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किरदार

किरदार

मनीषा कुलश्रेष्ठ

बहुत कुछ ...छोड़ गई थी वह हमारे कमरे में. कंघे में फँसे बाल. नीली, उतारी हुई नाईटी को अपनी आदत के उलट, उल्टा ही कम्प्यूटर टेबल की कुर्सी के हत्थे में टाँग कर वह स्ट्डीरूम में चली गई थी. वहाँ बॉलकनी के गमले में लगे पौधों में पानी देकर, कुछ किताबों को बिखेर कर. वह ऎसे चली गई जैसे पड़ोस में मिलने गई हो. नौकर बता रहे थे उसने उस रोज़ खुद फ्रिज साफ किया था. सारे बासी खाने फिंकवाए थे. बहुत सारी सब्ज़ियाँ बनवा कर फ्रिज में रखवा कर. सात दिनों का मेन्यू किचन में टांग कर बच्चों के लिए उनका मनपसंद ‘वॉलनट डेट्स’ केक बेक किया था.

कोई भी नहीं पूछ रहा था, कहाँ गई है वो? हाँ कोई पुर्ज़ा रखा तो था, उसके हाथ का लिखा मेरे लिए उसमें कुछ नहीं लिखा था. मेरे लिए तो विदा का नोट कोई नहीं छोड़ा था.

‘अब और नहीं। सॉरी। मेरी आत्महत्या की वजह किसी को नहीं माना जाए ‘ कोई इस तरह आत्महत्या कर सकता है? वह भी सुबह पति को प्यार से विदा कर, बच्चों को टिफिन – रुमाल पकड़ा कर, सुस्ताने के समय, एन दोपहर? मेरे नाम कुछ नहीं? वजह ही में कर देती ज़िक्र मेरा - ‘ आततायी, बेवफ़ा ....’ कुछ भी इल्ज़ाम दे देती, अनकहे संदेहों के घेरे में छोड़ कर यूँ मुक्त करने का हासिल? खुद को गर किसी से प्रेम था, वही लिख जाती, सह लेता जलालत ... मगर बिना कोई वजह... ‘ अब और नहीं’ का क्या मतलब ? घर में नौकरों की फौज, अभाव कोई नहीं. मैं हर पल साथ था. मेरा कोई अफेयर भी नहीं चल रहा था. सास – ससुर तक का बंधन नहीं. प्यारे, ज़हीन बच्चे. किसी बात की रोक नहीं फिर ये “अब और नहीं क्या?”

मैं हर पल उसके साथ था, जब उसे ज़रूरत थी। मैंने उसे कहीं जाने से, कुछ करने से रोका नहीं। मैंने उसके निजता के तल में झाँका नहीं। मैं उसके हर माहौल में ढल जाने की आदत पर फ़ख़्र करता रहा। उसके जाने के कई दिन तक मैं नर्क में था। ठंडे दिमाग़ी तर्कों और ज़ज्बातों ने मुझे पागल कर दिया था। मैं ही जानता हूं कि मैंने कैसे काबू पाया। मैं सारी दुनिया से कट गया.

“क्यों ? मधुरा क्यों? बस यही सवाल मेरे लिए यक्ष प्रश्न बन गया था. मेरे दिमाग़ में सवालों के हूजूम थे। कि मैं नोटिस क्यूं नहीं कर सका? वह औरत जिसके साथ रहते हुए पंद्रह बरस बीत चुके थे। मेरे दो बच्चों की मां। चौदह और बारह साल के बच्चे राजधिराज और सृष्टि । जिस बीवी के साथ एक बिस्तर पर सोते में भी वह हाथ उलझा कर सोता रहा ऎसे में भला क्या होगा जो उससे चूक गया।

वह कभी अलग रहे ही नहीं. शहर के भीतरी परकोटे में उसका मायका था. जहाँ वह बस दोनों बच्चों के जन्म समय ही कुछ लंबे समय को तीन - तीन महीने मायके रही। उस बात को बरसों बीते. अब तो ज़्याद से ज़्यादा सुबह जाकर शाम वापस. उसकी ट्रेनिंग्स और टूर्नामेंट्स में भले थोड़े दिन...

हाँ एक बार अटपटा लगा था जब दूसरे बच्चे सृष्टि के जन्म के समय मेरी मां और मैं अस्पताल से लौट कर चाहते थे कि वह हमारे यहां ही चले लेकिन वह अपने मायके ही जाकर रही. एक महीना पहले – दो महीने बाद तक.

"मेरी मां हमेशा कहती हैं, कि "जब तक जापे के बाद औरत फिर वैसे ही नहीं हो जाए पति से दूर रहना चाहिए।"

"क्या पुरातन बात है।"

" वो कहती हैं, कि उसकी हालत और डिलीवरी प्रॉसेस देख कर पुरुष का आकर्षण जाता रहता है।"

"बच्चा तो उसका होता है, फिर! तुम्हारी मां पुराने ज़माने की हैं। मेरा तुम्हारे लिए आकर्षण कम नहीं हो सकता. "

" कुछ बातें पुराने ज़माने की सही होती हैं।"

"पर मैं चाहता हूं, इस बार मैं हाथ थामे होऊं तुम्हारा। "

" अधिराज आप देख नहीं सकोगे, वह दर्द। मैं आपको देख कमज़ोर पड़ जाऊंगी. प्लीज़ तुम वेटिंग रूम में ही अच्छे पति की तरह बैठना।"यह बात याद आई तो फिर लगा कि क्या मैं अपनी पत्नी के स्वभाव को कुरेद कर देखने में असफल रहा? क्या यह सतह सतह का रिश्ता था? जिस दिन वह गई, मैं देर तक सोता रहा था। पिछले दिनों के टूर्नामेंट्स की थकान, रॉयल टीम की शानदार जीत के जश्नों के रतजगों के कारण। सोमवार का दिन था, मैं थोड़ा देर से दफ्तर गया। बच्चों को स्कूल भेज कर मैं और मधुरा अकेले थे। वह ख़ामोश थी, मैंने चला कर पूछा - " क्या हुआ?"

"कुछ नहीं, महीने के कुछ दिन मुझे रुआँसा बना देते हैं। पीरियड्स से पहले।""दर्द तो नहीं न? कोई दवा दूं? या दोपहर में थोड़ी ब्रांडी लेकर सो जाना। कल रात की पार्टी की थकान मुझे तो बहुत हुई।"उसकी आँखें एकदम सूखी थीं। चेहरा ज़रूर ज़र्द था। होंठ पपड़ाए। वह कभी मूडी नहीं थी और महिलाओं की तरह। या मैं नहीं जानता अगर कोई मास्क पंद्रह साल चल सकता हो तो।" छोटी चौपड़ छोड़ दूं? बहुत दिन हुए।""नहीं पापा के जाने के बाद वहां अब मन नहीं लगता।"" मम्मी सा तो हैं, उनकी भी सोच के मिल आओ।"" मम्मी सा, तो अपने बेटों की गृहस्थी में मगन है। कुछ लोगों को मृत्यु लंबा शोक नहीं देती। चाहे वह स्पाउस की हो।"" यह तुम कैसे कह सकती हो। किसी के मन को कौन जान सकता है।"" वही तो, नहीं जान सकता कोई.... तुम भी ईमोशनली स्ट्रांग हो।""हाँ होना भी चाहिए।"बहरहाल उस दिन मैं ग्यारह बजे गया। पांच बजे नौकर का फोन आया बारह से पांच हो गए, मधुरा ऊपर पहली मंज़िल पर स्टडी में बंद सो रही है, खाना तक नहीं खाया, बच्चे टेबल पर लगा खाना खाकर अपनी अपनी कोचिंग्स में चले गए थे। चाय लिए लक्ष्मी खटखटा खटखटा कर हलकान हो गई है। मैं मन में कोई आशंका नहीं लिए था। वह सो ही रही होगी, ब्रांडी ली होगी। फिर भी मैं तुरंत घर पहुंचा। घुसते ही ब्रीफ़केस सोफे पर फेंक मैंने स्टडी का दरवाजे का हैंडल घुमाया। वह लॉक्ड था। स्टडी कौन लॉक करता है? मैं खीजा। फिर आवाज़ दी पूरे वॉल्यूम से। सन्नाटा!

