बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 1 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 1

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

चार घंटे देरी से जब ट्रेन लखनऊ रेलवे स्टेशन पर रुकी तो ग्यारह बज चुके थे। जून की गर्मी अपना रंग दिखा रही थी। ग्यारह बजे ही चिल-चिलाती धूप से आंखें चुंधियां रही थीं। ट्रेन की एसी बोगी से बाहर उतरते ही लगा जैसे किसी गर्म भट्टी के सामने उतर रहा हूं। गर्म हवा के तेज़ थपेड़े उस प्लेटफॉर्म नंबर एक पर भी झुलसा रहे थे। अपना स्ट्रॉली बैग खींचते हुए मैं वी. आई. पी. एक्जिट के पास बने इन्क्वारी काउंटर पर पहुंचा यह पता करने कि जौनपुर के लिए कोई ट्रेन है, तो वहां से निराशा हाथ लगी।

कुछ ट्रेन निकल चुकी थीं। अगले कई घंटे तक वहां के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया क्या करूं? काउंटर से हटकर इधर-उधर देखने लगा। पहुंचना जरूरी था और समय भी मेरे पास बहुत कम था। मैं थोड़ी ही दूर पर एक बेंच पर बैठ गया। स्टेशन पर इधर-उधर नजर जा रही थी। वहां की साफ-सफाई मेंटिनेंस देखकर कहना पड़ा वाकई चेंज तो आया है।

यही स्टेशन कुछ साल पहले तक अव्यवस्था, गंदगी का प्रतीक हुआ करता था। यदि शासक, समाज चाह लें तो कुछ भी हो सकता है। परिवर्तन में समय नहीं लगता। यह परिवर्तन देखते-देखते मैंने बोतल निकालकर कुछ घूंट पानी पिया, फिर यह सोचते हुए बाहर आया कि चलें देखे बाहर कोई बस वगैरह मिले तो उसी से चलें। पहुंचना तो हर हाल में है। स्टेशन की अपेक्षा बाहर मुझे परिवर्तन के नाम पर भीड़-भाड़, अस्त-व्यस्तता दिखी।

मेट्रो ट्रेन का काम तेज़ी से चल रहा था। जिसके कारण डिस्टर्बेंस हर तरफ दिख रही थी। बाहर बसों की हालत, गर्मी ने मुझे पस्त कर दिया। अंततः जौनपुर के लिए एक टैक्सी बुक की। मैंने सोचा पैसे ज़्यादा लगेंगे लेकिन कम से कम आराम तो रहेगा। पैसे को लेकर मैंने ज़्यादा झिख-झिख नहीं की। ड्राइवर भी इत्तेफाकन पढ़ा-लिखा, समझदार, अच्छे मैनर्स वाला मिल गया। मैंने सोचा चलो रास्ते भर बोरियत से बच जाऊंगा।

संयोग से वह भी पूर्वांचल का निकला। बलिया जिले का। वह इंग्लिश लिट्रेचर, हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएट था। दोनों ही भाषाओं पर उसकी जबरदस्त पकड़ देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ लिया ‘नौकरी के लिए कभी कोशिश नहीं की क्या?’ तो उसने बताया कि ‘कई प्रतियोगी परीक्षाओं के रिटेन मैंने फर्स्ट अटेम्प्ट में ही क्लीयर कर लिए। लेकिन इंटरव्यू में हर जगह फेल होता रहा। जब कि रिटेन की तरह इंटरव्यू भी मेरे जबरदस्त होते थे।’ आखिर में उसने जोड़ा कि ‘राजनीतिक पहुंच या सोर्स के सिरे से नदारद होने, आर्थिक रूप से कमजोरी, और इन सबसे ज़्यादा यह कि जनरल कैटेगरी वालों के लिए नौकरी है ही कहां?’ उम्मीदों का हर तरफ से टोटा ऐसा था कि नौकरी पाना, उसे असंभव लगा।

