मन कस्तूरी रे - 11 Anju Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मन कस्तूरी रे - 11

मन कस्तूरी रे

(11)

रेस्टोरेंट से वे दोनों सीधे शेखर के फ्लैट पर चले गए। शेखर जल्दी ही विदेश चले जाएँगे यह ख्याल स्वस्ति अपने मन से निकाल नहीं पा रही है। इससे पहले भी वे देश विदेश की यात्राओं पर जाते रहे हाँ पर स्वस्ति ने ऐसा कभी फील नहीं किया। अपने मन की इस उथलपुथल पर आज उसका कोई नियन्त्रण क्यों नहीं है! जबकि वह कितनी संयमित और संतुलित है इसकी प्रशंसा स्वयं शेखर भी करते रहे हैं! उसके व्यक्तित्व के ठहराव और परिपक्वता के वे कायल हैं! वह खुद नहीं जान पा रही है कि उसे क्या हुआ है? क्या स्वस्ति बदल रही है। शायद हाँ, अपने प्रेम से उसकी उम्मीदें और ख्वाहिशें दोनों बदल रही हैं पर इसमें गलत भी क्या है। अंततः वे दोनों प्रेमी हैं। ये कोई अनोखी बात तो नहीं! वह अपने प्रेमी के इतने समय तक विदेश जाने से पहले का समय उनके साथ बिताना चाहती है। सिंपल....!

पर क्या सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा स्वस्ति की कामना थी। क्या शेखर को महसूस करने की उसकी कामना पूरी हुई? यह पहली बार नहीं था जब वह शेखर के फ्लैट पर गई! पर जिस मनोस्थिति से वह आज गुज़र रही है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ! इससे पहले ही शेखर के फ्लैट में वह कितनी बार गई है, कभी उनके साथ तो कभी अकेले उनसे मिलने! उनके घर के कोने-कोने से वह परिचित है! उनकी स्टडी में किताबों से भरी कई अलमारियां हैं जो स्वस्ति के लिए किसी खजाने से कम नहीं हैं! मनपंसद किताबों से भरा यह सुरुचिपूर्ण घर उसके मन का एक कोना है जहाँ वह सुकून पाती है पर वह तो आज सुकून की तलाश में यहाँ नहीं आई है! सुकून से कोसों दूर आज मन की हलचलों के वश में है स्वस्ति!

शेखर को लगा कि हमेशा की तरह वह किचन में जाकर दोनों के लिए कॉफ़ी बना लाएगी पर ऐसा कुछ नही हुआ! हमेशा यही तो करती थी स्वस्ति! सबसे पहले दोनों के लिए बढ़िया सी कॉफ़ी बनाती थी फिर उनके फ्रिज़ को खंगालते हुए समय के अनुसार नाश्ते या रात के खाने का बन्दोबस्त करती! कभी कभी तो किचन में वह शेखर की पसंद का, खुद ही कुछ हल्का फुल्का बना लेती! इसके अतिरिक्त एक और काम भी तो वह बड़े मन से करती थी! उनकी लाइब्रेरी की किताबों को करीने से संवारते हुए अपनी पसंद की कुछ किताबें चुनकर टेबल पर रख देती जिन्हें वह लौटते समय साथ ले जाती थी! पर आज वैसा कुछ नहीं हुआ जो रूटीन में हुआ करता था!

अँधेरा बढ़ गया था! दूर रोशनियों का मेला था जिनसे पूरा शहर जगमगा रहा था! सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की लाइट चमक रही और किनारे पर बड़े बड़े नियोन लाइट्स से सजे होर्डिंग दृश्यमान थे! शाम के धुंधलके को विदा करती उस उतरती रात में एक फोन अटेंड करते शेखर बालकनी में खड़े थे! उसने शेखर का कोट उतारकर टांग दिया और उनके करीब खड़े होकर उनकी कंधे पर अपना सिर झुका दिया! उसकी एक बांह उनके वक्ष पर पहुँची और वह उँगलियों से उनके वक्ष पर उनका ही नाम उकेर रही थी!

ह्म्म्म....तो आज कॉफ़ी नहीं बनाओगी?” फोन बंद करते हुए शेखर पूछ बैठे!

