Mann Kasturi re - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

मन कस्तूरी रे - 10

मन कस्तूरी रे

(10)

आज सुबह जल्दी आँख खुल गई तो स्वस्ति ने कुछ पेंडिंग काम निपटाने का प्लान किया! सबसे पहले इमेल्स निपटाई, फिर मेसेजेज पढ़े कुछ देर और फिर उसने अपने कॉलम के लिए लेख लिखना शुरू किया! जाने क्यों आज मौसम की तरह मूड भी अच्छा था तो स्वस्ति ने एक ही सिटिंग में पूरा लेख लिख दिया! काफी देर से टाइप करते-करते थक गई थी वह! फाइनल एडिटिंग से पहले थोड़ा ठहरना चाहती है वह! उसने लैपटॉप को सामने टेबल पर रखा और यूँ ही सामने की ओर देखते हुए थोड़ा रिलैक्स होकर अपने कुर्सी पर बैठ गई!

धीमी धीमी हवा चल रही थी! कुछ गिलहरियाँ सामने पेड़ की जड़ों में चहलकदमी कर रही थीं! उन्हें बार बार चढ़ते-उतरते खेलते देखना भला लग रहा था स्वस्ति को! इतने दिनों में मन बहुत दिनों बाद प्रकृति से जुड़ाव महसूस कर रहा था! घर के ठीक सामने की ओर की दीवार से बेगोनवेलिया की झरती पत्तियाँ एक गुलाबी बिस्तर की शक्ल में घास के बिछौने पर बिछ गयी हैं! वहां कुछ गोरैया फुदक रही हैं! आज स्वस्ति ने कई रोज बाद उन्हें देखा तो अच्छा लगा! उनकी चहचहाहट अब कम सुनाई देती है! जबकि पहले स्वस्ति को ये नज़ारा रोज देखने को मिलता था! रोज ये नन्ही गोरैया माँ के डाले दाने खाने आया करती थीं! अब तो इनका दर्शन दुर्लभ हो चला है! गाँव-कस्बों-शहरों में मोबाइल के रोज बढ़ते टावरों और पोल्यूशन ने इन छोटे-छोटे पक्षियों को बहुत नुकसान पहुँचाया है! गोरैया तो बड़े शहरों से जैसे विलुप्त ही होती जा रही है! भोजन की तलाश में निकले ये छोटे पक्षी अक्सर मोबाइल टॉवरों की तरंगों के कारण अपने घोंसले तक पहुँचने का रास्ता तक भूल जाते हैं!

संयोगवश स्वस्ति इसी विषय पर विस्तार से एक समाचार-पत्र के लिए एक लेख लिखकर हटी है अभी! उसका कॉलम है तो मन हो या न हो उसे लेख लिखना ही होता है! कई बार बहुत ऊब होती है इस अनिवार्यता से पर उस जैसे पहचान बना रही लेखिका के लिए ये बहुत जरूरी भी है! ऐसे में अपने सामने यूँ गोरैय्यों को फुदकते देखना उसे सुखद तो लगना ही था! उसकी ऊब काफी हद तक दूर हो गई और मन हल्का लगने लगा! उसने सच्चे मन से दुआ की कि इन गोरैय्यों की संख्या में और वृद्धि हो!

चाय का एक घूंट सिप किया तो एक बारगी उसका मन किया ये लेख शेखर भी पढ़ें पर उसने उन्हें फोन करने के बजाये मेल द्वारा ये लेख उन्हें भेज दिया ताकि उन्हें डिस्टर्बेंस भी न हो और वे अपनी सहूलियत के हिसाब से देख लें! अमूमन वह अपने इस कॉलम के सभी लेख संपादक के साथ शेखर को भी जरूर भेजती है! पिछले कई दिन शेखर की याद में बिताये थे स्वस्ति ने। शेखर से न मिलने के ये दिन गहरी उदासी में डूबे थे! वह लेख भेजकर भूल गई क्योंकि उसे उत्तर की कोई प्रत्याशा नहीं थी!

