हल्की सी रेखा Shraddha Thawait द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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हल्की सी रेखा

हल्की सी रेखा

पृथ्वी के आधे भाग ने अपने सियामीज जुड़वा भाई, दूसरे आधे भाग को अपनी रात की चादर ओढ़ा दी और खुद जाग गया. पहले जुड़वा भाई का दिन ढल गया. एक नयी कहानी लिखकर. नये अनुभवों की पोटलियां लोगों को बांटकर. कुछ बाकि रह गयी अनुभव की पोटलियाँ रात के लिए रखे हुए. दूसरे जुड़वा भाई का दिन उग आया, लोगों को बांटने के लिए अनुभवों की नयी पोटलियाँ लेकर. मोबाइल में बजते अलार्म के गाने ‘तू ही मेरी शब है… सुबह है… तू ही दिन है मेरा…’ ने किंशु को बता दिया कि सुबह के छः बज गए हैं. किंशु जल्दी से उठ बैठी. उसे अपने साथी सदस्यों के साथ तेंदूपत्ता तोड़ने वालों पर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए जल्दी ही गाँव के जंगल की ओर जाना था.

किंशु अपनी नौकरी की जिम्मेदारी पूरी करने के साथ ही, अपने कुछ सतरंगे सपने पूरे करने पांच दिन के लिये गाँव आई हुई है. फोटोग्राफी उसकी जिंदगी है, जुनून है. वह इसी में अपना भविष्य भी बनाना चाहती है. किंशु के घर वाले उसके ऐसे गाँव-जंगल में घूमने से डरते हैं. उसकी सुरक्षा को लेकर चिंतित भी रहते हैं. लेकिन उससे अधिक वे किंशु के कार्यक्षेत्र, उसकी अभिरुचियों पर गर्व करते हैं. वे मानते हैं कि उनकी किंशु सबसे अलग है. आजकल की उसकी उम्र की लड़कियां दोस्त, कॉलेज, ऑफिस, पार्टीज, मूवीज, का आनंद उठाते हुए सिर्फ अपनी सेल्फी पोस्ट करती रहती हैं. वहीँ किंशु प्रकृति के बेहतरीन पलों को, अपने कैमरे में कैद करने के लिए जुनूनी रहती है. जंगल की ,गाँव की, शहर की जिंदगी जानने को अपने कैमरे में कैद करने उत्सुक रहती है. अपने इसी जुनून में वह पत्रकारिता कॉलेज में पढ़ाने का काम छोड़कर एक समाचार पत्र में ग्रामीण संवाददाता का काम कर रही है. जिससे वह नौकरी के साथ अपनी अभिरुचि फोटोग्राफी के लिए भी अवसर निकाल सके.

वह अभी अपने फोटोग्राफी के जुनून में अपनी ‘वनदेवियाँ चित्र श्रृंखला’ के लिए जंगल में जीवन जीती महिलाओं की तस्वीरें इकठ्ठा करने के प्रयास में है. गाँव-गाँव, जंगल-जंगल, महुआ, डोरी, मशरूम, लकड़ियाँ बटोरती औरतें, लकड़ियाँ काटती औरतें, कमार, बिरहोर, मुड़िया, माड़िया, गोंड, उराँव औरतें. गाँवों के दौरे में उसके साथ और भी लोग होते है. वे एक टीम के रूप में गाँव की समस्याओं पर रिपोर्ट तैयार करते हैं. साथ ही अपनी रूचि के अनुसार एवं भविष्य के लिए विषय सामग्री भी इकट्ठी करते रहते हैं. उस दिन किंशु और सभी साथी जल्दी तैयार होकर तेंदू पत्ता बीनने वालों पर एक रिपोर्ट बनाने जंगले की ओर निकल गए.

जंगल फागुन का उत्सव मना कर अलसाया हुआ सा पसरा था. कोंपलों से लाल-बैंगनी हुए वृक्ष, अब हरीतिमा ओढ़ चुके थे. महुआ के मदमस्त पीले फूल, अब हरियाले डोरी फल में बदल चुके थे. फागुन में लगी जंगल की आग, ‘पलाश’ की दहक भी उसके हरे पत्तों और हरी फलियों से बुझ चुकी थी. सेमल के पेड़ों के नीचे हिरणों ने अब इकठ्ठा होना छोड़ दिया था, क्योंकि अब वहां उनकी भूख मिटाने के लिए सेमल के कर्णफूल नहीं बिछे थे. जंगल अब फिर से सूरज के आक्रामक रुख का सामना करने के लिए अपने हरियाली वर्दी में पत्तों की युवा फौज के साथ तैयार खड़ा था.

जंगल में चलते हुए किंशु ने पाया, कि जंगल अपने बाहर से होने वाले सूरज के आक्रमण के लिए मुस्तैद था, लेकिन अपने ही घर के एक सदस्य से कहीं हार रहा था. अधिकांश पेड़ों के ऊपर दीमक लगी हुई थी. कई बड़े-बड़े पेड़ तो शायद दीमकों की वजह से ही खड़े-खड़े सूख गए थे. पेड़ों के नीचे मिटटी के बड़े-बड़े ढूह थे. किंशुक के एक साथी आरव ने पहली बार जंगल देखा था. पहली बार देखे थे, छोटे-छोटे दीमकों के अविश्वसनीय रूप से बड़े घर. उसने एक ढूह के पास जाकर अपनी उंचाई से मापा, तो पाया कि वो ढूह उससे भी तीन-चार फीट ऊँचा था.

“आरव तुम्हें पता है कि दीमकों की इन बांबियों में कई सांप भी अवैध कब्ज़ा कर रहते हैं. बाख कर रहना... कहीं से भी सांप निकल सकता है” किंशुक ने उसे हंसी-हंसी में डराते हुए कहा तो वह चिंहुक कर ढूह से दूर भागा.

