Billo ki Bhishm Pratigya - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 4

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 4

इन दस-पंद्रह बरसों में बहुत कुछ बदल चुका था। गांव की दुकानों पर भी चिप्स, मैगी, कुरकुरे, कोल्ड ड्रिंक, मोबाइल रीचार्ज सब दिख रहा था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फॉस्ट फूड के पैकेट हर दुकान पर दिख रहे थे। और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नाक में अकेले ही दम किए पतंजलि के प्रॉडक्ट भी दिख रहे थे। बाबा की फोटो भी। कुछ दूर आगे चलने पर एक अपेक्षाकृत कुछ बड़ी दुकान दिखाई दी। जिसके बाहर पीपों, बोरों में सामान भरा था। चावल, गेहूं, दाल, चना जैसी चीजों के अलावा पैकेट दिवारों पर टंगे थे।

दुकान के दरवाजों के ऊपर दिवार पर बड़े अक्षरों से लिखा था ‘बिल्लो बुआ की कोहड़ौरी।’ यह नाम देखते ही मैंने गाड़ी रुकवा ली। मैंने शिखर से पूछा ‘ये बिल्लो कौन है?’ यह सुनते ही शिखर बोला ‘भइया ये बिल्लो बुआ की दुकान है। आज की डेट में बिल्लो बुआ यहां की सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन हैं। कोई ऐसा सामान नहीं है जो इनकी दुकान पर ना मिलता हो। थोक-फुटकर दोनों मिलते हैं। आगे इनकी खाद और बीज की भी दुकान है। पतंजलि की एजेंसी है। वह आगे है।’

मैंने उनके फादर बैजू के बारे में पूछा तो शिखर ने कहा ‘बब्बा तो कई साल पहले मर गए। बुआ अपने एक भतीजा के साथ सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन ही नहीं ऐसी दबंग पर्सनॉलिटी बन चुकी हैं जिनकी पहुंच हर जगह है। गांव में कोई ऐसा काम नहीं जो इनके बिना अब पूरा हो। संडे को परधानी का चुनाव होना है। बुआ ने अब की ऐसी चाल चली है कि मुज्जी मियां की उनके परिवार की पचीस-तीस बरस की बादशाहत खतरे में पड़ गई है। इस बार उनकी हार पक्की है। पूरा परिवार बिलबिलाया घूम रहा है। खानदान दो फाड़ में बंट गया है।’ बिल्लो के लिए यह सब सुनकर मैं दंग रह गया।

बीसों बरस पहले की उनके साथ जुड़ीं तमाम यादों की पिक्चरें चलने लगीं। मेरे क़दम एक़दम ठहर गए कि अब बिल्लो से मिले बिना किसी सूरत में आगे नहीं बढ़ेंगे। मैंने शिखर से कहा कि मैं बिल्लो से मिलना चाहता हूं। बिल्लो वास्तव में वहां की जगत बुआ हैं। छोटा हो या बड़ा उन्हें सब बिल्लो बुआ ही कहते हैं। इन्हीं जगत बुआ से मिलने को कहा तो शिखर के चेहरे पर मैंने एक दम साफ देखा कि वह नहीं चाहता था कि मैं मिलूं। वह ऐसे अनमना सा हुआ कि जैसे सोच रहा हो कि ये कहां आ फंसा। लेकिन उनसे मिलने की मेरी इच्छा इतनी प्रबल थी कि सब समझ कर भी मैं नासमझ बना रहा। क्योंकि मैं समझ गया था कि मैंने जरा भी हिचक दिखाई तो यह तुरंत मना कर देगा। गांव का मामला है ,यहां भी कुछ विवाद होगा इनका ।

