बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 7
मैंने मुस्कुराकर कहा ‘नहीं, मैं देखने की, समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरे बचपन की बिल्लो से ये बिल्लो और कितनी ज़्यादा तेज़़ तर्रार, समझदार, सफल और.....।’ बिल्लो ने मुझे ‘और’ शब्द पर ठहर जाने पर बड़ी शरारत भरी दृष्टि से देखा तो मैं आगे बोला ‘शायद मैं सही शब्द नहीं दे पा रहा हूं।’ तो उसने प्रश्न- भरी दृष्टि से देखते हुए कहा ‘और दबंग भी।’ तब मैंने भी आवाज़ में शरारत घोलते हुए और आगे जोड़ा ‘तीखी भी।’ मेरे इतना कहते ही वह ठठा कर हंस पड़ी। फिर बोली ‘अब काहे की तीखी, और है भी कौन यहां इसकी अहमियत समझने वाला। अच्छा ई बताओ, हममें कौन सा तीखापन देख लिए हो?’
अब तक हम दोनों खाना खत्म कर चुके थे। बिल्लो अंदर के कमरों के दरवाजे बंद कर अंदर आते हुए पूछ रही थी। तभी मैं गौर से उसे देखता हुआ उठा,निसंकोच उसकी हथेलियों को पकड़ कर ऊपर उठाया, फिर जेब से उसका खास गिफ़्ट निकाल कर उसकी हथेली पर रखा और मुठ्ठी बंद कर दी। फिर उसकी आँखों की गहराई में झांकते हुए कहा ‘मेरे बचपन की अल्हड़, चंचल ,तीखी बिल्लो के लिए वही बचपन वाला मीठा सा गिफ़्ट।’ बिल्लो एकदम शांत रही।
चेहरा ऊपर कर मेरी आंखों में देखती रही कुछ क्षण, फिर नीचे नजर कर हथेली को खोल कर मेरा गिफ़्ट देखा, उसके चेहरे पर फिर मुस्कान आ गई। बोली। ‘तुमने वाकई मुझे इस समय फिर बचपन की बिल्लो बना दिया। तुम्हारी इस चॉकलेट का मैं तब हर गर्मी, सर्दी की छुट्टी में इंतजार करती थी। और बाद में उस निठल्ले अपने पति के यहां से जब लौटी तो उसके बाद तो अपनी ही सुध नहीं रही। मगर जब तुम्हें देखा तो फिर इस गिफ्ट का इंतजार करने लगी थी। मगर तब तक स्थिति इतनी बदल चुकी थी कि तुम मेरे पास आ नहीं पाते थे। या ई कही कि हम दोनों नहीं आ पाते थे। मैं तुम्हें देखती थी कि तुम मिलने की कोशिश में घर के आस-पास आते थे। हमारी भी इच्छा होती थी, लेकिन क़दम बढ़ नाहीं पाते थे।’
बिल्लो की आंखें भर आई थीं। मैंने उसके हाथों से चॉकलेट लेकर अपने हाथों से उसे खिलाई। फिर उसे उसके तखत पर बैठा दिया। तभी एक टुकड़ा उसने मेरे मुंह में भी डाल दिया। हम दोनों तब तक बिल्कुल अपने बचपन को ही जी रहे थे। इसमें चॉकलेट ने भी बड़ा रोल प्ले किया। हुआ यह कि हड़बड़ी में दिमाग में यह बात आई ही नहीं कि जौनपुर से बिल्लो के पास पहुंचने तक इतनी तेज़ गर्मी में चॉकलेट बहुत ज़्यादा सॉफ्ट ,गीली सी हो जाएगी। जब खोली तब समझ में आया। अपनी मूर्खता पर हंसी आई।
गीली चॉकलेट हम दोनों के होंठो और हाथों में लग रही थी। तभी चॉकलेट का एक विज्ञापन आंखों के सामने कौंध गया। जिसमें सीढ़ियों पर बैठे किशोर-किशोरी एक नई तरह की गीली सी आई चॉकलेट एक दूसरे को खिला रहे हैं। और वह उनके मुंह-हाथों में फैली हुई है। लेकिन मैं भीतर ही भीतर यह सोच कर परेशान हो रहा था कि यह मेरी बचपन को फिर से जीने की कोशिश कहीं बचकानी हरकत वाला तुफान ना खड़ा कर दे। बिल्लो कहीं नाराज ना हो जाए। कोई आफत ना खड़ी हो जाए।