हंसी के ठहाकों के बीच किंशुक आगे कहने लगी. “इतना भी मत डरो आरव. मेरी वन देवियाँ बता रही थी, कि बारिश में ये ढूह सफ़ेद रंग के बारीक मशरूम से भर जाते हैं. जिसे ये लोग ‘कनकी पुटू’ कहते हैं. इसे वे बड़े चाव से खाते हैं. मैंने तो सोच लिया है कि इस बारिश में मैं सफ़ेद लिबास पहने इन सात-आठ फीट की ढूह परियों को अपने कैमरे में कैद करने जरूर आउंगी, और उनके ‘कनकी पुटू के स्वाद का आनंद भी उठाऊंगी“

“लेकिन अभी तो तुमने कहा कि दीमक वाले ढूहों में सांप भी रहता है. बारिश में तो सांप का खतरा और भी बढ़ जाता है. फिर वे वहां क्यों जाती हैं? तुम भी क्यों जाओगी?” आरव ने चौंकते हुए कहा. उसकी आवाज में चिंता भी पतझड़ की तरह झर रही थी. जिसका कोई असर किंशु पर नहीं था. वह बहार में झूमते कुसुम सी मस्ती में कहती रही,

“हां! सोचो, मेरी वन देवियाँ कितनी बहादुर होती हैं. यह जानते हुए भी कि किसी भी पल इन ढूहों से सांप निकल सकता, वे कनकी पुटू इकठ्ठा करती हैं. डियर आरव यह मजबूरी नहीं स्वादिष्ट, साहसिक आनंद है, वरना सब्जी के लिए तो जंगल में और भी कई विकल्प हैं मैं भी इसी आनंद के लिए आउंगी.”

किंशुक ने गाँव की बहादुर औरतों पर गर्व करते हुए कहा. आरव ने एक भरपूर नजर से किंशुक को देखा. उसका मन नगाड़ा बजा कर उसे सुनाने लगा,

“शायद ये तुम्हारा साहसिक आनंद का जज्बा ही है किंशु जो तुम मुझे अपनी ओर किसी चुम्बक की तरह खींचती हो.”

बातें करते वे जंगल में चले जा रहे थे. जंगल जंगली जानवरों, चिड़ियों और अपनी सीमा का अतिक्रमण कर आये मनुष्यों से आबाद था. जंगल में कहीं कहीं के आग के निशान दिख्र रहे थे. जहाँ से आग कई रोज पहले अपने रास्ते में आते सूखे पत्तों, उनके बीच अपनी जिंदगी जीते कीड़े-मकोड़ों को जलाती, धीमे-धीमे इठलाती नायिका सी बलखाती बढ़ती चली गई थी, और पीछे छोड़ गई थी कालिमा की नदी. इस कालिमा की नदी में कहीं औरतें महुआ का फल ’डोरी’ इकठ्ठा कर रही थीं, तो कहीं आदमी औरतें तेंदू की नईं कोंपलों को तोड़ने में लगे थे. कहीं चूल्हा जलाने के लिये लकड़ियाँ बटोरी जा रहीं थी. दूर कहीं आरे से पेड़ के चीरने की आवाजें आ रहीं थी. जो किसी को अपनी जान के हित में, तो किसी को मोटे माल के आस में सुनाई ही नहीं आती. किंशुक की टीम ने इस आवाज की रिपोर्ट भी जाने वाले दिन बनाने का तय कर लिया था.

उस दिन उन्हें तेंदूपत्ता तोड़ने वालों पर अपनी रिपोर्ट तैयार करने के साथ ही, किंशुक ने अपनी ‘वनदेवियाँ श्रृंखला’ के लिए डोरी, तेंदूपत्ता बटोरती महिलाओं के फोटो ग्राफ लेने का सोच रखा था. वह टीम के साथ तेंदुपत्ता तोड़ते लोगों की ओर बढ़ने लगी तभी उसकी नजर एक बहुत ही कमजोर सी बुढ़िया पर पड़ी जो टोकरी भर डोरी को अपने सिर में रखाने के लिए तैयार खड़ी थी. किंशु की आखें चमक उठी. उसने उस बुढ़िया का फोटोग्राफ, डोरी से भरी टोकरी सिर पर रखते हुए लेना चाहा. जिससे वह टोकरी उठाने की मेहनत से उस बुढ़िया के चेहरे की रेखाओं में हुई वृद्धि को अपने कैमरे की आँख से पकड़ सके. दिखा सके गाँव की कठोर जिंदगी को. एक स्टिल स्नैप में पकड़ सके उस वृद्धा की जिजीविषा को. बारह, पंद्रह किलो वजन की एक टोकरी डोरी को सिर पर उठाना आसान नहीं होता. उस पर वो इतनी जर्जर बुढ़िया.

किंशुक की आवाज ठहरी हुई, गंभीर और सपनीली हो आई, “दाई! जब तैं ऐ डोरी के टोकनी उठाबे ता मैं तोर फोटो खींच लों का?”

जवाब में उस डोकरी दाई के पोपले चेहरे पर मुचमुचाती मुस्कान उभर आई. जैसे बसंत की बयार ने उसे छू लिया हो. किंशु उत्साहित हो उठी. वैसे तो सब एक दूसरे की टोकरी उठाने में मदद कर देते हैं, लेकिन इस फोटो के अच्छे आने के लिए चाहिए था कि वह डोकरी खुद टोकरी उठाये. किंशुक ने उससे पूछा,

“दाई तैं आपे आप टोकनी उठा सकबे?”

“कोनो पाथर में गोड़ रख के टोकनी ला उठा लीहां नोनी.” उसने जवाब दिया.

किंशुक ने आसपास नजर दौड़ाई. सामने तालाब के किनारे तेंदू के एक बड़े से पेड़ के पास घुटनों तक लम्बी घास फैली हुई थी. उसी के पास एक मटमैला पत्थर था. जिस पर कोई घास नहीं थी.