कोई रास्ता ना देख कर शिखर बोला ‘ठीक है भइया आइए देखते हैं शायद बुआ हैं।’ दुकान के काउंटर के पीछे तखत पर एक काला सा बड़े लंबे चौड़े डील का चौबीस-पचीस साल का युवक बैठा था। उसे देखकर शिखर ने कहा ‘ये उनका भतीजा सूरज है।’ दुकान के बाहर एक बोलेरो जीप, आठ दस मोटर साइकिलें खड़ी थीं। उन्हें देख कर शिखर ने कहा ‘लगता है बुआ का दरबार लगा है। आइए।’ मुझे साथ लेकर वह सूरज के पास पहुंचा। जो मेरी जीप रुकने के बाद से ही बराबर मुझ पर नजर रखे हुए था। बंसवारी वाले बुजुर्ग की तरह।

शिखर ने सूरज को नमस्कार का कहा ‘सूरज ई हमार भइया हएन। सूरत से आएन है। बड़के पापा के लड़िका हैएन।’ इतना सुनते ही सूरज हाथ जोड़कर तखत से नीचे उतरते हुए बोला। ‘नमस्ते-नमस्ते भइया, नमस्ते। आवा अंदर आवा। बड़ी देर के तोहके देखत हई। मगर चिन्हि नाहि पाए। बहुत दिन बाद आए।’ कोने में काउंटर का एक हिस्सा था उसके पीछे दुकान बहुत बड़ी थी। हर तरफ माल भरा था। दो तखत अंदर और पड़े थे।

सूरज ने मुझे बैठाकर हाल-चाल पूछना शुरू किया। फिर वही उलाहना ‘भइया आप सब जने ते गउंवा एकदमें छोड़ दिहै। बतावा हमें लगत बा कि पंद्रह-बीस बरिस बाद आए हअ’। मैंने सहमत होते हुए कहा ‘हां ऐसा ही कुछ टाइम हो रहा होगा।’ वह फिर बोला ‘नाहीं भइया, आवे जाए के चाही, आपन घर दुआर संपत्ति सब देखे के चाही।’ तभी शिखर ने बताया कि बुआ का नाम देखकर मैं उनसे मिलने के लिऐ रुका हूं तो वह बड़ा खुश हुआ। ‘अरे काहे नाहीं। अबहिं बुलावत हई।’ फिर उसने वहीं से आवाज़ दी ‘बुआ,हेअअ.. बुआ तनि हिंअ आवा, देखा के आवा बा।’ अंदर बुआ की तेज़ आवाज़ गूंजी ‘के आवा बा। बतावा ना।’ सूरज फिर बोला। ‘आवा हिंआ आवा ना, खुदै आए के देखा ना।’ अबकी बुआ ’बोलीं आवत हई रे।’ बुआ अंदर आईं तो मैंने उनको नमस्कार किया।

बिल्लो ने भी ना सिर्फ़ नमस्कार किया बल्कि मुझे कुछ हिचकिचाहट के साथ पहचानते हुए कहा ‘अरे तू हअ। कब आए?’ उनकी बात सुनते ही सूरज ने पूछा ‘बुआ पहिचानत हऊ भइया के।’ बुआ ने बिना हिचक कहा। ‘काहे नाहीं, अरे छोटपन में खेले हई एनके साथे।’ सूरज ने इस पर फिर मेरे फादर का नाम लेते हुए कहा ‘उन्हीं के बड़का लड़िका हैएन।’ बुआ ने उसकी तरफ ध्यान ना देते हुए मुझे कंधों के पास पकड़ कर ‘कहां रहे एतना दिन।’ एक बार फिर वही उलाहना कि ‘भइया तू सभे ते घरे दुआर छोड़ि दिहे।’ मैंने देखा जब-जब गांव में किसी ने यह उलाहना दिया तो शिखर को अच्छा नहीं लगता था। चेहरे पर उसके अजीब सी रेखाएं ऊभर आती थीं।