मन ही मन मैं खीज रहा था, अब तक मूड्स नहीं दिखाए अब? क्या अरली मेनॉपॉज सेट हो रहा है?मैं ने हैंडल घुमाते हुए अपने कंधे से दरवाज़े को धक्का दिया। हैंडल के चटखने की आवाज़ आई पर टूटा नहीं। मैं छ: फुटा ताक़तवर आदमी हूं। मैंने एक बार फिर ताकत लगाई मजबूत हैंडल लॉक टूट गया। दरवाजा खुल गया। स्डडी में गर्मी थी, पंखा बंद, गार्डन की तरफ खुलने वाली खिड़की बंद। कई किताबें ज़मीन पर थीं। मानो कोई किताब खोजी जा रही हो।

मधुरा दीवान पर करवट लिए लेटी थी। मैंने उसे पलटा। उसका कंधा उलटी से सना था। उसकी आँखें अधखुली थीं भी मुंह अधखुला। उसका हल्का आसमानी कुर्ता भीगा था, अजीब कड़वी महक कमरे में थी। मैंने नब्ज़ थामी। वहां कोई धीमा सा भी शोर नहीं था। मैं घबरा गया.... दूसरा हाथ थामा, फिर उलटी सने सीने पर कान रख दिए. आह! मैंने तुरंत फैमिली डॉक्टर को फोन किया. फिर लौटा मधुरा के पास, पीला चेहरा और भूरी झाग भरी उल्टी। निश्चय ही वह मर चुकी थी. अपनी पत्नी मधुरा को इस रूप में देखना मुझे भीतर डुबो रहा था। मैं उस को थमता, अलटता – पलटता रहा, मगर मुझे वह निश्चल मृत देह बहुत अजनबी लगी। मधुरा नहीं कोई और। मुझे रोना तक नहीं आया उस पल। मैं कमरा बंद करके नीचे आया। कॉलोनी के थाने में सबइंसपेक्टर को फोन किया।" कॉन्सटेबल शेखावत, अपने थाना इंचार्ज को मेरे घर भेजिए। तुरंत।"मैं घर के अहाते में आ गया। मेरे घर के बाहर तैनात एक कांस्टेबल बीड़ी पी रहा था।"एक मुझे दो।" मैं क्या कर रहा था मुझे नहीं पता। बहुत बड़ा कांड हो चुका है मेरे जीवन में, मेरे पैर लड़खड़ा रहे थे, मन मान नहीं रहा था। मुझे मधुरा के शव के पाल होना था बिलखता हुआ लेकिन मैं बीड़ी पी रहा था। मैंने बीड़ी खतम कर मधुरा के बड़े भाई को फोन किया।

" भाई साहब तुरंत घर आ जाइए। बस सवाल मत करिए।"डॉक्टर ने जिस पल मधुरा की देह को सीपीआर देकर ‘मृत’ घोषित करने से पहले की कोशिशें कर रहे थे तब तक वे समय गँवाए बिना पुलिस से पहले ही पहुंच गए। मैं नीचे ही था. " तुम्हारा फोन आया तब मैं यहीं जवाहर सर्कल पर ही था। क्या हुआ?" आज दोपहर मैं दफ्तर में था तब मधुरा ने खुद को ख़त्म.... "" क्या कह रहे हो? बच्चे कहां थे? "" पहले स्कूल फिर कोचिंग।"हम स्टडी पहुंचे। वे मधुरा के पास गए। मुझे लगा भाई हैं लिपट जाएंगे। डॉक्टर ने उसका लटकता उसके हाथ सीने पर रख कर हाथ से इशारा किया, ‘ सॉरी !’

भाई साहब मधुरा का चेहरा देख पलट कर मेरे पास आ गए। क्या वह उनको भी अजनबी लगी?"बहुत बुरा हुआ अधिराज। मैं मां को क्या बोलूँगा? उसे कैसे समझाऊँगा? "" भाई साहब, मैं ही नहीं समझ पा रहा।"" क्या कोई लड़ाई? "" कभी नहीं।"पुलिस आ गई। मैने मधुरा के कोमल कान छुए। और हट गया वहां से पुलिस के लिए। उसकी देह का फ़ौरी मुआयना कर एस आई यादव अदब से मेरे पास आया।" सर कोई सुसाईड नोट?""नहीं। मुझे तो नहीं मिला।"" कोई वजह?""नहीं, मुझे नहीं पता।""आप की शादी ठीक चल रही थी।""बहुत बहुत अच्छी। पूछ लीजिए इनसे ये भाई हैं मेरी पत्नी के।" जाने क्यों मैं हकला गया।" मैं दफ्तर में था, जब यह हादसा हुआ।""इनका कोई अफेयर? बीमारी, डिप्रेशन?""नहीं। नहीं।""पैसे जायदाद का झगड़ा?""नहीं। वह प्रेक्टिकल। संतुलित महिला थी।""आपका बेडरूम देख सकते हैं?" हम सब नीचे आ गए। मैं और भाईसाहब डायनिंग हॉल में थे।"अधिराज बच्चों को हमारे घर भेज दो, यहां ठीक नहीं अभी। " भाईसाहब ने छोटे साले प्रताप को फोन किया।" सर, बेड साईड टेबल पर एक ग्लास के नीचे रखा सुसाईड नोट मिल गया। स्लीपिंग पिल्स के चार खाली पत्ते भी इस लिफ़ाफ़े में थे। ग्लास की तली में एल्कोहल था. " एक कांस्टेबल ह्मारे बेडरूम से चिल्लाया.

“ आप लकी हैं सर. “ एस आई मुस्कुराया.

मैं आहत हुआ, साले ये पुलिस वाले ... मैंने नोट देखा – उसी की हैंडराईटिंग थी. जमा कर लिखे गए अक्षरों की थरथराहट मुझे दिख गई. ‘ अब और नहीं। सॉरी। मेरी आत्महत्या की वजह किसी को नहीं माना जाए।‘ "अब और नहीं? मतलब?" एस आई ने मुझे देखा. " मुझे नहीं मालूम। मुझे अंदाज तक नहीं, कि वह क्या कहना चाहती होगी। "" सर पोस्टमार्टम तो होगा।"" जब नोट मिल गया तो कोई फायदा है पोस्टमार्टम का ? फ्यूनरल कब तक हो सकेगा?" भाईसाहब पूछ बैठे। फिर मेरे कंधे को सहलाते रहे। मैंने वह पन्ना फिर देखा, मधुरा की हिसाब –किताब की नोटबुक का था। मैंने चुपचाप ड्रेसिंग टेबल की दराज़ से निकाल कर वह छोटी नोटबुक मैंने जेब में डाल ली? डार्क ग्रीन कवर वाली इस छोटी नोटबुक में यूं तो घर के हिसाब लगे रहते थे, पर क्या पता कुछ और ... उसके बाद कब बच्चे आए, कब पंचनामा बना, कब मधुरा का अजनबी शव चला गया, कब मधुरा आई और उसे नहला कर सजा गया।

“ क्यों?” मैंने खुद को कहते हुए सुना। और उसके बाद एक पल को लगा मधुरा मेरे पास खड़ी है।

क्योंकि ......

उसकी महक। जीवन और मृत्यु का रहस्य एक पल को गहरा गया। उसकी आँख से टपकते आंसू उसने झटके से पौंछ दिए। और कोशिश की प्रार्थना करने की कि उसकी आत्मा शांति प्राप्त करे। मैं उसे प्रणाम करते हुए रोया नहीं, मैं नाराज़ था। जब उसकी अर्थी पर बच्चे लिपटे तो होश आया तब में ढह गया। स्थिति की भयावहता जान कर।" क्यों?" बस यही एक शब्द रुदन में बदल गया। मैं सघन अंधेरों में था।एक नितांत संपूर्ण संबंध। भरा पूरा दांपत्य । एक आधुनिक कॉलोनी में, फ्रेंचविला सा मकान, जहां एक दीवार पर नारंगी बिगोनिया, दूसरी पर नीले जैकोमुंशिया की बेलें चढ़ी इतराती थीं। दो स्कूल जाते स्मार्ट बच्चे। मधुरा ने कभी शिकायत की नहीं, क्योंकि शिकायत की वजह भी थी नहीं। अभाव कोई था नहीं। समय की भी कोई भारी कमी नहीं थी, नौकरी समय से निबट जाती थी और पोलो क्लब के हर मैच और गेट टू गैदर में मधुरा साथ होती थी। मेरे हिसाब से आपसी प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति भी यथासंभव हम दोनों के बीच रही ही । झगड़ा तो दूर हमारे बीच कभी बहस तक नहीं हुई, असहमतियाँ आपसी समझदारी के निकष पर कस कर सहमतियों में तब्दील होती रहीं। रंगों - कपड़ों और खाने की पसंद निसंदेह मॆं हाँ, मेरी चलती जिससे मधुरा को दिक्कत नहीं हुई। उसने हल्के पेस्टल फूलों के रंग और जॉर्जट और शिफॉन अपना लिए क्योंकि वह तो कोरा कैनवास ही थी जब ब्याह कर आई थी।

जवाहर कला केंद्र में एक चित्र- प्रदर्शनी के उद्घाटन पर पहली बार मैं मिला उससे. वह ‘ मेघदूतम’ पर एक बने चालीस चित्रों की प्रदर्शनी थी. जब मेघदूत सीरीज़ के अद्भुत चित्रों को देखता - देखता जब मैं अंतिम खंभे तक पहुंचा तो हतप्रभ रह गया था। कितना साम्य! वह उस खंभे की बगल में मेघदूत की विरहिणी विप्रलब्धा यक्षिणी - सी ठिठकी खड़ी थी, लंबे खुले केश. खाली बिना काजल लगी उन शफ़्फ़ाफ़ आँखों में कोई चिर – प्रतीक्षा. सारे चित्रों में रचे सारे चेहरे और इनकी गढ़न का स्त्रोत मानो यही एक चेहरा था। कर्णचुंबित आँखें और शुक नासिका और डोरी जैसे होंठ, दंतपंक्ति भी एकसार. जब मैंने एक चित्र खरीदा और चैक काटा तो सामने भी वही थी।" मुझे दे दें मैं कृष्णदेव शर्मा जी की बेटी हूं। "एक पीढ़ी दर पीढ़ी चित्रकारों का परिवार, उसमें राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त, विश्व भर में ख्यातनाम कृष्णदेव ही हुए। जिनके तीन बेटों के बाद एक बेटी थी, जिसका बहुत चाव से नाम रखा गया मधुरा. उस रोज़ वे ईश्वर की उदारता से अभिभूत हो गए जब मैं विवाह प्रस्ताव लिए उनके घर पहुँचा , अपने सिविल जज पापा और माँ लीला जोशी के साथ जो चित्रकला विभाग की विभागाध्यक्ष रह चुकी थीं, कृष्ण देव जी से बखूबी परिचित थीं. बार – बार यही कहते रहे कि – “ दुनियादारी से अपरिचित मेरे जैसा चित्रकार चिराग़ लिए भी खोजता तो अपनी बेटी के लिए ऐसा घर - वर न खोज पाता।“

सगाई और शादी के बीच की संक्षिप्त कोर्टशिप में मधुरा मुझे तो बहुत खुश लगी. हम दो बार छुपकर डेट पर भी गए. एक बार पिक्चर देखी. मैंने उसे उपहारों से लाद दिया. हमने फोन पर कई बार बात की. सब कुछ तो परफेक्ट था। फिर?