बचपन में इससे इस तरह व्यवहार करना, पकड़ना, छूना और बात थी। अब यह शादी-शुदा है। मेरा भी परिवार है। ना जाने कितने बरसों बाद मिला हूं। और यह सब, कहीं कोई तमाशा हो गया तो ... मान लो मैं बच बचा के घर चला गया। लेकिन यह तो यहीं रहेगी। दुनिया इसका जीना हराम कर देगी। यह लाख दबंग हो, सबकी नाक में नकेल डाल रखी हो। लेकिन एक साथ सब की नकेल कहां कस पाएगी। मैंने एक गिलास पानी बिल्लो को देते हुए पूछा-‘बिल्लो मैं बचपन की याद करते-करते एकदम बच्चा बन गया। बचकानी हरकत कर डाली। तुम्हारा हाथ इस तरह पकड़ लिया, चॉकलेट खिलाई। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा।’
मेरी इस बात पर बिल्लो हंस दी। बोली। ‘सच कहूं तुम सही में बचपन जी रहे हो। इसी लिए ऐसी बचकानी बात कर रहे हो। तुमने जो कुछ भी किया उसमें मुझे कोई छिछोरापन नहीं दिखाई दिया। ना महसूस हुआ, तुम्हारी पकड़ में ऐसी कोई भावना नाहीं थी जिसमें मुझे कोई खोट महसूस हुई हो।’
‘हूं... फिर क्या दिखा, महसूस हुआ।’ ‘देखो इतना पढ़ी-लिखी तो हम हैं नहीं कि तुम्हारी ऐसी बातन का कोई भारी भरकम जवाब दई सकी। लेकिन हम महसूस यही किए कि जैसे तुम बचपन में बड़ा निसंकोच होकर एक दोस्त की तरह हाथ पकड़ कर टॅाफी वगैरह देते थे। बिल्कुल वही भाव इस समय भी था। और कुछ तो हमरे समझ में आवा नाहीं। अब तुम्हारे मन में कुछ और रहा हो तो बताओ साफ-साफ।’ बिल्लो की बातें बड़ी साफ बड़ी निष्कलुष थीं। मैंने कहा ‘बिल्लो यही सही है। जो तुमने बताया लेकिन बचपन में मेरे मन में क्या कुछ और भी नहीं हो सकता था?’ बिल्लो ने कहा ‘अब जो जाना था,समझा था,बता दिया। कुछ और रहा हो तो बताओ ना। अब तो सब कुछ बदल गया है। सारा समय कहां का कहां निकल गया है। संकोच करे की कऊनों जरूरत नाहीं है।’
मैंने कहा ‘हां ये सच कह रही हो। अच्छा तो सच सुनो। जब कुछ और समय बीता तो तुमसे जब मिलता तो फिर हटने का मन ना करता। मन करता कि तुम बोलती रहो। मैं तुम्हारे चेहरे को देखता रहूं। तुम्हारी आंखें मुझे इतनी अच्छी लगतीं कि उन पर से नजर हटाने का मन ना करता। बार-बार तुम्हें छूने का मन करता। जब छुट्टी खत्म होने पर वापस जाने का समय होता तो मन करता कि तुम्हें भी साथ लेता चलूं। वहां पहुंच कर कई दिन बड़ा उदास रहता। मगर सब समझते कि गांव में मन लग गया और वापस आने से परेशान हूं। वहां मैं बार-बार तुम्हारी आंखें क़ाग़ज़ पर बनाने की कोशिश करता। मैं यह कहते-कहते काफी गंभीर हो गया था।’
तभी बिल्लो बोली ‘अरे हमें तो आज पता चल रहा ई सब। फिर खाली आंखें ही बनाते रहे या..? ’ बिल्लो भी यह कहते-कहते गंभीर हुई थी।
मैंने कहा ड्रॉइंग मेरी बड़ी खराब थी। आंखें भी मुश्किल से ही बना पाता था। कुछ सीखने की भी कोशिश की। लेकिन सब बेकार। जानती हो एक बार ऐसा भी हुआ जब मैं तुम्हारे लिए बहुत रोया।’‘क्या?’‘हां बिल्लो।’ ‘अच्छा! मगर काहे। कब?’
‘जब सुना कि तुम्हारी शादी हो गई।’ ‘तो इसमें रोने वाली कऊन बात थी?’
