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नियति - 9

नियति

सीमा जैन

अध्याय - 9

प्रातः कार्यालय जाने के लिए रोहन तैयार हो रहा था। तीन दिन पहले शिखा को डॉक्टर को दिखाया था। उन्होंने कहा था एक हफ्ते का समय अभी लग सकता है, लेकिन निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते। अब उसे चिंता हो रही थी शिखा को अकेले छोड़कर जाने में । शालिनी शाम तक आ जाएगी तो उसे बेफिक्र हो जाएगी। तभी शांति आई चिल्लाती हुई, " भैया जी भाभी जी को दर्द शुरू हो गए हैं। " उसके बाद जिस गति से सब काम हुए रोहन को लगा वह होश में नहीं था।

अस्पताल आए हुए चार घंटे हो गए थे, शिखा डॉक्टर के देखरेख में थी। अब उसे लेबर रूम में ले जा रहे थे। जीवन में पहली बार रोहन अपने आप को बहुत असहाय महसूस कर रहा था। तभी शालिनी आती दिखाई दी, उसकी जान में जान आई दो लोग एक बात की चिंता करें तो शायद चिंता बट जाती हो।

थोड़ी देर बाद नर्स एक कपड़े की पोटली में एक बच्चे को लपेट कर ला रही थी। उसमें से झांकते एक छोटे से चेहरे को देख, शालिनी को बीस साल पुरानी यादें ताजा हो गई। तब डॉक्टर ने नन्ही सी शिखा बिल्कुल इस बच्चे की तरह उसके हाथ में थमा दी थी। नर्स कह रही थी, " मुबारक हो लक्ष्मी आई है । "

शालिनी की आंखों में खुशी के आंसू निकल पड़े। रोहन उत्सुकता से बच्ची की ओर देख रहा था । शालिनी ने नर्स से बच्ची लेकर रोहन के हाथ में दे दी। उसको बहुत अच्छा अनुभव हो रहा था, अपने आप ही इतना प्रेम उसके हृदय में इस बच्ची के लिए उमड़ रहा था। उसे लगा उसकी खुशी के लिए वह कुछ भी कर सकता है। उसने नर्स से पूछा, " शिखा कैसी है?"

नर्स बोली, "मां बिल्कुल ठीक है, थोड़ी देर में कमरे में ले आएंगे। आप वहां उनसे मिल लेना । "

अचानक बच्ची का मुंह लाल हो गया और वह मुठ्ठी भींचकर जोर से रोने लगी। नर्स ने हंसते हुए कहा, , "भूख लगी है । "फिर गोद में लेते हुए उससे तोतली भाषा में बात करती हुई वह उसे ले गई।

अस्पताल की कुछ औपचारिकताएं पूरी करके रोहन कमरे में आया तो शिखा सो रही थी। वह वहीं शालिनी के निकट बैठ गया। शालिनी ने बच्ची उसकी गोद में दे दी। बच्ची को गोदी आरामदेह नहीं लगी वह कुनमुनाने लगी। शालिनी ने रोहन को समझाया नवजात शिशु को पकड़ने के लिए उसके गर्दन के नीचे हाथ से सहारा देना पड़ता है । ठीक से पकड़ने पर बच्ची आराम से सो गई। उसे बच्ची को गोद में लेना बहुत सुखद लग रहा था। उसके कार्यालय से लगातार फोन आ रहे थे। शालिनी बोली, "बेटा आप दफ्तर जाओ, आवश्यक काम होगा। मैं यहां सब संभाल लूंगी। रात को मेरा खाना बनवा लाना। शिखा को तो अस्पताल से ही खाना मिलेगा । "

रोहन चला गया, शिखा की नींद खुली तो उसकी आंखें इधर उधर कुछ खोज रही थी। शालिनी हंसते हुए बोली, "वह ऑफिस गया। सुबह से बहुत परेशान था, लगता है बहुत चिंता करने लगा है। "

शालिनी ने बच्ची शिखा की गोद में दे दी । शिखा बच्ची को देखकर प्रफुल्लित हो गई, बड़ी खुश होकर बोली, "मां कितनी प्यारी है, एकदम गुड़िया जैसी। "