प्राइवेट स्कूलों में कुछ दिन टीचर की नौकरी की लेकिन वहां जी-तोड़ मेहनत करने के बाद मिलने वाले कुछ हज़ार रुपयों ने उसकी उम्मीदों की रही-सही कसर भी निकाल दी। मैंने उसकी सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर गहरी जानकारी, क्लीयर कांसेप्ट को देखकर कहा- ‘तुम्हारी बातों से लगता है कि शायद तुम नौकरी ना मिलने, अपनी इस हालत के लिए रिजर्वेशन को ज़िम्मेदार मान रहे हो।’

मेरी इस बात पर वह हंस पड़ा। बोला ‘नहीं बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है कि मैं अपनी बातें आपको ठीक से कम्यूनिकेट नहीं कर पाया। देखिए मैं यह बहुत स्पष्ट मानता हूं कि मेरे साथ फेयर गेम हुआ होता तो कम से कम तीन-चार जगह मेरा सेलेक्शन हो जाता। लेकिन सिस्टम ही करप्ट है इसलिए यह होने की बात ही नहीं उठती। नौकरी मुझे एकाध जगह तब भी मिल जाती यदि सिस्टम में करप्शन होता। लेकिन सर मैं जब नौकरी पाने के प्रयास में आगे बढ़ा तो पाया कि भई यहां सिस्टम में करप्शन नहीं है। यहां तो करप्शन में सिस्टम है। हमारे देश में वास्तव में जो सिस्टम डेवलप हुआ वह करप्शन में डेवलप हुआ।

आप सोचिए कि जो देश सदियों के बाद आज़ाद हुआ हो, वह अपना भविष्य बनाने के लिए आगे बढ़े और कुछ वर्ष भी ना बीते और एक बड़ा घोटाला हो जाए। फिर आरोपी को सजा देने के बजाय केंद्रीय मंत्री बना दिया जाए। तो ऐसे देश के बेहतर भविष्य और आयडल सिस्टम के डेवलप होने की उम्मीद करना ही मूर्खता थी, जो हम देशवाशियों ने की। गलती तो हमारी ही थी। पूत के पांव पालने में ही नजर आ गए थे। साफ दिख रहा था कि करप्शन के दल-दल में देश के डेवलपमेंट का बीज हमारे कर्णधार रोप रहे हैं, फिर भी हम अंधे बने रहे। शायद आज़ादी की लड़ाई की थकान उतार रहे थे। लेकिन नहीं, थकान की बात नहीं। बात तो यह थी कि हमलोग यह जो कहते हैं ना कि पानी ऊपर से नीचे की ओर आता है। जहां-जहां वह पहुंचता है लोग उसे ही इस्तेमाल करते हैं। लोग सोचते हैं कि यह ऊपर से आ रहा है, तो यह साफ ही होगा। फिर लोग उसी के आदी होते चले जाते हैं। तो हमारे यहां देश में यही हुआ।

ऊपर करप्शन होते गए। ऊपर से नीचे बढ़ता गया। एक के बाद एक घोटालों से देश को छलनी किया जाता रहा। लेकिन हम क्यों कि इसके आदी हो चुके थे। इसे हमने सिस्टम मान लिया, और इस सिस्टम का जो तरीका है काम करने का वह है भ्रष्ट तरीके से काम करना और करवाना। उसी को हमने ग्रहण कर लिया। सत्ता के मद में चूर ऊपर लोग पूरा देश चूसते रहे। खोखला करते रहे और हम सोए रहे। साठ-पैंसठ साल तक सोए रहे। जब जागे तो इतनी देर हो गई है कि हर तरफ भ्रष्टचार, गंदगी सड़ांध ही सड़ांध है। इतनी कि नाक फटी जाती है।