उनके पूछने पर उसने होले से में सिर हिलाया और उनके और करीब आ गई! उन्होंने हल्के से उसका गाल थपथपाया और मुस्कुरा दिए! वे कुछ देर उसका हाथ सहलाते रहे पर स्वस्ति ने उनकी उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फंसा ली और धीमे से उनका हाथ चूम लिया! डूबता सूरज अपने पीछे रात की काली चादर छोड़ गया था जिसके अँधेरे में स्वस्ति के मन की कामनाएं पल-पल गहरा रही थीं!

उसके कंधों पर बांह धरे वे उसे बेडरूम में ले आये! उस शाम, कितने करीब थे वे दोनों। इतना करीब कि उनके कंधे पर सिर रखे वह उनकी देह के स्पंदन को अपनी देह में स्थानांतरित होता महसूस कर पा रही थी। वे उसकी ओर मुड़े, उनकी आँखों में हल्की-सी नमी थी। पता नहीं क्यों उन जर्द आँखों में उसे राग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार और भी बहुत कुछ दिखने लगा था।

उनका चेहरा अब उसके चेहरे के सामने था। वे उसकी आँखों में झांकते हुए जैसे उसका मन पढ़ रहे थे! जब उसे लगा वे पढ़ चुके उसके मन की बात, उसने हौले से अपनी आँखें बंद कर ली, उसकी साँसे मानो थम सी गई थी। जिस क्षण की प्रतीक्षा में वह और उसकी रातें थीं वह क्षण उसके बेहद पास था। इतना पास कि उसे लग रहा था उसका तेज़ी से धडकता दिल, धडकनों की ताब पाकर कहीं रुक न जाए। वह अब और इंतज़ार नहीं कर सकती। ये इंतज़ार जानलेवा है। उसका मन हुआ कि काश यह वक्त यहीं थम जाए। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमना बंद कर दे। दिन और रात का ये चक्का जम जाए। उसका दिल किया दुनिया का सारा कारोबार थम जाए और वह खो जाए शेखर की बाँहों में हमेशा के लिए।

वे उसके और करीब आ गये थे, उनकी साँसों की थिरकन से उसने जाना। उन्होंने उसे बाँहों में भर लिया! स्वस्ति ने अपने चेहरे को उठाकर उनके और करीब कर लिया! उसके करीब आते हुए वे झुके, काँपते हाथों से उन्होने उसके चेहरे को थामना चाहा फिर रुक गए। और जब स्वस्ति के होंठ अपने पुरुष के प्रथम चुंबन की प्रतीक्षा में थे, उसके माथे पर उनके तप्त अधरों का एक हल्का स्पर्श हुआ। उन्होंने उसके माथे को चूमा और उसकी आँखें खुलने से पहले ही वे कमरे से बाहर ड्राइंग में चले गए। उनके जाने के बाद स्वस्ति दो मिनट उसी अवस्था में खड़ी रही! क्या हुआ वह समझ नहीं पा रही थी! शेखर ड्राइंग रूम में थे और वह अपना बैग लेकर उन्हें ‘बाय’ बोलकर वहां से निकल आई!

बाहर ऑटो में बैठने तक वह जैसे सकते की स्थिति में थी! अजीब सी मनोस्थिति थी उसकी! क्या था यह, क्रोध, ग्लानि, अपमान या असह्य पीड़ा का पारावार! या शायद सब कुछ एक साथ! एक साथ या एक-एककर उसे घेरते हुए उसके इर्द-गिर्द मंडराते इन भावों में उसके सोचने की शक्ति को कुंठ कर दिया था! एकाएक उसका चेहरा आंसुओं में भीगने लगा! वह घर पहुँचने तक रुमाल में चेहरा छुपाये धीरे धीरे सिसकती रही!