क्या मैं अपनी पत्नी को कभी जान न सका? वह इतनी भावुक तो कभी नहीं थी कि....न ही वह असमंजस में रहने वाली महिला थी। उसका जीवन उसकी वार्डरोब्स की तरह तहाया हुआ, जमा जमाया था। वह अच्छी मां थी। शानदार पत्नी, जिस पर मैं गर्व करता था। मुझे वह कभी घटिया एकता कपूर टायप सीरियल देखते नहीं मिली। फ्लाईट और हेयरड्रेसर के यहां प्रतीक्षा करने के अलावा उसने कभी ग्लॉसी मैग्ज़ीन्स नहीं पढ़ीं। वह हिंदी के अपनी पसंद के उपन्यास और अंग्रेज़ी के मेरे सुझाए उपन्यास पढ़ती थी। उसके फोन कभी लॉक्ड नहीं रहे मैंने देखा व्हाट्सएप पर उसका कोई किटी ग्रुप नहीं था। फेसबुक पर वह महज होने भर को थी। अलबत्ता उसने यह ज़रूर बताया था कि वह अपने पापा के चित्रों के फोटो प्रिंट्स बेचने के लिए कोई फेसबुक पेज चलाती है .

देह हमारे बीच लस्ट और लव के सही सही ब्लैंड में थी। फिर? कोई तीसरा? मैं यह जानता था कि मेरे आस पास तितलियों ने पर फड़फड़ाए थे, जिनके पर मैंने उंगलियों में रंग न लगे, इस एहतियात के साथ छूकर छोड़े थे। कभी उन्हें जिंदगी में भीतर नहीं लाया. जिसका मधुरा को एक जायज़ सा अंदाज़ था। बल्कि एक समारोह में एक तितली उसके सामने ही मेरे कॉलर पर आ बैठी थी, जिसे देखकर मधुरा ने बीवियों जैसी कोई अहमक़ाना हरक़त नहीं की। न ही घर आकर ताना कसा।

उस रोज़ हमने रॉयल राईडर्स का मैंच जीता था, मैं कैप्टन था टीम का, एक सीनियर आर्मी ऑफिसर की बेटी ने आकर चूम लिया था. सबने देखा, सबने महसूसा कि मधुरा को कैसा विश्वास है, अधिराज पर। एक सहेली ने उसे टोका तो बोली - " अरे! वह तो कितनी बच्ची सी लड़की है। आजकल लड़कियां अपने पापाओं को भी तो किस करके ग्रीट करती हैं। "मधुरा से न तो शॉपिंग अकेले होती थी। न वह बच्चों के स्कूल कभी अकेले गई। न मेरे सामाजिक दायरे के बाहर कोई दायरा उसका अपना था। लव बर्ड्स कहते थे , मेरे सर्कल के लोग हमे। हमारा जोशी परिवार संक्षिप्त था. कोई ज़िम्मेदारी नहीं. मेरे माता - पिता छोटे भाई स्वराज के पास जर्मनी में रह रहे थे। फिर?००००००

मैं ने बच्चों के लिए लंबी छुट्टी ले ली. मेरा अधिकतर तो बच्चों के साथ उसका समय बीतता. बहुत सा समय भीतर जो बीत रहा था, उसी सवाल के हल में डूबा था. मैं इस बीच एक बार बच्चों को लेने, परकोटे के भीतर अपनी ससुराल गया. मेरे ससुर इस घर का सूर्य थे जो अस्त हो चला था. घर बची हुई रोशनियों में उदास था. यह वही घर था, जिसमें मधुरा रही थी विवाह से पहले। पुरानी बसावटों के बीच " असीमिट्रिक" घर। ज़रूरतों के हिसाब से जिसमें कमरे, मंज़िलें, दालान, सीढ़ियाँ बढ़े हों। पीले - लाल पत्थर के गोखड़े। गोखड़ों की जालियाँ, बारजे, आंगन और एन बीच से मुंह उठाए खड़ा पीपल। दीवारों से सटे पड़ोस के सहन और दूसरे चचेरे भाई के हिस्से की छत पर जाकर गुम होगई सीढ़ियाँ और दरवाजों में लगे अबोली के साँकल - ताले।मधुरा के पिता मिनिएचर पेंटिंग की दुनिया के शीर्षस्थ नाम थे। बिना गुमान बड़े बड़े सम्मान उनकी बैठक और शयनकक्ष में तरतीब से लगे रहते थे। वे पेंटर थे। मगर स्टूडियो जैसा कोई कमरा उनके पास न था । उनके सोने के कमरे में एक सादा पलंग था और ज़मीन पर सादा फर्श जिस पर तीन छोटी बड़ी चौकियाँ और मखमली आसन थे। जिन पर वे बैठकी मुद्रा में योगी की तरह मेघदूत की चंचल विद्याधरियों, कामाग्नि में जलती विरहिणी यक्षिणी की अधखिली जंघाओं में रंग भरते। उनके दो एक चेले और तीनों बेटे बिना मन भटकाए, गुरुकुल के शिक्षार्थियों सा भाव लिए पीन पयोधरा बनी-ठणी के पारदर्शी ओढ़ने में से आवृत्त कम अनावृत्त ज्यादा होते, वक्ष बनाना सीखते। कमरे के पार खुलती छत कुछ शेड से कुछ पेड़ से और कुछ पतंगों वाले आसमान से ढकी थी। एक कोने में उनकी रंगों की प्रयोगशाला थी। एक काठ की पुरानी अलमारी में, रंगीन मिट्टियाँ, लवण, चूर्ण धातुएँ रखी रहतीं जिनसे उनका एक न एक चेला रंग बनाया करता। ज्यादातर चेले बेटे, भतीजे, भानजे थे, किंतु बाहर से सीखने आने वाले दो - तीन चेलों के लिए इस छत पर अलग से सीढ़ियाँ बनीं थी, जो मस्ज़िद वाली गली में उतरती थीं। जिन्हें इमली का पेढ़ ढके रखता। छत पर एक दीमक खाए चौखटे वाला विशाल गोखड़ा था, जिससे पूरा घर बारातें, ताजिए, गणगौर और तीज की सवारियां देखा करता।

***

इस घर में अटके थे कुछ अतीत – चित्र

"नदी तट पर नंगे पैर विचरती लक्ष्मी के केशों को आपने इतने भारी जूड़ों में कस दिया है। "" लक्ष्मी है, देवी है बेटा! मुक्तकेशिनी कैसे छोड़ूँ? "" पर यहां तो वह रमणी है, पापा। शेषशायी विष्णु के चरणों को चाँपने की ड्यूटी से मुक्त। अपने में मगन। उल्लू पर सवार न होकर उसे उंगली पर पालतू की तरह बिठाए। आप प्रयोग कर रहे हो चित्रों में तो, आस्था क्यूं रोक लेती है? परंपरा क्यों बींध। देती है? "" तुम्हारे कहने से मैं लक्ष्मी को जीन्स पहना कर बाईक पर फ़र्राटा मारते कैसे रच दूं?"" पापा! "रोशनी हो न सकी दिल भी जलाया मैंने। अचानक किसी ने एफ एम पर चलते इस गीत पर वॉल्यूम बढ़ा दिया था। मधुरा ने गवाक्ष की जाली से झाँका कोई दिखा नहीं। दीवार पार इमली के पेड़ से लगी एक सुनसान हवेली की छत पर लंगूर जमे हुए थे। मधुरा ने पापा के कमरे की बाबा आदम के ज़माने की घड़ी को देखा, अपना सामान समेटने लगी।

“ आज यहीं रुक जा बेटी. बहुत दिन हुए बाप – बेटी के झगड़े को. तुझे नए चित्र दिखाउंगा. बातें करेंगे. पहले जैसे हँसेंगे.” " बच्चे कोचिंग से घर पहुंचते होंगे पापा। आज शाम को अधिराज के पोलो क्लब के साथी डिनर पर आएंगे। मम्मी जी गन्ने के रस की खीर बना रही हैं, आपकी ड्यूटी है कि आप शाम को भिजवाओगे। "" हैं, मैं नहीं आने वाला। तू जाने तेरी बाई जाने। मेरे कहने से जब तू रुक नहीं सकती तो ... "" आप मत आना, भेज देना ड्राईवर के हाथ। ""ड्राईवर भग गया।"" पापा आपको भेजनी है, मैं नी जानती किसके साथ।"" अधिराज के दोस्त गन्ने की खीर नी खाएं तो चलेगा नी क्या? दारू के बाद खीर कौन खाता है? "" पापा जी नो बहस! ये लक्ष्मी की सीरीज़ जब पूरी हो जाए बताना, अधिराज के दोस्त हैं, जोधपुर रॉयल...अच्छी कीमत..."" हैं हैं, ये सीरीज़ बिकाऊ नहीं है, मधुरा! "" तो! यह वृंदावन के एक मंदिर ट्रस्ट को दे रहा हूं मैं। ""मुफ्त?"" हां अब पुण्य कमा लूं न! कब तक देवता - देवियों को रच रच के बेचूँ! अब लक्ष्मी को मुक्त करूं न!"" ठीक ! खीर मत भूलना।""अपनी बाई को बोल दे कि वो शिबू के साथ मोखल दे।"मधुरा उस रोज़ लौट आई थी। खीर भी पहुंच गई। खीर की तारीफ़ हुई, तो विनम्रता से मधुरा ने स्वीकार कर ली।" बहुत एफर्ट लगा कर आप डिनर बनवाती हैं, मिसिज़ जोशी । ये खीर खाकर बचपन याद आ गया, रावलों के महाराज बनाते थे। हॉस्टल से लौटता तो मां सा को याद रहता कि हम....आप अब भी अपनी रसोई में यह सब बनवाती हैं। "" मेरे मायके से बन कर आई है। आप लोगों के लिए। ।"" बहुत मेहनत ..." जी हाँ, मेहनत तो है इस खीर में पर मेरी मां को अच्छा लगता है, पुराने व्यंजनों को बनाना। उस पर अधिराज की फ़रमाइश हो तो वे ....."