शालिनी बोली, " पागल हो गई है क्या, अपनी ही बच्ची को नजर लगा रही है। एकदम तेरी शक्ल है, तू भी बचपन में ऐसी ही दिखती थी।

शिखा कुछ झेंपते हुए बोली, " अच्छा मेरी जैसी दिखती है, रोहन जैसी....। " शालिनी हंसते हुए बोली, " रोहन की भी झलक है। "

शालिनी को शिखा के घर रहते हुए डेढ़ महीना हो गया था। उसे रोहन साफ दिल का हंसमुख इंसान लगा। बच्ची और शिखा के प्रति अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा था। बच्ची के प्रति उसका सुरक्षात्मक व्यवहार देख कर शालिनी को बड़ी प्रसन्नता और निश्चिंतता होती ।

बच्ची के साथ रोहन घंटों खेलकर भी नहीं थकता था। बच्ची को देखने के बहाने उसके दोस्त भी आने लगे थे, जो शादीशुदा थे वे पत्नी के साथ आते, जो कुंवारे थे दो तीन मिलकर आते । शाम को घर में रौनक रहती, शिखा भी रोहन के दोस्तों से घुल मिल गई थी। वह बहुत प्रसन्न नजर आती थी। शालिनी को दो-तीन दिन में वापस जाना पड़ेगा । इससे लंबी छुट्टी लेना मुमकिन नहीं था। एक दिन शालिनी ने वह बात उठाई जो बहुत दिनों से शिखा से कहना चाह रही थी। वह बोली, " रोहन एक नेक इंसान है ‌। एक घटना के आधार पर हम किसी इंसान के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं। इतने दिनों में उसने तेरे साथ कोई गलत हरकत नहीं की। तेरा लाभ उठाने की कोई कोशिश नहीं की। मुझे लगता है पुरानी बातों को भुलाकर तुम्हें जीवन में नई शुरुआत करनी चाहिए। अपनी बच्ची को एक अच्छा वातावरण देने के लिए तुम दोनों को प्रेम सहित साथ साथ रहना चाहिए। "

शिखा स्वयं यह बात महसूस करने लगी थी। उसे रोहन की अच्छाइयां नजर आने लगी थी। उसके जीवन में उसके हृदय में अब रोहन ने एक, विशेष स्थान बना लिया था, जिसे वह नकार नहीं सकती थी‌। लेकिन रोहन उसके बारे में क्या सोचता है बिना यह जाने वो कैसे कोई निर्णय ले सकती है।

शालिनी कह रही थी, "इस घटना को तुम नियति द्वारा तुम दोनों को मिलाने का एक प्रयास समझो, वरना यह रिश्ता कभी संभव नहीं था । इस घटना के परिणाम स्वरुप तुम्हें जो यह खूबसूरत बच्ची मिली है, यह भी तुम्हारी नियति में लिखी थी । "

शिखा चहकते हुए बोली, " मां मुझे मेरी बेटी का नाम मिल गया है । नियति ने हमें नियति प्रदान की है। आज से इसका नाम नियति ही हुआ। "

शालिनी की बात खत्म नहीं हुई थी, वह बोली, "इस तरह के रिश्ते अक्सर मजबूरी में किए हुए बंधन बन जाते हैं ‌। जो नफरत और घुटन को जन्म देते हैं। यहां रोहन के दिल में तेरी और बच्ची को लेकर कोई नफरत नजर नहीं आती है । ऐसे में तू एक कदम आगे बढ़ाएगी तो यह रिश्ता एक खूबसूरत मंजिल प्राप्त कर लेगा। "

शिखा बोली, "मां यह इतना आसान नहीं है। रोहन क्या महसूस करता है कहना मुश्किल है ।

शालिनी बोली, "जितना वह तुम दोनों की चिंता करता है उससे तो यही अनुमान लगता है कि तुम दोनों को बहुत प्यार करता है।

