ठग लाइफ - 12 Pritpal Kaur द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ठग लाइफ - 12

ठग लाइफ

प्रितपाल कौर

झटका बारह

शाम आयी और चली गयी. सविता का दिन खाना बनाने, नहाने धोने, खा कर एक लम्बी दोपहर की नींद लेने में निकल गया. जब नींद खुली तो शाम गहरा चुकी थी. बाहर भीतर सब जगह अँधेरा था. कुछ् देर उसी अँधेरे में लेटी रही. मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक तौर पर थकी हुयी सविता कुछ पल तक तो समझ ही नहीं पाई कि वो कहाँ है. यूँ ही याद करने की कोशिश में लेटी हुयी सोचने लगी ज़िंदगी के बारे में. अक्सर उसे लगता है अगर वो लडकी न होती तो आज जिस औरत के रूप में ढल गयी है वो न हुयी होती.

अगर वो लडकी न होती तो शायद उसकी माँ भी उसके लिए कुछ दरयादिल हो जाती. उसने देखा है उसके भाई के साथ कैसी नरमदिली से पेश आती थी बचपन में माँ. जब कभी वह घर जाती तो उसे लगता था कि उसका ये भाई ही उसकी ज़िन्दगी का असल विलन है. अगर ये भाई न होता तो शायद माँ को आखिरकार उसका ख्याल आ ही जाता. इकलौती होती अगर सविता तो शायद माँ कुछ वक़्त के साथ पिघल जाती और उसे अपनी बेटी के त्तौर पर स्वीकार कर लेती. तब जो भटकन सविता को मिली है, वो न मिली होती. उसका जीवन कुछ और ही होता.

लेकिन ये नहीं हो सकता था. उसे लडकी ही होना था. उसका पहले से एक भाई भी होना था. उसे उन्हीं नक्षत्रों में पैदा होना था. उसकी ज़िंदगी इसी तरह पूरी की पूरी बिखर जानी थी. जैसे-जैसे नींद खुल रही थी. पिछले दो दिनों की सारी बातें याद आ रही थीं और दिल फिर बैठा जा रहा था.

सविता का खौफ अभी गया नहीं था. हालाँकि पिछली शाम के बाद से रेखा या आशीष का कोई फ़ोन नहीं आया था. लेकिन तूफ़ान गुज़र चुका है इसका पूरा यकीन सविता को अभी तक नहीं हुया था.

आज सुबह रमणीक ने वादा किया था फ़ोन करने का लेकिन उसका फ़ोन नहीं आया था. अचानक याद आया सोने से पहले उसने फ़ोन साइलेंट कर दिया था. फ़ौरन लपक कर उठाया. लेकिन उसमें कोई मिस्ड कॉल नहीं थी. लगा रमणीक अब शायद ही फ़ोन करे. ये सहारा भी ज़िंदगी से निकल गया आखिरकार. उसने एक ठंडी सी सांस ली.

कुछ देर और लेटी रही तो लगा फिर से नींद आने लगेगी. और इस तरह शाम भर सोती रही तो रात सियाह हो जायेगी, आँखों आखों में ही. इसके अलावा भूख भी लग आयी थी.

एक झटके से उठी और रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. मेड दिन में एक ही बार सुबह आती है और सारे काम कर के चली जाती है. दोनों वक़्त के लिए सब्जियां, चावल और रोटी भी बनवा कर रख लेती है. अकेले रहने के यही कुछ फायदे हैं. ज्यादा बोझा नहीं. न संबधों का, न नखरों का और ना ही काम का. और जब मन चाहता है कहीं भी निकल जाती है. जहाँ जाती है वहीं खा भी लेती है. फ्रिज में रखा खाना अगले दिन काम आ जाता है.

चाय के साथ एक प्लेट में कुछ रस्क और बिस्कुट ले कर बालकनी में आ कर बैठ गयी. मन उदास था. उखड़ा हुआ भी. दो दिन में इतनी उठा-पटक हो चुकी है कि अब चैन भी काटने लगा है. फ़ोन की चुप्पी अलग परेशान किये हुए है. दो दिन से जाने क्या तो हुया है कि आम तौर पर जिन दोस्तों के फ़ोन आते थे वे भी नहीं आये. खैर! वो खुद ही फ़ोन करती रहती है सब को. उसे तो कम ही आते हैं.