“ओ पथरा ऊपर पैर रख के टोकनी उठात बन जाही न”

“हहो” डोकरी ने सहमती में सर हिला दिया. दोनों ने तय किया कि उस पत्थर पर एक पैर रख, उस पैर पर टोकरी रख कर पैर के सहारे से वह डोरी फल से भरी टोकरी अपने सिर पर रख लेगी.

किंशुक अपना कैमरा लेकर तैयार हो गई और वह डोकरी अपनी टोकरी लेकर. जैसे ही उस डोकरी ने उस पत्थर पर अपना बायाँ पैर रख उस पर अपनी टोकरी रखा कि पत्थर में सरसराहट हुई. इससे पहले उन्हें ये समझ आता, कि क्या हो रहा है. उससे पहले ही वो पत्थर टूट गया. वहां की जमीन फट गई. पत्थर सिर्फ टूटा ही नहीं, वह टूट कर गोल-गोल सरसराने लगा. जैसे खुल जा सिम सिम का दरवाजा खुल रहा हो.

किंशुक और डोकरी दोनों का दिल धक् से रह गया. कुछ पल तो उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया, फिर जब समझ आया कि क्या हुआ है तो वे दोनों वहां से जोर से भागे. वो बुढ़िया भी. कोई सोच भी नहीं सकता कि इतनी बूढी, जर्जर बुढ़िया इतने तेज भी भाग सकती है. शायद जान जाने का भय व्यक्ति में प्रचंड शक्ति भर देता है.

उस तेंदू के पेड़ के नीचे से, उस पत्थर से दूर भाग कर, दोनों अपनी धौंकनी सी चलती सांसों पर काबू पाने की कोशिश कर रहे ही थे कि टीम के बाकी लोग भी दौड़ कर उनके पास आ गये. आरव ने घबराते हुए पूछा,

“क्या हुआ?”

किंशुक ने तेंदू के पेड़ की ओर इशारा कर दिया. उन्होंने देखा कि वह पत्थर अब सरसराते हुए धीरे से उस तेंदू के पेड़ की एक डाल पर लिपट रहा है.

“अजगर”

“हां वो अजगर ... दरअसल उसे हम पत्थर समझ गए थे. उस पर पैर रखने से अजगर सरसराया तो समझ आया कि वो पत्थर नहीं अजगर है.” किंशुक ने हांफते हुए स्पष्ट किया.

“हद हो तुम भी अजगर पर पैर रख दिया ..अगर वो अपने लपेटे में ले लेता तो? जंगल में इतना तो ध्यान रखना चाहिए ना.” चिंता की बारिश यदि होती तो आरव की इस वक्त की आवाज जैसी ही होती.

“तुम भी उसे पत्थर ही समझते.”

“तुम अपने उत्साह में कुछ ध्यान नहीं देती हो.” आरव की चिंता नाराजगी के रूप में दिख रही थी. जैसे कुछ देर पहले अजगर पत्थर दिख रहा था.

अब तक किंशुक ने अपनी घबराहट पर काबू पा लिया था. उसने आरव को स्पष्ट करते हुए कहा,

“अरे! असल में वो अजगर अपने शिकार के बाद लम्बे समय से आराम पर रहा होगा. इतने लम्बे समय से कि उसके ऊपर धूल, मिटटी, पत्तियां इकट्ठी हो गई और दीमकों ने उसके चारों ओर घर बना लिया. इसीलिए वो हमें एक पत्थर सा लगा.”

फिर खुद पर ही हंसते हुए आगे कहा,

“तुम्हें तो मेरी और इन डोकरी दाई की हिम्मत को दाद देनी चाहिए, कि अजगर से डरकर भागते हुए भी न तो मैंने अपना कैमरा छोड़ा, न ही डोकरी दाई ने टोकरी. तुम हमारी हिम्मत की दाद देने की जगह लेक्चर दे रहे हो.”

आरव इसके जवाब में कुछ कहना चाह ही रहा था, कि तभी एक ह्रदय विदारक चीख सुनाई दी,

“ऐ दाई वो...”

वहां तेंदूपत्ता तोड़ते, डोरी बीनते, लकड़ियाँ इकट्ठी करते ग्रामीणों में हलचल मच गई. वे सब भी आवाज की ओर दौड़े. तेंदूपत्ता तोड़ते दो लोगों को सांप ने काट दिया था. सांप जिस तरह पत्तों के नीचे से निकल कर काटा, उसी तरह अपनी एक झलक दिखा, पत्तों के नीचे ही गुम हो गया. किस सांप ने काटा किसी को नहीं पता, सांप गया कहाँ किसी को नहीं पता.

उन्हें एक आशा हुई कि शायद किसी बिना जहर वाले सांप ने काटा हो. लेकिन उन गाँव वालों को यह आशा नहीं थी. उन सब में सांप काटने का ऐसा आतंक छाया था जैसे किसी जहरीले सांप ने ही काट लिया है.

पतझड़ और उसके बाद के दिनों में जंगल में सूखे पत्तों की प्याज की पर्तों के तरह निकलते जाने वाली मोटी पर्त पड़ी होती है. किंशुक और उसके साथियों ने तो जंगल बूट पहने थे, लेकिन दिन भर जंगल में काम करने वाले वे ग्रामीण अधिकांशतः खाली पैर ही थे. चप्पल उनके लिए एक विलासिता ही है. उनके पास डॉक्टर तक पहुँचने के लिए एक ही साधन था कि मरीज की डंडाडोली बना कर उन्हें लाद कर पैदल ले जाओ. खैर भाग्य से उस दिन किंशुक लोग थे, तो गाड़ी उपलब्ध थी. उन्होंने गाँव वालों से उन दोनों को अपनी गाड़ी में बैठाने के लिए कहा,

सांप काट लेने की हडबडाहट, मरीजों पर तारी होती बेहोशी, उन्हें जगाये रखने की कवायद और उन्हें जीप में बैठाने की कोशिश के बीच किंशुक ने उनसे पूछा,

“सबसे नजदीकी अस्पताल कहाँ है? आप लोग रास्ता बताते जायें. ड्राइवर वहां ले चलेगा.”