बिल्लो बुआ एक तखत पर मुझे लेकर बैठ गईं । एक पर सूरज शिखर बैठ गए। बुआ ने घर भर का हाल-चाल सब पूछ डाला। अपनी बहू से चाय-नाश्ता सब मंगवाया। उससे मेरे पैर छुआए। मैंने भी उसे आशीर्वाद स्वरूप सौ रुपया दिया। सूरज ने अपने बच्चों को भी बुलाकर मिलवाया। उसके तीन बच्चे थे। सबसे छोटी लड़की थी करीब-करीब तीन साल की। मैंने देखा बिल्लो शिखर को जरा सा भी तवज्जो नहीं दे रही थीं। शिखर भी बस मेरे साथ बंधा-बंधा सा रहा वहां। मैं बीस मिनट वहां रहा। बिल्लो इतने में अपना बीसों बरस का इतिहास बता देना चाहती थीं। खाना खाकर ही जाने देना चाहती थीं। मैंने बहुत मना किया तो इस शर्त पर मानीं कि मैं अगले दिन सुबह उन्हीं के साथ खाना खाऊंगा। वापस आने लगा तो बिल्लो बाहर तक छोड़ने आईं। सूरज भी। उसके बच्चे भी।

इसके बाद शिखर के साथ मैं इधर-उधर एक दो जगह और होकर घर आ गया। आठ बज रहे थे अब तक गांव में लाइट भी आ गई थी। शिखर ने बताया लाइट दस बजे तक रहेगी। फिर कट जाएगी। और रात बारह बजे से फिर सुबह चार बजे तक रहेगी। मैंने कहा भइया मेरे सोने का इंतजाम छत पर ही करना। मैं देर रात खाना खाने का आदी हूं। लेकिन यहां लाइट के चक्कर में लोग पहले ही खा लेते हैं।

छत पर ही मेरे लिए बिस्तर लगा था। ड्राइवर बोला वह जीप ऐसे ही नहीं छोड़ सकता। गेट के सामने जीप रहेगी। वह बगल में ही लॉन में सोया रहेगा। मेरे कहने पर वह वहीं की लोकल मच्छर अगरबत्तियां लेता आया था। चाचा भी नीचे ही सोए। शिखर अपने परिवार के साथ छत पर दूसरे कोने में चारपाइयों पर बिस्तर लगाए था। बड़ी सी छत पर मैं दूसरे कोने में था। सोने से पहले बड़ी देर तक वह मुझसे बातें करता रहा।

मेरे कारण ज्यादातर बातें बिल्लो पर ही केंद्रित रहीं। हम काफी देर तक छत पर इधर-उधर टहलते हुए बातें कर रहे थे। मैंने देखा हर चौथे-पांचवें मकान की छत पर या बाहर दरवाजेे पर एक एल ई डी बल्ब जल रहा था। एल ई डी का राज्य गांव में भी फैल गया था। घर के दक्षिण साइड में जो एक बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था, अचानक उसकी याद आने पर मैंने उधर देखा, तो पाया कि वह चौथाई ही रह गया है। एक गड़है जैसा। उसके बगल के घर के बल्ब की छाया उसके पानी में ऐसे पड़ रही थी जैसे पूरे आसमान में कोई एक बड़ा सा तारा निकल आया हो।

शिखर ने बताया प्रधान और कुछ दबंगों ने मिलकर तालाब पाट दिया। जमीन बेच डाली। एक आदमी ने रोकने की कोशिश की थी। एक दिन उसे कुछ लोगों ने बुरी तरह पीट डाला। वह फिर भी नहीं माना। उसने आगे कार्यवाही चालू रखी। लेकिन एक दिन घर लौट रहा था तभी रास्ते में किसी ने गोली मार कर उसकी हत्या कर दी। पूरा गांव जानता है कि किसने मरवाया। लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं। उसकी बीवी एफ. आई. आर. दर्ज कराने के लिए कई साल भटकती रही। लेकिन पुलिस ने एफ. आई. आर. ही नहीं दर्ज की। उसकी बीवी पर भी आए दिन हमले होते रहे। भरी बाज़ार उसकी इज्जत तार-तार करने की कोशिश की गई। आखिर वो हार मान कर बैठ गई।

यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी आंखों के सामने बीस बरस पुराना दृश्य बार-बार आता रहा। करीब तीन बीघे का बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था। उसी से पूरे गांव के आस-पास के सारे खेत पंप लगा कर सींचे जाते थे। तालाब इतना गहरा, बड़ा था कि जब भारी बारिश होती थी तभी उसमें पानी ऊपर तक आता था। मैं बचे-खुचे तालाब में बल्ब की छाया को देखते सिगरेट पीता रहा। और शिखर बताता रहा कि कैसे इस तालाब और इससे निकाली गई जमीन को हथियाने के चक्कर में देखते-देखते पांच लोगों की हत्याएं हो गईं। मैंने पूछा ‘पुलिस में कोई नहीं जाता क्या? वह कुछ नहीं करती?’ शिखर कुछ बोलता कि तभी लाइट चली गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा हो गया। शिखर ने चिंकी को दिया जलाने को कह दिया। उसने दीया जला कर छत के बीचो-बीच रख दिया।

हम अब छत की बाऊंड्री से हटकर अपनी चारपाई पर बैठ गए। चिंकी का बच्चा रोने लगा। उसकी नींद खुल गई थी। जो टेबुल फ़ैन धीरे-धीरे चल रहा था, बिजली के जाते ही वह बंद हो गया था। बच्चा गर्मी से परेशान हो रहा था। चिंकी ने हाथ के पंखे से उसे हवा करनी शुरू की तब भी वह बीच-बीच में रोने लगता। आखिर उसने दीवार की ओर करवट लेट कर उसे दूध पिलाना शुरू कर दिया। एक हाथ से पंखा भी करती रही। तब वह सोया। शिखर ने मच्छर वाली कुछ और अगरबत्तियां सुलगा दीं। गर्मी और बंद हवा देख कर मैंने शिखर से कहा ‘यार लाइट बारह बजे तक तो आ जाएगी ना। उसने कहा ‘हां’ मैंने कहा तब तक तो मुझे नींद आने वाली नहीं। तुम चाहो तो सो जाओ। वह बोला ‘नहीं आने दीजिए लाइट, साथ ही सोऊंगा।’ मैंने फिर सिगरेट सुलगा ली।

शिखर ने मना करते हुए कहा ‘आज कई बार हो गई। अब नहीं लूंगा।’ शिखर फिर गांव के बारे में तमाम बातें बताने लगा। मैंने देखा वह तमाम गांव, दूसरों के घरों के बारे में तो खूब बातें कर रहा था लेकिन अपने घर में जो महा भारत बरसों हुई उसके बारे में एक शब्द नहीं बोल रहा था। मैं भी जानबूझ कर नहीं कर रहा था कि कहीं कोई अप्रिय प्रसंग ना उभर आए। उसने अपने तीनों भाइयों के बारे में इतना ही बताया कि वे तीनों ही मुंबई में सेटिल्ड हो गए हैं। यहां अपना-अपना हिस्सा सब बेच-बाच दिया है। इस मकान के लिए बाबू जी ने भी क़ाग़ज़ पर सब लिखवा लिया है।

अब यह मकान मेरे नाम है। और नौ बीघा खेत। यही बचा है। छः बीघा बंटाई पर है। तीन बीघा दो साल से पड़ती पड़े हैं। बहनें भी अपनी ससुराल में है। साल-दो साल में कभी-कभी आ जाती हैं। वो खुद यहां से बीस किलोमीटर दूर एक स्कूल में टीचर था। लेकिन दो महिना पहिले नौकरी छूट गई। प्रबंधन ने अपनी ही एक लड़की के लिए जगह बनाने के चक्कर में उसे निकाल दिया। मैंने पूछा फिर घर का खर्च कैसे चल रहा है। उसने कहा ‘अभी तो कोई परेशानी नहीं है। महीने दो महीने में कहीं ढूंढ़ ही लूंगा। बाकी खाने-पीने भर का तो खेत से मिल ही जाता है।’