बिल्लो सब जानते-समझते हुए भी यह पूछ रही थी। दरअसल वह मेरे मुंह से सब सुनना चाह रही थी। तो कुछ देर उसे देखने के बाद मैंने कहा ‘वो इसलिए कि उन कई सालों में मिलते-जुलते तुमसे इतना लगाव हो गया था कि..... कि मैं तुमसे शादी करने की बात सोचने लगा था। मैंने तय कर लिया था कि शादी तुम्हीं से करूंगा।’
यह सुनते ही बिल्लो हंस पड़ी। बोली ‘बहुत भोले हो तुम। इतना कहे में ज़िन्दगी बिता दिए। मतलब की शादी व्याह की ज़िंदगी। अब तो तुम्हारे बच्चे भी शादी वाले हो रहे होंगे।’
‘बिल्लो मुझे क्या मालूम था कि तुम्हारी शादी आनन-फानन में कर दी जाएगी। मैं तो यही सोचे बैठा था कि अभी तो पढ़ोगी-लिखोगी। तब कहीं शादी होगी। तब- तक मैं भी पढ़-लिख कर नौकरी करने लगूंगा। तब अम्मा से कहूंगा कि मेरी शादी तुमसे करा दें। मगर अचानक ही पता चला कि तुम्हारी शादी हो गई। संयोग से उस बार हम लोग आ नहीं पाए थे। और जब आया तो सीधे तुम्हारे घर पहुंचा। वहां तुम्हें मां के साथ देखा तो तुम अपने हाथों से...।’
‘हां तब हम अपने को अपने हाथों से विधवा बना चुकी थी। बैठी रो रही थी। अपने वैधव्य पर नहीं, अपनी किस्मत पर भी नाहीं। बल्कि हमरे साथ मां-बाप, समाज ने जो अन्याय किया था उसको लेकर।’
बिल्लो यह कहते-कहते बड़ी भावुक हो गई। और कुछ देर चुप रह कर बोली ‘जब तुम इतना निष्कपट होकर, इतना सच बोल दिए हो तो हम भी सच कह रहे हैं। अब तो सब कहने भर का ही रह गया है। जैसे तुम मुझ से बातें करते रहना चाहते थे। देखते रहना और छूना चाहते थे। वैसे ही मैं भी चाहती थी। मैं भी तुमसे ही शादी करना चाहती थी। जैसे तुम यहां से जाने के बाद उदास रहते थे। रोते थे। वैसे ही मैं भी जब भी अकेले बैठती, रहती तो तुम्हारे ही बारे में सोचती। कई बार तो तुम्हें सपनों में भी देखती। मगर किसी से मन की बात कह ना पाती।
तुम तो जानते ही हो कि हमारा स्वभाव ऐसा था कि किसी को अपनी अंतरंग सहेली भी नहीं बना पाई। जब शादी की बात आई तो बार-बार मन में आया कि अम्मा-बाबू से कहूं मन की बात लेकिन तुम लोग पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन में इतना आगे थे कि हिम्मत ही ना पड़ी। इसी से सब अपने मन की करते रहे और मैं विवश हो देखती रही। किससे क्या कहती? मेरी सुनने वाला कोई था ही नहीं। फिर अचानक ही शादी कर दी गई।
शादी कितने दिन चली सब जानते ही हो। और उस दिन जब शादी के नाम पर अपने साथ हुए अन्याय का जवाब दे रही थी तो तुम्हें देख कर लगा कि भगवान मैंने क्या पाप किया था जो मुझे यह सजा दी। कुछ सालों बाद जब तुम आते तो मन में आता कि सब बात तुम से कहूं। मगर हिम्मत ना जुटा पाई। फिर तुम्हारे चच्चा ने घर में जो आफत मचाई उससे तुम लोगों ने आना ही छोड़ दिया। जल्दी ही मैं निराश हो गई। और फिर परिस्थितियों ने मुझे यहां पहुंचा दिया। और अब इस दुनिया से निकलना जीते जी संभव ही नही है। कल अचानक ही तुम ऐसे सामने आ गए.. कुछ देर तो हम समझ ही नहीं पाए कि क्या बोलें? क्या कहें?
