Billo ki Bhishm Pratigya - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 3

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 3

पता नहीं चाचा की सख्ती कहां चली गई थी। शायद उनसे उम्र ने बहुत कुछ छीन लिया था। जो कुछ भी उनके वश में नहीं था उन्होंने उससे हार मान ली थी। हथियार डाल दिए थे। मुझे लगा जैसे माहौल में कुछ घुटन महसूस कर रहा हूं। एक घंटा हो भी रहा था। तो मैं उठा और चाचा से बोला ‘चाचा जी अब चलता हूं। काफी समय हो गया।’ तो वह बोले ‘अरे नाहीं बच्चा, ऐइसे कहां जाबा? अरे एतना बरिस बाद आए है। कुछ खाए-पिए नाहीं। भइया अबै तो तोसे ठीक से मिलै बतियाए नाहीं पाए। भगवान बड़ी कृपा किहेन तोहे भेज कै। भइया रुक जाते कुछ दिन। तोहसे आपन सारी बात कहि लेइत तो हमरे ऊपर से बोझ उतरि जाए। भइया सारी बतिया एतनी गरू (भारी) हईन कि ना जियत बनत बा ना मरत। रुक जाबा ता हमार ई भार बहुत कम होई जाई। जानै भइया। इहै बदे कहित हई, रुक जा, बड़ा नीक लागे भइया।’

चाचा ऐसे भावुक हो कर बोल रहे थे कि मैं एकटक उनके होंठो को देखते उनका हाथ पकड़े खड़ा रहा। उनकी भावुकता मुझे बांध रही थी। मैं बोलने की कोशिश कर ही रहा था कि बहू बोल पड़ी। ‘हां भइया, बाबू जी सही कहत हैअन। रुक जाइए ना। अब बड़े लोगों ने जो किया,वो किया। सही गलत जो भी था। उन लोगों के बीच की बात थी। उन्हीं लोगों के बीच रही और खत्म भी हो जाएगी। खत्म क्या होगी खत्म हो चुकी है। हम लोगों के बीच तो कभी कुछ बात हुई नहीं। जब कभी मिले ही नहीं तो होती भी क्या? तो हम सब लोग तो मिल कर रह ही सकते हैं। आ-जा सकते हैं एक दूसरे के यहां।’

उसके इस तरह से बोलने पर मुझे यह स्पष्ट हो गया था, कि वह घूंघट वाले युग की चुप रहने वाली, सब कुछ सहने वाली बहुरिया नहीं है। वह अब आज के युग की अपनी बातों को बिना हिचक कह देने वाली तेज़-तर्रार बहू है। वो क्या कहते हैं अपने अधिकारों को लेकर बहुत सजग रहने वाली महिला। जिसके सामने महिला को दबा, छिपाकर, घर की कोठरियों में घूंघट में बहू को रखने के प्रबल हिमायती मेरे चाचा भी हथियार डाल चुके हैं। मैं अभी उसकी तरफ मुड़ा ही था कुछ कहने को कि तभी शिखर बोला। ‘चिंकी सही कह रही है भइया। एक दो दिन रुक जाइए ना। ठीक से गांव दुआर देख लीजिए। हम आपको ले चलेंगे सब जगह। ऐइसे खाली रास्ता नापे से का फायदा? चलिएगा आपको खेत वगैरह सब दिखा लाएंगे।’

शिखर चुप हुआ ही था कि चाचा फिर बोल पड़े। ‘बचवा अब तअ तोके रुकेन कै पड़ी। बहुरिया बोल दिहै बा। घरे में सबसे छोट बा, ओकर तअ बतिया तोहैं मानिन कै पड़ी।’ मैं हर तरफ से भावनात्मक बंधन के डाले गए इन फंदों को तोड़ ना पाया। कहा ‘ठीक है,आप सब इतना कह रहे हैं तो रुकना ही पड़ेगा। तभी अंदर से किसी दुधमुंहे बच्चे के रोने की आवाज़ आई। सुनते ही चिंकी दौड़ती हुई अंदर को चली गई। मैं फिर सोफे पर बैठ गया। उसी समय चाचा शिखर से बोले ‘बेटवा खाए-पिए के इंतजाम करा। बचवा भुखान होइहें।’ मैंने मना किया लेकिन कोई नहीं माना।

