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मधुमक्खियाँ

मधुमक्खियाँ

मनीषा कुलश्रेष्ठ

बहुत अलग थी वह शाम, अबाबीलें सर पर गोल चक्कर काट रहीं थीं. बावड़ी की मेहराबों के नीचे बने अपने गन्दे...कीचड़ – काग़ज़ के बने बदबूदार घोंसलों में नहीं लौट रही थीं...सूरज ठण्डा पड़ गया था, मेरे गाल दहक रहे थे, आँखों में सहज ही उबल आने वाले आँसू, किसी सपने की मेंड़ की आड़ ले ठहर गए थे, बस एक खेत की सी संतुलित नमी आँखों में थी.

साथ के खिलन्दड़े झुण्ड के बच्चों का बेतहाशा शोर मधुमक्खी की गुनगुन बन गया, कान सम्वेदनशील हो गए थे. जीभ पर शहद मिले नौसादर का सा स्वाद ....ततैये के से डंक की चुभन थी. दूर गुज़रती ट्रेन की सीटी ने भागते मन को हाथ देकर डब्बे में चढ़ा लिया था.....मैं सारे बच्चों से बहुत दूर थी... “ आज इसे क्या हुआ...”

” एई मन....मानसिंह डाकू तुझे क्या हुआ...चल पेड़ पर चढ़ें....

” सितौलिया खेलें? “

”किलकिल काँटे खेलें? ”

“कुछ नहीं....”

मैंने झिड़क दिया था सबको... उस रोज़ आम के पेड़ पर उत्पात मचाते लंगूरों से डर नहीं लगा.

लड़ाई हुई क्या? कोई मेरे भाई से पूछ रहा था.

अरे नहीं कल मैंने इसके पेट में बॉल से गलती से मार दिया था....तबसे रूठी है, मम्मी ने मारा भी मुझे... अरे यार ये लड़कियाँ पेट में काँच के अंग लगवा कर आती हैं, मेरी मम्मी भी कहती हैं...मत मारो बहन को पेट में.

मैं गली में खुलते गोखड़े में खड़ी थी, गोधूली का समय था, पशु लौट रहे थे, झुण्ड के झुण्ड. घण्टी टनट्नाते.... झिंगुरों की मादाओं की आवाज़ तक मैं सुन पा रही थी.... उस दिन शाम से एक शिकरा नीम की फुनगी पर बैठा, अपनी चोंच तीखी कर रहा था....फर्न की पत्तियाँ सूख रही थीं.... गायों के लौटते झुण्ड में एक गाय पीछे छूटी मिली.......पीछे खून की लम्बी लकीर खून – खान सी लौटी...मगर साथ एक छौना भी लौटा.... मैं 13 की हो गई हूँ....मैंने डूबते सूरज से कहा...और मुझे कोई खूनखराबा अपने जिस्म में नहीं चाहिए! समझे !

मुझे उस दिन पहला प्रेमपत्र मिला था........अनजाना.....नकली नाम से....किन्हीं मनीष निष्काम ने...मुझे ‘आय लव यू’ के विस्फोट के साथ हैप्पी दिवाली का कार्ड भेजा था और मुझे रोना आ रहा था, पापा से डर लग रहा था...उबकाई आ रही थी. इससे पहले मेरे जन्मदिन पर स्कूल के सायकिल स्टैण्ड पर कोई हाथ की लिखी पर्ची में यही कुछ लिख गया था, और साथ में रखा था एक चमकीला गुलाबी बटन....बटन की वह गिफ्ट मैं कभी नहीं भूलूँगी मगर औचित्य? बटन का...सातवीं कक्षा के बच्चे और क्या देते उस कस्बे में?

इन खतों ने मुझे थका दिया था मन से, मगर यह थकान भय भी दे रही थी और मीठा सुख भी....चाँद औंधा लटका था फैल गई खीर के कटोरे सा,....तारे ऎसे ही फैल गए थे....झुण्ड में...

रात होते होते मैंने उमस भरी रसोई में पाया खुद को.....मेरे जिस्म में कोई कड़वी महक बस गई थी...सबसे अलग...कॉफी? शराब? बीयर? सबसे अलग.....ज़्यादा पक गए सेब की – सी. ज़बान पर कसैला स्वाद....गेहूँ के कनस्तर में पकाने को रखा ‘सीताफल’ निकाला... उसे लिए रसोई की देहरी पर बैठी रही...चुपचाप. उसकी आँखे निकल आई थीं...पकने को लगभग तैयार था.... मेरी छाती पर उगी स्तनकलिकाओं सी गुलाबी आँखें, मैंने दबा कर उस सीताफल को फोड़ दिया,...एक एक ....गूदे दार बीज खाने लगी... कच्ची – कच्ची सी मिठास मुँह में भर गई... हवा एक ख़ास दिशा में बह रही थी और दूर बनी बिसलरियों की तुर्श , नशीली महक ला रही थी....