अब बात तो यह भी है कि कुछ सुनने-कहने के लिए बचा ही क्या है? तुम खेत बेचने आए हो। बेच कर जाने के बाद फिर यहां कहां आओगे? मतलब की हम लोगों का यह आखिरी मिलना बतियाना है, तो मन कर रहा है कि जितना बोल-बतिया सकें, बतिया लें।’ यह कह कर बिल्लो प्रश्नानुकूल सी एकटक मुझे देखने लगी। मुझे लगा कि यह बात तो सही कह रही है। खेत बेचने के बाद यहां आने का कोई कारण ही कहां बचता है।
मैंने कहा ‘बात तो तुम सही कह रही हो। लेकिन अब तो अपनी मनमर्जी की मालिक हो। फ़ोन पर तो जब चाहो बात कर ही सकती हो। रही बात मिलने की तो घूमने-फिरने ‘सूरत’ आ सकती हो। मैं भी इसी तरह आ सकता हूं। इसके लिए जरूरी तो नहीं कि खेत या ऐसा कुछ हो तभी मिलें। मिलने के लिए तो बस मन में इच्छा ही काफी है।’
इस मुद्दे पर बड़ी-बड़ी बातों के बाद बिल्लो गर्मी कम होने के बाद ‘सूरत’ आने को तैयार हो गई। मुझसे हर साल कम से कम चार बार गांव आने का वादा कराने के बाद। इस बीच बिल्लो ने अपने आदमियों को बोल कर जीप मकान के पीछे अहाते में खड़ी करा दी। खाना खाने के बाद काफी देर हो गई थी। मेरा मन सिगरेट पीने का हो रहा था। मैंने बिल्लो से कहा कि ‘मैं बाहर सिगरेट पीकर आता हूं।’
बिल्लो ने कहा ‘इतनी रात बाहर टहलना ठीक नहीं। सिगरेट जितनी पीनी है यहीं पियो ना।’ मैं जब एक दिन पहले बिल्लो से मिला था तभी से देख रहा था कि वह बराबर पान-मसाला मुंह में दबाए हुए थी। मुझसे भी कई बार पूछा था लेकिन मैंने मना कर दिया था कि मैं नहीं खाता।
उसने मुझे सिगरेट के लिए कहकर फिर एक पुड़िया किनारे से फाड़कर मुंह में भर ली। फिर एक छोटी पुड़िया निकाली जिसमें सिर्फ़ तंबाकू थी उसे भी मुंह में डाल लिया। पुड़िया खोलने और उसे मुंह में डालने की स्टाइल से लग रहा था कि वह बरसों-बरस से खाती आ रही है। और अन्य करोड़ों देशवासियों की तरह वह भी अपने देश के कानून की, न्यायालय की खिल्ली उड़ाती आ रही है।
न्यायालय ने तंबाकू गुटखा बंद किया तो कंपनियों ने तुरंत रास्ता निकाल लिया कि ठीक है तंबाकू गुटखा बंद। दोनों को अलग-अलग पैक कर दिया। अब खाने वाले अलग-अलग खरीद कर मुंह में एक साथ भर लेते हैं। मैंने पूछा ‘बिल्लो कब से खा रही हो यह सब?’ तो उसने मुस्कुराते हुए कहा ‘अरे, अब याद नहीं। पहले अम्मा पान खाती रहीं, उन्हीं के पनडब्बा से कभी-कभी खाना खाने के बाद पान निकाल कर खा लिया करती थी। बस ऐसे ही पड़ गई़ पान- तंबाकू की आदत।’ ‘हूं... अम्मा पान खाती थीं तो पान की आदत पड़ गई। और तुम्हारे बाबू जी को मैंने हुक्का और सिगरेट पीते भी देखता था। तो कभी वहां भी तो हाथ साफ नहीं किया।’ बिल्लो फिर हंस पड़ी। बोली ‘अब क्या बताएं। कोई मुझसे बात तो करता नहीं था। ऊपर से सुना-सुना कर ताने अलग मारे जाते थे।
ऐसे में खीझती। काम धंधा भी कुछ था नहीं तो मन एकदम बौराया रहता था। एकदम बौराई औरत सी हरकत करती। जानबूझ कर ऐसी हरकतें करती कि कोई तो मुझसे कुछ बोले। भले ही गाली दे। सबसे ज़्यादा मुझे खलता अम्मा का ना बोलना। मैं दिखा-दिखा कर अंड-बंड हरकत करती। ऐसे ही एक दिन बाबू जी ने हुक्का भरा। जलाया। कि तभी प्रधान आ गया। बाहर से आवाज़ आई तो बाबू जी बाहर गए। फिर पता नहीं क्या बात हुई कि उसी की मोटर साइकिल पर उसी के साथ कहीं चले गए। अम्मा उस समय चौका लीप रही थीं। उनकी चुप्पी ने मुझे और खिझाया। मैंने फिर अपनी खीझ उतारने, वो कुछ बोलें इसके लिए उन्हें दिखाकर हुक्के का लंबा पाइप जो बाबू जी खटिया में फंसा कर गए थे उसे निकाला और मुंह में लगाकर जोर से खींचा।