उसकी दयनीय आवाज़ में मुझे उसकी वह परेशानी साफ दिख रही थी,जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि गांव में रह कर भी खेती बंटाई पर दिए हुए है। और तीन बीघा परती पड़ी है। मैं बड़ी देर से यह सोच रहा था कि यह जगत बिल्लो बुआ के बारे में शायद बात करेगा। कल जाना है उनके यहां। अकेले जाते तो अच्छा नहीं लगेगा। आखिर मैंने ही बात छेड़ी कि ‘बिल्लो का घर तो पहले यहीं हुआ करता था। ये बाज़ार में कैसे पहुंच गईं? और पहले तो इनके घर की बड़ी नाजुक हालत हुआ करती थी। इनके फादर बैजू बाबा आए दिन बाबा से मदद लिया करते थे। यही बिल्लो सवेरे-सवेरे घर में चूल्हा जलाने के लिए आग लेने आ जाया करती थीं।’ शिखर कुछ देर चुप रहने के बाद बोला ‘भइया ये बिल्लो बुआ ने ही घर का नक्शा बदला है। जब अलगौझी (बंटवारा) हुई तो बैजू बाबा और मुश्किल में आ गए थे।

स्थिति कुछ ऐसी बनी कि कर्ज वगैरह के चक्कर में यहां वाला पूरा मकान इनके हाथ से निकल गया। आज जो मकान बाज़ार में हो गया है। वह जगह पहले गांव का बाहरी एकांत हिस्सा हुआ करता था। वहीं एक किनारे तब अपने बाबा ने अपनी ही वह थोड़ी सी जमीन उन्हें दे दी थी। बैजू बाबा वहीं छप्पर डाल कर रहने चले गए। वहां परिवार के साथ बैजू बाबा की हालत बहुत खराब हो गई। अपने बाबा से उनकी दुर्दशा नहीं देखी गई। एक दिन बोले ‘‘ई बैजुवा बड़ा अभागा बा। कहता था शाहखर्ची उतनी ही करो जितनी हर समय चल जाए। कर्जा ले लेकर यह सब करना अच्छा नहीं है। मगर कहने पर हां-हां कर लेता है। लेकिन करता वही है जो चाहता है। इसकी मुर्खता के कारण पूरा परिवार कष्ट उठा रहा है।’’

दादी ने कहा ‘‘जैसा किया है वैसा भरेंगे। कोई किसी का भाग्य विधाता तो नहीं बन जाएगा।’’ असल में भइया दादी जानती थीं कि बाबा बैजू की और मदद करने के लिए परेशान हैं। दादी यह नहीं होने देना चाहती थीं। बाबा ने दादी से पूछे बिना जो जमीन उन्हें लिख दी थी, उससे बहुत नाराज थीं। क्यों कि उनका मानना था कि मदद एक बार की जाती है। दो बार की जाती है। बार-बार नहीं। फिर ये तो कभी कुछ वापस करने वाले नहीं। जो करो उसे अपना अधिकार समझ लेते हैं। अहसान नाम की कोई चीज नहीं। लेकिन बाबा नहीं माने। बोले ‘‘देखो पढ़ा-लिखा आदमी है। उसे पढ़ा-लिखा मुर्ख कहना ज़्यादा अच्छा है। मूर्ख ना होता तो उसकी यह हालत ही क्यों होती? कायस्थ है। सिर छिपाने की जगह तो होनी चाहिए ना।

ऐसे तो लड़कियों की शादी भी नहीं कर पाएगा।’’