नीम के दोनों बूढ़े पेड़ चुपचाप मेरी हरकत देख रहे थे....मुझे थकान हो रही थी मगर नींद नदारद. जहाँ हम रहते हैं, यह इस कस्बे का गर्ल्स स्कूल है, ऊपर हम रहते हैं नीचे स्कूल चलता है. यह बहुत – बहुत – बहुत पहले, आज़ादी के पहले किसी निज़ाम का महल था. कचहरी भी थी, ऊपर के हिस्से में यहाँ एक पीर भी रहा करता था. आज़ादी के बाद कचहरी सरकारी हो गई, नया डिस्ट्रिक्ट कोर्ट बन जाने के बाद में इसे लड़क़िय़ॉं क़ॆ स्कूल में तब्दील कर दिया गया. माँ कस्बे की पहली महिला पोस्ट ग्रेजुएट थीं, इस स्कूल की पहली प्रिंसीपल भी बनीं. हम यहाँ आ गए और ऊपर वाले हिस्से में रहने लगे. मुझे और भाई को मोहल्ले के बच्चे डराते थे, टिन के ऊपर जो कमरा है, वह पीर बाबा का कमरा है. मेरा पढ़ाई का कमरा ठीक उस बन्द खिड़की वाले कमरे के सामने पड़ता था, जो हवा से कभी – कभी खुल जाती थी. बच्चे डराते, हर शुक्रवार खुलती है. बड़े दयालु पीर थे कभी नुकसान नहीं करेंगे...पर गौर करना.... वह खिड़की खुलती है. मेरे गौर करने से पहले ही कई बार शनिवार को वह खिड़की खुली दिखती.... कभी महीनों बीत जाते वह खिड़की नहीं खुलती, उस छत की तरफ की सीढियाँ टूटी थी, उसकी सफाई करने कभी – कभी स्कूल का मुसलमान चपरासी अजीज़ जाया करता था. मुहल्ले के शैतान बच्चों के साथ भाई कभी कभी टेबल – कुर्सी लगाकर हमारे घर की तरफ वाली टिन पर चढ़ जाता था. फिर छज्जे से कूद कर उस कमरे में.....एक बार शैतानी में शर्त लगा कर उसने वहाँ उस खाली, घास उगे कमरे में पेशाब कर दिया था....संयोग ही माना मेरी मम्मी ने तो उसे, मगर उतरते हुए सच्ची ! उसके हाथ में फ्रेक्चर हो गया था. उसने डर कर पापा – मम्मी के बीच सोना शुरु कर दिया, मेरा और बड़ी बहन का कमरा अलग था, वो पास के शहर में मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई करती थीं, हर इतवार जब आती लाईट जला कर रात भर पढ़ा करती थी, सो लाईट और् गर्मी में कमरे में सोने का कोई मतलब नहीं था, मैं उस पीर बाबा वाले कमरे के सामने वाले आँगन में सोती थी, छिड़काव कर, आया से शाम को ही फोल्डिंग पलंग और सफेद गद्दे और चादर बिछवा लिया करती थी, बूढे नीम हवा करते थे...

पीर बाबा की खिड़की से ज़्यादा मुझे उस घर के गुस्लखाने से डर लगता था, न जाने क्यों पापा इस गुस्लखाने में केवल दस वाट का बल्ब लगवाते थे, वह काले, फिसलने पत्थरों और उखड़े सीमेंट वाली नालियों वाला बाथरूम दिन में भी अँधियारा रहता. जिसमें छ्ज्जों पर उगे दो किशोर पीपलों की गुच्छा – गुच्छा जड़ें नाली के पास का फर्श फोड़ बाहर निकल आई थीं, वो जड़ें अंसख्य केचुँओं का बोध देतीं जब पानी बहने से वे हिलती और तैरतीं. जब मैं स्वयं को धोती तो साबुन और खारे पानी से बने अवक्षेप उस जड़ों के रेशे में फँस कर उसे घिनावना बना देता था. और मुझे उस बाथरूम में नहाना कभी पसन्द न आता. उस बाथरूम में एक बक्सा था, जिसमें हमारे तौलिये रखे रहते थे. जहाँ तक बस चलता था, मैं और भाई बाहर धूप में रखे टब और बाल्टियों के पानी से खूब उछल – कूद कर नहाते थे.