उसे उदास देख मन जलता है वृंदा का। आखिर वे माँ हैं स्वस्ति की। बेटी कहे न कहे पर एक माँ अपनी बेटी के मन को बखूबी समझती है पर कुछ कहती नहीं। ऐसा नहीं कि उन्हें स्वस्ति और शेखर का रिश्ता समझ नहीं आता! उन्हें ये रिश्ता समझ तो आता है पर वे इसे पूरे मन से कभी स्वीकार नहीं कर पातीं। उम्र में कुछ ही तो छोटे हैं उनसे शेखर। लगभग अपनी उम्र के एक व्यक्ति को अपनी बेटी के जीवनसाथी के रूप में देखने को वृंदा अभी तैयार नहीं पर वे खुद को तैयार करने का मन बना रही हैं। ऐसा नहीं था कि एक बुद्धिमति स्त्री पर एक माँ हावी हो गई थी पर वे स्वस्ति को हारते या टूटते हुए नहीं देखना चाहती थी जबकि ये रिश्ता उनके लिए सदा एक असफलता के भय और बेटी के असुरक्षित भविष्य के प्रति चिंता की अनुगूँज से मुक्त नहीं हो पाता था!

जैसा कि स्वाभाविक था, उन्होंने शुरू में स्वस्ति को कई बार समझाया भी! एक नहीं कई कई तरह से समझाया कि वह इस रिश्ते पर बार-बार विचार करे! वैसे उन्हें स्वस्ति की सोच पर पूरा भरोसा है। पर ये भरोसा अधूरा है अगर उसकी पसंद से सहमति नहीं बना पा रही हैं! तो उन्हें स्वस्ति की पसंद पर भी भरोसा करना होगा न। मन न भी चाहे तो स्वीकार भी करना होगा न। वे अभी इस बार कोई बात नहीं करना चाहती। स्वस्ति के मन की बेचैनी समझती हैं वे। माँ हैं स्वस्ति की, वे नहीं समझेंगी, तो कौन समझेगा। पर वे विवश हैं। अपने इस चयन का भला-बुरा, हानि लाभ स्वस्ति को ही देखना होगा। आखिर समझाने के अतिरिक्त वे कर भी क्या सकती हैं और यही उन्होंने किया भी है! पर समझाने की भी एक सीमा है और जैसा कि उनका स्वभाव है ये तय है कि वे इस सीमा को कभी क्रॉस नहीं करने वाली!

इस सुबह का कई दिन से इंतज़ार था स्वस्ति को। यह सुबह कई दिनों बाद आई है। उसके मन की उदासी जैसे पंख लगाकर उड़ गई गई गई। बहुत खुश है आज स्वस्ति। जाने आज का सूरज जाने कहाँ से निकला है। अभी शेखर का फोन आया था। वे उसके आर्टिकल की बहुत तारीफ़ कर रहे थे! अभी पिछले दिनों उसके जो आर्टिकल छपे उन्होंने सब पढ़े! उनकी तारीफ़ें स्वस्ति के लिए अनमोल है क्योंकि जानती है स्वस्ति कि सिर्फ उसे खुश करने के लिए वे तारीफ़ नहीं करते! उनकी तारीफ़ पाने के लिए कुछ खास होना जरूरी है और धीरे-धीरे स्वस्ति के लेखन में बढती परिपक्वता ने उस खासियतको हासिल कर लिया है! वह धीरे धीरे लेखन की दुनिया में पहचान बना रही है! उसकी किताब का ब्लू प्रिंट उसके जेहन में आकार ले रहा है! वह ये सब शेखर से डिस्कस करना चाहती है!

शेखर के फोन से उसने महसूस की उनकी आवाज़ में एक खास खनक और ख़ुशी की झनकार! वह जान गई थी कि आज उनका मन बहुत प्रफुल्लित था। ख़ुशी से सराबोर थी उनकी आवाज़, ये और बात है कि ख़ुशी में भी वह ठहराव वह गंभीरता उन्हें छोड़ नहीं पाती जो उनकी पहचान है।

आज शाम छह बजे मैं ब्लू लैगूनमें तुम्हारा इंतज़ार करूँगा!

जब से ये व्हाट्स एप स्वस्ति को मिला उसके पांव जमीन पर नहीं हैं! लग रहा है अब उदासी के दिन छूमंतर हो जाएँगे! कब से मिलना चाह रही थी पर कई दिन से वे इतना व्यस्त थे कि मिलना तो दूर बात भी ठीक से नहीं होती थी और आज उससे मिलने की बात कर रहे हैं! और क्या चाहिए भला स्वस्ति को! शेखर के सान्निध्य के लिए बेचैन है उसका तनमन! कई दिन बाद ये विसाले-सनम का मौका मिला है स्वस्ति को!