मैं कितना संतुष्ट था उस दिन. लेकिन अगले तीन दिन बाद... मधुरा के पिता जिन दिनों वे लक्ष्मी और उनके वाहन पर एक बहुत ख़ूबसूरत सीरीज़ बना रहे थे. वे इसी कमरे में उल्लू से खेलती, मुक्त केशी लक्ष्मी का अंतिम चित्र पूरा करके सोए और कभी उठे नहीं। मधुरा बार – बार उनकी देह से लिपट कर रोकर कहती रही - काश वह उस दिन रुक गई होती.

मैं उन्हीं दिनों में लौट गया, जब हम दावतें देते थे. अब न वह महफ़िलें रहीं न रौनक़ें। मधुरा मेरी फ़रमाइशों पर न केवल खुद जुट जाती, मायके में भी मां को, चांदपोल की गलियों के विशेष हलवाइयों के यहां से यह - वह लाने में सहायकों को दौड़ा देती। घर के महाराज खीजते पर मधुरा को ना कौन कह सकता है? मधुरा स्वयं किसी को ना कब कहती है? चाहे नौकर हों कि बच्चे कि मैं या मेरे परिवार के लोग, दोस्त. " मधुरा का न कब सुना कंवर सा आपने? वह विशेष अधिकार तो हम बूढ़ों को मिला हुआ था न! " मैं यह विनम्र कटाक्ष भूल नहीं सका था मधुरा की माँ का। जब मैंने उनको बोला था, आप उस रोज़ उसे रोक लेतीं यहीं. मुझे ही वह मना कर देती .... पापा जी की इतनी इच्छा थी तो.

टूट कर चाहने वाले और तूफ़ानों में लाईट हाउस बने पिता का आकस्मिक निधन निश्चय ही हताशा देने वाला था लेकिन माता पिता सबके एक न एक दिन जाते हैं, उस हताशा में बच्चे अपने बच्चों को छोड़ कर जान नहीं देते, यह तो हर कोई जानता है। अपने प्रति अपने अबोध बच्चों के प्रति कोई मां इतनी निष्ठुर नहीं होती।वह कितनी सुंदर, संतुलित, कार्यकुशल महिला थी। उसे अहसास था ज़िम्मेदारियों का। वह मर नहीं सकती। आज कृष्ण्देव जी की बरसी पर हम तीनों यहां है। मेरी सास बताती हैं कि मधुरा की ही ज़िद थी कि शादी के बाद से कि मेरा कमरा बदला न जाए, मैं आऊंगी तो यहीं रहूँगी.

“ पहले जापे में भी कंवर सा, आखिरी महीने तक वह इसी दूसरी मंजिल पर रही, हम डरते कि पैर फिसला तो....”” हाँ याद है. “

मधुरा को गए दूसरा महीना बीत रहा है, का कमरा ज्यूँ का त्यूँ रखा है। जैसलमेरी कशीदे वाले रंगीन चटख कुशन । गाढ़े लहकदार रंगों के साटनी पर्दे। जिनमें लगे सुनहरे घुंघरू हवा से छनकते। मैंने पहले कभी गौर नहीं किया कि मधुरा पहले चटख रंगों को इस तरह पसंद करती थी। यह सस्ती छनछन? मैंने तो पहली ही रात घुँघरू वाले पाजेब उतरवा दिए थे. मैं मधुरा के कमरे के गोखड़े से नीचे झाँकने लगा। नीचे बावड़ी थी पीछे इमली के पेड़ से ढकी सीढ़ियाँ और गली, गली के पार मस्ज़िद और वह पुरानी हवेली। बावड़ी में पानी नहीं मुहल्ले का कचरा ठुंसा था।

मधुरा जब थी, मैंने कभी इस पुराने अजायबघर में दिलचस्पी नहीं ली। मैं ससुराल बहुत बड़े अवसरों पर ही आया. शादी – ब्याह, अपने बच्चों के जन्म के समय भी कुछ घंटों को ही आया। बाद में मेरे दो साले शहर के बाहरी हिस्सों में आ बसे तो वहाँ मैं अपने सास – ससुर से मिल लेता. इस मुहल्ले तक गाड़ी लाना, ड्रायवर तक के बस की नहीं। दो गली पहले कार पार्क कर पैदल इन भीड़ भरे गुंजलों में चलना भी बहुत झंझट का काम लगता था मुझे । उसने तो कई बबार कृष्णदेव जी को और अपनी मां को साथ रहने को आमंत्रित किया। मैं वह पुराना घर बिकवा कर परकोटे के बाहर किसी कॉलोनी में घर बनवाने की जिम्मेदारी तक ओढ़ने को तैयार था लेकिन मधुरा ने ही सिरे से नकार दिया. बड़े भाई परीक्षित, मधुरा और सास – ससुर को छोड़ किसी को मोह नहीं था उस पुराने घर से. इस पुराने घर से उन लोगों के लगाव को मैं नहीं समझ सका था पर अब मैं समझना चाह रहा हूँ , मधुरा का लगाव इस घर से इस कमरे से । मैं कभी एक रात से अधिक यहाँ नहीं रुका लेकिन बच्चों को घर भेज कर मैं यहाँ दो दिन रुक गया.

मैं रात भर उस कमरे को किसी ख़जाने की प्रत्याशा से खोदता रहा. मुझे उसकी अलमारी का, एक काठ की मंजूषा का ताला तोड़ना पड़ा. मुझे तीन पुर्ज़े मिले. बिन तारीख बिन नाम – हिंदी में लिखे जिनमें पहले का अर्थ मुझे खुद पता न था. किसी मध्यकालीन कवि के लिखे किसी पद सा.

ठाकुर या मन परतीती है जो पै स्नेह न मानती व्है हैंआवत हैं नित मेरे लिए इतनों त विशेष कै जानती व्है हैं।

दूसरा –गूँगा आंगनगूँगा कमराकरे न कोई बात - राही मासूम रज़ा

तीसरा - " ये वो चीज़ें हैं जिन्हें देख कर तुम्हारी याद आई। ये उपहार नहीं हैं। ये कंकर पत्थर हैं। मैं हैरान हूं तुम्हें क्रीम कलर पसंद नहीं फिर भी उसी रंग की साड़ी पहने हो। "

और मिली एक हैंड मेड पेपर की डायरी, जिसमें कई हिंदी की कविताएँ थीं जिनकी तारीखें उसके कॉलेज के दिनों की थी. कुछ उसकी अपनी, कुछ बड़े कवियों की. दर्ज़ रोज़नामचा डायरी के पीछे था.

मैं गर्भवती होकर मायके लौटी हूं। मेरा कहीं जाने का मन नहीं करता। लज्जा आती है। जिन गलियों में फ्रॉक पहन कर डोले होओ।दरवाज़ा खुलते ही इमली और नीम के फूलों की खट्टी-मीठी-तुर्श महक से भर जाने वाला मेरा ये कमरा, बांहे फैलाए है। मेरे कमरे के दरवाजों खिड़कियों के परदों में लगी घंटियों की आवाज़। वह मस्ज़िद की मेहराबों के पीछे लुकाछिपी खेलती हवा के साथ बजती बाँसुरी में राग हंसध्वनि! ये छोटे अजीबोग़रीब उपहार! चांदी की छोटी डिबिया। चीड़ जड़ी पोटली, नन्हें गणेश, कोड़ियों जड़ी इडोनी। जैसे मेले की गंवई ख़रीद।मैं हैरान थी क्या ये शिबू की बदमाशी है? एक रोज़ कान पकड़े तो उसने उस इमली वाली हवेली की तरफ इशारा किया। वहाँ कोई नहीं था। पर कोई तो था कोई सफ़ेद फ़रेब !" भूल गईं? लड़कियां होती ही फ़रेब का दूसरा नाम।"" वो गैला सा तेरा दोस्त? संगीत मास्टर?"" समर नाम है उनका!"" अब भी यहीं रहता है उस मनहूस हवेली में?""आधी बिक गई।""शादी नी की?""ऊंह! जाने दो तुम्हें क्या? तुम बताओ, इस बार भी कंवर सा पोलो टीम के कैप्टन हैं? हैं जीजी, हमें कोई नी घुसने देगा क्या रामबाग पैलेस के पोलो ग्राउंड में। पास दिलाओ न। "" सुना तुझे लाखों का कॉन्ट्रेक्ट मिला, जयपुर के पुल और सड़क के किनारों पर चित्रकारी का । "" हेंहें। मैं कोई अकेला थोड़े ना हूं, उसमें दसेक लोग हैं, पर बाऊ जी का आशीर्वाद और सिफ़ारिश से मिला। पहला पेमेंट हो गया।"" तो शादी कर ले।"" हैं। सब येई कहते हैं। शादी से क्या मिलता है जीजी? लोग आपको बदलने पर तुल आते हैं। आप आप कहां रहीं। लेडी बन गईं।"मैं उस दिन कितने दिन बाद हंसी। उसने मेरी मुट्ठी में चिट्ठी और एक पोटली पकड़ा दी। मैं सिहर गई।" ये वो चीज़ें हैं जिन्हें देख कर तुम्हारी याद आई। ये उपहार नहीं हैं। ये कंकर पत्थर हैं। मैं हैरान हूं तुम्हें क्रीम कलर पसंद नहीं फिर भी उसी रंग की साड़ी पहने हो। तुमने शिबू से कहा तुम्हें राग बसंत पसंद है. मैं बजाता, बसंत ही बजाना शुरु किया था. लेकिन क्या जाने क्या हुआ कि मैं बजाते बजाते राग मारवा बजा बैठा, मरूस्थल की पीली आंधी ने मेरे जहन को घेर लिया था. तुम बेचैनी में उठ कर गोखड़े तक आईं मुझे ग्लानि हुई क्योंकि तुम्हारा पूरा टाईम चल रहा था. अगले दिन तुम्हें अस्पताल जाना पड़ा. मुझे माफ़ कर देना. “

