोद में होगा. यूँ भी नौवां महीना तो इंतजार का ही महीना होता है. एक बार और फूलो इसी इंतजार में थी, पर वह इंतजार... इंतजार ही रह गया. कोई और माने न माने; फूलो तो इसका जिम्मेदार उस सीटी सी आवाज में चीखने वाली गायतीन(दाई) को ही मानती है. इस बार वह अपनी जचकी किसी डॉक्टर से कराने के लिए ही कृतसंकल्पित है.

उसका मायका भी जंगल की छाँव में ही है, एक गाँव में ही है, लेकिन वह एक कस्बे के पास है, उससे पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है. सड़क जिंदगी में कितने परिवर्तन लाती है यह फूलो को अच्छे से पता है. उसने अपने घर में सबकी जचकी अस्पताल में ही होते देखी है, पर यहाँ उसकी ससुराल में मानते हैं कि जो काम घर-द्वार में रहते हो जाता है, उसके लिए मीलों दूर, अस्पताल जाकर रुपये खर्च करना चोंचला है. फूलो यह जानकर तो अवाक् ही रह गई थी कि यहाँ अस्पताल जाना मतलब मौत का संदेसा ही होता है. यहाँ से किसी को अस्पताल ले जाना हो तो मरीज को डोला डंडी या चारपाई में बांध कर, मीलों ढोते हुए ले जाना होता है इसीलिए लोग जब तक जान पर ना बन आये अस्पताल जाते ही नहीं फिर बच्चा पैदा करने के लिए इतनी दूर न डोला-डंडी में जाना संभव है ना ही पैदल.

इन नौ महीनों में फूलो एक बार भी अस्पताल नहीं गई लेकिन उसने पूरे समय अस्पताल में जचकी के लिए अपनी जिद बनाये रखी है. कुछ महिलाएं बाहरी चुप्पी के साथ अन्दर से उसके साथ हैं, तो बड़ी-बूढी भयंकर विरोध में हैं. फूलो ने पिछली बार भी अस्पताल में जचकी कराने के लिए घर में कहा था. तब उसे घर में जचकी के समर्थन में कई किस्से सुनाये गए थे. वही किस्से इस बार उसे फिर-फिर सुनाये गए. सास ने कहा कि, वह तो लकड़ी लेने जंगल गई हुई थी- जब उसका बेटा हुआ, कुल्हाड़ी से नाल काटी और बेटे को अपनी साड़ी से गोद में बांधे, सिर पर बटोरी लकड़ियों का बोझ रखे घर चली आई. आजी सास ने कहा कि वह तो मड़िया काटने गई हुई थी. वहीँ खेत में फूलो के ससुर हुए. दरांती से नाल काटी और सीने से बांध कर बेटे को घर ले आई. लोग बाद में जाकर फूल-नाल लेकर घर आये.

पिछली बार फूलो की जचगी के समय उसे घर से लगी, एक नयी बनी झोंपड़ी में भेज दिया गया और कहा गया कि, जब दर्द हो तो वह कमरे में रखे, गर्म पानी से नहाये और खुद ही ताकत लगाये, जब बच्चा हो जाये तो आवाज दे दे, जिससे गायतीन जाकर नाल-फूल काटे, बच्चे को नहला- धुला कर पोंछ ले. पिछली बार अपने बच्चे को खो कर, फूलो इस बार फिर घर में जचकी का खतरा नहीं उठाना चाहती.

फूलो की कोख में लगा फल पक चुका है. कभी भी डाल से अलग हो सकता है. आज शाम से ही फूलो को रह-रह कर मीठा मीठा सा दर्द भी हो रहा है. फूलो परेशान है, यूँ शाम को दर्द शुरू होने से. सुबह दर्द होता, तो वह अस्पताल जा भी सकती थी, लेकिन शाम को तो अस्पताल जाना संभव ही नहीं. उसने इस मीठे दर्द को अपने अंतस में थाम लिया. वह जानती है कि यदि उसने दर्द के बारे में बताया तो उस पर नजर रखी जाने लगेगी. अंततः उसे उसी गायतीन से जचकी करानी पड़ेगी. मीठा दर्द सहन करते हुए, वह अपने सारे काम निपटाती रही और फिर ढिबरी बुझा कर झोंपड़ी में सोने चली गई. इस आस में कि सुबह तक यह दर्द मीठा-मीठा सा ही रहे.. मज़बूरी ने आस का चोला पहन लिया.