अह ! कुछ दिन पहले...रात जब मेरे सीने में दाँयी तरफ एक फोड़ा हुआ टीसता हुआ और उसके चार घंटे बाद बाँई तरफ भी, उस दिन सुबह इतवार था, पापा घर पर थे. उन्होंने सबके सामने मम्मी को डाँटा और कहा इसे कहो अब अन्दर नहाया करे! उन्हें मुझे कुछ न कहना पड़ा, मैं अन्दर भाग गई और न जाने कौन कौन से अनजाने पापों का प्रायश्चित मेरे मन पर जम गया. मेरे पेट में विचित्र अनुभूति होती रही और टाँगे काँपती रहीं. माँ ने मुझे सफेद शमीज़ों में कस दिया.

मैं ने कहा न, मैं उस खिड़की के हवा से खुल बन्द होने से डरती नहीं थी, बस कभी सिहर जाती थी. कभी प्रार्थना करती थी...कि हर जगह अमन हो. हमारी कुतिया शैबा को नन्हें बच्चे हों...मुझे प्रेम पत्र लिखने वालों की सायकिल पंक्चर हो, वो फेल हो जाएँ. मेरे सीने पर उगे या तो ये फोड़े खत्म हो जाएँ, या मैं अदृश्य हो जाऊँ, एक पक्षी बन जाऊँ या पेड़ ! तभी यह घटना घटी ! मैं सफेद शमीज़ पहन कर सोई थी, सफेद चादर....पर कि अचानक मैंने देखा आधे चाँद के किनारे भी लाल हो गए थे. फिर खुद को लाल पलाश के फूलों के पेड़ में बदलते देखा. मैंने अपने हाथ हिलाए...उन पर भूरी – भूरी मखमली कलियों का झुण्ड था और... नारंगी पँखुरियों की कमनीय झलक. मेरे नीचे एक पक्का पीले पत्थरों का आँगन था. वहाँ एक पीतल की बालटी और लोटा रखा था. मेरे तन/ तने पर भूरे लिसलिसे लार्वा चल रहे थे और एक लिजलिजी – लसलसी भूरी लकीर छोड़ रहे थे...मैं पत्तों रहित टहनियाँ हिला कर उन्हें गिरा देना चाहती थी. मैं रात भर जागी रही, पीर बाबा वाली खिड़की बन्द थी, मैंने उनसे सहायता माँगी...मगर खिड़की नहीं खुली. सूरज निकलने को हुआ....तो मैंने पाया मैं फिर पेड़ से मैं बन गई थी.

सुबह माँ ने चेहरे पर हेडमास्टरनी पना ओढ़ कर जो – जो कहा, मेरे सुन्न पड़े मन ने आधा सुना... दिमाग ने मुझसे घृणा की, ‘लड़कों से दूरी’, उछल – कूद और आम के पेड़ पर और कुर्सी मेज लगा कर टिन पर चढ़ना बन्द, जिन्दगी का अगला चैप्टर ‘कठिन’ वाला. ये कपड़ा पहन लो भीतर ! अब यह घड़ी चालू हो गई है भीतर....हर महीने कलेण्डर बदलेगा...भीतर और देह के भीतर पेड़ बौराएगा....फूल उगेंगे...फल पकेंगे. भाई से उस दिन पहली बार बहुत जलन हुई. एक बड़े से हरे साफ, मगर मोटे सूती कपड़े को उलझन से देखती रही. भीतर कहाँ? कहाँ माँ? मगर पूछ न सकी. मैं गली में खुलते गोखड़े में जाने की हिम्मत न जुटा पाई....चौपाए घण्टियाँ टनटनाए बिना चारागाहों की तरफ चले गए, सुबह की हवा भी अचानक सुबकने लगी, मैं चुप थी, बूढ़े नीम आपसे में उलझते रहे.

दिन भर मैं दिन भर पापा की लाई गुड़ियों से अनमने पन के साथ खेलती रही. दोपहर कमरा बन्द कर लेटी तो फिर मैंने खुद को मधुमक्खियों के झुण्ड से घिरे पाया...अब मेरा पेड़ उन फलों से भर गया था जो पक रहे थे और कुछ ज़्यादा पकते और सड़ते जा रहे थे....वे मेरे पैरों में गाढ़ा – लाल रस बन कर इकट्ठे हो रहे थे. मैंने माँ का दिया हरा मोटा सूती कपड़ा लिया उस द्रव को पौंछते – पौंछते शाम कर ली. मेरे पेड़ पर मधुमखियों ने छत्ते बना लिए, मकड़ियों ने जाले लगा लिए, वह द्रव रिसता रहा, मैं पौंछती रही. मेरा मैं होना कितना दुष्कर हो गया था उस दिन.