मैं गर्मी के कारण परेशान हो रहा था। शिखर भी अंदर खाने-पीने के इंतजाम के लिए चला गया। हाथ का पंखा हांकते-हांकते मेरे हाथ दर्द करने लगे। ऊबने भी लगा था। काम ना होने के कारण बड़ा तनाव महसूस कर रहा था। यही सोच कर आया था कि पांचों खेत बेचकर जो अस्सी लाख मिलेंगे उससे सबसे पहले बैंक का पचास लाख लोन खत्म कर रात-दिन कर्ज के टेंशन से मुक्ति पाऊंगा। बाकी तीस में से दो लाख जौनपुर वाले रिश्तेदार को दूंगा। यह उनका कमीशन था। बाकी बिजनेस को बढ़ाने में लगाऊंगा। लेकिन खरीददार की डेथ ने सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया।

शिखर की बात मुझे ठीक लगी कि गांव भी घूम लीजिए। मैंने सोचा चलो इसी बहाने खेत के रेट भी कंफर्म करूंगा कि क्या चल रहा है। मैं इसी उधेड़-बुन में उठकर बाहर गया। ड्राइवर जीप को पेड़ की छाँव खड़ा कर अंदर दरवाजे बंद किए सो रहा था। शीशे पर नॉक कर दरवाजा खुलवाया और मैं भी अंदर ही बैठ गया। अंदर फुल स्विंग में एसी चल रहा था। ठंड में मुझे बड़ा आराम मिला। घंटों से गर्मी ने परेशान कर रखा था। कुछ देर में मैंने राहत महसूस की। उसके बाद सूरत में पत्नी को फ़ोन कर सारी स्थितियों को बता कर कहा मैं एक दो दिन रुक कर देखूंगा कि कोई रास्ता निकल सके। कहीं किसी दूसरे कस्टमर से ही बात बढे़। रिश्तेदार बोल ही रहे थे कि घबराइए नहीं मैं कोशिश करूंगा कि किसी तरह काम बन जाए। आपका इतनी दूर से आना बेकार ना जाए।

मैं जानता था कि वो पूरे जीजान से लगे हैं। आखिर दो लाख उनको भी तो मिलने थे। रुकने की बात सुनकर पत्नी घबरा गई, कि मैं उन चाचा के यहां रुक रहा हूं जिन्होंने कभी इन्हीं खेतों के लिए रिवॉल्वर निकाली थी। वह नाराज होने लगी। मैंने बताया कि अब सब कुछ बदल गया है। चाचा की मानसिक, शारीरिक हालत बताई। फिर भी उसका आग्रह था कि जौनपुर वाले रिश्तेदार के यहां चला जाऊं। जैसे भी हो चाचा के यहां ना रुकूं। बड़ा विश्वास दिलाने पर बुझे मन से मानी। मैंने जौनपुर वाले रिश्तेदार को भी रुकने की बात बताई। जीप भी रोक लेने को कहा तो वह भी खुशी-खुशी मान गए। मैंने सोचा चलो एक से दो भले। जीप रहेगी तो कहीं जाने-आने में भी आसानी रहेगी। वैसे भी शहर की जीवन शैली में पैदल चलने की आदत तो खत्म ही हो चुकी है। मेरे मन में धीरे-धीरे कई योजनाएं आकार ले रही थीं।

करीब घंटे भर बाद शिखर खाना-खाने के लिए बुलाने आया। पहले भी एक बार वह आया था। कि जीप में क्यों बैठे हैं? तो मैंने यह कहकर वापस कर दिया था कि गर्मी बहुत है यहां एसी से थोड़ी राहत है। ड्राइवर तो इसी के चलते जीप से उतरा भी नहीं था। गाड़ी को थोड़ी देर के अंतराल में स्टार्ट करता रहता था। नाश्ता भी उसे जीप में ही भिजवा दिया गया था। खाने के लिए उसे साथ ही बुला लिया। सोचा शिखर कहां बार-बार खाने को लेकर आता रहेगा।

चिंकी ने खाना अच्छा बनाया था। कद्दू की सब्जी थी, दूसरी आलू और प्याज की। आलू की सब्जी क्या थी कि बिल्कुल चाट वाली स्टाइल में बनाई थी। साथ में अरहर की दाल। जिसे उसने लहसुन, जीरा, देशी घी से छौंका था। पूर्वांचल में लहसुन से दाल छौंकना आम बात है, मुझे खाना बहुत बढ़िया लगा। मगर रोटी में वह सोंधापन नहीं था जो बरसों पहले गांव आने पर दादी और चाची के हाथों चुल्हे में पकी रोटी में होता था।