***

यह झोंपड़ी वही है जिस झोंपड़ी में वह पिछले प्रसव के समय तड़प रही थी. अभी इस मीठे दर्द में, तीखे दर्द के जल्दी ना आने की मन्नत में, उसे वे पल शिद्दत से याद आने लगे, जब झोंपड़ी के अन्दर दर्द अपना नुकीला खंजर रह-रह कर उसके शरीर में भोंक रहा था. उन पलों में वह चीखती रही थी; पर कोई अन्दर न आया, बाहर घर के पुरुष चावल लेकर पुकारते हुए, देव को बुला रहे थे. उसकी चीखें उनकी सम्मिलित आवाजों से भी तेज थी. उसकी सास अन्दर आना चाहती थी. उसने गायतीन को कहा भी कि, बहूबाई अकेले नहीं कर पाएगी, उसने कभी ऐसा देखा नहीं है, लेकिन गायतीन ने अपनी सीटी सी आवाज में चिल्ला कर चुप करा दिया.

चुप हो जाने से होनी तो नहीं टलती, वही हुआ जिसका फूलो को डर था. जब उसकी चीखें हल्की पड़ने लगीं और शरीर शिथिल तो आखिर उसकी सास और गायतीन अन्दर आये, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. आधी बेहोशी में उसने अपने बच्चे को देखा. वह नीला पड़ चुका था किसी चट्टान के टुकड़े सा. उसी पल उसने अपने जाये को पहली और आखिरी बार देखा, फिर मानों लांदा के नशे में हो ऐसे बेसुध हो गई.

उसकी गोद सूनी रह गई. लेकिन दो-चार दिन बाद ही सुबह वह लकड़ी लेने जंगल जा रही थी, साल बीज बीन रही थी, बकरियां चरा रही थी, चिरौंजी फोड़ रही थी, घर- आँगन बुहार रही थी. हवा की तरह दुःख उसे घेरे हुए था, दुःख से भूख का दावानल नहीं बुझ सकता. भूख लगनी ही है, तो जीवन चलना ही है. उसके जीवन से दुःख झरता रहा लेकिन इसे अंजुरी में भरना भी उसके लिए विलासिता थी. जिंदगी जीने की जद्दोजहद में दुःख के काँटों में पग-पग चलना उसकी विवशता थी. यूँ चलते-चलते आज वह फिर उसी मुहाने पर आ पहुंची है.

मीठे दर्द के साथ सोने की कोशिश में अलटते-पलटते हुए उसने बूढ़ादेव से मन्नत मांगी, कि इस बार तो उसे जचकी से पहले अस्पताल पहुंचा ही दें. वह पहाड़ सा नीला टुकड़ा उसके दिल में धंस गया है. वही हर जगह उसे दिखता है- नीले पहाड़ में, नीले आसमान में, नीले पानी में. वही उसे बार-बार सपने में आता है. महीनों उसका दूध और आँखें बहती रही थी. अब वह इन नीली यादों से छुटकारा चाहती है. बच्चे को अपने गोद में लेना चाहती है, छाती से चिपटा कर दूध पिलाना चाहती है. उसकी नन्हीं उँगलियों की पकड़ महसूस करना चाहती है. उसमें खुद का होना महसूस करना चाहती है.

यह मीठा दर्द रात भर मीठा ही बना रहे, इस आस में, और बढ़े नहीं इस डर के साथ, वह पिछली यादों में डूबती-उतराती रही. डर था फिर से खो देने का. पिछली बार जब उसे कुछ-कुछ होश आया तो वह अन्दर कमरे में छिंद की चटाई पर पड़ी थी. पास ही आग जल रही थी. जिसमें हिरवा पानी खदक रहा था. भीतर खोली में कोसम गड्ढा खोद रहा था. जिसमें उसके विदा ले चुके अंश से जुड़े नाल और फूल गाड़े जा रहे थे. वहीँ कोसम के फूल और नाल भी गड़े हुए थे. दर्द का तूफ़ान तबाही मचा कर जा चुका था. बस अवशेष साथ रहने थे. अब भी साथ हैं उसके फूल और नाल, उसकी नीली यादों में.

