मन कस्तूरी रे
(8)
ये प्रेम शब्द ही ऐसा है। विचित्र सी मिठास से भरा एक शब्द और कैसी है ये मिठास, क्या इसे कभी कोई परिभाषित कर पाया है। दरअसल ये तो गूंगे का गुड़ है जो मुंह में घुलकर आत्मा तक को मिठास से तो भर देता है पर जिसका स्वाद बता पाना उसके लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। कम से कम दुनियावी जबान में तो यह बिल्कुल भी मुमकिन नहीं!
“खुसरो दरिया प्रेम का
उलटी वाकी धार
हो उतरा सो डूब गया
जो डूबा सो पार....”
ऐसा ही प्रेम का यह दरिया, जो प्रेम में डूब गया वही पार उतरता है बाकि सब भ्रम है। कैसा है यह प्रेम जिसकी महिमा का बखान सबने किया है। बाइबिल कहती है कि, “जो प्रेम में वास करता है वो परमात्मा में वास करता है।” प्रेम में होना जैसे किसी और दुनिया का हो जाना है। एक दूसरी अलग दुनिया जहाँ प्रेम ही सर्वोपरी है। जहाँ न उम्र की सीमा है और न जाति धर्म का कोई बंधन है।
कहते हैं प्रेम जब जीवन में आता है तो सब कुछ बदल जाता है। मात्र सोच ही नहीं सब कुछ बदल जाता है! कब सोचा था स्वस्ति ने कि वह भी उस जंजाल में जान फंसा बैठेगी जिसे दुनिया प्रेम का नाम देती है! स्वस्ति अब तक जैसा जीवन जीती आई थी वहाँ किताबों के प्रेम से अधिक किसी प्रेम की रत्ती भर भी गुंजाईश नहीं थी! पर जीवन में एक समय ऐसा जरुर आता है जब व्यक्ति वस्तुनिष्ठ प्रेम से आगे बढ़ता है और स्वस्ति के जीवन में भी ये समय आ चुका था!
कोई लड़की प्रेम करे या नहीं पर हमेशा उसके मन में उसके मीत की एक छवि जरूर होती है! ये सच है स्वस्ति अलग थी अपनी हमउम्र लड़कियों से तो उसके स्वप्नलोक में किसी सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार के आने के स्वप्न तो जाहिर तौर पर नहीं ही थे! उसकी कल्पनाएँ इतनी सतही और कॉमन नहीं थी! उसे तो एक ऐसे साथी की चाह थी जो अपनी सोच, बुद्धिमत्ता और ज्ञान से उसका मन मोह ले! ऐसे ही तो थे शेखर!
शेखर उसकी पसंद थे, उसकी चाह थे। उसकी कामनाओं की कुंजी थे। उसकी तलाश शेखर पर खत्म होगी उसने भी कहाँ सोचा था। अपने जीवन के अनोखेपन पर कभी कभी निराश हो उठती थी स्वस्ति। आखिर प्रकृति ने उसे इतना परिपक्व क्यों बनाया कि उसे सब बचकाना लगता है जो उसके साथियों के लिए सहज जीवन है, जीवन जीना है। अब तक उसे प्रेम नहीं मिला था! मिलता भी कैसे! 25 की उम्र में 35 की उम्र जितनी मैच्योरनेस तलाशेगी तो निराश ही होगी न स्वस्ति। शेखर के करीब उसी परिपक्वता का चाह स्वस्ति को ले गई और प्रेम में जिस ठहराव की उसे तलाश थी, जिस परिपक्वता और गम्भीरता से वह प्रभावित होती थी बिल्कुल वैसे ही तो थे शेखर! उसके मन का मीत उसके सामने था जिसकी उसने सदा से कल्पना की थी। शेखर का परिपक्व व्यवहार और ठहराव से भरा व्यक्तित्व स्वस्ति के मन पर जो छाप छोड़ रहा था वह मानो सदियों से उसकी ही तो तलाश में थी।