मेरा मन उन दिनों दादी के द्वारा सबके लिए जिस तरह खाना बनवाया जाता था वहां पहुंच गया। जब सरसों के तेल में डूबे आम, मिर्चे का आचार, सिरके में डूबी प्याज, नींबू का सलाद। अब यह सब कहां था? सिरका पड़ी प्याज का सलाद आज भी था। लेकिन मुझे दादी के समय वाला स्वाद इनमें ढूढे़ नहीं मिला। चिंकी, शिखर बड़े प्यार से खाना खिला रहे थे। पूछ-पूछ रोटी, सब्जी दाल बराबर दिए जा रहे थे। घी लगी रोटी मुलायम थी। मगर दादी वाली बात....।

चिंकी मना करने पर भी चीजों को डालती जा रही थी। इसके चलते मैं अपनी डाइट से थोड़ा ज़्यादा भी खा गया। खाने के समय चाचा भी बराबर बैठे रहे। और खाने को कहते रहे। उनके इस आग्रह में मुझे बार-बार दादी के आग्रह की झलक सी दिख जाती। चाचा के आग्रह को देखकर मन में कई बार आया कि काश चाचा तुम पहले भी ऐसे ही साफ निर्मल हृदय के होते। ऐसे ही प्यार तब भी सबके ऊपर उडे़ल रहे होते तो कितना अच्छा होता।

बाबा-दादी सारे भाई बहन तुम्हें कितने प्यार से पुत्तन, पुत्तन कहा करते थे। सब मिल कर आपको ऊंची शिक्षा दिलाने में लगे रहे। मगर आप शहर में नशा, आवारगी में लगे रहे। आप उस दौर में ही इतनी शानेा-शौकत से रहते थे, कि गांव के लोग ईर्ष्या किया करते थे कि आप भाइयों की कमाई पर कैसे ऐश कर रहे हैं। कुछ लोग व्यंग्य भी किया करते थे। आप का नाम लेकर बोलते थे ‘अरे पुत्तन आपन कमाई पर करतै ते ज़्यादा नीक लागत।’ और तब आप बड़ा अनाप-शनाप बोलते थे। बड़े-छोटे का भी ध्यान नहीं रखते थे। और जब नौकरी की तो वह भी कर नहीं सके। उद्दंडता के कारण कहीं टिक ही नहीं पाते थे। मेरे पापा ने सरकारी नौकरी लगवाई लेकिन वहां वह कारनामा किया कि नौकरी से हाथ धो बैठे। पापा की भी नौकरी जाते-जाते बची थी।

आपकी इन हरकतों के चलते भाइयों ने अपने हाथ खींच लिए। तब आपकी शानो-शौकत केा हवा होते देर नहीं लगी थी। देखते-देखते आप जमीन पर आ गए थे। तब गांव वालों के व्यंग्य आपको तीर की तरह चुभते थे। मगर तब आप कसमसा कर रह जाते थे। पहले की तरह दबंगई करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। क्यों कि भाइयों ने आना लगभग बंद कर दिया था। गांव वाले जान गए थे कि जिस दम पर आप कूदते थे वह सारा दम निकल चुका है। अब सब मौका ढूढ़ते थे कि आप अब पहले की तरह बोलें तो आपको कचर, मार के पहले के अपमानों का बदला लें।

आप इतना तो समझदार थे ही तो आप अपनी पतली हालत को समझ बचाकर राह में किनारे-किनारे चलने लगे। व्यवहार बदल गया। चौथे चाचा जो आस-पास के कई गांव नाथे रहते थे उनसे आपके छत्तीस के आकड़ें को भी गांव वाले जानते थे। वह यह भी भांप चुके थे कि चौथे चाचा तो चाहते ही हैं कि एकाध बार आपकी धुनाई हो ही जाए। काश आप दोनों चाचा परिवार के साथ चलते तो आज भी इस गांव में अपने खानदान से नजर मिलाने की किसी में हिम्मत ना होती।