हवा का एक तेज झोंका आया. पतियाँ हिलने लगी जैसे वे भी दायें-बायें हिल कर नहीं कह रही हों. गाँव वालों ने दोनों को अस्पताल ले जाने से इनकार कर दिया. दोनों को जीप में बैठाते हुए एक बुजुर्ग से व्यक्ति ने कहा.

“न नोनी, हमन अस्पताल नई जाबो. इहाँ ले दस किलोमीटर दूर एक गाँव म सिद्ध बाबा हे, उहाँ के माटी म मंतर फुकाए हे. कोनो सांप काटे आदमी एक घ साँस चलत म उहाँ पहुँच जाथे त ओला कुछु नहीं होए. उहें ले जाबो.”

“ऐसे में तो अस्पताल ले जाना ही ठीक होगा. डॉक्टर एंटीवेनम का इंजेक्शन लगा देंगे तो ये दोनों ठीक हो जायेंगे.” आरव ने जोर देते हुए कहा. शहर में पले-बढ़े आरव के लिए सांप काटने पर अस्पताल न ले जाना अकल्पनीय बात थी.

“न नोनी-बाबू हमन ल त ओ आसरम म छोड़ देवा” आखिर वे ग्रामीण नहीं माने.

किंशुक ने बहस को स्थगित करते हुए ड्राइवर को कहा,

“रामू दादा जल्दी चलो”

रामू दादा जल्दी से ड्राइविंग सीट सँभालने की जगह, दोनों के सांप काटने वाली जगह को ध्यान से देखते खड़े थे. वे मुस्कुराते हुए जल्दी से बोले,

“अरे दीदी इन्हें कहीं मत ले जाओ. इन्हें बिना जहर वाले सांप ने काटा है. कुछ नहीं होगा इन्हें.”

लेकिन दो लोगों को सांप काटने का आतंक ही इतना था, कि उनकी आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बन कर रह गई. किंशुक, उसके साथी और गाँव वाले सब उन पर भड़क गए. वह चुपचाप ड्राइविंग सीट पर बैठ गये. साथ में दो-तीन गाँव वाले और किंशुक की टीम से सुभाष उनके साथ जाने लगा क्योंकि सुभाष उस इलाके से परिचित था. जाने आरव को क्या महसूस हुआ कि वह भी उनके साथ हो लिया. उधर दोनों मरीजों की स्थिति बिगड़ती जा रही थी. वे उनींदे हो रहे थे,

“कमली... कमली उठ.. उठ, सुत झन...”

“दसरथ उठ ग... जागे रह... बस अभी आसरम पहुँचत हन.”

उन्हें जगाये रखने की कोशिश जारी थी, और आरव की उन्हें डॉक्टर के पास ले जाने की कोशिश भी जारी थी. जैसी चले बयार, पीठ पुनि पुनि कीजिये की तर्ज पर एक बार तो आरव ने सोचा, कि चुपचाप जैसा ये कह रहे हैं वैसा ही कर दे. फिर उसे लगा कि ऐसे जानते हुए गलत करना तो ठीक नहीं होगा. इसीलिए वह रास्ते भर कोशिश करता रहा, कि मरीजों के परिजन अस्पताल जाने के लिये राजी हो जाएँ. जब तक वे आश्रम पहुचे, तब तक दसरथ के घरवाले उसे डॉक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार हो गए थे, जबकि कमली के घरवाले इलाज के खर्चे आदि की दुहाई दे, अभी भी आश्रम ले जाने पर ही अड़े थे. कमली को आश्रम में छोड़ने के बाद आरव और सुभाष जब दसरथ को अस्पताल ले जाने लगे. तब तो रामू दादा अड़ ही गये.

“आप लोग इसे भी आश्रम में ही जाने दो. अस्पताल से अच्छा रहेगा. मैं गाँव का रहने वाला हूँ. मैं अच्छे से जानता हूँ कि यह आश्रम में ठीक हो जायेगा.”

लेकिन दोनों ने उनकी बात नहीं सुनी. उसके घर वाले भी अब तक अस्पताल ले जाना ही ठीक मान इनके ही पक्ष में हो गए थे.

लेकिन अस्पताल ले जाने का क्या फायदा हुआ? रास्ते में ही उसकी हालत बिगड़ने लगी. उसे साँस लेने में मुश्किल होने लगी. वह बेसुध होने लगा. उसका बदन ठंडा पड़ने लगा. साथ आये एक ने उसकी हथेलियाँ रगड़नी शुरू की, दूसरे ने उसके तलवे रगड़े. सुभाष उसके चेहरे में पानी के छींटे मारने लगा. उसका सिर बार बार भिगोया जाता रहा पर उसकी साँसे अनियंत्रित होने लगी. उसे जगाये रखना मुश्किल होता गया. उसकी स्थिति ख़राब होती रही और जीप यहाँ वहां भटकती रही. जैसा गाँव के इलाकों के अस्पताल में अक्सर होता है, कहीं डॉक्टर नहीं मिले और कहीं डॉक्टर मिले तो एन्टीवेनम नहीं. तभी रामू दादा गाड़ी चलाना छोड़, दसरथ से कहने लगे,

“तुम हिम्मत रखो तुम्हें बिना जहर वाले सांप ने काटा है तुम्हें कुछ नहीं होगा.” उनकी यह बात सुन कर मरीज और भी ऐंठने लगा तो अचानक उन्होंने एक पुड़िया में रखी भभूति निकाल ली और कहने लगे,

“यह सिध्द भभूति है, जिसे खाने से सांप का जहर उतर जाता है. यह भभूति उसी सिध्द बाबा के आश्रम की भभूति है. एक बार मुझे काट लिया था एक नागिन ने मैं बस इस भभूति को खाया तो सिध्द बाबा की कृपा से मेरा जहर तुरंत उतर गया.”