दादी की अनिच्छा के बावजूद बाबा ने खपरैल, दिवार की पथाई का सारा इंतजाम करा कर रहने भर अच्छा-खासा बड़ा मकान बनवा दिया था। तब बैजू बाबा का परिवार अपने यहां से और गहरे जुड़ गया था। लेकिन बाद में फिर अपने ढर्रे पर चल निकला।’ इसके बाद शिखर को बातें बताने में दिक्कत हो रही थी। मैंने देखा वह बातों को बड़ा फिल्टर कर के बताने का प्रयास कर रहा है। इस चक्कर में वह कई बार ट्रैक बदल रहा था। क्योंकि आगे की बातें मैं स्वयं बहुत कुछ जानता था।

शिखर के ट्रैक बदलने का एक मात्र कारण यही था कि बैजू के यहां से खटास की वजह इन्हीं के फादर और चौथे चाचा ही थे।

यह दोनों लोग बाबा की दी जमीन वापस चाहते थे। क्यों कि मार्केट के कारण उसकी कीमत बढ़ गई थी। यह लोग बैजू के लिए दूसरा मकान भी बनवाने को तैयार थे। लेकिन बैजू तैयार नहीं हुए। इसीलिए दोनों चाचा अपने बाबा से भी नाराज रहते। शिखर इन्हीं कारणों से बोलना नहीं चाहता था। मच्छरों से आजिज आकर मैंने अपनी चारपाई के आस-पास कई और बत्तियां सुलगा दीं। पैर की तरफ सुलगाना चाहा तो शिखर बोला ‘भइया पैताने अगरबत्ती नहीं सुलगानी चाहिए।’ मैंने कहा ‘यार कह सही रहे हो। लेकिन इन मच्छरों से बचने को लिए और कोई रास्ता भी नहीं है।’

इस बीच मैंने शिखर की आवाज़ में आलस्य का अहसास कर उसे सोने के लिए कह दिया। अपनी चारपाई की मच्छरदानी हर तरफ से ठीक से लगाकर उसी के अंदर बैठ गया। मैं बहुत ऊबने लगा था। घर भी बात हो चुकी थी। सिगरेट कितनी फूंकता? कभी लेटता, कभी बैठता। बार-बार अपनी बुद्धि पर तरस खाता कि आखिर रुका ही क्यों? बार-बार सोचता कि बारह जल्दी बज जाएं, बिजली आ जाए तो गर्मी से राहत मिले। मेरे पास से जाने के बाद शिखर के खर्राटे की हल्की सी आवाज़ आने लगी थी। मैं समझ गया कि मेरे अलावा यहां सब सो गए हैं। बच्चा भी। उसकी भी आवाज़ नहीं आ रही थी।

मेरे दिमाग में खेत कैसे बिकेगा इससे ज़्यादा बिल्लो की बातें याद आ रही थीं। उनके जीवन के उन तमाम उतार-चढ़ाव भरे दिन जो काफी हद तक हम लोगों को मालूम थे। अपनी भूरी कंजी आंखों के कारण उन्हें बिल्लो, बिल्लोइया कह के सब चिढ़ाते थे। यह सुनते ही वह चिढ़ाने वाले को खूब ऊटपटांग कहती थीं। कोई हमउम्र कहता तो मारने को दौड़ा लेतीं। सिकड़ी, गुट्टक खेलने में माहिर थीं। सावन के दिनों में जब झूला पड़ता तो बिल्लो की पेंगें मानों पेंग बढ़ाकर नभ को छू लेने को मचलतीं। जब वह झूले पर चढ़तीं तब डरपोक किस्म की लड़कियां,औरतें झूले पर नहीं बैठती थीं।

बिल्लो गुड्डों-गुड़ियों के खेल में कभी कोई रुचि नहीं लेती थीं। खाना-पानी आदि के लिए उन्हें कहा जाता तो वह दूर भागतीं, लेकिन होली के वक्त पापड़-चिप्स, बनाना, आचार, चटनी और कोहड़ौरी बनाने में इतनी रुचि लेतीं कि पड़ोसी भी उन्हें बुलाते। इन सब कामों में वह ऐसे लगी रहतीं जैसे ये काम ना होकर उनके लिए कोई खेल हो।