जमींदारी खत्म हो गई थी लेकिन बाबा ने अपनी हनक बना रखी थी। आप लोगों की तरह गुंडई बदमाशी से नहीं। बल्कि अपने सद्कर्मों से, अपनी विद्वतता से, समाज के आखिरी व्यक्ति को भी यथोचित सम्मान, मदद देने से। उन्होंने जब मंदिर बनवाया तो कोई भेद नहीं रखा। हर आदमी को सादर आमंत्रित करते रहे। उनकी विनम्रता, न्यायप्रियता, सादा जीवन उन्हें ऐसा विशिष्ट व्यक्तित्व बनाती थी कि हर आदमी उनके सामने नतमस्तक था। उन्हें पूरा सम्मान देता था। उनकी इच्छा का सम्मान करता था। उनकी किसी भी इच्छा को, बात को पूरा करने में गर्व महसूस करता था। मगर आप दोनों चाचा ने उनकी बनाई इस शानो-शौकत को उनके रहते ही डूबोना शुरू कर दिया था।

आप दोनों के लड़ाई-झगड़े से दादी भविष्य की तस्वीर अच्छी तरह देख रहीं थीं। वह बड़े स्पष्ट विज़न वाली महिला थीं। बाबा से बार-बार कहती रहीं कि अपने जीते-जी बांट दो सब, अलग कर दो सबको। नहीं बाद में ये दोनों लड़ मरेंगे। लेकिन अपनी छवि को लेकर सचेत बाबा आतंकित थे। वह छवि का मोह छोड़ कर व्यावहारिक नहीं बन सके। जीते जी नहीं किया बंटवारा। उनका हर बार एक ही जवाब होता था कि ‘मेरे जीते जी बंटवारा नहीं होगा।’ आखिर दादी की बात को आप दोनों ने सही कर दिया। संपत्ति के लिए लड़ मरे।

इससे ज़्यादा शर्मनाक, निंदनीय क्या होगा कि एक भाई की पत्नी की शव यात्रा निकल रही है और पड़ोस में ही एक भाई परिवार सहित घर में दरवाजा बंद किए पड़ा रहा। तेरहवीं के दिन कहीं और चला गया। गांव में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसने आप दोनों के कुकृत्यों पर थूका नहीं है। और चौथे चाचा के प्रयाग में मरने पर आप भी सोते रहे। बदला लेते रहे। सगे भाई की चिता की आंच आप तक नहीं पहुंची।

आपके आतंक से आतंकित चौथे चाचा के लड़के ने ऐन बाप की तेरहवीं वाले दिन रात बारह बजे ट्रकों में सामान भरकर प्रयाग भेज दिया, गांव वाला घर खाली कर दिया। ताला डाल दिया। गांव थूकता रहा कि ‘का भइया बाप के मरे का इंतजार हो रहा था का।’ चाची से कहा कि ‘फलाने बो आदमी के मरे का इंतजार करत रहू का?’ गांव वालों की शूल सी चुभने वाली बातें तेरहवीं में आए बाकी शेष बचे एक भाई और अन्य के परिवार के सदस्य भी सुनते रहे। खून का घूंट पी कर सुनते रहे, कि ‘गऊंआ से एक पातकी कम होइगा। जब तक रहा जियब हराम किए रहा।’ सब कानाफूसी करते रहे कि ‘एकर, बेटवा तअ बापो से आगे निकर गई बा। ताऊ, चाचन के सामनवो भरि लइगा। घर आए मेहमानन के एक गिलास पानिऊ नाहीं पूछत बा।’

सारा परिवार एक पट्टीदार की यह बात भी सुनकर कसमसा कर रह गया कि ‘अरे ई बापों से बड़ा पातकी (पापी) बा। अच्छा बा गंउवां छोड़ के जात बा। बाप पूत दोनों पातकियन से गांव मुक्ति पाए जात बा। ई गांव के बदे आज क दिन बहुते नीक बा।’ ऐसी-ऐसी कड़ुवी बातें घर आए परिवार के सदस्यों का सीना छलनी करती रहीं। और सब ने खून का घूंट पी कर किसी तरह वह दिन बिताया और अगले दिन सवेरे ही सब छोड़कर चले गए।

मगर पांचवें चाचा आपने हद तो यह कर दी कि परिवार के सदस्यों से मिलने तक नहीं गए। आप दोनों की हरकतों की चर्चा बाद में भी परिवार के सदस्य कर-कर के दुखी होते रहे। पूरे गांव में ऐसी घटनाएं,बातें नहीं हुईं जैसी आप दोनों ने कीं। आज हम अगली जनरेशन से उम्मीद करते हैं कि परिवार खानदान को एक करें। परंपराओं को निभाएं। चाचा-चाचा आपको क्या कहूं ? खुद को क्या कहूं ? आया किस काम से था? हो क्या गया, कर क्या रहा हूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्या हो गया है मुझे?