लेकिन दसरथ की स्थिति बिगड़ती जा रही थी. जान बचने की आस में इंसान क्या कुछ करने को राजी नहीं हो जाता. उस भभूति को उस आदमी के घर वालों ने खिला दिया लेकिन अंततः उसे नहीं बचा पाए. जब तक जिला अस्पताल में डॉक्टर और एंटीवेनम दोनों मिलते, तब तक दसरथ की सांसों ने साथ छोड़ दिया था.

सांस जाने के साथ ही दसरथ के घरवालों के लिये अस्पताल जाने का औचित्य ख़त्म हो गया और उनमें एक अंतिम आस जाग उठी. जिसके लिये वे दसरथ की मृत देह को उस आश्रम में ले जाने के लिए उन पर दबाव बनाने लगे कि वहां ले जाने पर वो बाबा सांप काटी मृत देह में भी प्राण फूंक देते हैं. आरव के एक बार अस्पताल ले चलते कहने पर वे बिफर ही गये. उनका कहना था कि अस्पताल जा कर क्या होगा. पुलिस केस और क्या? फिर पुलिस के आने तक रुके रहो. पंचनामा कराओ. इतनी देर अस्पताल दर अस्पताल घूमते दसरथ के घर वालों के धैर्य की सीमा भी जवाब दे चुकी थी. अब वे खुल कर अस्पताल लाने के निर्णय को भी इसके लिए दोषी ठहरा रहे थे.

आरव अब दसरथ के घरवालों के किसी कदम का विरोध करने की मनःस्थिति में नहीं रह गया था. वह अब किस मुंह से उसके घर वालों का विरोध करता? वह कुछ नहीं कह सका और चुप चाप उनको उसी आश्रम में छोड़ दिया गया. जहाँ वो बाबा दावा कर रहा था कि देर हो गई है लेकिन कोई बात नहीं वह इसमें जीवन लौटा लायेगा. यह जानते हुए भी, कि यह दावा गलत है, आरव चुपचाप सुनता रहा, देखता रहा, फिर बाहर निकल आया.

आरव रामू दादा को यूँ तो बहुत अच्छा, बहुत सी बातों का जानकार मानता था लेकिन उस दिन उनकी बातें उसे बहुत अजीब सी लग रही थीं, इसीलिए जब दसरथ अंततः नहीं बच सका, तो वापसी में उसके घरवालों को आश्रम छोड़ने के बाद वह न चाहते हुए भी उन पर फट पड़ा.

“आप तो कह रहे थे न कि इसे बिना जहर वाले सांप ने काटा है. अस्पताल ले जाने की कोई जरुरत नहीं. अब भी कुछ कहना है आपको. शायद आप अपनी फालतू की बातें करने की जगह गाड़ी ही अच्छे से चलाये होते, अपनी भभूति वगैरह की चक्कर में समय नहीं गंवाये होते, तो हम कुछ देर पहले अस्पताल पहुँच जाते, और शायद उसे बचा पाते.”

आरव ने गुस्से और हताशा में रामूदादा को बहुत बड़ी बात कह दी. यह सीधे-सीधे दोषारोपण ही था. रामू दादा को आरव की बात ने बहुत चोट भी पंहुचाई लेकिन उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा,

‘आरव भैया, आप मेरी बात को भले ना मानों, लेकिन देख लेना, वो दूसरी औरत को कुछ भी नहीं हुआ होगा.’

रामू दादा की आँखों में, उनकी बातों में एक अजीब सा विश्वास था, कि आरव ने गाँव पंहुचकर पता कराया तो सच में ऐसा ही पाया. जब तक वे अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे थे. तब तक कमली के घर वाले उसे सिध्द बाबा के आश्रम से मिट्टी लगवा कर वापस भी ले आये थे. इस वक्त वह बिलकुल ठीक थी. किंशुक खुद उसे देख कर आई थी.

आरव बेतरह सोच में पड़ गया. उसने परेशान होकर किंशुक से कहा, “मुझे समझ नहीं आ रहा कि एक ही सांप ने एक ही समय में दोनों को काटा बल्कि उस कमली को तो पहले काटा. फिर कैसे दसरथ पर जहर का असर हुआ जबकि कमली पर असर नहीं हुआ? इस बारे में रामू दादा को इतना विश्वास क्यों और कैसे था?”

किंशुक ने उसकी परेशानी कम करने की कोशिश में कहा, “छोडो न आरव! हो सकता है कमली को काटते वक्त सांप के दांत ठीक से न गड़े हों इसलिए उसे जहर नहीं चढ़ा जबकि दसरथ को सांप ने जोर से काटा हो.”

आरव किंशुक के जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ. इस घटना ने आरव को कभी ना उबर सकने वाला आतंक दे दिया था.

“नहीं किंशुक ऐसे कैसे जाने दूं? एक जान गई है. वो भी शायद मेरे ही कारण. यदि मैं अस्पताल ले जाने की इतनी जिद नहीं किया होता, तो वह भी शायद अभी जिन्दा होता. रामू दादा कितने विश्वास से कह रहे थे, कि आरव भैया आप मेरी बात को भले ना मानों, लेकिन देख लेना, वो दूसरी औरत को कुछ भी नहीं हुआ होगा.”