अब आज की जेनरेशन इससे छुटकारा पाने को तड़प रही है। ऊपर का सिस्टम भी इस चीज को समझ गया है। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि जब ऊपर वालों ने देखा कि नई जेनरेशन इतनी परेशान हो चुकी है कि विस्फोट हो सकता है तो उसने भले ही दबाव में या जो भी कहें संड़ाध गंदगी को दूर करना शुरू किया है। लेकिन यह सड़ांध दूर होने में समय लगेगा। हथेली पर सरसों उगाने का कोई रास्ता तो अभी तक नैनो टेक्नोलॉजी भी नहीं ढूंढ़ पायी है।

साठ-पैंसठ साल की सड़ांध को दूर करने में यदि ईमानदारी से पूरी कोशिश होती रही तो भी मैं मानता हूं कि आठ-दस साल तो लग ही जाएंगे। और यह भी तब ही हो पाएगा जब हम देशवासी जागते रहें, फिर से सो ना जाएं। तय यह भी है कि इस बार अगर सोए तो सब कुछ नष्ट होना अवश्यंभावी है। और यह भी कि यदि नई जेनरेशन की आवाज़ को ऊपर वालों ने नजरंदाज किया। पहले वालों की तरह आंखें बंद किए रहे तो देश में खूनी क्रांति भी हो सकती है। और उस स्थिति के लिए मैं यही कहूंगा कि जब किसी देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना जरूरी हो जाए, कम समय में ही, तो वहां तक पहुंचने का रास्ता खूनी क्रांति से ही होकर गुजरता है। इतिहास इस बात का गवाह है। हमें इतिहास से सबक लेते रहना चाहिए। जो आगे देखने से पहले अतीत पर नजर नहीं डालते उनको ठोकर लगती ही है।’

वह नॉन स्टॉप पूरे आवेश में ऐसा बोला कि मैं कुछ देर चुप-चाप सुनता ही रहा। उसकी बातों ने वाकई मुझे यह यकीन करा दिया कि इस व्यक्ति में बड़ा ज्वालामुखी धधक रहा है। इसी में क्यों बल्कि इसकी उम्र की पूरी पीढ़ी में ही। लेकिन मुझे लगा कि इसने मेरी बात का तो जवाब दिया ही नहीं कि यह अपनी हालत के लिए आरक्षण को ज़िम्मेदार मानता है कि नहीं।

यह सोच कर मैंने उसे फिर कुरेदा तो वह बड़ी बेबाकी से बोला। ‘नहीं। मैं इसे ज़िम्मेदार नहीं मानता। क्यों कि मैं यह मानता हूं कि आज़ादी के बाद भी अगर हम समाज में फैली असमानता को दूर नहीं कर पाएंगे तो भी देश का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा। यह व्यवस्था असमानता को दूर करने का एक माध्यम है। लेकिन करप्शन में पैदा सिस्टम ने इस व्यवस्था को भी विकृत कर दिया। इसकी भी धुर्रियां उड़ा दी हैं। जिसका परिणाम और नकारात्मक निकल रहा है।

समाज में सदियों से पीछे छूट गए जिन दलितों के लिए यह व्यवस्था बनाई गई। इस व्यवस्था को विकृत कर दिए जाने के कारण उन दलितों में भी वर्ग बनते जा रहे हैं। कुछ परसेंट हैं जो इस के चलते आगे निकल गए, वो पुश्त-दर पुश्त उसी का लाभ उठाते रहना चाहते हैं। उनको यह क्रीम मिलती रहे इसके लिए सक्षम बन चुका यह वर्ग जो अब भी पीछे छूटे हुए हैं, उनको आगे आने नहीं दे रहा।

हर संभव रुकावट डालता है, जिसका परिणाम है कि दलितों में भी परस्पर वैमन्स्यता बढ़ रही है। असमानता बढ़ रही है। यह व्यवस्था बनाते वक्त इसकी जो मूल भावना थी, इसकी जो आत्मा थी उसे ही नष्ट कर दिया गया है। परिणाम यह है कि एक के सामने रखी थाली छीन कर दूसरे को दी जा रही है। दूसरे की तीसरे को। तो जो इक्वेलिटी लाने की बात थी वह तो कहीं है ही नहीं। बल्कि असमानता और बढ़ रही है। विषमता, विभेद चरम छूने को है। इसी का परिणाम है कि अब देश के कोने-कोने में हर वर्ग ही आरक्षण पाने के लिए आंदोलन कर रहा है। लड़ रहा है। कोई इसकी विकृति को सुधारने की बात ही नहीं कर रहा है।