स्वस्ति आज शाम को उनसे मिलने वाली है, यह अहसास होते ही तरह तरह के ख्याल उसके मन में कोलाज बना रहे हैं! क्या बात करेगी, क्या कहेगी, शिकायत करेगी या प्रेम की बातें....उफ़ कितना कुछ है कहने सुनने को स्वस्ति के पास! आज वह शेखर के साथ क्वालिटी टाइम बिताना चाहती है। उसे शेखर चाहिए, आधे अधूरे शेखर नहीं, पूरे के पूरे शेखर... उसे शेखर का प्रेम चाहिए, उनका साथ चाहिए और इस साथ को वह जिस सान्निध्य में बदलने को आतुर है वह स्वस्ति को बेचैन किये हुए है।

ये इंतज़ार कितनी जानलेवा शय है न! वह शाम बहुत देर से आई। उफ़...झुंझला उठी स्वस्ति... कितना धीमा चल रहा था सूरज का सात घोड़ों वाला ये रथ कि दिन बीत ही नहीं रहा था। शायद प्रतीक्षा की घड़ियाँ सबसे अधिक लंबी उन्ही के लिए होती हैं जो किसी के प्यार में होते हैं। प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ वाकई बहुत कठिन थीं। आखिरकार शाम आई और स्वस्ति शेखर से मिलने पहुँच गई पर ये क्या? वह आज शेखर की करीबी चाहती है पर वे हमेशा की तरह सामने आकर बैठ गये! कॉफ़ी टेबल दूसरी ओर बैठे शेखर जाने क्यों उसे आज बहुत दूर नज़र आ रहे थे।

कुछ देर बात करते ही वे मुद्दे की बात पर आ गये! उनकी पिछले कई दिनों की व्यस्तता आज परिणाम के रूप में सामने आई थी। स्वस्ति जान गई थी सुबह फोन पर उनकी ख़ुश और प्रफुल्लित आवाज़ का रहस्य। उनके जीवन में एक साथ कई शुभ घटनाएँ घटित हुई थीं! वे तीन महीने के लिए विदेश जा रहे थे। वे पहले भी कई बार विदेश गए थे पर इस बार बात अलग थी। वे अपनी इस यात्रा को लेकर वे बहुत उत्साहित थे। विदेश में उनकी किताब के विदेशी अनुवाद को लेकर एक बड़ा आयोजन हो रहा था! वे इस आयोजन में सम्मानित भी होने वाले थे! यूँ उन्हें देश-विदेश से दर्जनों सम्मान मिले थे पर इस अवार्ड की प्रतीक्षा उन्हें जाने कब से थी और आज वो दिन भी आ गया था जब इसकी घोषणा होने जा रही थी! कल के सारे न्यूज़ पेपर्स में उनकी चर्चा होगी!

वे लगातार बोल रहे थे और स्वस्ति उन्हें अपलक निहार रही थी। उन्हें इतना उत्तेजित पहले कभी नहीं देखा था उसने! उनका गाम्भीर्य आज कहीं सुस्त पड़ा था और अपरिचित सी वाचालता ने उनके पूरे व्यक्तित्व पर अपना प्रभाव जमा लिया था! बहुत बदले हुए लग रहे थे आज शेखर!

ओह! आज मेरा सपना सच होने जा रहा है स्वस्ति! चमक से भरी आखों से वे बोल रहे थे! पर उन्होंने तो कभी स्वस्ति से अपना ये सपना शेयर ही नहीं किया था! कभी बताया ही नहीं था कि उनकी ख्वाहिश थी कि उन्हें ये अवार्ड मिले! हैरान थी वह पर उन्हें खुश देखकर खुश भी हो रही थी! क्यों न हो आखिर ये शेखर की जिन्दगी के बड़े सपने के सच होने का दिन जो था!

कल लिटरेचर के क्षेत्र में मिल रहे इस अवार्ड की धूम होगी हर तरफ! टीवी, न्यूज़, न्यूज़पेपर्स, मैगजीन्स हर जगह! ओह माय गॉड!! आई हैव डन दिस स्वस्ति! दिस इस माय लाइफस ग्रेटेस्ट टाइम स्वस्ति!!! वे बेसाख्ता कह उठे और स्वस्ति खामोश उन्हें सुन रही थी! उसके मन में तो कुछ और ही चल रहा था!