वैसे शेखर का स्वस्ति के जीवन में प्रवेश अनायास नहीं हुआ था। वे उसके गाइड थे, पर जिनमें फ्रेंड और फिलासफर की छवियाँ स्वस्ति ने स्वयं गढ़ लीं, कब गढ़ लीं यह तो वह भी नहीं जान पाई। लम्बा कद, छरहरा बदन, गेंहुआ रंग जो उम्र के साथ थोड़ा पक गया था, धीर-गंभीर चेहरा जिस पर मोटा सा काले फ्रेम का चश्मा। उनके सम्भ्रांत से चेहरे पर सदा एक खास तरह की गम्भीरता छाई रहती थी जो सामने वाले व्यक्ति को अपने आभामंडल से अनायास ही अपने प्रभाव में ले लेती थी! वे कम बोलते थे पर जितना भी बोलते थे वह कितना सार्थक होता था! शेखर की पर्सनालिटी में बहुत कुछ ऐसा था जो स्वस्ति को अपनी ओर खींचता था।
किताबें स्वस्ति की जिन्दगी थीं, यही किताबें उसके शेखर के करीब ले आईं। बचपन से स्वस्ति को लाइब्रेरी जाना पसंद था। बचपन से कार्तिक उसका दोस्त था पर उसका साथ लाइब्रेरी तक कभी नहीं पहुँचा! यही वह जगह थी जहाँ दोनों के रास्ते अलग हो जाते थे! कार्तिक की रुचियाँ बिल्कुल अलग थीं। उसे कहाँ लाईब्रेरी भाती थी उसका मनपसंद वक़्त तो क्रिकेट के मैदान में गुजरता था। तो यह तय था कि स्वस्ति को लाइब्रेरी में कार्तिक का साथ नहीं मिल सकता था। वह कहती तो वह साथ चल भी देता पर फिर जब कभी वह साथ होता भी तो स्वस्ति को सिर्फ और सिर्फ डिस्टर्ब ही करता। एक दो बार ऐसी घटनाएँ घटी तो स्वस्ति ने यह तय कर लिया था कि वह लाइब्रेरी अकेले ही जाएगी, कार्तिक के साथ तो कभी नहीं। जितना वक़्त वह लाइब्रेरी में बिताती, कार्तिक घर पर अपने तेज़ म्यूजिक सुनने के शौक को पूरा करने में बिताता।
कॉलेज के बाद न चाहते हुए भी स्वस्ति और कार्तिक के रास्ते कुछ अलग हो गये थे। दोनों की अलग रुचियाँ उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में ले गईं थीं। स्वस्ति अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन में व्यस्त थी। और कार्तिक उन दिनों इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग के लिए अहमदाबाद गया था और एक महिना अपनी मौसी के यहाँ रहा था, फिर हॉस्टल में शिफ्ट हो गया। वह उसे लगभग रोज उसे इमेल करता था। फोन भी अक्सर आता। इधर माँ अपनी प्रिंसिपली में व्यस्त थीं। स्वस्ति कभी कभी सुनंदा आंटी के पास भी हो आती थी पर उसका मन एक अजीब से खालीपन से जूझ रहा था।
कार्तिक का यूँ चले जाना स्वस्ति को अकेलेपन की ओर धकेल गया। उसने तो कभी सोचा ही नहीं था कि कभी यूँ भी होगा कि कार्तिक उससे दूर चला जाएगा। दोनों रोज फोन पर बातें करते पर वह कार्तिक की भौतिक उपस्थिति और उसके स्पर्श, उसके जबरदस्ती के आलिंगनों और चुंबनों को, उसके साथ और उसकी शरारतों को बेतरह मिस करती थी। उसे मालूम नहीं था कि कब कार्तिक उसकी आदत बन गया था। उसके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा जिसके बिना वह खुद को अधूरा महसूस करती थी।
उन अकेले दिनों में उसने खुद को पढाई में झोंक दिया। उसके लाइब्रेरी के चक्कर नियमित हो गए थे! छुट्टी के दिन भी वह घंटों वहां बिताने लगी थी क्योंकि तब तो रोशेल भी गोवा चली जाती थी! फिर उन्ही दिनों लाइब्रेरी में स्वस्ति की मुलाकात शेखर से हुई। लाइब्रेरी के कोने में अक्सर वे किताबें लिए बैठे मिलते। पहले औचारिक परिचय मात्र था पर कई ऐसे अवसर आये जब उसे शेखर ने मदद की! उनका परिचय अब दोस्ती की ओर बढ़ चला था!