अब ऐसे में मैं आरक्षण नहीं इस व्यवस्था की सड़ांध इसकी विकृति को अपनी स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मानता हूं। इसे बनाते समय इसकी संकल्पना करने वालों, इसे बनाने वालों की बातों, उनके विचारों को आधा भी माना जाता तो आज किसी वर्ग को आरक्षण की जरूरत ही ना होती। यह व्यवस्था ही अप्रासंगिक हो जाती। खत्म हो जाती। असमानता से दूर समाज, देश की प्रगति की वो कहानी लिखता जिसकी दुनिया ने भी कल्पना न की होती। मगर अफसोस आज़ादी मिलते ही सत्ता के लोभियों की नजर हर तरफ लग गई। उनकी सत्ता हर वक्त चलती रहे, बनी रहे इसके लिए वोट की राजनीति चली और चलती ही आ रही है। सारी समस्या को नए ढंग से नया रूप देकर उन्हें बराबर विकराल रूप दिया गया। वह अभी भी जारी है। इसलिए मैं कहता हूं कि यह कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि हमारे देश में गृहयुद्ध या खूनी क्रांति हो जाए।’

इन बातों को कहते हुए ड्राइवर आदित्य विराट सिंह के चेहरे पर जबरदस्त तनाव था। चेहरा लाल हो रहा था। पीछे सीट पर बैठा मैं बैक मिरर में यह सब कुल मिलाकर देख पा रहा था। बैक मिरर भी मुझे लगा कि सही एंगिल पर नहीं था। उसकी बात पूरी हो गई। मैं बड़ी देर तक चुप रहा। मुझे लगा कि शायद वह मेरी वजह से बड़े तनाव में आ गया है। मैं नहीं चाहता था कि वह तनाव में ड्राइविंग करे। मैंने उससे कहा ‘आदित्य जी आगे कोई अच्छा सा रेस्टोरेंट वगैरह दिखे तो रोकना।’ अपने नाम के साथ जी जुड़ा पाकर वह जैसे राहत महसूस कर रहा था। जी कहते समय मैंने उसकी बॉडी लैंग्वेज को रीड करने की भरसक कोशिश की थी।

आगे जब एक रेस्टोरेंट पर उसने गाड़ी रोकी तो मैंने उसकी अनिच्छा के बावजूद उसे अपने साथ ही बैठकर लंच करने के लिए तैयार कर लिया। कई बार कहने पर वह तैयार हुआ था। बातूनी स्वभाव के चलते इस समय भी मैंने उससे खूब बातें की जिससे लंच कुछ ज़्यादा ही लंबा खिंच गया। इस दौरान मैंने पाया कि वह पैसे से ज़्यादा सम्मान का भूखा है।

उसने बताया कि घर की ज़िम्मेदारियों, फिर शादी के बाद बीवी, बच्चे की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए टीचिंग से मिलने वाली रकम ऊंट के मुंह में जीरा सी थी। कोई और रास्ता ना देखकर उसने बीवी के गहने आदि बेचकर डाउन पेमेंट करने लायक भर की रकम जुटाई, फिर बैंक से फाइनेंस कराकर यह टैक्सी निकलवाई। उसने बिना संकोच कहा, ‘खुद चलाता हूं इस लिए बचत अच्छी कर लेता हूं। गाड़ी की कुछ किस्तें रह गई हैं। इसके बाद एक और गाड़ी निकलवाऊंगा।’