लेकिन ये चुप्पी खल रही है. वीकेंड है सो उसकी योग क्लास भी नहीं है. और हैरत की बात तो ये है की किसी क्लाइंट ने हाथ दिखाने या जन्म पत्री बांचने के लिए भी उसे कांटेक्ट नहीं किया है. वैसे ये काम ज़्यादातर औरतें ही करती हैं. और वे भी वीक के दिनों में जब उनके पति काम पर होते हैं और बच्चे स्कूल कॉलेज गए होते हैं. सो वीकेंड अक्सर सविता का इसी तरह खाली सा ही होता है. मगर आज उसे ये खालीपन बहुत अखर रहा है.

दिल की इस घोर उदासी के बीच अचानक उसे चन्द्र किरण की तरह बेटी जसमीत की याद आ गयी. सुबह से जिस परेशानी और थकान में थी वो खुशी दबी हुयी पडी रह गयी थी. अब जा कर कुछ होश आया है तो नन्हे कोंपल सी उसकी याद मन के थके हुए दलदल से निकल कर बाहर आ गयी. हैरानी भी हुयी कि सुबह ही उसने अपने नंबर और पता भेज दिया था. अभी तक फ़ोन क्यूँ नहीं आया उसका?

फौरन मैसेंजर खोला फ़ोन पर. जसमीत ने अभी तक उसका मेसेज पढ़ा ही नहीं था. सविता परेशान हो उठी. कहीं ऐसा तो नहीं कि उसका मन फिर गया हो. ज्यादा सोचने पर उसने माँ से नहीं मिलने का फैसला कर लिया हो. जो भी हो. उसके पास इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं था.

बहुत देर तक सोचती रही कि कैसी होगी जसमीत. फेसबुक प्रोफाइल पर उसकी सिर्फ तीन फोटो थीं. उन्हें देर तक देखती रही और अंदाजा लगाने की कोशिश करती रही कि कैसी दिखती होगी. बचपन में ज्यादा जिद्दी नहीं थी. जल्दी ही माँ की बात मान जाती थी. रोती भी बहुत कम थी. कुल मिलाकर बेहद शरीफ बच्ची थी. जाने बड़ी हो कर उसमें वो शराफत बची होगी कि नहीं. बिन माँ के बच्चियों का क्या हाल होता है ये सविता से बेहतर कौन जान सकता है?

निहाल सिंह की माँ और जसमीत की दादी की मौत की खबर उसे मिल गयी थी. पटना से उसके निष्कासन के तीनेक साल के बाद ही. तब भी उसने सोचा था कि अब शायद बच्ची उसे मिल जायेगी. लेकिन जब उसने पता किया तो मालूम हुआ बच्ची पहले ही निहाल के पास जर्मनी जा चुकी थी.

उसके बाद उसके पास एक तलाकनामा आया था यूरोप के ही किसी छोटे से मुल्क से. और तब से ही वो उस तलाक के खिलाफ अदालत में जंग लड़ रही है. वैसे उस वक़्त तक उसकी अपनी ज़िंदगी बढ़िया पटरी पर आ चुकी थी. उसे बच्ची की ज्यादा कमी भी महसूस नहीं होती थी.

कई बार तो उसे ये भी लगा था कि बच्ची उसे मिल गयी तो वह बन्धनों में फस जायेगी. फिर इस तरह आज़ादी से न तो अपना काम ही कर पायेगी और न ही ऐसी मजे की ज़िंदगी ही जी पायेगी. सो जब पता लगा कि बच्ची अपने पिता के पास है तो उसने राहत की सांस ली थी.

रमणीक का भी शाम को फ़ोन करने का वादा खाली वादा ही लग रहा था. जैसे जैसे रात गहरा रही थी उस वादे के पूरे होने के आसार कम हो रहे थे. ये सब सोच ही रही थी. फेसबुक पर जसमीत की टाइम लाइन उसके सामने खुली पड़ी थी. तभी फ़ोन बज उठा. ये रमणीक का नया नम्बर था, जो सुबह उसने सेव कर लिया था. फिर भी कॉल रिसीव करते वक़्त एक बार हाथ भी कांपा और दिल भी बैठा. हेल्लो कहने में खासी देर लग गयी तो उधर से रमणीक की आवाज़ आयी.

"हेल्लो. सुन रही हो? मेरी आवाज़ आ रही है?'

"हाँ, हाँ. सुन रही हूँ. कैसे हो."

"मैं ठीक हूँ. अच्छा सुनो. मैं गुडगाव में ही हूँ. तुम घर पर ही हो?"

"हाँ. घर पे ही हूँ."

"ठीक है. मैं आ रहा हूँ."

"यहाँ मेरे घर पे?"