कल शेखर की फ्लाइट थी। वे अपने यूरोप के टूर पर चले गए हैं। उनके जाने के बाद अजीब सा खालीपन पसरा है स्वस्ति के मन में। उसे लगा वह किसी अधूरे प्रेम को जी रही है। सब कुछ कितना अधूरा है उसके जीवन में, अधूरा प्रेम, अधूरा मन और अधूरी देह की अधूरी कामनाएं। वह कब से बालकनी में बैठी अपने और शेखर के रिश्ते के बारे में सोच रही है। अजीब सी कशमकश में फंसी है स्वस्ति। जहां एक ओर शेखर की मेच्योरिटी, उनकी गंभीरता, उनका संतुलित व्यवहार उसे खींचता हैं जिसे वह अपने आसपास के हमउम्र लोगों में देखने को तरस जाती है, वहीं कैसी है न उन्ही शेखर को कभी कभी उसमें बचपना नज़र आता है। जैसे अपने हमउम्र लोग उसके लिए अपरिपक्व है, शेखर को उसमें वह अपरिपक्वता नजर आती है।

उनकी प्राथमिकताओं में जब भी स्वस्ति खुद को तलाशती है उसे निराशा ही हाथ लगती है। कैसा स्वरूप है यह प्रेम का कि न तो उनके पास स्वस्ति के लिए वक़्त है और न ही उसे पाने की कोई तीव्र इच्छा। तब भी जब वह उनके सामने एक कामना के रूप में प्रस्तुत उनके उद्दात प्रेम को पुकार रही थी वह केवल उसे स्नेह दे पाए! क्या है उनके बीच का रिश्ता? क्या है उनके रिश्ते की सार्थकता? ये सब सवाल स्वस्ति के जेहन के आकाश में किसी कटी पतंग की भांति डोल रहे हैं! क्या वे केवल किताबों के लिए साथी बने हैं। किताबों से आगे भी जीवन है, ज्ञान के बाद प्रेम भी तो उतना ही महत्वपूर्ण है व्यक्ति के लिए और कामनाएं भी पर शेखर जैसे ये सब समझना ही नहीं चाहते और यदि स्वस्ति ऐसा चाहती है उसे हीनभावना के भंवर में अकेला छोड़कर कैसे जा सकते हैं शेखर? उस शाम के बाद अजीब से गिल्ट को जी रही है स्वस्ति।

वह नज़र घुमाती है तो वहीं कुछ दूरी पर कार्तिक है। उसकी हरकतें, उसका अतिरिक्त उत्साह, चीजों और बातों को गंभीरता से न लेने की उसकी आदतें स्वस्ति को बचकानी लगती हैं। जीवन के लिए उसका नज़रिया बिल्कुल स्पष्ट है, उसके ही शब्दों में कहा जाए तो उसका फंडा क्लियर है।।। उसके लिए जीवन सेलेब्रशन है, मस्ती है, नशा है जिसे वह स्वस्ति का हाथ थामकर जीभर जी लेना चाहता है। पर वह स्वस्ति को जरूरत से ज्यादा गंभीर पाता है। बिल्कुल अलग और काफी हद तक बोरिंग। मतलब वे तीनों अलग हैं इसके बावजूद तीनों एक रिश्ते में बंधे हैं। यदि वे अलग हैं एक दूसरे से तब वह क्या है जो उसे शेखर से और कार्तिक को उससे बाँधें रखता है। क्या इसी को प्यार कहते हैं?

अपनी स्थिति को स्वस्ति समझ नहीं पा रही है। बचपन से ही जिस गंभीरता के आवरण से लिपटी हुई है वह जाने क्यों कभी कभी किन्ही खास क्षणों में छीजने लगता है। स्वस्ति उसे उतार फेंकना चाहती है, ज़ोर से खिलखिलाकर हँसना चाहती है, अपनी बाहें फैला कर किसी को पुकारना चाहती है। आखिर कौन होगा जिसने प्रेम नहीं किया होगा। लोग जाने कितने कारणों से प्रेम में पड़ते हैं पर ये सच है, सभी को बदले में प्रेम ही चाहिए होता है, उतना ही प्रेम, वैसा ही प्रेम। बाकी कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं, कुछ भी तो नहीं। अब जान चुकी है स्वस्ति।

उसे भी तो शेखर का प्रेम चाहिए किन्तु केवल कोरा प्रेम भर नहीं चाहिए स्वस्ति को! उसे प्रेम में समर्पण भी चाहिए और कमिटमेंट भी। इनके अभाव में अधूरा है उनका प्रेम। वह प्रेम में शेखर की सम्पूर्ण उपस्थिति से कमतर कुछ नहीं चाहती। उसके प्रेम की कामना, उद्दातपना, अधीरता कुछ भी तो साझा नहीं, सब का सब जैसे इकतरफ़ा है जो शेखर की सहमति के बिना पूर्ण हो भी नहीं सकता!