उसकी आया (माँ) भी पिछले साल जमीन के अन्दर सुला दी गई थी. अपनी पूरी गर्भावस्था में फूलो आया का सपना देखती रही थी. सपने में आया कहती थी कि मैं आ रही हूँ तेरे पास. पिछली बार फूलों सिर्फ अपने बच्चे ही नहीं अपनी आया के भी इन्तजार में थी, लेकिन फूलो फिर से अनाथ हो गई. बचपन से उसके पास कोई अपना कहने को था, तो आया थी. बूबा तो बस ताड़ी, सल्फी, लांदा के नशे में डूबे रहते थे फिर जल्दी ही इस दुनिया से ही चले गए. बूबा की याद के नाम पर फूलो को माँ के साथ बूबा के मेनहीर(बस्तर क्षेत्र में मृतकों की स्मृति में बनाए पाषाण या काष्ठ स्तम्भ) के पास जा बैठना ही ज्यादा याद है. माँ धीरे-धीरे बूबा की प्रिय चीजों के इस पाषण स्तम्भ में उकेरे अक्सों – सल्फी रखने वाला तुम्बा, सायकिल, अक्सर साथ रहने वाली टंगिया, तमाखू की डिबिया को छूती रहती, फिर एक लम्बी साँस भर उठ आती. फूलो रात के अँधेरे में झींगुरों की तेज आवाज, पेड़ों के पत्तों की सांय-सांय, बांस के झुरमुट से आती हवा की हूँ...हूँ...हूँ... की आवाज में भूत-प्रेत का अस्तित्व पाती. उनसे डरती, तो आया ही उसे अपने छाती से चिपटाये सुलाती. महुए सी खुशबू आती थी आया की देह से. रात- आया की खुशबू, नीली याद, और दर्द के साथ मिल कर फूलो के जेहन में सल्फी के सुरूर के जैसे संकल्प पूरा करने का सुरूर भरती रही.

जिस रात आया उसे छोड़ कर गयी, वह रात अक्सर उसके सामने पतझड़ के पत्तों सी बिछ जाती है. फूलो को जिन पर न चाहते हुए भी चलना ही पड़ता है. चरमराते पत्तों सा उसका दिल चूर-चूर होता रहता है. रात के अँधेरे में दर्द और संकल्प की लड़ाई लड़ते हुए फूलों आया की यादों के जंगल में विचरने लगी. उस रात पूरे घर में रंग-गुलाल के छींटे पड़े हुए थे. नगाड़ा, ढोल, तुड़मुड़ी, तुरही की आवाज गाँव पार कर आसपास के गाँव में भी मृत्यु का सन्देश देती तैर रही थी. गाँव-घर के लोग आँगन में इकट्ठे हो गए थे. रात उनके नाच-गाने से झूमने लगी थी. सबकी सांसों में महकती सल्फी, लांदा की खुशबू घर-आँगन को भी महकाए हुए थी. आया को आँगन में कटे ठूंठ की तरह लिटा दिया गया था. सिर्फ फूलो ही आया के पास बैठी हुई थी. आया का बर्फ सा ठंडा हाथ पकड़े हुए, बाकी सब रंग-गुलाल से होली खेलने... नाचने-गाने में रमे हुए थे. वे उसे भी नचाना चाहते थे लेकिन फूलो का मन ही नहीं था; आया के पास से उठने का.

सुबह होते ही आया को गीले कपडे से पोंछ कर सिन्दूर लगा, बिंदी, टिकली लगा कर तैयार कर दिया गया. लोग एक के बाद एक आकर उन्हें कपड़े ओढ़ाते जा रहे थे. आया कपड़ों के ढेर के नीचे छुप गई. तभी किसी को याद आया कि चिन्हा तो दिया नहीं है. फूलो सबसे पास खड़ी थी. उसे ही कहा गया कि वह काजल से आया के शरीर में एक चिन्हा रख दे. जिससे जब आया घर में नया जन्म वापस लेकर आये तो पता चल जाये कि आया आई है. उसने अपनी दो उँगलियों में काजल लिया और आया के कमर में टीका लगा दिया. एक हूक उठी फूलो के दिल में. उसे पूरा विश्वास है कि उसके नीले बेटे के कमर में वही काला निशान रहा होगा और वही निशान इस आने वाले बच्चे के कमर में भी होगा.