"हाँ. सब से सेफ यही जगह है. यहाँ वो कैमरा नहीं लगवा सकती. और मुझे तुमसे मिलना है यार. "

रमणीक के स्वर में प्रेमी की आतुरता थी. सविता सिर्फ यही पढ़ पायी. जो वह नहीं पढ़ पाई वो था इस आतुरता के साथ ही एक हार वाला एहसास भी. ऐसी हार जो उसे अपने से ताकतवर प्रतिद्वंदी से मिली थी और जिस हार के अपमान में वो इस वक़्त डूबा हुया था. अपमान और हार के जो ज़हरीले घूँट वह अब तक अपनी शादी में पीता आया था, उनसे उसके अन्दर एक जानवर अब बड़ा हो कर ताकतवर भी हो गया था.

और ये ताकतवर जानवर अब उस अपमान का बदला लेना चाहता था. ये लड़ाई रेखा और रमणीक की तो थी लेकिन दरसल ये लड़ाई वर्चस्व की लड़ाई बन गयी थी. शादी के युद्ध में वीरता की लडाई, नर्वस का जंग. दोनों में से जो भी टिका रह गया, जो भी अपनी मांग पर टिका रह गया उसकी जीत और दूसरा पराजित. हमेशा के लिए या फिर तब तक के लिए जब तक कि फिर से किसी और नए युद्ध की रण-भेरी न बज उठे.

रमणीक की शादीशुदा ज़िंदगी में ऐसे छोटे-मोटे युद्ध पहले कई बार हुए थे और वह चुप हो कर बैठ जाता था. मगर अब वह थक कर चुप होकर बैठ जाने से भी थक चुका था. वह थक चुका था, हार हार कर.

इसके अलावा अब तक उसने अपने पैरों के नीचे की ज़मीन भी खासी मज़बूत कर ली थी. उसे जो अभी नयी बेहद महत्वपूर्ण पोस्टिंग दिल्ली में मिली थी इसमें उसके ससुर के रसूख का योगदान बिलकुल नहीं था. यह काम पूरी तरह से उसके अपने काम, संबंधों, राजनैतिक पैंठ और समझ के बल पर हुआ था.

इसके अलावा ससुर जी भी दिनों दिन कुछ कमज़ोर पड़ते जा रहे थे. उनका स्वस्थ्य साथ नहीं दे रहा था. उम्र बढ़ रही थी. राजनैतिक हलकों में भी अब उनकी जगह किसी दूसरे युवा कार्यकर्त्ता को इस बार के लोक सभा चुनाव में टिकेट दिए जाने की दबी-छिपी ख़बरें सुनी जा रही थीं.

यानी लोहा गरम था. और रमणीक इस पर चोट करना चाहता था. और ये उचित मौका उसे मिल गया था. रेखा के सामने गलती मान कर माफी मांग लेने और भविष्य में सविता से दूर हो जाने के वादे करने के बावजूद रमणीक सविता के साथ सम्बन्ध बनाये रखे रह कर रेखा को जताना चाहता था कि अब वह उसका गुलाम कुत्ता नहीं रह गया था.

उसकी अपनी एक हैसियत थी और वह अपनी मर्ज़ी से जो चाहे कर सकता था. इसमें सविता के लिए किसी प्यार मोहब्बत या हमदर्दी की बात कम थी. वो तो बस शतरंज का एक मोहरा भर थी. जितनी देर उसकी ज़रुरत होगी रमणीक उसे इस्तमाल करेगा. जब यह मोहरा काम का नहीं रहेगा तो उठा कर डिब्बे में बंद कर दिया जाएगा. या उसे किसी और खिलाड़ी को खेलने के लिए दे दिया जाएगा.

लेकिन सविता को ये खेल समझ नहीं आया था. कितनी भी उसने चालाकियां की हो जीवन में उसने, बावजूद उसके वह एक भावुक औरत थी और जीवन में पैसे के अलावा उसकी सोच ज्यादा दूर तक नहीं जाती थी. रमणीक में उसे अपनी आर्थिक सम्पन्नता नज़र आती थी. उसे पूरा यकीन था कि वह उसे कोई अच्छा बिज़नस शुरू करवा देगा या फिर कोई बहुत अच्छी नौकरी दिलवा देगा.

फ़ोन रखते ही उसे ख्याल आया कि घर बेहद अस्त-व्यस्त है. आज सुबह तो मेड उसकी गैर मौजूदगी में ही सब काम कर के गयी थी. सो कपडे आयरन के बाद बिस्तर पर ही रखे थे. डस्टिंग के बाद तस्वीरें, मूर्तियाँ और शो पीसेज टेढ़े-मेढ़े ही हुये पड़े थे. आज किसी भी काम में या चीज़ में उसका मन नहीं लग रहा था. अब रमणीक ने आने की बात की तो अचानक अपने आस-पास की अव्यवस्था पर उसका मन घबरा गया.