प्रेम में दैहिकता की कामना कोई पाप नहीं है। यदि वह शेखर के प्रेम को पाना चाहती है तो केवल स्नेह ही क्यों? प्रेम में देह की उपस्थिति अपरिहार्य है। उसका स्त्रीमन अपनी परिपक्वता को पीछे छोड़ना चाहता है। वह आगे बढ़कर प्रेम को अंगीकार करना चाहती है। अंततः ये उसे ही तय करना होगा कि वह क्या चाहती है? उसकी इच्छाएं आकार लेने लगीं हैं। उसे लगा जैसे शेखर ने अपनी सब कामनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। जैसे उनके मन में ऐसी कोई कामना नहीं।

स्वस्ति को होनोरे डी बल्ज़क की बात याद आ गई, “एक औरत जिस आदमी से प्यार करती है उसका चेहरा ऐसे जानती है जैसे एक नाविक खुले समुद्र को। स्वस्ति भी चाहती है वह चेहरा धुंध से निकल कर स्पष्ट हो जाए।

विचारों के इसी झंझावात में घिरी है कब से स्वस्ति! उस रात स्वस्ति को लगा वह हमेशा की तरह फिर उसी काल्पनिक समयरेखा पर है। पता नहीं क्यों पर इस बार इस समयरेखा पर केवल वह और शेखर नहीं वे बल्कि वे तीनों थे। पच्चीस पर कार्तिक, उससे दस कदम दूर, पैंतीस पर स्वस्ति और उससे दस कदम दूर पैंतालीस पर शेखर खड़े थे। उसे दस कदम बढ़ाने थे, पर किस दिशा में। उसे कार्तिक की ओर लौटना था या शेखर की ओर बढ़ना था। देह की भाषा सुननी थी या मन की आवाज़। उसे लगा वहीँ कुछ दूर माँ खड़ी हैं, ठीक स्वस्ति के क़दमों पर नज़र गड़ाएं। माँ स्वस्ति के फैसले की प्रतीक्षा में हैं। वह देख रही हैं कि स्वस्ति के कदम डगमगा रहे हैं, पर स्वस्ति गिरना नहीं चाहती। वह गिरने के भय से अधीर हो उठी है! वह अपने क़दमों को साध लेना चाहती है पर उसके कदम जैसे सध नहीं पा रहे। वह जोर से माँ को पुकार रही है।

“ओह, मुझे थाम लो माँ, मैं गिरना नहीं चाहती!!!!

और इसी के साथ उसकी आँखें खुल गईं। सामने माँ खड़ी हैं जो उसकी पुकार को सुनकर उठकर उसके कमरे में आ गईं हैं। माँ स्वस्ति के सिरहाने बैठकर उसे सहला रही हैं। स्वस्ति के मन का भय और पीड़ा दोनों माँ से छुपे नहीं हैं! उसके मन की पीड़ा माँ के चेहरे पर स्थान्तरित हो रही है! अगले ही पल अपनी सन्तति को दुःख में देखकर उसे दूर न कर पाने की विवशता माँ के चेहरे पर कौंधने लगी है! माँ ने उसके माथे को चूमा और उसके बालों को सहलाते हुए तौलिये से उसका पसीने से भरा चेहरा पौंछने लगीं!

बाहर काली अँधेरी रात बीत रही है। शायद यह अंधकार को चीरकर सूरज की पहली किरण के निकलने का समय है। माँ और स्वस्ति दोनों को उम्मीद है यह रोशनी की यह पहली किरण उसके जीवन से भी हर अंधकार को मिटा देगी। माँ ने आगे बढ़कर पर्दा हटा दिया। पूरा कमरा रोशनी की किरणों से रोशन हो गया।

क्रमशः