पूरा मुंह तीखे कसैले धुएं से भर गया। और फिर ज़ोर से खांसी आने लगी। मुंह, नाक से धुंआ निकल रहा था। खांसते-खांसते उबकाई सी आने लगी। ऐसा लगा कि उल्टी हो जाएगी। मैं इस हालत में भी अम्मा पर नजर लगाए हुए थी कि वो कुछ बोल रही हैं कि नहीं। उन्होंने हुक्का पीते देखा कि नहीं। तब मैंने अंदर-अंदर बड़ी राहत महसूस की जब मुझे हुक्का पीते देख कर आग बाबूला होते हुए कहा ‘‘अरे हरामजादी औऊर कुछ बचा होए वहू कयि ले। अरे अब औऊर केतना नाक बोरबे। जीते जी खून पियत हऊ। देखाए-देखाए के खून जलावत हऊ’’ तभी मैंने फिर एक लंबा कश खींचा। फिर खांसी का दौरा।
अब अम्मा आपा खो बैठीं, उनके पास ही लोटा पड़ा था वही फेंक कर मारा। वह मुझे नहीं लगा तो उनका गुस्सा और बढ़ गया। उन्हीं के पास एक मौनी (मूँज की बनी कटोरी नुमा डलिया) पड़ी थी उसे फेंक कर मारा। इस बार भी मेरा बचना था कि अम्मा लीपना-पोतना छोड़कर उठ खड़ी हुईं। सामने उनके झाड़ू पड़ी थी वही उठाकर जमकर झड़ुवा दिया। मन भर के गाली दी, कोसा।
झाड़ूओं की चोट से मुझे दर्द हो रहा था। फिर भी मैं अजीब सी राहत महसूस कर रही थी। कि अम्मा बोलीं तो। मैं तब इतना जिद में आ गई थी कि इतनी मार खा कर भी वहां से हटी नहीं। अम्मा कोसतीं हुई जा के दलान में बैठ गईं। और मैं वहीं आंसू बहाती, बैठी, खींच-खींच हुक्का पीती रही। पान-तंबाकू खाती ही थी तो हुक्का ज़्यादा चढ़ा नहीं। अब जिद और चिढ़ाने के लिए की गई यह शुरुआत आगे चल कर आदत बन गई।
मैं मुस्कुराते हुए उसे कुछ देर देखने के बाद बोला ‘तो बस हुक्का तक रही या सिगरेट वगैरह भी।’बिल्लो फिर हंसी। ‘आगे बहुत साल बाद मौके से सिगरेट मिल जाए तो वहू फूंक देइत रहे। मतलब सिगरेट, बीड़ी, पान, तंबाकू जो मिल जाए सब हजम।’ ‘अब भी?’ ‘अब भी क्या,?’ ‘मतलब मन हो जाए तो आज भी?’ ‘हां अब भी मगर अब शुरुआती आठ-दस साल की तरह अंधाधुंध नहीं। कभी कभार हो गया तो हो गया।’
‘अच्छा..। मतलब की अपने हसबैंड की हरकतों का बदला भड़ास इस तरह निकालती थी।’
‘बदला-वदला तो नहीं। हमें खाली गुस्सा ये आती थी घर वालों पर कि चलो शादी जैसी भी हुई। जहां भाग्य था सब हो गया। हमें कोई शौक तो लगा नहीं था कि अपना वैवाहिक जीवन खुद अपने हाथों खत्म करती। लेकिन बात तो ये है ना कि दूध में मक्खी देखकर तो नहीं निगली जा सकती ना। हमने सोचा चलो जैसे चलेगी वैसे चला लेंगे। घर वाले तो हैं ही। मगर यहां घर पर मेरे साथ जो हुआ हुआ। जिस तरह सब का व्यवहार बदला उससे मैं खुद गुस्से से भर उठी। बल्कि कहें कि नफरत से। मैंने तो सोचा ही नहीं था कि मां-बाप ऐसा बदलेंगे। मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा था इन लोगों के व्यवहार से। सोचा कि जिस मायके के दम पर मैंने इतना बड़ा कदम उठाया, वो लोग तो देखना ही नहीं चाह रहे। हर तरफ से दुत्कारी हुई महसूस करने लगी।