आज किसी और ही रंग में थे शेखर। इतना खुश, इतना उत्तेजित और अधीर तो स्वस्ति ने उन्हें कभी नहीं देखा था! किताबों के अतिरिक्त किसी भी विषय पर बहुत कम बोलने वाले शेखर आज धाराप्रवाह बात कर रहे थे! वे देर तक अपनी किताब की बातें करते रहे! किसने क्या कहा? कहाँ क्या छपा? कौन कौन से आयोजन होंगे इन तीन महीनों में...विस्तार से बता रहे थे शेखर! पर उन्होंने एक बार भी स्वस्ति के चेहरे पर ध्यान से नजरें नहीं जमाई! वह क्यों नहीं जान पा रहे थे कि स्वस्ति प्यासी निगाहें लिए उन्हें प्रेम से निहार रही है!

उनकी किताब, उनका उत्साह, उनकी योजनाएं, विदेशी प्रशंसक, उनके आयोजक और स्वस्ति? स्वस्ति कहाँ है शेखर?

अजीब सा मन था उसका उस दिन। इतने दिनों बाद मिले थे। कहाँ तो वे शेखर के सामीप्य के लिए तड़प गई थी और कहाँ अब मिले तो दूर जाने की ये खबर मिली। शेखर के दूर जाने की कल्पना बेचैन किए हुए थी, तीन महीने का विछोह....इसका विचार स्वस्ति को अधीर कर रहा था! रोशेल के शब्द जैसे उसके चारों और एक कोलाज बना रहे थे, राग... रंग.....स्पर्श..... छुअन..… चुम्बन..… मनुहार और भी बहुत कुछ देह की भाषा।।। यही कहा था न रोशेल ने। हाँ यह देह की की भाषा है। उसकी पुकार को कैसे और कितना अनसुना करेगी स्वस्ति। देह की पुकार सुनने की कोशिश में उसने अनायास ही अपना हाथ शेखर के हाथ पर रख दिया। बोलते हुए एकाएक चौंक गये शेखर। उन्होंने धीमे से हाथ हटा लिया और बोलना जारी रखा। इस बार स्वस्ति ने उनके हाथ को अपने हाथ में थामकर धीमे से चूम लिया। उन्होंने चारों ओर देखते हुए लगभग जोर से उसे झटक दिया।

"बिहेव योरसेल्फ स्वस्ति। हुआ क्या है तुम्हे? पहले कभी ऐसा नहीं किया तुमने। बच्ची मत बनो।" धीमे स्वरों में वे बोल उठे। उद्विग्नता से भरा था उनका बेचैन स्वर।

"-------" स्वस्ति कोई उत्तर न दे सकी। क्या बताये शेखर को कि क्या हुआ है उसे। वे खुद क्यों नहीं समझ जाते।

स्वस्ति अनायास सी जैसे एक ट्रांस से बाहर निकली और आजू बाजू देखकर थोड़ा सम्भलकर बैठ गई! इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। कभी भी नहीं। यह पहला अवसर था जब वह भूल गई थी कि वे शहर के एक व्यस्ततम रेस्टोरेंट में बैठे हैं। वह सदा देह की भाषा भूलती आई थी, रोशेल कहती है देह की अपनी भाषा है और अपनी इच्छायेँ। शेखर ने तो दुनिया-जहान की किताबें पढ़ी हैं, क्या उन्हे देह की भाषा पढ़नी नहीं आती। वे तो शब्दों के जादूगर हैं! कितने सुंदर और जादुई शब्द उनकी कलम की नोक पर थिरका करते हैं! उन्होने कितने शब्दों को आकार दिया, पर प्रेम में पगे कुछ विशेष शब्द अभी भी उनसे छूट गए हैं और स्वस्ति उन्ही शब्दों को पैरहन बनाकर ओढ़ लेना चाहती है।

स्वस्ति ने माँ को फोन किया कि आज उसे लौटने में देर हो जाएगी! थोड़ी देर बाद दोनों गाड़ी में थे जो शेखर के घर की दिशा में तेजी से दौड़ रही थी!

क्रमशः

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