शिखा अपने मन की दुविधा मां के सामने कैसे खोल कर रख दें। हो सकता है रोहन केवल अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हो या इस उम्मीद से यह सब कर रहा हो कि बच्चा होने के बाद वह वहां से चली जाएगी । शादी के वक्त तय हुआ था कि दोनों में से किसी को भी यह रिश्ता स्वीकार नहीं होगा तो दोनों अलग हो जाएंगे। जब भी इस प्रकार के विचार उसके मन में आते उसका दिमाग फटने को हो जाता। वह इस अनिश्चितता भरी जिंदगी से ऊब गई थी । वह अपने और रोहन के रिश्ते में स्पष्टता चाहती थी एक निकटता चाहती थी। शालिनी समझ रही थी शिखा अभी भी पूर्णतया आशान्वित नहीं है।

शालिनी बोली, " तू हमेशा सोचती थी मैं इतना क्यों डरती थी तेरी सुरक्षा को लेकर । मेरे जीवन में जो हुआ मैं नहीं चाहती थी तेरे साथ भी ऐसा कुछ हो। उन दिनों में कॉलेज में पढ़ रही थी, मेरे संपूर्ण ध्यान पढ़ाई लिखाई में था । एक धुन थी अपने पैरों पर खड़ा होने की। पिताजी सरकारी दफ्तर में बहुत मामूली से कर्मचारी थे, मां अक्सर बीमार रहती थी । पैसों की तंगी रहती थी, महीना का आखिरी हफ्ता काटना बहुत कठिन हो जाता था । इसलिए बस एक ही मकसद था पढ़ लिख कर मां पिताजी का सहारा बनने का‌ | उस लड़के की हमारे ही मोहल्ले में स्टेशनरी की दुकान थी, जब भी कॉपी पेंसिल की आवश्यकता होती दौड़ के जाती और ले आती, उधार भी चलता रहता था‌ | मैं हमेशा इतनी जल्दी में होती थी कि कभी ध्यान ही नहीं दिया, उस दुकान पर बैठे लड़के की आंखों में मेरे लिए हवस पल रही थी । एक दिन दोपहर को पेन खत्म हो गया, वहां दुकान गई तो उसका नौकर खाना खाने गया हुआ था। वह अकेला था, मैंने जल्दी से पेन देने को कहा तो उसने हाथ पकड़ लिया । बस एक भूखे शेर की तरह झपट पड़ा । पहले तो मैं समझी नहीं उसे क्या हो गया है, जब समझी तो बहुत चिल्लाई लेकिन वह तो समाज और मर्यादा भूल चुका था। मेरी सहायता की गुहार कुछ कानों में पड़ गई, मोहल्ले के कुछ लोग इकट्ठा हो गए और वह अपने मकसद में तो कामयाब ना हो सका लेकिन बदनाम अवश्य हो गया, पिटाई हुई सो अलग।

उसकी शादी एक पैसे वाले घर में पक्की हो चुकी थी । लड़की वालों ने उससे रिश्ता तोड़ दिया। उस लड़के के घर वाले बहुत क्रोधित थे, अपने बेटे की करतूत पर। लेकिन उसे ढकने के लिए उन्होंने यह अफवाह फैला दी की उनके लड़के को फसाने के लिए मैंने यह झूठा नाटक किया था | ‌हम दोनों ही चर्चा का विषय बन गए थे ‌इतने बदनाम हो गए कि बाहर निकलना दूभर हो गया था। मां और अधिक बीमार रहने लगी। वह समय इतना कष्टमय था कि आज भी सोचती हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं । अब हम दोनों की शादी कहीं और होना नामुमकिन थी। मेरे पिताजी का भी दुख के मारे बुरा हाल था ‌। वह लड़का तो दोषी था लेकिन मैं और मेरा परिवार निर्दोष होते हुए भी बहुत परेशानी झेल रहे थे।