फ़ौरन खुद को चुस्ती से भर कर उठी और सब से पहले तो बेडरूम में दाखिल हुयी. कपडे आलमारी में सहेज कर रखे. बिस्तर पर धुली हुयी चादर निकाल कर बिछाई. तकियों के गिलाफ बदले, बेड कवर भी नया निकाल कर लगाया. उतारे हुयी सभी कपड़ों को रसोई की बालकनी में ले जा कर वाशिंग मशीन में डाला. साबुन और कंडीशनर डाले. मशीन चला दी. जब वयवस्था पर आये तो सविता खालिस गृहिणी बन जाती है. कोई काम अधूरा नहीं छोडती. हर काम करीने से. हर चीज़ टिप टॉप.

अब फिर लौट कर बेडरूम में आयी. कुर्सियां साफ़ कीं. टेबल पर रखा टेबल क्लॉथ झाड कर करीने से बिछाया. फूलदान में परसों रखे फूल अभी बासी नहीं हुए थे, उन्हें ठीक ठाक किया. खड़े हो कर कमरे का जायजा लिया. कमरा बिलकुल फिट था. मेहमान के स्वागत के लिए. एक मंद मुस्कान चहरे पर खिल गयी.

मेहमान. दोस्त. प्रेमी. एकाएक रेखा का ख्याल आया तो मन बुझ गया. डर के मारे दिल तेज़ी से धड़क गया. कहीं रेखा को पता चल गया तो? नहीं आग से नहीं खेलना चाहिए. लेकिन अगले ही पल रमणीक का मुस्कुराता चेहरा याद आ गया तो उसका गर्म आलिंगन और मदहोश कर देने वाले चुम्बन भी याद आ गए. सविता ने एक झटके से रेखा के खयाल को दिल से निकाल फेंका तो रमणीक का ख्याल फ़ौरन उस खाली हुयी जगह को भरने चला आया.

अब वो बाथरूम की तरफ लपकी. समय कम था. रमणीक कभी भी आ सकता था. तभी ख्याल आया कि वो गाडी कहाँ पार्क करेगा. फिर मन से ये ख्याल निकाल दिया. वो खुद ही देख लेगा. वैसे यहाँ गेट पर से गार्ड इण्टरकॉम कर के पूछ लेते हैं जब भी किसी के भी फ्लैट में कोई मेहनान आता है. वे पूछेंगे तो बता देगी उनको कि मेहमान है गाडी अन्दर ही पार्क करवा दें.

वैसे भी रमणीक रेसौर्सफुल आदमी है. हो सकता है ड्राईवर नया रख लिया हो. रोशन लाल को तो निकाल ही दिया होगा अब तक. इतना बड़ा हंगामा हो जाने के बाद उसे रखे रखने की तो कोई तुक भी नहीं थी. उसे सविता के घर तक लाने की गलती तो रमणीक भूले से भी नहीं कर सकता इतना भरोसा है सविता को.

बाथरूम में सब ठीक ठाक ही था. सविता हमेशा बाथरूम को नहाते के साथ ही साफ़ कर देती है. टॉयलेट पेपर हेमशा करीने से लगा रहता है. तौलिये हमेशा सही तरीके से टंगे रहते हैं या तह किये हुए रैक पर रखे होते हैं. साबुन सूखा साफ़-सुथरा. बाथरूम भी सूखा और महकता हुआ.

वाइन की बोतलों में सजा कर रखे हुए मनी प्लांट खिड़की में सजे रहते हैं. सविता का मानना है कि किसी भी औरत का बाथरूम उसकी असली पहचान होता है. सविता की सुरुचि की पहचान उसका बाथरूम एक ही पल में दे देता है.

अब बारी थी ड्राइंग रूम की. यहाँ सब ठीक ही था. बस कुछ शो पीसेज ठीक से नहीं रखे थे. उन्हें करीने से सही एंगल दे कर ठीक किया. सोफे पर कुशन सही लगे हुए थे. टेबल थोडा अन्दर की तरफ हो गयी थी. उसे ठीक किय

रसोई में जाकर देखा. वहां सब साफ़-सुथरा धुला पूंछा हुया था. सविता की मेड रसोईं बहुत करीने से रखती है. वैसे खाना भी कम ही बनाता है उसकी रसोई में तो उसे करीने से रखना ज्यादा मुश्किल काम है भी नहीं.