आरव बेहद व्यथित था. जब रामू दादा ने आरव से यह कहा था. उस समय तो वह कुछ नहीं कह सका था क्योंकि अपनी नाराजगी के बावजूद वह उनकी आवाज में भरे विश्वास के भार से दब गया था. तब तक उसे पता भी नहीं था, कि उस दूसरी की जान सिध्द बाबा की मिट्टी से बच चुकी है. गुस्सा होता ही ऐसी बुरी शय है कि ये आपके सोचने समझने की शक्ति ले लेता है. लेकिन अब वह उनसे बात करने के लिए बेचैन हो उठा. वह तुरंत उनके पास गया. उसने माफ़ी मांगते हुए उनके विश्वास का कारण पूछा. रामू दादा सहज ही थे जैसे कोई बड़ी बात नहीं हुई. जैसे उन्हें अक्सर ऐसा देखने की आदत हो. उन्होंने कहा,

‘भैया यहाँ मिलने वाले साँपों में सैकड़ा में दस सांप ही जहरीले होते हैं उसमें से भी एक ही सांप ऐसा होता है कि जिसके काटने से जान जा सकती है. मतलब सौ व्यक्तियों को सांप काटे तो सिर्फ एक बार किसी की जान पर आ बनती है. लेकिन सांप काटने वाले के मन में सांप काटने का डर ही इतना ज्यादा होता है कि वह उनमें वे सारे लक्षण आने लगते हैं जो सांप काटने पर आते हैं. आदमी सदमे से ही मर जाता है.”

“मतलब...? मैं समझा नहीं?”

“मतलब कि अक्सर लोगों को बिना जहर वाले सांप ही काटे होते हैं. इन लोगों को भी बिना जहर वाले सांप ने ही काटा था, यदि ये कहीं नहीं जाते, बस अपनी हिम्मत बनाये रखते, तो भी इन्हें कुछ नहीं होता. उस सिध्द बाबा के पास कोई सिध्द मंत्र या मिट्टी नहीं है लेकिन यह हुनर है कि उसने गाँव वालों के मन में यह विश्वास बैठा दिया है कि जो उसके पास आ जायेगा, उसे वह मन्त्र फूंकी मिट्टी से बचा लेगा.”

आरव को अब भी उनकी बातों पर विश्वास नहीं आ रहा था इसीलिए उसने शंकित आवाज में पूछा,

“लेकिन तुम्हें कैसे पता चला कि वो सांप बिना जहर वाला था? तुमने तो सांप देखा भी नहीं. तुम तो दूर खड़े थे.”

रामू दादा की आँखों में अनुभव के मोती चमक उठे, उनके कंधे जानकार होने के विश्वास में तन गये. उन्होंने कहा,

“भैया! मेरी आधी जिंदगी गाँव में गुजरी है, आधी शहर में, इसलिए मेरे को गाँव की अन्धविश्वास की बातें भी पता हैं, तो शहर के विज्ञान की भी. मैं एक डॉक्टर के पास दस साल गाड़ी चला चुका हूँ. उन्होंने ही मेरे को एक बार बताया था, कि जब जहरीला सांप काटता है, तो उसके दो दांतों के निशान दिखते हैं, जबकि बिना जहर वाले सांप के काटने में कई दांतों के निशान दिखते हैं. इन लोगों के काटे के निशान में कई दांतों के निशान दिख रहे थे. इसी से मैं पहले ही कह दिया, कि इन्हें कुछ नहीं होगा, लेकिन कोई जिंदगी से विश्वास ही खो दे तो क्या किया जा सकता है.”

रामू दादा ने यह गहरी साँस लेते हुए कहा, फिर उन्होंने आरव की ओर गहरी नज़रों से देखते कुछ ऐसा कहा, कि वह बात आरव के दिल में फांस सी जा चुभी. उन्होनें कहा,

“भैया! जब तक आप किसी को विकल्प नहीं दे सकते, तब तक उनके उस विकल्प को नहीं छीनना चाहिए, जिसके सहारे वे जीते हैं. ये गाँव के बैगा-गुनिया आपके शहर के...वो क्या कहते हैं?.. हाँ! मनोंवैज्ञानिक का काम ही तो करते हैं.”

आरव के दुखी दिल के समंदर में अपने निर्णय के कारण किसी की जान जाने की ग्लानि की लहरें तूफानी होने लगीं. उसे लगने लगा कि उसने वहां व्याप्त अन्धविश्वास का समर्थन न कर के गलत किया. इसी वजह से एक जान गई. वह बेतरह उदास हो उठा. दुनिया घूमती सी लगी. वह पास ही खड़े एक बरगद के मोटे तने से टिक गया. वह रोना चाहने लगा... जोर से रोना... किसी से लिपट के रोना... वह बरगद के तने से लिपट कर जोर से चिल्ला उठा.

किंशुक ने उसे यूँ बरगद के तने पर ढेर होते देखा तो दौड़ती चली आई.

“क्या हुआ आरव? तुम इतने परेशान क्यों हो रहे हो. तुमने हर वो कोशिश तो की थी जो तुम्हें सहीं लगी. फिर खुद को जिम्मेदार क्यों मान रहे हो?”

आरव का दर्द बेहद घातक दर्द था. खुद की वजह से किसी की जान जाने के अहसास का दर्द. उसकी आवाज ग्लानि के बोझ से दबी हुई थी,

“किंशुक मैंने कभी नहीं सोचा था कि आधुनिक विज्ञान पर विश्वास से, किसी की मदद करते हुए मैं एक जान के जाने का गुनाहगार बन जाऊंगा. गाँव वालों को उस सिध्द बाबा पर विश्वास है, तो मुझे उन्हें उनके विश्वास पर विश्वास रखने देना था. मैंने अपने गलत निर्णय से एक जान ले ली है.”

किंशुक यह सुन कर भी चुप ही रही. कभी-कभी सामने वाले की चुप्पी का दबाव मन के फोड़े को फोड़ कर मन का मवाद बाहर निकाल देता है. आरव के मन का मवाद बहने लगा,

“पता है किंशुक रामू दादा ऐसे सिध्द बाबा को गाँव के मनोवैज्ञानिक का दर्जा देते हैं. मैं भी यही सोच रहा हूँ, कि जब विश्वास में इतनी शक्ति होती तो ऐसे मनोवैज्ञनिक बाबा को अन्धविश्वास बढ़ाने वाला बैगा-गुनिया मानने की जगह हमें इन्हें मनोवैज्ञानिक क्यों नहीं मान लेना चाहिए. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा बहुत अजीब सा लग रहा है.”