इस व्यक्ति को मैं ठीक से जानती तक नहीं. दूर से यह मेरी छोटी – छोटी पसंद जानता है. यही है क्या ‘प्रेम’ जो पुच्छल तारे की तरह कई सौ बरसों में दिखता है. जिसकी स्त्रियाँ केवल कल्पना करती हैं. एक के अंदर एक बंद होनी वाली काठ की गुड़िया में आखिरी गुड़िया में यह ख़त बंद था।गली में नीचे लड़कियां सितौलिया खेल रही हैं। उनमें नीली मख़मल की फ्रॉक पहने मैं भी हूं। छ: साल की मैं। मैं आठ साल के समर को सफेद टोपी लगाए उसके अब्बू के साथ जाते देख सकती हूं। जो मुड़ – मुड़ कर केवल उसे देखता है. लेकिन अब ये घड़ियाँ अतीत हुईं। गेरू पुती दीवार के आले में मैंने पोटली में बंद उपहार रख दिए हैं।एक जगह दर्ज़ था

“मैं जिनके साथ रहती हूं, वे कहते हैं कइ वे कभी सपने नहीं देखते । असफलता शब्द उनके कैटलॉग में नहीं है। ह्म चार जनों के के लिए घर के बाहर दो गार्ड और भीतर चार नौकर रहते हैं। छत नहीं है उनके घर में, ढलवाँ छतों वाली विला है, जबकि यहां बर्फ नहीं गिरती। उन्होंने बच्चों को कभी क्रेयॉन्स लेकर नहीं दिए कि दीवारों पर बनी बालकलाकारियों से उनको चिढ़ है। सीधे कंप्यूटर दे दिया. मैंने वहां पायल नहीं पहनी कि उनको रुनझुन नहीं पसंद। बहुत यारबाश हैं वो. बहुत सोशल। घर के बाहर के लोगों से दोस्तियां उनको जगरमगर रखती हैं। तीखी मूंछ, ऊंचा माथा, चमकदार हंसी। वो कहते हैं कि लोग उनको पसंद करते हैं, जो लोग उनको पसंद करते हैं ये उन्हीं लोगों को पसंद करते हैं. क्या ये खुद के अलावा किसी को पसंद कर सकते हैं? अनजाने में ये जिन संभ्रांत – शाही लोगों की नकल करते हैं. वो लोग जानते हैं कि ये उन लोगों में से नहीं, तो ये कहते हैं कि वे भी उन लोगों को केवल पोलो की वजह से झेल रहे हैं. क्योंकि पोलो इनका पैशन है. पर जब चाल, हंसी, कपड़े – बिर्जिस और जोधपुरी कोट, बातें, खाने की पसंद और अंदाज़, गाड़ियों की ब्रांड्स को लेकर मैं जब इनको उन लोगों की नकल करते पकड़ लेती हूं , जिनसे यह एक किस्म की नफरत करते हैं तो वे खिसियाहट चेहरे पर ले आते है। एक अजीब किस्म का चश्मा लगाए हुए हैं । वे हर किसी को क्लासलैस कह देते हैं। मैं चाहती हूँ कि वे उसे हटा दें ताकि मैं भी उन्हें अपनी मौलिकता में दिखूँ. । मैं कब इतनी सहज होऊंगी कि उनसे कह सकूंगी - क्लासलैस और क्लासफुल के परे भी बहुत कुछ होता है। मुझे हल्के रंग की शिफॉन साड़ियों में देखना ही इनको पसंद है, ये खुद को कोई फिल्मी हीरो सा मानते हैं. क्या होगा जब मैं किसी नायक की सुंदर पोर्सलीन में ढली गुड़िया सी फिल्मी पत्नी के क़िरदार में बंद ऊबजाऊंगी? नीरजा कहती है, उसे मेरा जीवन पसंद है। एक पोएटिक लाइफ। फुल ऑफ रोमांस। पोस्टरों से उतरे प्यारे बच्चे। टॉल डार्क हैंडसम पति। कला का पारखी। कमाल की आवाज़ जिसकी। कभी - कभी नीरजा और उस जैसे कईयों की इस ख़ुशफ़हमी को तोड़ देने का मन करता है। पर क्या कह कर? क्या उन्होंने शिकायत का कभी मौका दिया? कभी तेज़ आवाज़ में बोला? आप से तुम तक नहीं कहा। किसी बात के लिए नहीं रोका।

सपनों की सी दुनिया भी कभी कभी बुरी लगती है क्या? क्या मैं बेवजह खुशी में असंतुष्टि खोजने के महान तर्क खोजती हूं। पास में नदी होते हुए, तृष्णा की तरफ डग भर रही हूं? अतितृप्ति की मारी हूं? तृष्णा के लिए तृषित?उन्होंने महज एक बार पूछा था अतीत? पहले बच्चे के जन्म के बाद जब मेरे मायके में सूतक लगे थे और यह मेरे सिरहाने बैठे थे .घर चलने की ज़िद लिए. प्रेम या देह का कोई अतीत न होते हुए भी मैं पसीनों में डूब गई थी. लेकिन कुछ था जिसका हक़ीक़त से कोई वास्ता न था. पिताजी ने हर रात सिरहाने कैंची रखी थी और कमर तक लंबे बालों को तेल लगा कर बाँधे रखने की सलाह दी थी. वे सोचते हैं कोई भूत या जिन्न मुझे नींद में चलाता है कि मैं संगीत की स्वर लहरी पर सम्मोहित तीसरी मंजिल पर चल देती हूँ. मस्जिद पार तान उठती है – खबर लीन्ही न मनरंगवा बिसर गई मधुबन में ... मैं मौत से नहीं डरती। यदि कभी मैं मरती हूं तो मेरे साथ ऐसे अलौकिक पल जाएंगे जिन्हें शायद ही किसी ने जिया हो। मध्य रात्रि की उन रागों की मानिंद जो जीने और मरने के बीच का फ़र्क़ भुलवा दें।

अधिराज, आज यह किस से मिल रहा है? अधिराज अपनी मृत पत्नी की अजनबी देह गंध से हैरान है। वह तीसरी मंजिल की रेलिंग से अपनी बांहें टिका कर खड़ा है। तीन पुर्ज़े हाथ में फहरा रही हैं। सामने इमली के पेड़ के पीछे चोर नजर से ताकती हवेली आधी गेरुआ पुती है, जो बिकी नहीं, बाकि आधी सफेद डिस्टेंपर से चमक कर फूहड़ सी दिख रही है।"

***

कृष्णदेव जी के कमरे में, अब उसी मुद्रा में मधुरा के बड़े भाई परीक्षित बैठते हैं। उस रोज़ मुझे परीक्षित जी से मिलने आए लोगों में शिबू मिल गया. शिबू करीबी था मधुरा का, उसका हर छोटा बड़ा काम करना...यूँ शिबू शिष्य था कृष्ण्देव जी का. मधुरा और उसके पिता का मैसेंजर और सहायक भी था. वह मुझसे नज़र बचा कर गुज़र रहा था. मैंने आवाज़ दे दी. “ पहले इतना आते थे, अब तुम्हारी दीदी न रहीं तो...एक बार ...चलो उसके कमरे में चल कर बात करें. “ मैंने उसके कंधों पर दबाव बना कर कहा.

” क्या कहें कंवर सा... बहुत परेशान था मैं कि.. “ वह कातर होकर बोला

“ तुम्हें कुछ पता है कि वह .... क्यों चली गई?”

“ हें हें कंवर साब... हम क्या जानते हैं?” वह उसके दबाव से कंधे छुड़ाता सा बोला.