उसने अपने बच्चों के भविष्य, आगे बढ़ने को लेकर जो भी प्लान कर रखा था उससे मैं बहुत इंप्रेस हुआ, अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के प्रति उसकी गंभीरता प्रशंसा योग्य थी। इसके लिए मैंने उसकी खुले दिल से प्रशंसा की। उस वक्त मैं मन में बड़ी आत्मग्लानि महसूस कर रहा था कि मैंने अपने मां-बाप के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन संतोषजनक ढंग से भी नहीं किया। मैं बड़ा पछतावा महसूस करने लगा।

मन में उठे इन भावों के साथ ही मैं आदित्य की बातें सुनता रहा। रेस्टोरेंट से जौनपुर की ओर चलने के बाद भी। जब अपने रिश्तेदार के यहां ओलंद गंज, जौनपुर पहुंचा तो शाम हो चुकी थी। इस दौरान आदित्य की बहुत सी बातों में सेे एक बात मेरे मन को और गहरे मथने लगी। उसने कहा था कि ‘सर चाहे जैसे भी हो मैं कोशिश कर के कम से कम दो बीघा जमीन गांव में और खरीदूंगा। मेरे पापा तो जीवन भर तमाम मुश्किलों के कारण गांव में एक धूर जमीन भी नहीं खरीद पाए। लेकिन उन्होंने यह भी किया कि हर मुश्किलें सह लीं लेकिन अपने बाप-दादों की जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं बेचा।

मैं सोचता हूं कि अगर दो-चार बीघा जमीन ले लूंगा तो फादर को खुशी होगी कि वो ना खरीद पाए तो क्या उनके बेटे ने तो खरीद लिया। बाप-दादों का सम्मान बढ़ा दिया। पूरा गांव ही तारीफ करेगा। उन्हें यह जो खुशी मिलेगी मेरे लिए वह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।’

मैं अपने रिश्तेदार के साथ बैठा चाय-नाश्ता करता रहा लेकिन आदित्य की यह बात दिमाग से निकल नहीं रही थी। आदित्य जाते-जाते मुझसे हाथ मिला कर गया था। मुझे इस बात के लिए उसने बहुत-बहुत धन्यवाद कहा था कि मैंने उसे रास्ते भर एक टैक्सी ड्राइवर नहीं एक मित्र की तरह ट्रीट किया। फिर उसने बड़े संकोच के साथ मेरा मोबाइल नंबर भी ले लिया। बोला ‘सर जब याद आएगी तो आप से बात कर लिया करूंगा।’

देर रात जब मैं खा-पी कर लेटा तो भी उसकी बातें दिमाग में चल रहीं थी। मैं अपनी पैतृक प्रॉपर्टी बेचने गया था। इस काम में मेरे यही रिश्तेदार जो चचेरे भाई लगते हैं वही मदद कर रहे थे। मेरा गांव वहां से घंटे भर की ही दूरी पर था। रामगढ़, मछली शहर तहसील। अगले दिन सुबह मैं उन्हीं की जीप से तहसील पहुंचा। उन्होंने ड्राइवर के अलावा दो आदमी और साथ लिए थे। उन्होंने खरीददार से सब कुछ तय कर रखा। फिफ्टी पर्सेंट पेमेंट ब्लैक कैस में लेना था, फेयर मनी सीधे बैंक में जमा होनी थी। सब कुछ तय था। बदले में मैं उन्हें भी कुछ देने की अपने मन में सोचे बैठा था। असल में वह एक अच्छे खासे ठेकेदार हैं। सफल ठेकेदार के गुण दबंगई उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है।

तहसील में ही मुझे उनके चार-पांच आदमी और मिले। सब दूसरी जीप से थे। रिश्तेदार ने उन्हें भी सुरक्षा की दृष्टि से बुलाया था। क्योंकि मामला करीब पांच बीघे का था। और अस्सी लाख रुपए में तय हुआ था। हम साढ़े दस बजे पहुंच गए थे। खरीददार कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। रिश्तेदार ने सबसे पहले संबंधित स्टाफ का पता किया। संयोगवश सब आए थे। ग्यारह बजे भी खरीददार नहीं दिखा तो रिश्तेदार ने उन्हें फो़न किया। रिंग जाती रही लेकिन उसने फ़ोन रिसीव नहीं किया।