आरव अपनी ग्लानि में झाड़-फूंक करने वाले, अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाले बैगा-गुनिया को मनोवैज्ञानिक का दर्जा देने लगा. उसके मन में छाये ग्लानि के वायरस ने उसके दिमाग के सॉफ्टवेयर को विचलित कर दिया था. किंशुक को सब समझ आ रहा था. वह आरव के सवालों का जवाब भी जानती थी. लेकिन वह यह भी जानती थी कि इस वायरस का एंटीवायरस आरव के पास ही है.उसके मन के सागर में दुनिया की सारी बातों के सही गलत के जवाब छिपे हैं. बस जरूरत गहरे गोता लगा, सच्चे मोती चुन लेने की है, इसलिए उसने समझाने की कोई कोशिश नहीं की अपितु उससे कहा,

“आरव तुम्हें अजीब लगेगा कि तुम इतने परेशान हो और मैं तुम्हें अपने बचपन की बात सुना रही हूँ पर तुम एक बार सुन लो. कभी मैं भी बचपन में विश्वास की बात को लेकर ऐसे ही परेशान थी, जैसे अभी तुम हो. कुछ बड़ी हुई तो मेरी परेशानी मम्मी ने दूर कर दी. तुम भी यह बात सुन लो, शायद तुम्हारी यह परेशानी भी दूर हो जाये.”

आरव ने कुछ नहीं कहा बस टकटकी लगाये किंशुक को देखता रहा जैसे उसकी आँखें ही उसकी आवाज बन कह रही हों- “सुनाओ”

“तह तब की बात है, जब मैं बहुत छोटी थी. हमारे घर के पास ही मेरी एक दोस्त शालू का भी घर था. उसके घर से हर शाम को उसकी दादी के हृदयविदारक चीखें सुनाई आने लगती थीं. हर शाम उनके पेट में तेज दर्द उठता था. पहले पहल तो रोज ही कराहें सुनाई आती, फिर वे दवाई खाने लगीं, तो उनका दर्द ठीक हो गया. जिस भी दिन उन्हें दवाई खाने में देर हो जाती, या कभी दवाई ख़त्म हो जाती, तो उनका भीषण दर्द फिर शुरू हो जाता, और उससे भी भीषण होती उनकी कराहें.”

“ओह… इतना दर्द.”

“हाँ आरव, लेकिन तुम्हें यह जानकर अजीब लगेगा, कि बाद-बाद में उन हृदयविदारक कराहों को, शालू की मम्मी ‘ये सब तो मांजी की नौटंकी है, उन्हें कोई दर्द-वर्द नहीं होता’ कहा करती थी.”

आरव के ग्लानि से धूसर हुए चेहरे में प्रश्न का एक सितारा झलका. उसने एक टक देखते हुए पूछा, “लेकिन वे ऐसा क्यों कहा करती थीं.”

“ये तुम्हें अभी पता चल जायेगा. तुम आगे तो सुनो.” किंशुक पुरानी बातें याद करते हुए आगे कहने लगी.

“कुछ महीनों की दवाई खाने के बाद एक बार दादी की दर्द की दवाई ख़त्म हो गई. उस दिन घर पर शालू के पापा भी नहीं थे. बेहद मूसलाधार बारिश हो रही थी. बिजली बंद थी. शालू की दादी बेहद कराह रहीं थी. तब आंटी ने परेशान हो कर रसोई से एक चना दाल का दाना, ‘लीजिये मंगा दी आपकी दवाई’ कह कर उन्हें दे दिया. शायद उनकी दवाई चना दाल जैसी ही दिखती थी. चना दाल खाने के कुछ देर बाद उन्हें आराम हो गया. इसके बाद से चार-पांच साल तक जब तक वह रहीं, चनादाल ही दवाई के रूप में खाती रहीं. जिस दिन भी चना दाल की दवाई देने में देने में देर हो जाये तो उनका कराहना शुरू हो जाता था.”

“ऐसा कैसे हो सकता है?” आरव ने तुरंत अविश्वास से कहा.

“ऐसा होता रहा है आरव. वो भी चार-पांच सालों तक.” उतनी ही तेजी से अपनी बात पर जोर देते हुए किंशुक ने भी जवाब दिया, फिर आगे कहने लगी,

“आंटी की बात सुन कर मैं भी मानने लगी थी कि दादी दर्द का सिर्फ नाटक करती हैं. एक बार घर में उनके दर्द के बारे में बात हो रही थी. मैंने बेहद असंवेदनशीलता से दादी के लिये कही आंटी की बात दोहरा दी कि दादी को कोई दर्द-वर्द नहीं होता था. वे तो बस नाटक करती थीं. मम्मी ने मुझे तुरंत इसके लिए टोका, फिर उन्होंने मुझे प्लेसिबो इफेक्ट के बारे में बताया. बाद में मैंने भी पढ़ा. मम्मी के बताने से मुझे पता चला कि वे नाटक नहीं करती रही होंगी बल्कि उन्हें वास्तव में दर्द होता रहा होगा. उन्हें उस दर्द की शाश्वतता और उस दवाई दोनों पर विश्वास हो गया था कि उन्हें दर्द होता है जो यह दवाई खाने से ठीक हो जाता है, और वाकई में उनका दर्द इस विश्वास से ही ठीक हो जाता था.”

आरव ने तुरंत कहा, यहाँ भी वही विश्वास ही तो है. जिस पर मैंने विश्वास नहीं किया और अस्पताल ले चलने की जिद पाले रहा. किंशुक, तुम्हारी इस बात में इसमें मेरे प्रश्न का जवाब कहाँ है कि जब विश्वास में इतनी शक्ति होती है तो ऐसे मनोवैज्ञनिक बाबा को अन्धविश्वास बढ़ाने वाला बैगा गुनिया मानने की जगह हमें इन्हें मनोवैज्ञानिक क्यों नहीं मान लेना चाहिये?”