“ तो मिलने क्यूँ नहीं आए? कुछ तो है शिबू जो तुम... “

“ भाईजान जाने वाले की रूह सुकून पाए। बहुत ज़िद ठाने हैं आप हमें गुनहग़ार बनाने की तो सच तो यह है, जो जानता है, वो जानता है, जो नहीं जानता उसे जानने की ज़रूरत क्यों हो। कम कहेंगे, कम में ही ज़्यादा समझ लेना। हम कलाकार आदमी हैं, इशारों में रचते हैं, इशारों में कहते हैं। बहुत कहने की आदत हमें है नहीं। सच पूछो तो, मधुरा दीदी के लायक़ आप थे नहीं। आप कहेंगे - क्या बकता है बे छोकरे? दुनिया की नज़र रमें आप पुलिस के बड़े अफसर, शहर के नामचीन लोगों में आपकी बैठकी।लेकिन आप मधुरा दीदी के लायक़ यों नहीं थे कि आपने, छज्जे पर बढ़त पाती मधुमालती सीधे उखाड़ कर अपने बगीचे में लगा ली।आप समझदार हैं, सच्चे ईमान वाले हैं, परलोक सिधारी रूह का कोई अपना नहीं होता आप जानते हैं। उसकी रूह को बिंधा कांटा कौन था, क्यूं था! इस पहेली में मत पड़िएगा। हमें भी बस अंदाज का भी अंदाज भर ही रहा। हमने कोई ज़लालत इस गुनहगार आँख से नहीं देखी। पर आँखों की अलगनियों पर सूखते ख़्वाब और होंठों की दबी मुस्कानों में झरती इनायतें देखीं। हम बारह साल की उमर से औरत के जिस्मानी और दिमाग़ी खललों से वाक़िफ़ रहे, हर दोज़ख़ देखा, हर जन्नत चख ली। कतई नहीं मानते थे कि साला औरत मर्द के बीच कोई इश्क़ मजाज़ी या हक़ीकी होता है, पर अब मानते हैं। हम कट्टर मुसलमान हैं भाईजान। हमें उनकी पागलपंती कतई भली नहीं लगी थी। हर जुमे वज़ू से पहले निगाह ऊपर। नमाज़ भी शायद उन्हीं के नाम की पढ़ते रहें हो तो खुदा का कुफ़्र। हमें गुस्सा आती, ख़ामख़ां, एक बेहतरीन ख़ानदानी बिरहमन लड़की, जिसे उसके बाप और भाइयों ने सर आँखों पर रखा हो। जिसकी ख़ूबसूरती पर हूरें शर्माएँ। तुम सरकारी स्कूल में संगीत के मास्टर। हमने कही - समर भाई। फ़िज़ूल है यह ज़हमत।" हमको वह चाहे कि न चाहे हमें तो नेह को नातों निबाहनो है" वो कहते . " पिटोगे।" हम कहते " वह नौबत आएगी नहीं, शिबू। हम जानते हैं अपनी हदें, और उनकी शालीनता को भी। हमें कुछ नहीं चाहिए. अपनी मैली आँखों से देखें भी ना.”

कृष्णदेव जी की मेघदूत सीरीज़ की एक पेंटिंग ख़रीदने में उन्होंने अपनी उस पुश्तैनी हवेली का एक हिस्सा बेच दिया था।“ कैसा दिखता था वो?” मेघदूत सीरीज़ की पेटिंग ख़रीदने वाले अपने रक़ीब को देखने की चाह मुझे भी हो आई थी. “ बहुत ही डेढ़ पसली का आदमी. लड़कियों जैसा पतला चेहरा, घने बाल। दरम्याना कद, दुबले। पीलापन लिए गोरे। हल्की भूरी कत्थई आंखे। पुराने फैशन के कपड़े पहनते हैं। चेहरे पर हमेशा हवाइयां। “ तो तुम कैसे कह सकते हो वह उसके लायक थी।“ मेरी आवाज में तुर्शी आ गई थी।" ये हमने कब कही। कि वे उसके लायक थीं? कतई नहीं. वो तो एकतरफ़ा जज़्बा. वो पागल तो गंगू तैली जैसा चंट भी कहाँ था."" फिर?"" ये शिकवा तो रहेगा भाईजान कि आपने उनको बदल डाला था, वो ऐसी नहीं थीं, जो आपके यहां जाकर हो गईं। उनका ब्याह किसी कलाकार से ही होना चाहिए था. किसी ऎसे बंदे से जो उस दरिया को बाँधता नहीं."" कैसी थीं? "" क्या कहें भाईजान, उनके मिजाज़ में एक ख़ास किस्म की शाईस्तगी थी. इंद्रधनुष रंगों में वे खिलती थीं। उनके कान पक्के संगीत के जानकार थे. चित्रों की क़दर थी, कृष्णदेव जी से छुप कर वे बनाती थीं चित्र. एक पल कहीं टिकना नहीं. अभी इस छत पर तो अभी सड़क पर...गली के बच्चों के साथ सितौलिया, रस्सी टापना छूटा भी नहीं था कि आप शादी कर के ले गए. आप में और उनमें उमर का फर्क भी था. "" हमारा प्रेम विवाह था।"" हमें तो लगा था कि वे खुद से ही घबरा गईं थीं। हवेली से उठता संगीत खींचता था.”"अब कहां है वह बंदा?""चले गए। जिस दिन अखबार में खबर पढ़ी उसके तेरहवें दिन... ""कहाँ? डर कर? "“डरता क्यूँ भला. वो तो कृष्ण देव जी के इंतकाल तक पर उनकी ड्योढ़ी नहीं चढ़े. चाहते तो ढाढस देने आते लेकिन नहीं... मधुरा दीदी के जाने की खबर पढ़ कर वे हक्के बक्के ज़रूर रह गए! आप ही की तरह उनको भी नहीं पता था कि क्यों? उन्होंने हमें बस यह कहा कि, " वे निकल रहे हैं कैलाश मानसरोवर... “ “ वो तो मुसलमान हैं...” “ हाँ तो ... विवाह होने के दो साल पहले का कोई एकतरफा मूक प्रेम! कोई सरफिरे संगीत टीचर का । उसकी चिट्ठियाँ। क्या मधुरा ने उत्तर दिए? यकीनन नहीं दिए होंगे। मैं सोच रहा था। लेकिन शिबू ताड़ गया।“ भाई जान वह लगाव एकतरफा ही था हमारे जाने तो। मधुरा दीदी हँसती थी उस पर उसकी हिमाक़त पर. लेकिन लौट कर आतीं तो पूछती – तेरे गैल्ये संगीत मास्टर ने निकाह किया? मेरे मना करने पर उदास हो जातीं. “

लेकिन उसकी डायरी में लिखे ये शब्द क्या कहते थे?"मैं मौत से नहीं डरती। यदि आज मैं मरती हूं तो मेरे साथ ऐसे अलौकिक पल जाएंगे जिन्हें शायद ही किसी ने जिया हो। मध्य रात्रि उन रागों की मानिंद जो जीने और मरने के बीच का फ़र्क़ भुलवा दें।"ऐसी गूढ़ बातों ने मुझे और निराश और अकेला कर दिया।क्या वह वहाँ परकोटे में घुसते ही दांपत्य और बच्चों की मां होने का अहसास उतार फेंकती थी? क्या वह उसके साथ पिंजरे में मानवीय गीत गाने वाली मैना की तरह रहती रही? जिसके गीतों को वह खुशी के गीत समझता था, वो तो रटे हुए ओढ़े हुए शब्द मात्र थे? उसके मैना होने की टिटकार तो कुछ और ही थी। खग की भाषा! मैं पागल हो रहा था दिन ब दिन मैं संकोच छोड़ रहा था लोगों से पूछने में कि मेरी बीवी की मौत की वजह जानते हो तो प्लीज़ बता दो. बच्चों तक को पूछा –

“ क्या कोई आता था?”” पापा, हमारे यहाँ तो हर कोई गार्ड के रजिस्टर में नाम लिखा कर आता है.”” मम्मी फोन पर बात करती थी किसी से?”“ पापा आप हमें संभालने की जगह कैसी बातें पूछते हो? आपको हमारे दुख से कोई लेना – देना नहीं? “ राजधिराज ने एक दिन डपटते हुए मुझे आईना दिखा दिया.

मैं इतनी अजीब स्थिति में था कि मुझ जैसे नास्तिक और वैज्ञानिक सोच की एकदम निष्ठुर सीमा वाले को इन दिनों कोई कहता कि " आत्मा को बुला कर पूछने की विधा वह जानता है।" तो आँख मूँद कर उसके साथ चला जाता, एक बार पूछता ज़रूर। अब मधुरा की दूर की रिश्तेदार और सहेली नीरजा ही थी जो हमारे सोशल सर्कल में थी, जिसका नाता परकोटे के भीतर की मधुरा और एस पी की पत्नी मधुरा दोनों से रहा। मैं उसके ऑफिस में उसके सामने जा बैठा। “ अरे अधिराज! कैसे हो? “

“मैं ठीक हूं, पर यह जानना चाहता था, कि मरने से पहले मधुरा तुमसे मिली?”

“एक बार”

“बस यही , इतना ही या और कुछ भी? “

“ कुछ नहीं। जो हुआ बेहद दुखद।”

“क्या कोई चुप रहने, मुझसे छिपाने का षड्यंत्र है? उसका किसी से कुछ....”