समाज के बुजुर्गों ने जबरदस्ती उस लड़के की शादी मेरे साथ करवा दी। वह लड़का बहुत क्रोधित हुआ, उसकी पहले जिस परिवार में शादी हो रही थी वहां से मोटी रकम लेकर वह बड़ी दुकान लेने की योजना बना रहा था। लेकिन सब चौपट हो गया । उसके घर वालों ने सोचा बड़े की बदनामी की आंच दोनों छोटे भाइयों के रिश्ते पर ना पड़े, इसलिए हम दोनों को घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया। हम दोनों भोपाल आकर रहने लगे। मैं ट्यूशन पढ़ाती और अपनी पढ़ाई भी पूर्ण करने की कोशिश करती । तेरे पिता कुछ काम नहीं करते बस मुझे कोसते और लड़ते रहते । जीवन दूभर हो गया था। अपनी नाकामयाबी का सारा दोष मुझ पर लगा दिया। किसी तरह मेरी पढ़ाई पूरी हुई, तभी तू भी पैदा हो गई और मुझे कॉलेज में नौकरी भी मिल गई । तेरे पिता का व्यवहार दिन पर दिन बदतर होता जा रहा था । सारा दिन नशे में धुत रहते और एक दिन ट्रक के नीचे आ गए। मां का देहांत हो चुका था, पिता सेवानिवृत्त हो गए थे। मेरे पास आकर रहने लगे, कुछ सालों बाद उनका देहांत हो गया । तब से तू और मैं एक दूसरे का सहारा बन कर जीवन काट रहे हैं। "

शिखा मां की बातें सुनकर रो पड़ी। उसने कभी नहीं सोचा था मां को इतना कुछ सहना पड़ा होगा। मां का जीवन बहुत संघर्षरत रहा यह तो वह जानती थी लेकिन अपनों ने इतना कष्ट दिया होगा ऐसी कल्पना नहीं की थी उसने। शालिनी का सौम्य और गंभीर स्वभाव था, वह हर परिस्थिति में बहुत शांत रहने की कोशिश करती थी।

शालिनी आगे बोल रही थी, " जब यह घटना तेरे साथ घटी, तब मेरा विचार बिल्कुल नहीं था तेरी शादी रोहन से करने का । दीपा और रोहन आए थे, मेरा मन बिल्कुल नहीं हुआ उन दोनों से बात करने का। अपने आप पर और अपने भाग्य पर बहुत क्रोध आ रहा था । नियति के आगे स्वयं को बहुत असहाय महसूस कर रही थी। शिखा आश्चर्य से बोली, "रोहन और दीपा आए थे। "

शालिनी सोचते हुए बोली, " हां तुम्हारे आने के कुछ घंटे बाद ही आ गए थे दोनों । लेकिन मैंने गुस्से से दोनों के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया था। उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करने का मौका नहीं दिया। "

शिखा को लगा वह रोहन को गलत समझ रही थी । अपनी गलती का एहसास होते ही तुरंत आ गया था वह ।

शालिनी बोलती जा रही थी, " मुझे सबसे बड़ी प्रसन्नता इस बात की है कि सुषमा जी के दिमाग में ऐसा कुछ नहीं आया कि तुमने यह सब रोहन को फसाने के लिए किया है। तुम्हारे गर्भ धारण करने के बाद मजबूरन मुझे इस शादी के लिए स्वीकृति देनी पड़ी। लेकिन अब मैं बहुत संतुष्ट हूं कि तुम्हें यहां उचित सम्मान और स्नेह मिल रहा है। रोहन के मन में तुम्हारे लिए कोई नफरत नहीं है जैसे तेरे पिताजी के मन में मेरे लिए थी। "

शिखा को लगा मां की बात सही थी की सुषमा आंटी ने कभी भी उसे बोझ नहीं समझा, बहुत स्नेह से उसे बहू स्वीकार किया। रोहन के व्यवहार में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता था। एक बात तो सही थी कि वह उसे ना पसंद नहीं करता था लेकिन जब तक वह स्पष्ट नहीं बोलता, क्या कह सकते हैं, वह उसके लिए क्या सोचता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उससे प्रेम करता है कि नहीं । प्रेम के बिना शादी का अस्तित्व कैसे संभव है। उसके दिमाग में इस तरह के प्रश्न उठते रहते थे और वह बहुत ध्यान से रोहन के क्रियाकलापों पर नजर रखती थी।