इससे मैं थोड़ा परेशान हो उठा। उनके चेहरे पर भी तनाव दिख रहा था। खरीददार चार भाई थे और सभी मिलकर खरीद रहे थे। दूसरे भाई का नंबर ट्राई किया गया तो स्विच ऑफ मिला। बारह बज गए तो रिश्तेदार ने अपने आदमियों को खरीददार के गांव तिलोरे उनके घर भेजा। वहां पहुंच कर उन सब ने सूचना दी कि बड़े भाई की दो घंटे पहले ही डेथ हो गई है। वह हार्ट पेशेंट थे। दो बार पहले ही अटैक पड़ चुका था। सुबह आने की तैयारी चल रही थी कि तभी पत्नी से बहस हो गई। पत्नी शुरू से ही भाइयों के साथ इस सौदे के खिलाफ थी। ऐन खरीदने के समय झगड़ा उन्हें अपशगुन लगा। वह एकदम बिगड़ गए थे। और फिर संभाल ना पाए खुद को और गिर पड़े। उन्हें इतनी तेज अटैक पड़ा था कि डॉक्टर के यहां ले जाने का अवसर ही नहीं मिला।

यह सूचना मिलते ही रिश्तेदार ने अपना सिर पीटते हुए कहा ‘क्या! दो-चार घंटे और नहीं रुक सकते थे।’ मुझे लगा जैसे मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गई है। कुछ देर समझ ही नहीं आया कि क्या करूं? मेरी बोलती बिल्कुल बंद हो गई थी। रिश्तेदार भी हैरान थे। कुछ देर बाद तय हुआ कि जो भी हो उनके यहां चलना तो चाहिए ही। उनके अंतिम दर्शन करने। ज़्यादा करीबी नहीं तो क्या थोड़ा बहुत परिचय तो था ही।

वहां पहुंचा तो देखा चौपहिया, दुपहिया वाहन सौ से ऊपर थे। दो सौ लोगों से कम लोग नहीं थे। बड़ा भारी पक्का मकान था। वहां पता चला कि सारे भाई एक साथ रहते हैं। संयुक्त परिवार की परंपरा इस परिवार ने बना रखी है। मगर बड़े भाई की पत्नी तभी से अपना रंग दिखा रही थी, जब से उसका बड़ा लड़का इलाहाबाद में एक बैंक में नौकरी पा गया था। और उसकी शादी के लिए लोग आने लगे थे। वह अलग सारी व्यवस्था करना चाहती थी। अपनी बहू वह संयुक्त परिवार में लाना नहीं चाहती थी। इसी बात को लेकर वह आए दिन विवाद पैदा करती थी।

आज जब साथ में खेत खरीदने की बात उसने एकदम फलीभूत होते देखी तो अपना आपा खो बैठी। यह भी होश ना रख सकी कि हृदय रोगी उसका पति ज़्यादा तनाव झेल नहीं सकता। और अब जब पति चला गया तो खुद भी झेल नहीं पाई। बेहोश पड़ी है। मगर लोग इतने खफा हैं कि कोई डॉक्टर तक नहीं बुला रहा। रिश्तेदार ने वहां अपनी हाजिरी बजाई, मातमपुर्सी की और चल दिए। मैं सोचता रहा इतनी दूर से आना बेकार हुआ। सारा काम-धाम छोड़कर आया, कई दिन के काम का नुकसान हो रहा है।