मुझसे अच्छे तो दोनों छोटे भाई हैं। आए तहसील में ही अपना हिस्सा बेच कर चले गए। पापा की डेथ के बाद दोनों ने चार महिना भी इंतजार नहीं किया। दोनों कितना कह रहे थे। कि भइया बेच दो। इमोशनल होने से कोई फायदा नहीं। प्रैक्टिकल बनिए। जब पापा लोग वहां कुछ नहीं कर पाए तो हम लोग क्या कर पाएंगे? मगर मेरी ही अकल पर पत्थर पड़ा था। आज यहां अधर में लटका फुली कंफ्यूज्ड पड़ा हूं। कुछ डिसाइड ही नहीं कर पा रहा हूं कि क्या करूं? और ये चाचा इनके लड़के, बहू की बातें इतनी टची हैं कि और बांधे ले जा रही हैं।

यही सब सोचता खाने के बाद मैं फिर ड्राइवर के साथ जीप में ही आराम करने लगा। खाने के बाद चिंकी ने मिठाई भी दी थी। खोया के पेड़े बेहद स्वादिष्ट थे। पापा यहां से जाते वक्त इन्हें जरूर ले जाते थे। ये बेहद सिंपल तरीके से यहां बनाए जाते हैं। मोटी पिसी शक्कर में हल्की सी लिपटी यह शानदार मिठाई यहां पचासों साल से मिलती आ रही है। मैंने सोचा शाम को चलूंगा यहां बाज़ार देखने। चलते समय यहां की मिठाइयां जरूर ले चलूंगा।

जीप में ही मेरी आंख लग गई। सो गया। और तरह-तरह के सपने आते रहे। करीब साढ़े छः बजे शिखर ने उठाया कि चलिए नाश्ता कर लीजिए। मैंने कहा ‘भइया देर से खाना खाया है। ज़्यादा खाया है। अब केवल चाय पियूंगा।’ मगर वह जिद पर अड़ा रहा। जाना पड़ा। धूप अब तक मकान की दिवार पर उसकी छत को छू रही थी। मकान के सामने छाया ही छाया थी। हमें बुलाने से पहले दरवाजे के सामने खूब पानी का छिड़काव कर दिया गया था। प्लास्टिक की कुर्सियां, मेज रखी थीं। एक कुर्सी पर चाचा छड़ी लिए बैठे थे। मैं भी ड्राइवर के साथ जाकर बैठ गया। चिंकी ने जग में पानी दिया था जिससे ड्राइवर और मैंने मुंह धोए। बड़ी राहत महसूस की।

मैं सिर्फ़ चाय पीना चाहता था। लेकिन चिंकी, शिखर, चाचा के आग्रह के सामने मेरी एक ना चली। हमें पकौड़ियां खानी पड़ीं। पकौड़ियां खाकर बार-बार उस पत्ती का नाम मेरी जुबान पर आकर रह जा रहा था जिससे यह बनीं थीं। अम्मा ने कई बार बना कर खिलाया था। घर पर बहुत दिनों तक यह गमलों में लगी भी थीं। पापा की मनपसंद थीं। लेकिन उनके स्वर्गवास के बाद बीवी ने निकाल कर दूसरे फूल वगैरह लगा दिए। मुझे गुस्सा आया था। मगर बीवी से कुछ कह नहीं सका था।

जब याद नहीं आया तो मैंने चिंकी से पूछ लिया। उसने बताया ‘अजवाइन’। यह ‘अजवाइन’ की पत्तियां छोटी-छोटी और मोटी होती हैं। बहुत ज़्यादा महकती हैं। उन्हीं को बेसन के गाढ़े घोल में डिप कर बनाया जाता है। चिंकी ने बेसन में कई और प्रयोग भी किए थे। जिससे पकौड़ियाँ बड़ी तीखी और टेस्टी बन गई थीं। चटनी में उसने नींबू का छिल्का, राई, लहसुन, हरी मिर्च, और जरा सा सरसों का तेल भी मिला दिया था। इस एक्सपेरिमेंट ने चटनी को बहुत तीखा,टेस्टी बना दिया था। चाय के साथ मैंने और ड्राइवर ने भी जी भर कर खा लिया।