मुझे दुर्गा अम्मां की सुनाई कहानी याद आ गई – मेवाड़ के एक गरीब माली की कन्या...जो चले तो कुंकुम के पैर मंडते जाएँ, बिन माँ वाली इस लड़की को माली पिता दिन में गुलाबों के बाग में बन्द रखता. शाम को किसी तरह घर ले जाता,एक दिन उसे राजकुँवर ने देख लिया और ज़िद ठान ली... हट !

नीचे स्कूल के मैदान में खेलते बच्चों का झुण्ड बुलाता रहा...झूले...हिलते रहे. अब लड़कों के साथ मत खेलना... अब हर महीने भीतर कैलेण्डर का पन्ना बदलना होगा....अगर कैलेंडर का पन्ना न बदला तो ! तो ! कयामत! बड़ी बहन कॉलेज ट्रिप पर बाहर थी....मैं चार दिन तक पेड़ में बदलती रही हर रात...पहले दिन कलियाँ, फिर फूल और कीड़े, फिर फल...फिर सड़े हुए फल और फिर...ठूँठ....अब मैं सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति गहरी उदासीनता अनुभव कर रही थी, मुझे लग रहा था कि मैं मर रही हूँ. मैं ने मम्मी से कहा भी, उन्होंने दुर्गा अम्मां को आटे और गुड़ का शीरा बना कर खूब सारा घी डाल कर खिलाने को कहा. मुझे बेहतर लगा.

इस बीच मेरे पैरों में खपच्चियाँ लग गईं, ‘मुंडो टाबर ज्यूँ और काठी काकड़ी !’ दुर्गा अम्मा कहती. मैं सबसे ऊँची ताख़ से अचार, बिस्किट और मिठाई चुरा लेती. सारे कपड़े छोटे होने की धौल अकसर पीठ पर पड़ती.

मेरा खेलना फिर शुरु हो गया, मैं पेड़ को भूल गई....केलेण्डर भी नहीं बदला...माँ व्यस्त हो गई. अट्ठाईस दिन हो चुके थे. मैं फिर बाहर सोई थी...सफेद चादर पर कि अचानक हवा से खिड़की खुली, मुझे एक सफेद चोगा दिखा, सुनो कैलेण्डर कौन बदलेगा? ऊपर बूढ़े नीम पीली निबौलियों की गिन्नियाँ गिन रहे थे, दयालु सेठों की तरह आँगन, गली और छतों पर बिखेर रहे थे.... मैं काँपती हुई उठी कि इससे पहले मैं पलाश के पेड़ और सड़े सेबों से लदे पेड़ में बदलूँ.... दीदी के पास चली जाऊँ.

“दीदी, मुझे हरा ..कपड़ा दे दो...मेरा कैलेण्डर बदल रहा है...मैं पेड़ बनने वाली हूँ.”

“ये माँ भी ना ! तुमको भी डराया होगा. हरा कपड़ा ! छि:! इसे फेंको, ये लो पंख....” मैं उन कोमल – साफ पंखों को देखने लगी....उन्हें खोलकर मैंने अपने भीतर सरका लिया और सफेद चादर ओढ़ लेट गई. मैं डर रही थी पेड़ बनने से. उस रात पापा ज़रा देर से घर आए थे. उनकी आहट और आवाज़ से चौंक मैंने अपने हाथ पैर देखे...वे बदले नहीं थे, पापा नया स्कूटर लेकर लौटे थे पास के शहर से. मैंने चादर में से झाँक कर देखा वे रसोई के सामने वाली मेज़ पर बैठ खाना खा रहे थे, माँ, रोटियाँ सेंक रही थीं. वो दोनों खुश थे.

कौनसा रंग?

“नीला.”

” चला कर लाए?”

”हाँ!”

मैं उठ कर उनके पास आ गई. मैंने उनसे पूछा, क्या वे मुझे स्कूटर सिखाएँगे? उनका उत्तर था, “ हाँ, तुम ही तो हो जिसके पैर ब्रेक और सड़क तक पहुँच सकेंगे, तुमने साईकिल भी जल्दी सीखी थी...”

मुझे पहली बार बड़े होने का सुख मिला. मैं दौड़ कर भीतर गई, भाई गुड़ी – मुड़ी नेकर पहने माँ के बिस्तर में सोया था, दीदी पढ़ाई में नाक तक डूबी थी. मैंने अकेले ने आँगन की सीढियों से झाँक कर नीचे देखा, चाँदनी में नीला वेस्पा खड़ा था. एकदम नया.

मैं उस रात न पेड़ बनी, न पंछी ! मैं बन गई थी, स्कूटर चलाने वाली कस्बे की पहली लड़की !

***

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