चालिस दिन हो गए थे नियति को इस संसार में आए हुए‌। शालिनी रोहन के साथ दोनों को मंदिर दर्शन ले गई थी। अब शिखा स्वस्थ लगने लगी थी और बच्ची को भी अच्छे से संभाल लेती थी। इंटरनेट पर सुषमा से बात होती रहती थी और वह आवश्यक निर्देश देती रहती थी । वहां भी दो महीने पहले एक बेटी का जन्म हुआ था। सुषमा उसकी फोटो दिखाकर और नियति को देख कर बहुत प्रसन्न होती थी। कहती सारी उम्र बेटी के लिए तरसते रही और भगवान ने एक साथ दो दो पोतियां दे दी।

शालिनी के जाने का समय आ गया था, इससे लंबी छुट्टियां लेना संभव नहीं था उसके लिए। रोहन को दो दिन का काम था भोपाल में, तो उसने निश्चय किया कि वह शालिनी को अपने साथ कार में ले जाएगा और अपना काम निपटा कर अगले दिन आ जाएगा। दीपा की शादी पक्की हो गई थी और इंदौर आई थी अपनी बहन के घर खरीददारी करने । रोहन और शालिनी के जाते ही वह शिखा के पास आ गई एक रात रुकने के लिए। इतनी उत्साहित थी अपनी शादी को लेकर कि उसकी बातें ही नहीं खत्म हो रही थी। सर्वप्रथम तो एक-एक सामान जो अब तक उसने खरीदा था, का विस्तृत वर्णन किया । फिर उसने शरमाते हुए अपने मंगेतर अंकित के बारे में बोलना शुरू किया और बिना रुके रेलगाड़ी की तरह वह बोलती रही। उसकी बातों में शिखा को बहुत आनंद आ रहा था। उसने यह सब अनुभव नहीं किया था इसलिए उसका कौतूहल बढ़ता जा रहा था। दीपा ने बताया अंकित बहुत रोमांटिक है, खरीददारी के दौरान वे कई बार मिले और मौका देखकर वह उसका हाथ पकड़ लेता। घंटों फोन पर बातें करता, कभी उसके लिए इतनी दूर से फूल भेजता तो कभी कार्ड या चॉकलेट। सबके साथ होने पर कभी आंख मारता तो कभी इशारे से बात करता । एक दिन वो दोनों फिल्म देखने गए तो फिल्म कम एक दूसरे से बातें अधिक करते रहे । पीछे की कुर्सी ली थी हाथ पकड़ के न जाने क्या क्या भविष्य की योजनाएं बनाते रहे।

यह सब बातें सुनकर शिखा अचंभित हो रही थी, रोहन के साथ स्वयं की कल्पना कर रही थी। कहने को आठ महीने हो गए थे शादी को, लेकिन ऐसी नज़दीकियां उन्होंने अनुभव नहीं की थी। दीपा की बातें सुनकर एक गुदगुदाने वाला एहसास हो रहा था। वह स्वयं रोहन के साथ ऐसी ही नजदीकियां चाहती थी । फिल्मों में इस तरह के दृश्य अक्सर देखे थे। लेकिन दीपा के सामने बैठ कर उसका हंसते शरमाते अपनी प्रेम कहानी का वर्णन करना, शिखा को रोमांचित कर रहा था। दीपा की बातें अभी खत्म नहीं हुई थी, वह बहुत धीमे स्वर में ऐसे बोली जैसे कितने बड़े रहस्य से पर्दा उठा रही हो । "कल अंकित मुझे होटल खाने के लिए गया था । दीदी तो मान ही नहीं रही थी, लेकिन जीजाजी ने समझा बुझाकर दीदी को मुझे अंकित के साथ अकेले जाने दिया । पता है, गाड़ी को बीच सड़क पर रोक कर अंकित ने आंखों में कुछ चले जाने का नाटक किया । जब मैं उसकी आंखों में देख रही थी कुछ गिरा तो नहीं है उसने एकदम से पकड़ कर मुझे किस कर लिया। "

शिखा ने आश्चर्य से पूछा, "अच्छा तुझे गुस्सा आया?"