“ अधिराज! “ " तो तुम भी सोचती हो वह मेरे यहां खुश नहीं थी? मैंने उसे बदल डाला?"" नहीं पता क्या जवाब दूं। " वह कुछ पल चुप रह कर बोली" आप खुद जानते होंगे, कि वह थोड़ी अलग तो थी। उन लोगों में से जिनके बारे में आप सोचोगे कि आप उनको समझते हो उसके अगले ही पल वो कुछ और निकल पड़ते हैं। आपको लगेगा आप कुछ नहीं जानते।"" नहीं वह कोई रहस्यमय नहीं लगी मुझे जब तक ज़िंदा थी। सादा दिल औरत थी। मरने पर तो हर कोई रहस्य ढूंढता है। पिता की मृत्यु ने उसे कुछ रोज़ उदास किया था।""कुछ रोज़? मुझे लगा वह उनकी मृत्यु के दुख से, उनके पास न होने के पछतावे से उबरी ही नहीं।"" क्या तुम्हें कभी लगा नीरजा कि कुछ और हो सकता है मधुरा के साथ, कोई मानसिक विचलन, इनफाइडेलिटी, कोई चोट!"" अधिराज, आप अपना ख्याल रखें। " वह आह भर कर मेरा चेहरा देखने लगी कि मानो मैं दुख से सनक गया हूं।" तुम उस संगीत मास्टर को नहीं जानतीं?""कौन?"" मस्जिद के पास की हवेली वाला।"" ऐसा कोई वजूद ही नहीं था अधिराज! आप कैसी बातें कर रहे हैं। हम दिन भर साथ रहते, साथ कॉलेज आना जाना। छत पर गप मारना। मैंने कभी ऐसा जीव नहीं देखा । आप अपना ख्याल रखें, कहीं और मन लगाएं। "" मैंने जिस मधुरा से शादी की, और जो मर गई वे दो बिलकुल अलग व्यक्ति थे। यह तो मानोगी?""हम्म।""या एक ही व्यक्ति के दो रूप।"" अधिराज, मानो न मानो पिता की मौत ही के पीछे उसका जाना था। मेरी मानो तो पीछे मुड़ कर मत देखो अधिराज । अपने और बच्चों के लिए आगे बढ़ो। अपने को ऐसी चीज़ें कर क्यों टॉर्चर कर रहे हो? कैसे हैं राजाधिराज और सृष्टि? “

“मुझे सच पूछो तो पता ही नहीं। मेरी मां ही आजकल उनको देख रही हैं। मुझे नहीं पता उनसे कैसे बात करूं! राजाधिराज मुझसे ठंडा व्यवहार कर रहा है। जैसे उसकी मां के जाने की वजह मैं हूं।”

“हो सकता है वे आपको इस तरह पेन में देख कर परेशान हों? आप उनसे बात करने की कोशिश करो। वे अपना दुख तो झेल रहे हैं, आप अपना और उनपर मत डालो। उन्हें बाहर ले जाओ बदलाव के लिए।”

जब मैं घर पहुंचा, उसके कमरे में रजनीगंधा के फूल लगे थे। ओह यह सृष्टि का काम होगा। मेरी प्यारी बच्ची। मुझे याद आया मां ने हिदायत दी थी कि मैं खोने के समय घर पर रहना याद रखूं। आज भी देर हो गई।

“ वे तुम्हें मिस करते हैं अधि। वो जानते हैं, तुम्हें सँभलने के लिए वक्त चाहिए। सृष्टि रात को डरती है। बुरे सपने देखती है। राजधिराज समय से पहले बड़ों सी बातें करने लगा है।” मां ने आज सुबह ही तो घर से निकलते हुए कहा था मैं भूल गया। अपनी भटकन में।

मैं कपड़े निकालने के लिए वार्डरोब की तरफ बढ़ा। घर में हर जगह मधुरा की विगत उपस्थिति का राज था। जिसे मैं बदल नहीं सकता था। हताशा में मन तो किया सब निकाल कर फेंक दूं, तोड़ दूं। मुझे सोए हुए अरसा हो गया था, जिस्म थक कर चूर था, दिल सूज कर दर्द से बेहाल, लेकिन मेरा दिमाग सो नहीं रहा था, ओवर टाईम कर रहा था।

बिस्तर पर पड़ते ही मुझे याद आया सुसाईड नोट न मिलने तक मधुरा की मृत्यु के तुरंत बाद एक अजाने भय के तहत उसके फोन से मैंने उसका नया सिम निकाल कर पुराना डाल दिया था. तब तो एक सुन्न मन:स्थिति में मैंने उसे वॉलेट में रख लिया था. अब कई दिन बाद उसका ख्याल आ रहा है। मैं तुरंत उठ बैठा, सिम की खोज में वार्डरोब बिखेर दी, एक डर्टी लिनन बैग में वह पैंट मिल गई, जेब में सिम भी तो उसी वक्त फिर उसे उसके फोन में डाला गया. उस सिम को लगाने पर मुझे उसके कॉंटेक्ट लिस्ट में कुछ नया नहीं मिला. वाट्सएप पर भी बहुत कम संपर्क थे. एक रोज़ एक अजनबी औरत का फोन मधुरा के फोन पर आया, मैं चौंक गया कि मेरे साथ यह क्या हो रहा है.

“ आप ‘अधीर’ हैं? “मेरे और मधुरा के नितांत निजी पलों का नाम यह कौन जानता है? मैं मधुरा की किसी ऎसी अंतरंग मित्र को नहीं जानता था कि जिससे वह ‘बेडरूम टॉक’ करती हो.

“ जी नहीं, मैं ‘ए आर जोशी’

“ आप मधुर के पति नहीं? “” जी हूँ. “” मैं आपका दर्द समझ सकती हूँ.” यह सुन कर मैं खीज गया आजकल हर कोई यही दावा कर रहा था. “ जी.” मैं कह कर फोन काट सकता था. लेकिन मेरे नितांत पर्सनल फोन पर आई इस कॉल और ‘संबोधन ने उत्सुक कर दिया कि शायद यह कुछ जानती हो मधुरा के बारे में.

“ आप कौन हैं? और कैसे जानती हैं यानि थीं उसे “” मैं उसकी फेसबुक फ्रेंड हूँ. “” पर वह फेसबुक पर कभी एक्टिब नहीं थी.”” वह मैं नहीं जानती ‘मधुर शिवा’ नामकी एक बेहद सुंदर युवती मेरी फेसबुक मित्र थी, हम हर शनिवार सुबह आठ से दस चैट करते थे. कुछ महीनों से वह नहीं दिखी. मैंने एक महीना पहले उसकी वॉल देखी वहाँ कुछ लोगों ने ‘रेस्ट इन पीस’ लिखा हुआ था. मुझे विश्वास नहीं हुआ. तब मैंने उसके दिए इस नंबर पर कॉल किया है. यह नंबर बहुत अरसे से स्विच ऑफ़ आ रहा था.

“आप जानती हैं उसकी समस्या क्या थी?”” मैं? बल्कि मैं आपसे यही पूछना चाहती हूँ. “

”सच पूछें तो मैं यही कहूँगा नहीं जानता. बहुत कुछ नहीं जानता. “ मैं डूब रहा था. नए नए रहस्योघाटनों से.

“ मेरे हिसाब से तो वह इस क़दर बैलौस शख़्सियत थी कि उसे लगता था उसे बहुत कुछ करना है. अपनी एक कवितओं की किताब लिखनी है. पिता की मिनिएचर शैली की देवियों का स्वरूप बदलना है. उसे अकेले विश्व घूमना है. उसे एक बार बिकिनी पहननी है. एक बार मोटा काजल लगाना है. एक बार कैबरे देखना है. एक बार सही मायनों में इश्क़....... मतलब अपने सपनों से इश्क़... मगर जाने दीजिए. हर आम ओ ख़ास औरत की तरह उसने हमेशा यह ‘ सोचा दूसरे क्या सोचेंगे’ या ‘ पहले ये कुछ चीज़ें निपटा दूं ‘ वह सपनों में नहीं उनके ट्रांस में जीती थी.”

“मधुरा यह सब नहीं चाह सकती थी! हो सकता है अभिनय करती हो फ़ेसबुक पर?”” क्यूँ सच में नहीं? “”सच में तो वह बहुत सोबर – संजीदा हाउस वाईफ़ थी. उसने अपने पिता की कला को कभी हाथ तक नहीं लगाया. हाँ कविताएं शायद एकाध बार, वह भी मेरे जन्मदिन पर मेरे लिए” आप रहती कहाँ हैं आप से मिल कर बात हो सकती है?

“ख़ुदा का रोल निभाना बंद करिए डिप्टी कमिश्नर साहब। आप हर व्यक्ति को कंट्रोल नही कर सकते हर समय। “

मेरे अंदर की पुलिस चौकन्नी हुई.

“ आप औरतों को नहीं जानते अधीर, मैं लंदन में रहती हूँ. कभी भारत आई तो मिलेंगे इंशाअल्लाह. मेरा नाम अज़रा नसीम बैग़ है. उसने ज़रा भी कोई नैगेटिव वाईब्रेशन दिए होते तो मैं.... रोक सकती थी. मुझे बेइंतहा अफ़सोस है. मर कर उसने खुद को मेरी निग़ाह में एंजेल बना लिया. न्यूमरॉलॉजी में वह कमाल थी. उसके प्रिडिक्शन कभी ग़लत नहीं हुए. क़ुदरती तौर पर मैं फरिश्तों में यकीन नहीं रखती मगर वह खुद ही तो उनमें से एक थी. “

फोन रख कर मैं और उलझ गया था. क्या कोई नाम किसी को समूचा बदल सकता है? मैंने इस नंबर से डाटा यूज़ कर उसका फेसबुक पासवर्ड बदला और फेसबुक अकांउंट खोला. ‘मधुर शिवा’, उसकी दूसरी फेसबुक वॉल. सैंकड़ों तादाद में अजनबी दोस्त. स्टेट्स में रोज़ नई कविता. एक – दो पुराने फोटो में बाकि पिता की पेंटिग्स की देवियाँ, नायिकाएँ.

“कौन मधुरा जोशी, वह मधुर शिवा थी. हमारी बेहद अजीज़ दोस्त. “ क्या कोई नाम किसी को पूरा बदल सकता है?