उसे शेखर का साथ भाने लगा था! कैसे गुलाबी दिन थे वे! मन के द्वार पर प्रेम दस्तक दे रहा था और वह जैसे उसकी ही प्रतीक्षा में थी! वह अक्सर उन्हें फोन करती! बहाना किसी किताब का होता तो कभी कोई प्रश्न होता पढाई से सम्बन्धित पर सच यही था कि उनकी आवाज़ सुनने के लिए वह घंटों बेचैन रहने लगी थी!
उस दिन स्वस्ति की पहल पर पहली बार वे दोनों कहीं बाहर मिले थे!
“आपने अब तक विवाह नहीं किया?” स्वस्ति ने स्वयं को पूछते हुए पाया!
“नहीं...” उन्होंने संक्षिप्त उत्तर दिया! शायद इस पर बात करने के इच्छुक नहीं थे शेखर!
“पर क्यों?” अपने स्वभाव के विपरीत स्वस्ति आज मन खोल देने के पक्ष में थी! अपना भी और शेखर का भी!
“शायद इसलिए कि कोई ऐसा मिला ही नहीं! जिसे चाहा उसे मेरे प्रेम की कद्र ही नहीं थी फिर कभी प्रेम हुआ ही नहीं! तब मैं भी तुम्हारी उम्र का था! कोरे ज्ञान की चाह में किताबी दुनिया में ख़ुशी तलाश रहा था! जीवन में कुछ हासिल नहीं कर पाया था! वह हवा के झोंके की तरह जीवन में आई थी! मेरे पास कोरा, निखालिस प्रेम था और उसे दुनिया के हर सुख की ख्वाहिश थी! उसकी ख्वाहिशों की इस तलाश में मैं कहीं फिट नहीं बैठता था इसलिए वह एक मल्टी मिलेनियर से विवाह करके विदेश चली गई!” इसके बाद के कुछ बोझिल पल एक गहरी चुप्पी में डूब गए!
स्वस्ति ने आगे बढ़कर धीमे से शेखर के हाथ हो अपने हाथों में लेकर पूछा!
“फिर क्या हुआ...?”
“उसके बाद दोबारा कभी ऐसा नहीं हो पाया! शायद मैंने चाहा ही नहीं या फिर इसलिए कि तब मुझे जो हासिल करना था वहां प्रेम का कोई स्थान ही नहीं था!”
“पर अब तो आप वह मुकाम हासिल कर चुके हैं! डॉ शेखर... सुप्रसिद्ध कॉलेज के विभागाध्यक्ष... बुद्धिजीवी....इतने प्रसिद्ध लेखक...देश विदेश में आपके लाखों प्रशंसक हैं क्या अब आपको जीवनसाथी की कमी नहीं सालती!” दिल के हाथों मजबूर होकर कैसा सवाल पूछ बैठी थी स्वस्ति!
कोई उत्तर न देकर शेखर होले से देर तक उसका हाथ सहलाते रहे! उनके मूक निवेदन की भाषा से अनभिज्ञ नहीं थी स्वस्ति!