गांव से निकल कर सड़क पर आए तो रिश्तेदार ने कहा ‘परिवार के किसी सदस्य की अचानक डेथ से परिवार हिल उठता है। बेचारे खेत खरीदने जा रहे थे।’ मैंने भी दुख व्यक्त करते हुए कहा ‘इसीलिए कहते हैं पल की खबर नहीं सामान सदियों का।’ रिश्तेदार बोले ‘अरे भाई साहब ये सब पुरानी दकियानूसी बातें छोड़िए। आप भी, मैं क्या कह रहा हूं और आप समझ क्या रहे हैं। मैं कह रहा हूं कि महिनों से कोशिश की। तब जा कर बात बनीं। आपको इतनी दूर से बुलाया। और ये महोदय कुछ घंटे अपना दिल भी नहीं संभाल पाए।

घर और भाइयों को मैं जितना जानता हूं उस हिसाब से तो यह सौदा अब होना नहीं। बड़े दकियानूसी विचारों वाला परिवार है।’ तभी उनका एक साथी बोला ‘वैसे भी अब साल भर तक तो कोई सवाल नहीं। इतने दिन कोई शुभ काम करेंगे ही नहीं। हां अगर बरसी वगैरह सब साथ ही निपटा देते हैं तो भले ही उम्मीद की जाए कि दो-चार महिने बाद खरीद लेंगे। अभी सब लोक-लाज की बातें करेंगे कि अभी भाई मरा है, खेती-बाड़ी क्या खरीदें? दुनिया क्या कहेगी?’

साथी की बात ने मेरी परेशानी और बढ़ा दी। लेकिन रिश्तेदार ने यह कह कर चैप्टर ही क्लोज कर दिया कि ‘मुझे तो कोई उम्मीद नहीं दिखती। ये सब यहां शगुन-अपशगुन बहुत देखते हैं। अब यही कहेंगे कि इन खेतों का सौदा बहुत अपशगुन रहा। खरीदने के पहले ही इतना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। खरीदने के बाद ना जाने और कौन सी विपत्ति आ जाए। अब दूसरा कस्टमर ढूंढ़ना पड़ेगा। यहां तो भैंस गई पानी में।’ इतना कह कर वो फिर मुखातिब हुए मेरी तरफ और पूछा ‘भाई साहब आप क्या कहते हैं। चला जाए वापस। अब तो कोई उम्मीद दिखती नहीं।’

कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा ‘मैं सोच रहा हूं कि जब आ ही गया हूं, अभी पूरा दिन पड़ा है तो चलूं चाचा से मिल लूं। आगे कभी पता नहीं मिलना होगा भी या नहीं। पता नहीं कितने साल बाद तो आया हूं। अब यहां से थोड़ी ही दूर है घर। पता उन्हें चल ही जाएगा। इस गांव के लोग भी वहां आते-जाते रहते हैं। वैसे भी काम तो कुछ होना नहीं। इतनी दूर आया हूं तो कम से कम गांव घर द्वार भी देख लूं।

शहर में तो गांव की याद जब आती है तो बस मन मसोस कर रह जाता हूं। मैंने जब देखा कि रिश्तेदार का मन चलने का नहीं है। वह जौनपुर सिटी अपने काम-धाम से तुरंत लौट जाना चाहते हैं। तो मैंने कहा ‘अगर आप को कोई असुविधा ना हो तो ड्राइवर और एक जी़प मेरे साथ कर दीजिए। हो सकता है आज चाचा के यहां रुकना ही पड़े। इतने दिन बाद जा रहा हूं, निश्चित ही रुकने को कहेंगे। तब मना करना मेरे लिए बड़ा कठिन होगा। आपका ड्राइवर रहेगा तो मुझे रास्ता वगैरह ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा। पैदल नहीं चलना पड़ेगा।’