तभी दर्द की थोड़ी तेज लहर आई. फूलो ने उठने की कोशिश की लेकिन सामने वही रात का अँधेरा छा गया. वह फिर आंधी में टूटी पेड़ की डाल सी चटाई में पसर गई. बाहर आंधी चलने लगी है. पेड़ टूटने और बचे रहने के बीच हवा में डोल रहे हैं. फूलो भी नींद और दर्द के असमंजस में डोल रही है. आया उसे सपने में आवाज दे रही है. मीठा दर्द अब मीठा नहीं रहा. दर्द के बढ़ने के डर से राहत के लिए फूलो ने आया के साथ की गर्माहट अपनी यादों में खोजनी चाही लेकिन मिली बर्फ सी ठंडी आया की स्मृति. वह सिहर उठी. वह दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार आया को करती थी. उसे डूमादेव याद आये.

***

उस रात की सुबह आया को लेकर फूलो और घर के बाकी सब स्त्री-पुरुष जंगल की ओर चल पड़े थे. फूलो रो रही थी. हलकी बारिश हो रही थी, आसमान रो रहा था. पत्तों से पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें टपक रही थी, जंगल भी रो रहा था. आया को जमीन में गड़ा दिया गया, ऊपर से आठ-दस बड़े-बड़े पत्थर रख दिए गए. इन भारी पत्थरों से भी भारी मन से, वह बाकी सब के साथ नदी किनारे पहुंची. नदी समय सी बही जा रही थी. नदी में पांव डालने से पानी की ठंडक मन तक पहुंची और गर्म तवे में पड़े पानी की बूंद सी भाप बन गई. यह भाप आँखों में संघनित होकर आँसुओं के रूप में बरस पड़ी. रास्ते से बुआ ने करंज की डंडी तोड़ ली थी. सबने करंज की दातून घस कर नदी में ही फेंक दी. बुआ ने सबके सर में नदी किनारे की मिट्टी लगा दी. सिर घस-घस कर धो दिया. अब डूमादेव पकड़ने की बारी थी.

सब नदी के किनारे मेंढक, मछली पकड़ने की कोशिश करने लगे. बुआ सबको उचका भी रही थी, यह कह-कह कर कि, जिसको डूमादेव मिलेंगे, उसको ही भाभी सबसे ज्यादा प्यार करती थी. सब नदी किनारे चिखला में, पत्थर के नीचे, कटाव में हाथ डाल रहे थे. एक मेंढक को पकड़ने अक्का ने हाथ बढ़ाया, मेंढक की पिछली टांग पकड़ में आई लेकिन उँगलियाँ लसलसी चिकनी टांग पर फिसल गई. मेंढक ने छलांग मारी. सामने पत्थर के नीचे टटोलती फूलो थी. मेंढक सीधे फूलो के सर में बैठ गया. फूलो का हाथ अगले ही पल प्रतिक्रिया में अपने सिर पर था. डूमादेव पकड़ने फूलो को मेहनत नहीं करनी पड़ी थी. उसके हाथ में डूमादेव खुद आ विराजे थे. उस दिन वह बहुतों के लिए जलन का कारण बन गई थी, कि आया सबसे ज्यादा उसे ही प्यार करती थी और इतना प्यार करती थी कि डूमादेव खुद उस के पास आ गए. डूमादेव को सम्हाल के सरई पान के दो दोनों के बीच रख लिया गया. सब नदी में सात डुबकी मार निकल आये.

नदी में डुबकी लगाते हुए जो पानी था वह डुबकी मार के निकलते वक्त नहीं रह गया था. घर भी बदल गया था. घर पर अब आया नहीं थी. उस दिन नदी में डूमादेव का फूलो को मिलना, फिर आया का सपने में आना, बार-बार आना. विश्वास बरगद सा घना हो कर उसकी मन की जमीन में विशाल जड़ों सा समा गया था, कि उसकी संतान उसकी माँ ही होगी. ऐसी प्रतीक्षित संतान को घर पर जचकी करने की जिद ने छीन लिया, उस सीटी सी आवाज वाली गायतीन ने उससे छीन लिया. इसी लिए फूलो इस बार कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती.