इस एक घटना के बाद दोस्ती में बदला परिचय प्रगाढ़ता की ओर कदम बढ़ाने लगा था। स्वस्ति जान चुकी थी कि शेखर अब तक अविवाहित थे। एक बार प्रेम में असफलता ने बदल दिया था उन्हें! शायद उनके पास प्रेम के लिए वक्त या तवज्जो ही नहीं थी। किताबों की दुनिया को ही उन्होंने भी अपना साथी बना लिया था या फिर ये भी तो हो सकता है कि इसके बाद के जीवन में उन्हें कोई मिला ही नहीं हो जो उन जैसा होता या उनके मन को पढ़ और समझ पाता। खैर वजह जो भी हो पर सच यही था कि उम्र के साढ़े चार दशक बीत जाने पर भी वे अकेले थे, बेहद अकेले।
उनका अनुभव और उनका ज्ञान दोनों अद्भुत थे। मात्र एक सन्दर्भ पर वे स्वस्ति को दुनिया-जहान की किताबें निकाल-निकाल थमा देते। स्वस्ति तो हैरान रह जाती और उन्हें निहारती रहती जब वे किताबों में डूबे होते। स्वस्ति का दिल करता वह उनकी उन गहरी, जर्द आँखों में डूब जाए जो चश्में के पीछे छिपी बस किताबों को साथी बनाये हुए है। स्वस्ति कब से उनकी प्रशंसक थी। वह अक्सर उनकी लिखी किताबें पढ़ती आई थी, उनकी व्याख्याओं और स्थापनाओं पर दिलों जान से कुर्बान होती आई थी और अब उन्हें इतना करीब से देखना उसके फैटंसी लोक की सबसे नई, रोचक और शानदार घटना थी। वह प्रेम में गले तक डूब चुकी थी और इसी सब में डेढ़ साल और बीत गया।
स्वस्ति का शोध शुरू हो चुका था। शोध में उसे जो मदद चाहिए थी वह शेखर से मिली। वह अब अक्सर शेखर से मिलने लगी। उनके एकांत के अभेद्य दुर्ग में सेंध लगा दी थी स्वस्ति की बुद्धिमत्ता और परिपक्वता से भरे प्रेमिल मन ने। बहाना किताबों का था जिसे दोनों ही इग्नोर नहीं कर पाए। इसी बहाने वे और करीब आते चले गए। फिर पता ही नहीं चला कब वे स्वस्ति की दुनिया में प्रवेश पा गए, जहाँ स्वस्ति थी, सपने थे, किताबें थीं, अब शेखर थे उनसे जुडी तमाम फैंटेसियां भी थी। वो लाइब्रेरी में स्वस्ति को, किसी पन्ने को थामे कुछ समझा रहे होते और वह अपने कल्पना जगत में उनके काँधे पर सर रखे किसी पहाड़ी सड़क पर धीमे-धीमे चल रही होती। बैकग्राउंड में मद्धम स्वर में कहीं बज रहा होता, ‘नीला आसमान सो गया.....”
हाँ वह प्रेम में थी। यह पहली बार था जब प्रेम को लेकर उसके मन में कोई संशय नहीं था। बेशक दूसरी इससे जुडी हजारों बातें थीं जहाँ उलझनें थीं, संशय थे, सोच में गुंजलक थे पर यह तय था कि यह प्रेम ही था। उसके मन में फिर से सवाल गूंजने लगे, तमाम सवालों का एक ही उत्तर था, हाँ स्वस्ति शेखर से प्रेम करती है, बहुत सारा प्रेम। प्रेमियों के सारे लक्षणों को पढ़ती आई थी वह। पहले उसे ये सब बचकाना लगता था। वह अपनी हमउम्र लड़कियों की ऐसी हरकतों पर बेतरह हैरान होती थी पर नहीं आज नहीं! आज वह जान चुकी थी कि सचमुच प्रेम लोगों को बदलता है। वह भी बदल रही थी।
सचमुच बदल ही तो रही थी स्वस्ति। प्रेम में बेतरह डूबे आशिकों को हास्यास्पद समझने वाली आज खुद प्रेम की गिरफ्त में थी जिसकी जकडन हर पल बढती जा रही थी। शेखर की कसी हुई बाँहों में खुद को देखने लगी थी स्वस्ति। और ये दीवानगी अब बढ़ती जा रही थी। उसकी सोच पर अब शेखर का हिस्सा बढ़ता जा रहा था। अब वह सोते-जागते हर पल शेखर साथ रहने को मज़बूर थी। उसके कल्पनालोक का विस्तार उसकी नींदों के क्षेत्र में भी अतिक्रमण कर चुका था। उसके स्वप्नों में भी अब शेखर की ही आवाजाही थी। आँख खोलती तो शेखर और बंद करती तो भी शेखर ही साथ होते। प्रेम इस कदर दीवाना बना देता है ऐसा कभी नहीं सोचा था स्वस्ति ने। पर ऐसा तो हो चुका था! ऐसा हो या नहीं इस पर उसका वश नहीं था!
क्रमशः