मैंने देखा कि हम सब करीब आधा घंटा वहां बैठे चाय पीते रहे। शाम होते ही तमाम लोग आते-जाते रहे। लेकिन किसी ने चाचा से कोई बातचीत नहीं की। अमूमन जैसा कि गांवों में होता है कि लोग मिलते ही हाल-चाल, बातचीत, रामजोहार करते हैं। लेकिन यहां लोग सामने से निकल कर जाते रहे लेकिन किसी ने स्माइल तक नहीं दी। दिखाई यह भी दिया कि बाकी लोग जो आस-पास अपने घरों के सामने दिख रहे हैं वह जरूर आपस में बातचीत कर रहे थे। मुझे यह समझते देर ना लगी कि चाचा का व्यवहार गांव में कैसा है? लोग इनके परिवार से ही दूर भागते हैं।

मुझे फिर बड़ी कोफ्त होने लगी। कि आखिर मैं यहां क्यों आ गया, क्यों रुक गया? बढ़ती उलझन के चलते मैंने शिखर से कहा चलो बाज़ार घूमघाम के आते हैं। चाचा भी बोले,‘हां जा भइया के घूमाए लियाव जाय के।’ मन मेरा पैदल ही घूमने का था। लेकिन पैदल चलने के आलस्य के चलते जीप ले गया। बाज़ार में दुकानें खुली हुई थीं। गर्मी से राहत मिलते ही चहल-पहल बढ़ गई थी। सूर्यास्त होने ही वाला था। पश्चिम में दूर सूरज गाढ़ा केसरिया होता हुआ क्षितिज रेखा को छू रहा था।

बस स्टेशन के पास गाड़ी रुकवा कर मैं पैदल ही चहल-कदमी करने लगा। सिगरेट पीने का मन हो रहा था। मैं फिर उसी दुकान पर पहुंचा दोपहर में जिससे पता पूछा था। वह देखते ही मुस्कुराया। मैंने अपना पसंदीदा ब्रांड सिगरेट मांगी तो उसने कहा ‘भइया ई कस्बा गांव मा ज़्यादा महंगी सिगरेट नाहीं मिलती।’ फिर उसने जो सबसे महंगी थी उसके पास वही एक डिब्बी बढ़ाते हुए कहा ‘लअ भइया यहू ठीक बा।’ मैंने ले लिया। शिखर ने उससे परिचय कराया कि ये हमारे बड़े भइया हैं। फिर तो वह बातूनी पान वाला नॉन स्टॉप चालू हो गया। दुकान के सामने पड़ी दो बेंचों पर हम बैठ गए। एक दो लोग आकर और बैठ गए। मैंने शिखर को सिगरेट ऑफर की तो उसने भी ले ली। बात गांव के विकास से लेकर देश के विकास तक छिड़ गई। राजनीतिक पार्टियों की ऐसी की तैसी होने लगी।

पान वाला जिसका नाम जस्सू था, वह ग्राहकों को निपटाता भी जाता और बात भी चालू रखता। मैंने देखा उसे राजनीति की ठीक-ठीक समझ थी। जो लोग आकर बैठे थे वो उसकी बात में पूरा रस ले रहे थे। मैं तो ले ही रहा था। करीब सात-आठ लोग थे। इस बीच मैंने शिखर से कह कर बगल वाली दुकान से वहां बैठे सभी लोगों के लिए चाय मंगवा ली। पैसा भी भिजवा दिया कि कहीं यह जस्सू खुद ना देने लगे। मेरी आशंका सही निकली।

जब चाय आई तो जस्सू बोला ‘अरे भइया आपने काहे मंगा ली, आप हमारे मेहमान हैं। हमें पिलानी चाहिए चाय।’ वह चाय वाले को वहीं से चिल्ला कर पैसा वापस करने को बोलने लगा। उसने पैसा अपने आदमी के हाथ भेजा भी। लेकिन मैं किसी हालत में वापस नहीं लेना चाहता था। तो कहा ‘मैं बड़ा हूं। भाई कह रहे हो और भाई की मंगाई चाय नहीं पी सकते। ये चाय नहीं,मेरा स्नेह है आप सब के लिए।’ ऐसी भावनात्मक बातें कह कर उसे निरुत्तर कर दिया।