मुझे लगा कि मैं पेड़ से टूट कर गिरी पत्ती की तरह बेसहारा हो गई हूं। जो राह चलते लोगों के क़दमों तले कुचल-कुचल कर खत्म हो जाएगी। जिस दिन मैंने तय किया कि मैं जमीन पर बेसहारा होकर गिरी पत्ती नहीं हूं। मां-बाप परिवार सहारा नहीं देना चाहते हैं तो ना दें। मुझे नहीं जरूरत किसी के सहारे की। मैं अपना सहारा खुद बनूंगी। जब मैं मन में यह तय कर रही थी तब मैं कई दिनों से भूखी थी। ना मैं खाना मांगती थी। ना कोई मुझसे पूछता था। भूख के मारे पानी भी नहीं पिया जाता था, उबकायी सी आने लगती। मगर खुद अपना सहारा बनने का फैसला करते ही मैं सीधे रसोई में गई। पूरा परिवार खाना खा चुका था। एक भगोने में थोड़ी सी सांवा की खिचड़ी थी वही निकाली। मटके में गुड़ था वो निकाला, खाया तब कहीं जाकर जी में जी आया।
मगर भूख बड़ी तेज़ लगी थी। थोड़ा सांवा पेट नहीं भर सका। फिर मैंने चूल्हा जलाकर आटा और गुड़ का ही हलवा बना का खाया। शक्कर थी नहीं। घी मिला नहीं तो तेल में ही बनाया। बनाते समय चुल्हे का धुंआं बर्तन की आवाज़ सुनकर दलान से उठकर अम्मा आईं। देखा, फिर चली गईं। मैंने सोचा कि गुस्सा होंगी। लेकिन वो कुछ बोली नहीं। उनके चेहरे पर भी मुझे कोई गुस्सा नहीं दिखा। शायद मां की ममता कुछ हुलस उठी थी। बस यही वह समय था जब मैंने खुद सहारा बनने का जो क़दम बढ़ाया था उसे फिर रुकने नहीं दिया। आज जिस हालत में हूं, घमंड वाली बात नहीं करती, लेकिन आस-पास के किसी गांव में कोई नहीं जो मेरी बराबरी क्या मेरे सामने खड़ा भी हो सके। मैं मर्दों की बात कर रही हूं। औरत तो खैर कोई है ही नहीं।’
यह कहते समय बिल्लो के चेहरे पर मुझे घमंड तो वाकई नहीं दिखा। हां गर्व की चमक साफ दिख रही थी। एल. ई. डी. बल्ब की उस सफेद रोशनी में भी। बिल्लो ने एक पुराना वाला पीला बल्ब भी लगा रख था। उसका कहना था कि इसकी पीली रोशनी की आदत एकदम से छूट नहीं पा रही है। इन्हीं पीली और सफेद रोशनी में उसके गर्व को देखते हुए मैं उठा और बिल्लो के तखत के पास पहुंच कर सिगरेट की डिब्बी खोलकर उसकी ओर बढ़ा दी। ऐसा करते समय मेरे मन में एक ही भावना थी कि यह भी इन चीजों की शौकीन रही है। ऐसे लोग अकेले में भले ही इसकी तलब ना महसूस करें लेकिन सामने किसी को खाता-पीता देखकर मन उनका भी मचल उठता है।
मैंने देखा कि बिल्लो ने भी मेरे ऐसा करने पर कोई आश्चर्य जैसा भाव व्यक्त नहीं किया। बस इतना कहा ‘चॉकलेट खिला के तो बचपन जी रहे थे। अब ई सिगरेट पिला के क्या जियोगे?’ इतना कह कर वह हंस दी। साथ ही एक सिगरेट निकाल कर मुंह में लगा ली। मैंने तुरंत लाइटर से जला दिया। उसने एक बेहद लंबा कश खींच कर ढेर सा धुआं मुंह थोड़ा ऊपर कर उड़ा दिया। मगर फिर भी मुझे लगा कि उसने काफी धुआं अंदर ही खींच लिया। उसने जिस तरह कश खींचा उससे साफ लग रहा था कि वह हुक्का खूब पी चुकी है। सिगरेट का कश खींचने में भी वही जोर दिखा था। पहला कश लेने के बाद उसने ‘सिगरेट देखते हुए कहा सिगरेट तो बड़ी बढ़िया है। पहली बार पी रही हूं। यहां इतनी बढ़िया सिगरेट नहीं मिलती।’