मेरी बातों, भावों से उनको लगा कि मैं जरूर जाऊंगा तो उन्होंने एक जीप मेरे लिए छोड़ी और दूसरी जीप से अपने बाकी आदमी लेकर चले गए। ड्राइवर उस एरिया से ज़्यादा तो नहीं पर ठीक-ठाक परिचित था। इस तिलोरे गांव से मैं अपने गांव बरांवा पहुंचा खेती-बाड़ी तो खानदान की सब रामगढ़ में है। लेकिन घर और बाग बरांवा में। मैं जब मुख्य सड़क जो वहां के रेलवे स्टेशन जंघई जाती है, के पड़ाव (बस स्टेशन) के पास पहुंचा तो मैंने उस छोटे से कमरे के सामने ही गाड़ी रुकवा ली जो स्टेशन था। पड़ाव के सामने ही एक सड़क अंदर गांव से कुछ दूर और आगे तक जाती है। उस पर कुछ आगे दाहिने मुड़ कर ही गांव के भीतर पहुंचने का रास्ता था। पड़ाव पर पहुंचते ही सब याद आने लगा।

पिता के साथ गांव बहुत बरस पहले तब आया था, जब चचेरी बहन की शादी थी। बस स्टेशन के बगल में चाय वाले के यहां से चाय लेकर मैं ड्राइवर के साथ ही खड़े-खड़े पीते हुए इधर-उधर देखने लगा। सड़क पक्की थी, मगर गढ्ढों से भरी। बचपन में जब आता था तो यह कंकड़ रोड हुआ करती थी। जिसके बारे में सुनता था कि उसे अठारह सौ छियानवे में बनवाया गया था। एक बार जब नौ-दस बरस का रहा होऊंगा तब इसी रोड पर बस का अगला पहिया बर्स्ट हो जाने से बस सड़क से उतर कर गढ्ढे में चली गई थी। हम भी उसी बस में थे। सब को चोटें आईं थी। मेरा एक दांत टूट गया था। तब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी।

लोग आपातकाल की काली छाया से निकल कर एक बार फिर आज़ादी महसूस कर रहे थे। तब भी पड़ाव पर दोपहर में सन्नाटा था। आज इतने बरसों बाद भी पड़ाव उसके आस-पास करीब-करीब वैसा ही सन्नाटा सा हो रहा था। एक बजने वाला था। तेज़ धूप ने, गर्म हवा ने सबको घरों या छाए में दुबक जाने को मजबूर कर दिया था। जिस दुकान से चाय ली थी उसने आगे तिरपाल बांध रखी थी। उसी की छांव में हम जरूर थे। मगर पसीने से तर हो रहे थे। चाय वाले से हमने कुछ बात करके गांव के बारे में जानना चाहा तो वह बड़ा अलसाया सा हाथ वाले पंखे से अपने को हवा करते हुए हां हूं करता बड़ा अनमना सा जवाब दे रहा था। मैं भी थकान महसूस कर रहा था। तो चाय खत्म कर चाय वाले को पैसे दिए और कंफर्म करने के लिए अपने चाचा के घर का पता पूछ लिया।

उसने जैसे ही चाचा का नाम सुना तो थोड़ा सीधा होकर बैठ गया, और पूरा रास्ता बता दिया। चलते समय जब मैंने बताया कि मैं उनका भतीजा हूं तो वह हाथ जोड़ कर बोला ‘अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए। बतावा केतना बड़ी गलती हो गई। तोहे ठीक से चायो-पानी नाहीं पूछ पाए। चच्चा जनिहैं तो रिसियइहीं।’ मैंने उसे नमस्कार करते हुए कहा आप परेशान ना होइए। ऐसा कुछ नहीं होगा। बाद में पता चला कि यह महोदय कभी सबसे छोटे चच्चा के कारण थाने से छूट पाए थे। उसी का अहसान निभाते आ रहे हैं। मैं फिर जीप में बैठ कर चल दिया। ड्राइवर शंभू ने रास्ता समझ लिया था। वह गाड़ी धीरे-धीरे चला रहा था। रास्ते अब पहले जैसे ना होकर अंदर ठीकठाक थे। गांव में अंदर इंटरलॉकिंग ईंटों से खड़ंजे वाली सड़क बन चुकी थी। मुख्य सड़क से अंदर घुसते ही पहले एक स्कूल हुआ करता था। अब वह मुझे दिखाई नहीं दिया।

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