अभी चाय पी थी तो उस कप और प्लेट को भी धो कर रख दिया और इत्मीनान से रसोई से निकल कर ड्राइंग रूम में खड़े हो कर सामने गेस्ट रूम के खुले दरवाजे से देखा. फ्लैट का दूसरा बेडरूम जिसे गेस्ट रूम का नाम दिया है सविता ने, आमंत्रण देता हुआ उसकी तरफ देख रहा था. मुस्कुराती हुयी सविता आकर सोफे पर बैठ गयी रमणीक के इंतज़ार में.

दो दिन की उठा-पटक, पेरशानी, तनाव, डर सब एक साथ धुल गए थे इस एक बात से कि रमणीक ने उसकी सुध ली थी. उसे मिलने आ रहा था. सविता ने सोचा तो एक ख्याल मन में आया कहीं वह रमणीक से प्यार तो नहीं कर बैठी? फिर सोचा कि कर भी बैठी तो इसमें हर्ज़ ही क्या है?

रमणीक जिस तरह उसका ख्याल रखता है प्यार न होना ही हैरत में डालता. मन को तसल्ली देने लगी. बस रेखा उसकी पत्नी न होती तो कितना अच्छा होता. तब शायद रमणीक उससे शादी ही कर लेता. रमणीक के साथ शादीशुदा ज़िन्दगी कैसी सुकून भरी होती. उसका एक पति होता. एक बड़ा सा घर होता. भरा पूरा. बच्चे होते. चहल-पहल होती. यूँ अकेली बैठ कर अपना छोटा सा घर सजाये किसी और के पति का इंतज़ार नहीं कर रही होती.

एक टीस फिर उठी सविता के मन में. बेहद तीखी. अपमान की. मन को लगी ठेस की. मन खट्टा हो गया. जसमीत की याद आ गयी. फ़ोन में मैसेंजर खोला. जसमीत ने अभी तक उसका मेसेज नहीं देखा था. सविता परेशान हो उठई.

कैसे मालूम करे कि कहाँ है जसमीत. क्यों मेसेज नहीं पढ़ रही? क्या चल रहा है उसके मन में? फेसबुक खोल कर जसमीत की टाइम लाइन पर जा कर देखा. वहां भी कोई एक्टिविटी नहीं थी. कुछ दिन पहले के अमृतसर के फोटो थे अकेली जसमीत के. कुछ सेल्फिज और कुछ शायद किसी और ने खींचे थे. कैप्शन में सिर्फ इतना लिखा था. "एट गोल्डन टेम्पल" .

ना भारत आने की कोई सूचना न किसी और जगह पर जाने या किसी से मिलने की कोई बात या फोटो ही. समझ गयी काफी प्राइवेट किस्म की शख्सियत है जसमीत की. देख कर अच्छा ही लगा लेकिन दिल बुझ भी गया. ज्यादा सूचना भी नहीं थी जसमीत के बारे में उसकी प्रोफाइल में.

फिर ख्याल आया कि वह खुद उसकी फ्रेंड लिस्ट में नहीं है इसलिए हो सकता है कि उसकी जानकारी इसीलिये नहीं देख पा रही. फ़ौरन रिक्वेस्ट भेज दी. तो जवाब में एक सवाल आया, "डू यू नो जसमीत आउटसाइड फेसबुक?'

उसने यस को क्लिक कर दिया.

दिल इस कदर दुखा कि आँखों में आंसू आ गये. अपने ही पेट की जायी को क्या वह नहीं जानती? लेकिन सच भी तो यही था. अपने ही पेट की जायी को सविता नहीं जानती थी. सविता का ही इतिहास दोहराया जा रहा था. ये कैसी विरासत जसमीत को मिली थी. जिंदा माँ की बिन माँ वाली बेटी की वह बेटी बनी थी बिना माँ वाली.

आँखें पोंछ कर सविता ने जायजा लेने की कोशिश की कि पिछले कुछ घंटों में जसमीत फेसबुक पर आयी थी कि नहीं. लेकिन समझ नहीं पाई. क्या उसे उत्सुकता नहीं है अपनी माँ के जवाब की? क्या सचमुच सिर्फ सविता के ही मन में बेटी को लेकर उत्साह है? जसमीत को कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है माँ से मिलने में? दिल उदास हो आया.

मन को खींच कर रमणीक का ख्याल सामने ले आयी और दिल फिर महक उठा. वह सोफे पर अधलेटी हो गयी. शाम गहरा गयी थी. जुलाई की उमस बाहरी शाम को एसी की मादक ठंडी हवा बाहर ही रोके हुए थी. कब सविता की आँख लग गयी उसे इसका एहसास तक नहीं हुआ.

***