***

क्या करे वह? अभी तो पूरब के पंछी ने भी अपनी उड़ान नहीं भरी है. चहुँओर अँधेरा छाया है, लेकिन परिंदे चहचहाने लगे हैं. वह उठी, बिना किसी को बताये गाँव की उस पगडण्डी पर बढ़ गई, जो उसे कस्बे की ओर जाती सड़क से जोड़ती थी. पगडण्डी लोगों के चलने से बनती है यदि लोगों ने उस पर चलना छोड़ा तो पगडण्डी का अस्तित्व भी नहीं रह जाता. पिछली बार गाँव की महिलाओं ने उसे भाग्यशाली करार दिया था, वो बच जो गई थी वरना गाँव में एक घर नहीं, जहाँ से कोई नार बीज से फल बनने के दौर में खोई न हो. फूलो के इन बढ़ते कदमों से गाँव की दूसरी माताओं के लिये एक नयी पगडण्डी तैयार हो सकती है,या बरसों के लिए बंद भी हो सकती है. फूलो को दोनों बात का अहसास नहीं. वह तो सिर्फ यह चाहती है कि उसकी जचकी अस्पताल में हो.

वह नंगे पाँव बढ़ती गई, दर्द भी बढ़ता गया. वह बढ़ती रही- चलते, रुकते, दर्द से दोहरे होते, पेड़ों का सहारा लेते, चट्टानों पर बैठते. पगडण्डी के ऊँचे-नीचे रास्तों से होते, बड़ी-बड़ी चट्टानों से घूम कर जाते, छोटी-छोटी चट्टानों को रौंदते कि आगे बढ़ना ही सपने से मिलना है, माँ से मिलना है. उसे चलते जाना है करीब पंद्रह किलोमीटर. आधे से कुछ अधिक रास्ता पार कर वह तब थम गई. जब उसके सामने पहाड़ी बरसाती नदी गरजते तूफ़ान सी बहती मिली. आमतौर पर शांत सी यह नदी कल शाम के आंधी-पानी से बौराई दिखी. जैसे पैर रखते ही किसी फुंकारते नाग की तरह लपक कर उसे डस लेगी. उसे अपनी आया की, सास की बात याद आने लगी कि पेट में बच्चा लिए नदी पार नहीं करते.

जब यह बंधन उसके संकल्प की राह में बाधा बन कर खड़ा हो गया तो सफल जचकी की आशा ने इस बाधा को भी पंख बना दिया. कुछ ही पलों में वह हरहराती नदी की धारा में एक लकड़ी के साथ बहती हुई, उसे काटने लगी. कई जगहों में आसान प्रसव के लिए तैरना अच्छा माना जाता है, लेकिन यहाँ फूलो के लिये ‘तैरना’ सुरक्षित प्रसव की ‘संभावना’ की, अस्पताल तक पहुँचने की ‘संभावना‘ की अनिवार्य शर्त है. उसे कोसम की शिद्दत से याद आई. अभी यदि साथ होता, तो उसे यूँ धारा से जूझना नहीं पड़ता. उसे तो बस साथ बहते जाना होता, लेकिन उसकी सही मांग में भी तो, कोसम साथ नहीं बहा. अब क्या उसका सहारा याद करना...नदी को काटने की कोशिश करते वह नदी के साथ बहती रही, नदी को काटती रही.

नदी पार करते ही सामने सीधी खड़ी चट्टानें मिलीं, वो जगह जहाँ से सब कस्बे तक जाने के लिये नदी पार करते हैं, पुरानी पगडण्डी से चट्टानें पार करते हैं, पीछे छूट चुकी है. कमजोर को दुनिया धकेलती है. नदी भी तो दुनिया का ही अंग है. दर्द में तैरना, इस भारी शरीर के साथ तैरना कितना मुश्किल होता है; ये कोई अभी फूलो से पूछे. बढ़ी दूरी, साधन का अभाव, दर्द का बढ़ना, राह में अकेले में प्रसव की आशंका... उसे भी अपना संकल्प, अब एक जिद के रूप में दिखने लगा. अब वापस जाना भी संभव नहीं. शायद अब तक घर में उसकी ढूंढ होने लगी हो. वापस ले जाये जाने के डर को थामे हुए, वह पीछे जाने की जगह चट्टानों से लड़ गई. फूला हुआ पेट संतुलन बनाने के लिये झुकने से रोकने लगा... साथ ही दर्द से कमर दोहरी होने लगी... थकान से हाथ पैर कांपने लगे... पर जंगल का जीवन इन सब कठिनाइयों से जूझना ही है.