मैंने कहा ‘हां इस रेंज में गांव में मुश्किल ही है। यह जौनपुर में मिली। हालांकि मैं जो पीता हूं वह वहां भी नहीं मिली।’ मैंने बिल्लो की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि सिगरेट पिला कर क्या जी रहा हूं। मैं पूरी तरह से उसके हाव-भाव, काम बात को गहराई तक समझने का प्रयास का रहा था कि यह मेरी वही भोली-भाली चंचल बिल्लो है या एक दबंग गंवई महिला। या इसमें वह गुण भी हैं जिनके आधार पर मैं इसे लेडी डॉन कह सकता हूं।
मैं वापस अपने तखत पर बैठ कर बोला ‘बिल्लो एक बात पूछना... नहीं दो बात पूछना चाहता हूं। अगर तुम्हारी आज्ञा हो, तुम नाराज ना हो तो।’ मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने जो अगला कश लेने जा रही थी वह रुक गई। बोली ‘कैसी बात कर रहे हो। कुछ कहने के लिए तुमको मुझसे आज्ञा की जरूरत की बात कहां से आ गई। तुम तो बड़ा गजब कर दिए। पूछो, एकदम बेहिचक पूछो। दुनिया के लिए हम चाहे जो हों। तुम्हारे लिए तुम्हारी वही बचपन वाली बिल्लो ही रहूंगी। और तुम भी मेरे लिए हमेशा वही रहोगे जो तब थे।’
बिल्लो की इस बात ने मुझे निश्चित कर दिया तो मैंने सीधे से कहा बिल्लो मैं यहां यह समझ के रुका कि तुम्हारा भतीजा, परिवार यहां होंगे। मगर परिस्थितिवश वो सब नहीं हैं। तुम यहां अकेले हो। ऐसे में मेरा यहां रुकना कहीं गांव में लोगों को ऊटपटांग बोलने का मौका ना दे दे। मैं यही सोच-सोच कर परेशान हूं। तुम्हें अगर कहने में हिचक हो रही हो तो बताओ। ऐसी कोई बात नहीं है। मैं चाचा के यहां चला जाऊंगा। वैसे भी वो लोग यही चाहते हैं।’ मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने दाहिने हाथ की हथेली अपने माथे पर चट से मारी और बोली।
‘धत्त तेरे की। का रे मरदवा, तू शहर वाले एतना डरपोक काहे होत हैं। अरे हम औरत जात हैं। हमें कोई चिंता नाहीं! हमरे दिमाग में तो ई बात आई तक नाहीं। अरे हमारे घर कोई आएगा तो हमारे यहां नहीं तो किसी और के यहां रुकेगा। औऊर दूसरी बात कि यहां किसी की इतनी बिसात नाहीं है कि हमें, हमारे घर की तरफ भूल के भी आंख उठा के देख ले। लांछन लगावे की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकता। हां तुम्हारा मन ना लग रहा हो तो बताओ।’
मैंने तुरंत कहा ‘नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैं बस तुमको लेकर ही परेशान हो रहा था। तुमने बात साफ कर दी। अब इस बारे में कुछ सोचना ही नहीं।’ ‘चलो तोहार डर तअ खतम भा और दूसरी कौन सी बात पूछे चाहत हो?‘ ‘दूसरी असल में कल से तुम्हारी लाइफ के बारे में जितना जाना उसके बाद एक प्रश्न बार-बार मन में उठ रहा है। कि चलो पहली बार जो हुआ वो हुआ। बाद में तुम्हारे मन में फिर दूसरी शादी के लिए इच्छा नहीं हुई। या तुम्हारे घर वालों ने कोई बात आगे नहीं बढ़ाई।’
मेरी ये बात सुनते ही बिल्लो हंस पड़ी। बोली ‘तुमहूं का बात करत हो। देखो पहिला जो अनुभव रहा, उससे शादी, पति नाम से ही नफरत हो गई। दूसरे घर में सबका व्यवहार ऐसा रहा कि मन में हमेशा गुस्सा भरा रहता। कभी-कभी तो मन करता कि बांका उठाऊं औऊर जो मिल जाए सब को बाल (काट) डालूं। बाद में जब काम-धाम में मन लगने लगा तो गुस्सा कम हुआ। फिर जब हाथ में पैसा आने लगा तो मन पैसा कमाने में रमता गया। इतना कि नई-नई चीज करने लगी। कोहड़ौरी से शुरू करके आचार और फिर आगे बढ़ते गए। पैसों का हिसाब, काम-धाम देख के सब कहने लगे कि ये तो एकदम बनिया हो गई है।