वह आखिर चाय का कुल्हड़ लेता हुआ बोला ‘भइया तू ता अपने पियार से हमार करेजवे निकाल लिहे। अब पिएक पड़बै करी।’ एक घूंट पी कर वह फिर चालू हो गया। बोला ‘भइया ई देश सुधरे वाला नाय बा। ई सारे नेतवे इका घोंट-घोंट पिए जात हैं। खोखला होत-जात बा आपन देश। ई सड़ीकिए देख लें। जब हम पैदा भय रहे तब से एके ऐइसे देखत हई। गढ़हा मा सड़क। बिजली का पता नहीं। मुंह दिखावे बदे आई जाए रतिया में।

हम तअ कहत हई भइया कि सत्तर साल बहुत देख लिए ई लोकतंत्र? अब बंद करो ई लोकतंत्र-फोकतंत्र का खेला। अब सेना का दई दो देश, वहू चलावे बीस-तीस बरिस। वहू का लाए के देइख लिया जाए। जेतना देश बिगड़ गवा बा ना, ओके सेना के सोंटा के बिना ठीक नाहीं किया जाय सकत। सेना के सोंटा के बिना काम ना चली। जब सेना का सोंटा चली तबै ई नेतवा और ई देशवासी ठीक होइएं। एकदम हिटलर के नाई। बिना सोंटा के कऊनों सुधरे वाला नाई हैएन। हिटलर के नाई कोऊनों चाही।

देखिन रहें हैं, सरकार कहि रही भइया सवेरे-शाम लोटिया लई के खेत मां जाइ के बजाय घरे मा जाओ, घरे में बनवाए लेओ शौचालय। पइसवो दिहिस। बनाए लिहिंन सब। लेकिन आदत से मजबूर जब-तक खेते में ना जइहें तब तक उतरबै नाहीं करत। जब सोंटा चलि जाए तो कऊनों ना दिखाई देई बाहर।’ मैंने कहा ‘हिटलर के शासन का मतलब समझते हो?’ तो उसने हिटलर की पूरी गाथा सामने रख दी ।

‘बोला भइया ई पूरा देश बन जाई। ई जऊन कश्मीर का खेल है ना, एक बार होई जाए परमाणु युद्ध। तीस-चालीस करोड़ मरि जाएं। आपन देश तबहूं रहेगा। ई सारि जीऊका जंजाल बना, पूरी दुनिया के नाक में दम किए पाकिस्तान तो नेस्तनाबूत होई जाई। उके बाद पूरा पाकिस्तान फिर से भारत में मिलाए लो। ई लोकतंत्र के खेला में नेतवन के चलते पाकिस्तान और कश्मीर समस्या बनी। तो ई नेतवे कभो ईका ना सुलझाए पहिएं।

भइया देश का एक हिटलर चाहि अब, हिटलर। तबै गाड़ी लाइन पर आई। तबै ई ससुर सुअर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश औकात मां अइहें। जैसे हिटलरवा देश के देश खतम कई दिहिस, उहे तरह, जाने भइया। भइया तोसे एकदम मन के बात बतावत हई कि देश सुभाष गिरी से बनत औउर एक रहत है। सुभाष गिरी ना अपनाए के देश बंटवाए, बीसन लाख मनई मार नावा गएन। पांच करोड़ घुसपैठियन का बोझ घाते मा लादे बैइठे हैंएन। तोहईं बतावा सही कहत र्है कि नाहीं। ’

जस्सू की बातें चलती रही। और मेरी सिगरेट चाय भी। मैं उसकी बात खाली सुनता रहा। तभी बोलता जब वह धीमा पड़ता। मैं उसमें बड़ी आग देख रहा था। उसकी जानकारियां कम थीं। लेकिन फंडा उसका सीधा सपाट और सीधा चोट करने वाला था। वह भ्रष्टाचार, गांव की गली से लेकर दिल्ली तक के विकास की बात करता रहा। सूरज क्षितिज से गले मिलकर गायब हो चुका था। अंधेरा हो गया था। जस्सू ने लालटेन जला ली थी। वह आखिरी बस के आने तक दुकान खुली रखता था। अब मैं भी उठ कर बस अड्डे के सामने जा रही रोड पर चल दिया। दोनों तरफ कुछ-कुछ दूरी पर कहीं किराना तो कहीं कपड़े, मिठाई, चाय और पटरी पर सब्जी वगैरह की दुकानें थीं।

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