दीपा हंसते हुए बोली, "नहीं पहले तो मैं चौंक गई लेकिन जब समझ आया कि वह क्या कर रहा है तो बड़ा अच्छा लगा। सम्पूर्ण देह में लगा जैसे लहर सी दौड़ गई हो। "

शिखा का मन और सुनने का कर रहा था लेकिन नियति ने रोना शुरू कर दिया। दीपा का फोन भी बजने लगा था। उसके भाव देखकर लग रहा था अंकित ही है फोन पर। दोनों प्रेमियों को गुफ्तगू करने के लिए अकेला छोड़कर वह नियति की आवश्यकता पूरी करने चली गई।

अगले दिन शिखा अपने काम निपटा कर नीचे हॉल में बैठी थी। दीपा देर रात तक फोन पर बात करती रही थी। प्रातः देर तक सोती रही और अब उठ कर नहाने गई थी। शिखा का मन तो बहुत कर रहा था रोहन को फोन करके बात करने का लेकिन झिझक हो रही थी। पहले भी तो कुछ काम होता था तो ऑफिस में फोन पर बात कर लेती थी लेकिन अब ना जाने क्या हो गया था क्या बदल गया था। उसने निर्णय लिया कि अब जब रोहन वापस आएगा तो अपने मन की बात उससे अवश्य करेगी। अपने प्रेम का इजहार अवश्य करेगी अब इस दुविधा जनक स्थिति में रहना उसके लिए संभव नहीं था। हो सकता है रोहन उसके द्वारा पहल करने का इंतजार कर रहा हो । उसके मन में भी जो बात होगी वह स्पष्ट कह देगा‌। मन मन मुस्कुराते हुए वह सोच रही थी रोहन की पत्नी के रूप में एक ही कमरे में साथ साथ रहते हुए कितना सुखद अनुभव होगा।

तभी दरवाजे की घंटी बजी, शिखा ने दरवाजा खोला तो सामने एक आधुनिक पोशाक में स्मार्ट सी लड़की खड़ी थी । वह बहुत क्रोधित लग रही थी। शिखा को घूरते हुए तेज आवाज में बोली, "तो तुम शिखा हो, जिसने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। झूठी कहानी सुना कर तुमने, मेरी और रोहन की बचपन की दोस्ती समाप्त कर दी। आंसू बहा कर मेरी और रोहन की शादी रुकवा दी। यहां आकर रहने लगी हो, तुम क्या सोचती हो रोहन तुम्हें पसंद करता है । वह मुझे पसंद करता है मुझसे शादी करने वाला था । लेकिन तुम पर तरस खाकर उसने मजबूरी में तुमसे रिश्ता जोड़ा है । इस मजबूरी के रिश्ते को कब तक निभाया जा सकता है। "

पारूल और भी न जाने क्या क्या बोलती रही लेकिन शिखा के कानों ने काम करना बंद कर दिया था । उसका दिमाग सुन्न हो गया था । वहीं धम्म से सोफे पर बैठ गई । नीचे चीखने की आवाज सुनकर दीपा दौड़ी दौड़ी आई। नीचे का नजारा देख कर घबरा गई, उसने जल्दी से पारुल को हाथ पकड़कर घर से बाहर निकाला । शिखा को झकझोरा तो जैसे वह होश में आई हो।

शिखा परेशान सी बोली, " यह कौन थी? इसकी और रोहन की शादी होने वाली थी क्या?"

दीपा बोली, "हां, लेकिन मेरी बात तो सुनो बाकी सब बातें वह झूठ बोल रही थी। "

शिखा भागकर अपने कमरे में चली गई । अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। दीपा बहुत देर तक दरवाजा खटखटाती रही लेकिन शिखा ने कोई उत्तर नहीं दिया । उधर उसके जाने का समय हो गया था, उसके जीजा जी बाहर खड़े थे गाड़ी लेकर । दीपा को उसी दिन भोपाल जाना था। शिखा ने दरवाजा खोला, उसे आश्वासन दिया कि वह ठीक है । दीपा को शिखा की बहुत चिंता हो रही थी। उसने शिखा से वादा लिया कि वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाएगी और दीपा चली गई।

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