तब कौन जानता था कि बिल्लो का यही खेल उनकी ज़िन्दगी में नया मोड़ लाने वाला साबित होगा। वह अपने इसी खेल से अपने खानदान की नई किस्मत लिखने वाली हैं। बस कुछ ही बरसों बाद। साथ ही जगत बुआ भी बन जाएंगी। बिल्लो मुश्किल से हाई-स्कूल पढ़ पाई थीं कि उनकी शादी कर दी गई। तब बिल्लो बार-बार कहती रहीं कि ‘ऐ अम्मा अबहीं हमार शादी ना कर। हम्में पढ़े दे।’ लेकिन अम्मा को अपनी बिटिया की आवाज़ कहां सुननी थी। उसकी आवाज़ की कीमत ही क्या थी? उन्हें तो बिटिया की चंचलता, हंसमुख स्वभाव में खोट दिखाई देता था। भय सताता रहता था कि बिटिया कहीं नाक ना कटा दे। इसके लक्षण ठीक नहीं हैं। जितनी जल्दी हो इसकी शादी करके खानदान की इज़्जत सुरक्षित रखना बहुत जरूरी है।

शादी जल्दी हो इसके लिए घर में कलह होती रहती थी। आखिर आनन-फानन में बिल्लो की शादी कर दी गई। खाने-पीने की कमी ना हो यह देखने के अलावा और कुछ ज़्यादा देखने का प्रयास ही नहीं किया गया। नाक के फेर में बिटिया के भविष्य को लेकर घनघोर लापरवाही बरती गई। इस लापरवाही की आंच में बिटिया का भविष्य स्वाहा हो गया। लड़का उम्र में तो दस-बारह साल बड़ा था ही पूरा निठल्ला, शोहदा भी था। गांव की एक चुड़िहारिन के साथ उसके संबंधों की चर्चा उससे आगे-आगे चलती थी। लेकिन जल्दबाजी, लापरवाही में बिल्लो के घर वालों को यह भी नहीं दिखा।

मगर बिल्लो इसे किस्मत का खेल मान कर चुप बैठने वाली महिला ना थी। उसने अपने निठल्ले पति से साफ कह दिया। कि नशाबाजी ही नहीं चुड़िहारिन से भी रिश्ता खत्म करना ही होगा। चुड़िहारिन का नाम सुनते ही वह आपे से बाहर हो गया। मारपीट पर उतर आया तो बिल्लो ने भी पूरा प्रतिकार किया। वह गिर गया। नशे में था। लेकिन बात फैल गई कि बहुरिया ने आदमी को पीट डाला। और अब घर में रहने को तैयार नहीं। मानो भागी जा रही है।

बिल्लो की जिद के आगे सब हार गए। बाबू, भाई ससुराल पहुंचे। ससुराल वालों ने सारा दोष बिल्लो पर ही मढ़कर उन्हें दोषी ठहराया था। बिल्लो अपनी जगह अडिग रही। साफ बोल दिया कि मेरी बात नहीं मानी जाएगी तो मैं नहीं रहूंगी यहां। ससुराल वाले मायके भेजना नहीं चाहते थे। बाबू, भाई लाना नहीं चाहते थे। बिल्लो ने कह दिया ‘यहां नहीं रहूंगी बाबू। तुम भी नहीं रखना चाहते तो ना रखो। मैं कहीं भी चली जाऊंगी, मगर यहां नहीं रहूंगी।’ सब समझाना, बुझाना, मनाना बेकार रहा। बाबू हार मान कर बिटिया को घर ले आए। कुल चार हफ्ते का वैवाहिक जीवन बिता कर बिल्लो हमेशा के लिए मायके आ गईं। बाद में बहुतेरे प्रयास हुए मगर बिल्लो टस से मस नहीं र्हुइं। अपनी शर्त पर अड़ी रहीं।

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