यह थी मधुरा की असल दुनिया, जिसमें उसे कुछ देर रहने की इजाज़त मिली है. वह जानता है जल्दी ही वह वक़्त भी आएगा जब इस दुनिया के दर्वाज़े बंद होंगे उस पर, बत्तियाँ बुझा कर मेजबान दरवाज़े तक विदा करने आएंगे. वह गली में होगा जहाँ से दो गली दूर उसकी गाड़ी पार्क होगी. लौटते में नुक्कड़ पर खड़े लोग उसे देख कानाफुसियाँ करेंगे – श्श , ह्म्म यही है वह. चुप रहो शहर का एस पी ट्रेफिक है. इसकी बीवी इसके ज़ुल्मों से... जुल्म...क्या जाने

ऎसा हो उससे पहले मैं वापस जा रहा हूँ, या ये कहें कि मेरा एक हिस्सा वापस जा रहा है. एक हिस्सा यहीं छोड़ जा रहा हूँ, जो त्रिशंकु बना अंतरिक्ष में लटका रहेगा क्योंकि इसकी जिज्ञासा शांत ही नहीं होती. जिसे वही छूकर समझा सकेगी. मैं ट्रेफ़िक चालानों की दुनिया में, नागवार लोगों की नकली मुस्कानों में. राईडिंग क्लब और पोलो की दुनिया में .... मैं चाहता हूम मेरा अतीत एक लगातार दूर होती याद बन जाए. जो मेरे अंत में मुझसे यह पूछ्ने को मजबूर करदे कि मैं इतना अंधा कैसे था? इतना अनजान?

मैं उसकी मृत्यु के बाद पहली बार रॉयल राईडर्स की किसी गेट टू गेदर में गया। क्लब के हॉल में हमेशा की तरह मीठा शोर था, जो कभी मुझे जोश से भर देता था। सब दोस्ती का जाम पी रहे थे। किसी का ध्यान पता नहीं मेरी लंबी ग़ैरमौजूदगी पर गया या नहीं, आज मौजूदगी तक पर नहीं गया। हालांकि एक – एक बार घर आकर ये लोग सहानुभूति जतला कर गए थे. आज उस लगा था कि लंबी अनुपस्थिति के बाद लोग उसके लौट्ने के नाम का जाम पिएंगे. जबकि वह सोचता था वह महफ़िल की जान है। संगीत चल पड़ा था लोग डांस करने लगे।l मुझे लगता था वहाँ मौजूद हरेक को मालूम था कि मैं लौट आया हूं। वे सब कनखियों से मुझ पर मेरे व्यवहार पर नजर रखे थे। कि मैं अकेला क्या करूंगा, किस ग्रुप की तरफ बढ़ूँगा। वह ग्रुप कैसे प्रतिक्रिया करेगा। मैं उस वक्त खुद को अकेला पाकर भी घिरा पा रहा था। डक्या मधुरा ठीक सोचती थी?

रोज़ सुबह उठता हूँ , रोज़ रात को सोता हूँ इस विश्वास के साथ कि कुछ ठीक ही सोचा होगा मधुरा ने. कोई सही फैसला ही होगा क्योंकि वह जल्दबाज़ कतई नहीं थी. कुछ सोच कर ही चली गई होगी, कि यह गुनाहों से भरी दुनिया का निर्वात उसे अपने भीतर न खींच ले. पर कोई तो आग होगी, सीली ही सी सही उसके भीतर जो उसे धीरे धीरे राख कर गई. कोई तो लड़ाई रही होगी उसकी खुदसे या मुझसे या इस सोसायटी से. क्या वह अपनी खुशी, अपनी ऊर्जा, अपनी हिम्मत मुझ पर, इस घर पर, इस सोसायटी पर ज़ाया कर रही थी? अच्छा हुआ कि उसने जाना तय किया वरना उसकी बाकी की ज़िंदगी एक भीतरी खुद को लहुलुहान कर देने वाली लड़ाई होकर रह जाती. मैं क्यूँ चाहता भला वह किसी आग में जलते हुए जीती. कौन जाने जैसे मृत्यु के आखेट में फंसा जीव ज़िंदगी की तरफ़ भागता है. वह मृत्यु को खोजती हो... मैं उसके प्रेम में पहले जो था वह था, अब अंधा हो चला हूँ. मैंने उसकी हर आस्था पर संदेह किया. मैंने तो मृत्यु की आकस्मिकता और सांसों की तयशुदा गिनतियों पर विश्वास नहीं किया. बल्कि किसी निखालिस ऊर्जा पर भी हंसा. लेकिन मधुरा कोई ऊर्जा पुंज है, मेरे चारों ओर, चाहे वह मर चुकी है. वह जा चुकी है अब मैं चाहता हूँ, सब पहले जैसा हो जाए मैं गौर कर सकूँ इस शहर की ट्रैफिक समस्या पर, मैं लौट आना चाहता हूँ, पहले वाली मन:स्थिति में.

अभिव्यक्ति से खाली / प्रेम के ऊबे उदास लम्हों को माँज कर चमका लेने की उम्मीद तक तो वह हमेशा के लिए ले गई वो. मैंने देखा बहुत दिन से रुकी पड़ी बाथरूम की घड़ी अचानक चल पड़ी थी. आज दोपहर से ही बार - बार विण्डचाईम बज रहा था, मेरा ध्यान खींचता...मुझे लगा मानसूनी हवा बरसात के आने का संकेत दे रही है, बाहर बॉलकनी में तो हवा तो थी नहीं, थी भी तो बहुत मद्धम – सी. तेज़ धूप में उसके लगाए गमलों के पौधे कुम्हला कर पत्तियाँ लटका चुके थे...मैं ने चाय की आधी प्याली छोड़ कर...बाथरूम से बालटी भर कर जल्दी - जल्दी उन्हें पानी दिया. ठंडी चाय की एक घूंट बेमन से पी, मिनटों में ही गमले लहलहा रहे थे...विण्डचाईम अब बिलकुल चुप था. मानो इन मूक पौधों की पीड़ा मुझ तक पहुंचाने को ही बजा हो. उसके जाने और मेरे लौट आने के बीच का संक्राति काल जो बन्द रह गया था घड़ी की सुईयों में, आज जल्दी – जल्दी जहन में बीत रहा था. लौटते सूरज धूप रोज की तरह बॉलकनी में आकर बिल्ली की तरह ऊँघ कर जा चुकी थी. आज उसका फर किसी ने नहीं सहलाया था. मेरी प्याली ही की तरह दिन की चाय की रुँआसू प्याली में कुछ कतरे बचे थे धूप के.

ऎसे ही थी उस संडे की सुस्त ढलती शाम. जब वह बॉलकनी के झूले में लेटी आन्ना - कारेनिना दुबारा उठा लाई थी और पढ़ते – पढ़ते पूछ बैठी थी.

“ ये आन्ना इतनी बेचैन और असंतुष्ट भला क्यों थी?

मैंने कहीं से लंच करके लौटा था मैंने टाई उतारते हुए पता नहीं क्या उत्तर दिया था. याद नहीं. शायद कोई उत्तर दिया ही नहीं था. क्या वह परीक्षा ले रही थी? उस रोज़ उसके दिमाग़ में चल क्या रहा था? वह जिसका ज़िक्र कर रही थी उस किताबी क़िरदार का क्या क्या वज़ूद था? मैं बस यह चाहता था कि वह मेरे गिर्द बांहें डालकर कहे। " मैं बहुत खुश हूं तुम्हें पाकर।" लेकिन उसने आज तक ऐसा नहीं कहा था। हाँ व्यवहार में दिखा पर कह देती तो कभी ....

“ माय डियर, आन्ना महज क़िरदार थी ।” मैंने पास आकर कहा।

“इसमें क्या इस दुनिया में हर कोई कोई न कोई क़िरदार निभा रहा है। “ वह बॉलकनी तक चढ़ आई मालती लता के फूलों को सहलाते हुए बोली। उसके कान के हीरे झिलमिलाए।

“अब उसे क़िरदार कह लो या सामाजिक भूमिका। हम सबको निभाना होता है, न हों ये भूमिकाएँ तो भी मलाल रहेगा न कि हम किसी की पत्नी, मां, पिता, मित्र न हुए।”

“ मैं समझती हूं। लेकिन इस निभाने में कोई सुख, कोई अदा, शोख़ी, खूबसूरती तो हो। तुम मुझे एक ख़ास अंदाज़ में रहने को कहते हो। मैं रंगो, स्याहियों, सुरों और आलापों में व्यक्त होना चाहती हूं। “

“तुम्हें कोई मना करता है?” मैंने उसे हँसकर ही कहा था, पर वह संशय से मुझे देखने लगी।

“ अंहँ ! मना तो नहीं। लेकिन .... लेकिन आन्ना जैसे....

“ छोड़ो आन्ना को यार अब चाय पिलवा दो।” मैंने उसके हिलते झूले को रोक कर सीधे चाय की फरमाइश कर दी थी. मैं आज चाय की अकेली प्याली और बिना हवा ही हिलते हुए खाली झूले को उत्तर दे रहा हूँ.

“ आन्ना तो थी ही ऎसी कि हर कोई उसे बस प्रेम करता. लेकिन मुझसे मिलती तो मैं पूछता ज़रूर कि ‘ डियर आन्ना तुम जिस में खुश रह सकती थीं उस परम – प्रेम, ‘एब्सॉल्यूट लव’ की परिभाषा क्या थी ?”

मैं गहरे हरे रंग वाली नोट्बुक उठाता हूँ. जिससे पन्ना फाड़ कर मधुरा ने सुसाईड नोट लिखा था. उसमे हर जगह घर के हिसाब – किताब हैं. बेतरतीबी से फटे पन्ने के अवशेष भी हैं. एक आखिरी पन्ने पर कुछ लिख कर काटा है पेन गड़ा गड़ा कर.

मैंने अपना क़िरदार पूरे जोश से निभाया, अब और नहीं सॉरी !

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