अंततः वह चट्टान के ऊपर पहुंची तो सामने चमकता सूरज दिखा. वह मुंह अँधेरे चली थी, अब यह सुनहरा सूरज देख फूलो ने तुरंत पीछे मुड़ कर देखा. कोई समझे न समझे कोसम तो जरुर समझ गया होगा. न सिर्फ समझ गया होगा, बल्कि कस्बे के लिए निकल भी गया होगा. कोसम उस तक पहुंचे उसके पहले ही उसे अस्पताल पहुँच जाना है. फूलो जैसे-तैसे कर चट्टान की उतराई पार करने लगी. उसे अपनी मंजिल साफ़ दिखने लगी तो एक आशंका उभर आई. एक डर उसकी सवारी करने लगा कि उसने इतना बड़ा कदम उठा तो लिया है, लेकिन यदि अस्पताल में कोई नहीं मिला तो क्या होगा? गाँव में कहते हैं कि, कुछ साल पहले किसी की जचकी के लिए अस्पताल गए थे, लेकिन वहां कोई मिला नहीं. उस बहुबाई ने वापसी की राह में ही दम तोड़ दिया. सब कहते हैं कि उसने कुलदेवी पर भरोसा न कर अस्पताल पर भरोसा किया, इसी का देवी ने दंड दिया. तब से गाँव के किसी ने जचगी के लिए अस्पताल जाने की हिम्मत ही नहीं की. एक वही है जो यूँ अकेले ही निकल आई है. जाने क्या होगा.

नदी पार कर लगभग एक घंटे और चलने के बाद उसे कच्ची सड़क मिल गई और तुरंत ही बड़े भाग्य से कस्बे को जाती एक जीप भी मिल गई. यूँ भी ड्राईवर आधा बाहर लटक कर ही गाड़ी चला रहा था लेकिन उसकी हालत को देखते हुए ठूंस-ठूंस कर भरी जीप में भी जगह बन ही गई. फूलो के चेहरे में दर्द हर कुछ देर में, किसी नुकीले पत्थर की खरोच सा उभरने लगा. जीप में बैठे लोगों की प्रश्न भरी नजरें, तरस खाती नजरें, अपनत्व भरी पूछ-ताछ, उसे अकेले देख खुसुर-पुसुर, उसे नुकीले पत्थर बन खोदने लगीं. उसके जवाब ने उनकी आँखें फाड़ दी. ऐसा दुस्साहस! दर्द की तीव्रता में बढ़ोतरी, आवृत्ति के समय में कमी, लोगों की प्रतिक्रिया और उसके खाली बैठने ने, तेजी से चलती जीप को पैदल चलने से भी धीमा बना दिया. चौथाई दूरी उसे मीलों लम्बी लगने लगी.

किसी तरह बूढ़ा देव को याद करते, वह कस्बे तक पहुंची. ड्राईवर ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के सामने ही गाड़ी रोकी. मंजिल तक पहुँचने का अहसास न सिर्फ चैन बल्कि थकन भी साथ लेकर आता है. दर्द से पस्त होते हुए भी उसे राहत हुई कि अब वह अस्पताल पहुँच चुकी है. अब उसका बच्चा सुरक्षित रहेगा. अब उसने अपने बच्चे को, अपनी माँ को पाने की सारी बाधाएं दूर कर ली हैं. स्वास्थ्य केंद्र नीम की छांह में खड़ा उसे पुकारता लगा.

नीम फूलों की खुशबू लिए आस की सुहानी हवा उसके होठों के दर्दीले स्मित हास में, उसके अश्रु विगलित नयन के कोरों में, उसके चेहरे के समंदर में बहने लगी. वह अपनी सारी शक्ति अपने पैरों में बटोर, आगे बढ़ी. तभी एक ताला उसकी आशाओं पर पाला सा पड़ गया. उसने देखा की अस्पताल के दरवाजे पर ताला जड़ा हुआ है. अब तक समेट कर रखी हिम्मत, जर्रा-जर्रा बिखर गई. वह स्वास्थ्य केंद्र की सीढ़ियों पर दर्द से दोहरी हो लेट गई. अब तक अन्दर ही अन्दर जज्ब होती, उसकी दर्द भरी चीखें उस प्राथमिक स्वास्थ केंद्र की दीवारों को कंपाने लगीं. इन चीखों में दर्द था – शरीर में उठती लहरों का, दर्द था डर का- खो देने का डर, दर्द था घरवालों से नजरें न मिला पाने का, गलत साबित हो जाने का.