आरव अब भी दुःख के गड्ढे में डूबा हुआ, ग्लानि के कीचड से लथपथ ही था. हममें से अधिकांश अपने प्रश्नों का गला बचपन से ही घोंटना सीख चुके होते हैं. ये हमारे समाज में अच्छा बच्चा होने, अच्छा बड़ा होने के लिए जरुरी माना जाता है. जिनके पास प्रश्न होते हैं उन्हीं के पास उत्तर भी होते हैं. किंशुक ने कभी प्रश्नों का गला नहीं घोंटा इसलिए उसके पास उत्तर भी थे.

किंशुक ने आरव से कहा, “अभी मेरी बात ख़त्म नहीं हुई आरव. अब यदि मैं कहूँ कि उसके बाद से शालू के घर में हर बीमारी का इलाज चना दाल से होने लगा. शालू को अपेंडिसाइटिस हो गया. उसकी मम्मी उसे दिन में चार बार चना दाल खिलाने लगी...”

आरव ने भौंचक्के होते हुए कहा, “ये क्या पागलपन है. शालू की दादी का दर्द चना दाल खा कर ठीक हो जाता था. यह उसकी दादी का उस दवाई पर विश्वास था, यदि इसी विश्वास को घर के दूसरे सदस्यों पर भी लागू करें, हर किसी को, किसी भी बिमारी में चना दाल खिलाएं, तो यह अन्धविश्वास ही होगा. ऐसे तो शालू की जान ही चली जाये... क्या वो बच पाई?”

किंशुक ने मंद मंद मुस्कुराती हुई, विश्वास से चमकती आँखों से आरव की आँखों में देखते हुए कहा,

”इसे सांप काटने वाले केस में भी तो लागू कर के देखो... क्या कहते हो तुम?”

किंशुक की चमकती आँखें आरव के मन को भेदने लगी. ग्लानि के कीचड़ में डूबा विश्वास का सूरज उभरने लगा. उसके दिमाग में बिखरे विचारों के रेशे खुद बा खुद सुलझने लगे. सुलझे दिमाग ने एंटीवायरस का काम किया. अब उसे बरगद के सहारे की जरुरत न रही. विश्वास की शक्ति को असली रूप में पा उसे असीम शांति मिली. उसने बुझी आँखों लेकिन वापस लौट आये आत्मविश्वास के साथ कहा,

“तुम्हें कैसे धन्यवाद कहूँ किंशुक. अब मैं समझ गया, कि विश्वास और अन्धविश्वास के बीच एक बहुत हल्की सी रेखा होती है.”

आरव की सहजता, उसकी मुस्कान के लौटने में बाधक एक जान जाने का दुःख अब भी उसके मन में था. जो उसकी प्रदीप्त रहने वाली आँखों को बुझाये हुए था. तभी रामू दादा ने आकर कहा, “आरव भैया अब तो आप खुश हो जाइये... वो सिध्द बाबा की मिट्टी काम कर गई. दसरथ की सांसे वापस लौट आईं हैं.”

अब आरव की आवाज और आँखों में वही उत्साह भर आया जैसा कभी आर्किमिडीज की आवाज और आँखों में ‘यूरेका’ कहते वक्त रहा होगा.

“अच्छा! अब मैं ये भी समझ गया, कि दादी क्यों कहती थीं, कि सांप काटने से मरे आदमी को जलाते नहीं, नदी में बहा देते हैं.”

इस खबर के साथ ही आरव के मन का मरुस्थल होता कोना फिर हरियाला हो आया. उसने किंशुक को आत्मविश्वास भरी मुस्कान और कृतज्ञता भरी ऐसी नज़रों से देखा जो कह रही थी कि तुम्हारा आत्मविश्वास, तुम्हारी समझदारी ही तो मुझे तुम्हारी ओर चुम्बक सी खींचती हैं. जंगल में पेड़ों पर लौटते परिंदों, पेड़ों की फुनगियों की ओर चढ़ती धूप और मन में चढ़ती ज्ञान ज्योति के बीच वह आगे कहने लगा,

“ किंशुक अब मैं सारी बात समझ गया, कि यदि ये बाबा सिर्फ बिना जहर वाले सांपो के काटे व्यक्तियों का इलाज करते. गाँव वालों पर अपना विश्वास बनाये रखने के लिए जहरीले सांप काटे व्यक्तियों की बलि नहीं चढ़ाते. उन्हें बिना देरी किये डॉक्टरी सहायता के लिए भेज देते तो ही उन्हें मनोवैज्ञानिक स्वीकार किया जा सकता था. लेकिन वे अपने पर विश्वास बनाये रखने के लिए कई व्यक्तियों की बलि चढ़ा देते हैं इसलिए इसे अन्धविश्वास ही कहेंगे. जिसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. तुम बिलकुल सही हो किंशुक, तुमने मुझे बेकार की बातों में फंसने से बचा लिया.”

आसपास ही कहीं कोई कोयल अपनी कुहू-कुहू से आसमान सर पर उठा रही थी. त्तेंदूपत्ता तोड़ते लोग अपने चूल्हे की आग जलाने और पेट की आग बुझाने का इंतजाम कर घर वापसी की तैयारी में थे. किंशुक ने मुस्कुरा कर कहा,

“आज का सारा समय तो यह समझने में ही निकल गया. अब चलो, थोड़ा अपनी रिपोर्ट पर भी काम कर लें.”

हरियाले जंगल को अपने आगोश में कसती इस सुनहरी पीली संध्या में सच और मन दोनों ही के जंगल में पक्षियों का उल्लासित कलरव गूंजने लगा.

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