पैसा आने लगा तो घर की सूरत बदलने लगी। तब एक बार अम्मा ने बात उठाई। वो चाहती थीं कि उसी कलमुंहे से बातचीत करके हम उसी के साथ हो लें। वो हमसे बात करने से पहले बाबू को वहां भेजने के लिए तैयार कर चुकी थीं। जाने के एक दिन पहले मुझसे ना जाने क्या सोच कर पूछ लिया। इतना सुनते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई। कि मैं इतना बड़ा बोझ हूं कि एक बार किसी तरह उस नर्क, उस मौत के मुंह से निकल कर आई। ई मां-बाप होके फिर वहीं भेज रहे हैं। अब तो हम इतना कमा रहे हैं। घर भर की रंगत बदल दी है फिर भी हम इन सबके लिए भारू(बोझ) बने हैं।
हमने अम्मा-बाबू दोनों को खूब खरी-खोटी सुनाई। अम्मा बोलीं ‘तू जब तक रहबे तब तक घरै का नकिया झुकी रहे। अरे ज़िंदगी भर के राखै तोके। ई जऊन काम धंधा फाने हऊ ओसे अऊर सब बोलत हैयन कि सब बिटिया के कमाई खात हयेन। कब तक काने में अंगुरि डारे बैइठी रही।’ उस दिन घर में फिर बवाल हुआ। हमने कहा ठीक है अब हम इस घर में रहेंगे ही नहीं।
उस दिन हम कुंआ के पास खटिया डाल के सोए। सब बहुत कोशिश किए कि अंदर चल कर सोऊं। रात-विरात कुछ हो ना जाए। गांव वाले जानेंगे तो क्या कहेंगे? लेकिन हम नहीं माने, अगले दिन उसी कुंआ के पास पहला काम किए खटिया डाले भर एक मड़ई तैयार कराए। घर खाना-पानी सब बंद कर दिया। भुजवा के हिआं से लइया, चना, मकई का दाना, गुड़ बजारे से लाय के कई दिन गुजारे। फिर आनन-फानन में दिवार खड़़ी करा कर टिन शेड डलवाया। इस बीच पूरे घर ने जोर लगा लिया कि हम घर वापस चलें। लेकिन मैं शुरू से अपने जिद की पक्की ठहरी। तो टस से मस नहीं हुई।
घर भर ने जबरदस्ती करने की कोशिश की तो मैंने कहा कि ‘अच्छा यही है सबके लिए कि अब हमें रोकने की कोशिश ना करो। नहीं तो तुम सबका नाम लगाकर फांसी लगा लेंगे। या फिर थाने में रिपोर्ट लिखा देंगे। मेरे आग से तेवर देखकर सब एकदम शांत हो गए। फिर मैंने अपने कदम अपने हिसाब से आगे बढ़ाए। जैसे-जैसे सफलता मिलती गई। मेरे सपने भी बड़े होते गए। मैंने अब तक जो कुछ पाया है वह दुनिया के लिए भले ही मामूली हों, छोटे हों, लेकिन मेरी नजर में बहुत खास हैं। बहुत बड़े हैं। मेरा अगला जो सपना है उसे सुन कर शायद तुम भी चौंक जाओ।’
उस की इस बात को सुनकर मैंने कहा ‘नहीं। तुम्हारे बारे में अब तक जितना जाना है, उसके बाद तो कुछ भी सुनकर नहीं चौंकुंगा। बताओ अगला सपना क्या है?’ तो बिल्लो बोली ‘पहिले एक सिगरेट निकालौ तब बताउब।’ उसने ऐसे अंदाज में यह कहा कि मुझे हंसी आ गई। मैंने फिर उठकर उसे सिगरेट दी और खुद भी जलाई। दो तीन कश लेने के बाद बोली ‘सिगरेट वाकई बड़ी अच्छी है।’ मैंने कहा मगर मुझे लगता है कि तुम्हारे सपने से ज़्यादा तो नहीं होगी। वह मुस्कुराई। फिर बोली ‘यह तो तुम ही तय करना। मेरा सपना सांसद बनने का है। मैं अगला चुनाव लड़ूंगी। पिछले कई सालों से मैं तैयारी में लगी हूं। मेरे इस सपने के बारे में भतीजा उसकी बीवी के बाद तुम तीसरे व्यक्ति हो जिससे मैं अपनी योजना पर विस्तार से बात कर रही हूं। इसलिए यही कहूंगी किसी और को नहीं बताना, शिखर को भी नहीं।’
***