उसके आसपास भीड़ जुटने लगी. अकेली महिला को तड़पती देख लोग पहले तो एक-दूसरे को ही प्रश्नों भरी नज़रों से तौलने लगे, प्रश्न पूछने लगे, फिर अजनबियत, हिचकिचाहट की बाधा पार कर इंसानियत की लहर उठी, तो कुछ सहृदय महिलायें आगे बढ़ी.

फूलो की दर्द से भींचती आँखों ने लोगों की ओर देखा. उसके दिल में घरवालों के विरोध की लहर परिस्थिति से टकरा कर छिन्न-भिन्न हो गई. उसने बुढादेव को दिल के भीत्तर से याद किया... मनाया कि उसका बच्चा उसके गोद में आ जाये. उसकी आँखों में डर ही डर उभर आया. कोई शुरुवात न कर सकने का डर, स्वतंन्त्र निर्णय न ले सकने का डर. फूलो के कदमों से गाँव की दूसरी माताओं के लिये खुलती एक नयी पगडण्डी कुछ तथाकथित सेवकों की कर्तव्यविमुखता से कोसों दूर चली गई कि स्वास्थ्य सेवा की जमीन ही चेतना के अंकुर का साथ ना दे तो अकेला अंकुर वृक्ष नहीं बन सकता. जाने कितने बरसों में कोई फूलो इतनी हिम्मत कर सकेगी. तब तक जाने कितनी और कोखें उजड़ेंगी.

पीछे नेपथ्य में प्रश्न- उत्तर के तलवारों के वार से गूँजते रहे...

कोन हे?

एके झन हे?

कइसे एके झन आय हे?...

अस्पताल के बजे खुलथे?

अभी तो ग्याराएच बजे हे.

डाकटर बाहिर मेई रथे, नरस, कंपाउंडर कभी कभार खोलथे.

अरे... अरे अस्पताल तभी बने खुल्थे जब कोनो साहब या मंतरी दौरा आथें.

अरे नई... आजेच बंद हावे... वो नरस के घर साएद सगा आए हे.

कोई ला भेजा... बुला दिही नरस ला... ठई में घर हवे... बलाए ले आ जाही.

ना...अभी इस पगडण्डी का खुलना भविष्य की कोख में जरुर चला गया है लेकिन आशा मटियामेट नहीं हुई है. फूलो की चीखें अब लहरों की तरह आने लगी. उसे घेरे महिलाओं की पंक्ति से टकराने लगी. किसी ने अस्पताल का ताला तोड़ दिया. शायद अस्पताल का ही कोई है. लोगों ने फूलों को उठने के लिए सहारा दिया. उसने अस्पताल के अन्दर कदम धरा. बिन देवी के गुड़ी में कदम रखने सा अहसास हुआ उसे. अब वह अस्पताल के टेबल में है. जहाँ वो आना चाहती थी; अब वह वहीँ है. लेकिन डॉक्टर नहीं है. तभी पास खड़ी महिलाओं ने किसी के लिए जगह खाली कर दी.. माहौल में राहत की खुशबू समां गई. एक सुकून तारी हो गया उस पर. महिलाएं और नर्स उसे जोर लगाने कह रही हैं. इस सुकून की शक्ति को उसने जोर लगाने के लिए बटोर लिया.

उवां... उवां... उवां... अगले ही पल ने फूलो के बैसाख की सूखी जमीन से तपते मन में मानसून की बारिश कर दी. वहां सब के मन में ख़ुशी कदमताल करने लगी. बाहर पहुँच चुके कोसम के दिल में इस आवाज से, आशंकाओं, शिकायतों की जगह ख़ुशी के अंकुर उगने लगे. फूलो की प्रतीक्षित संतान की उवां... उवां... उवां... की आवाज, कोसम की लाख भर की बंधी मुट्ठी के साथ, उसके गाँव के साथ, सुदूर के कई गाँव तक उछलते कूदते पहुँचने लगी. मानों जंगल की घास से भरी जिस जमीन पर फूलों ने नौ माह पहले अपने कदम धर दिए थे, अब उस पर पीछे आने वालों के कदमों से जंगल में एक नयी पगडंडी का आभास होने लगा है. बस कही-कही जमीन को अब भी यह समझना बाकी है, कि वही इस पगडंडी का आधार है.

***