तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 19 Sapna Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 19

तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा

सपना सिंह

(19)

बरसों बरस बीत गये उस बात को पर वो रात कभी नहीं बीती अप्पी के जीवन से। बाद उसके भी जीवन में कितने-कितने तीखे नुकीले मंजर आये... कुछ बदलता भी कैसे... जब साथ वही था ... वह कुछ नहीं बदल पाई थी ... हाॅँ, उस के भीतर बदल गया था सब... वह कोमल सी चीज भी जो अभिनव के लिए उसके दिल में थी एकायक काछ कर साफ कर दी गई थी .... विडंबना थी कि वह अब भी अभिनव के साथ थी ... जबकि साथ तो उस रात से ही छूट गया था.. तभी से वह अकेली हो गयी थी... निपट अकेली।

उस रात के बाद भी तो अनेक ... रातें आयीं ... वह उसके साथ होती एक ही बिस्तर पर ... कभी घबराकर कभी दुलार में ... उसके सीने में मुंह छुपाने का मन होता तो आँखों में वह रात जीवन्त हो उठती .... वह करवट बदल लेती। आँखे अंसुआ जाती। मन कराह उठता ... बहुत बुरा किया तुमने अभिनव.....। मेरे साथ ही नहीं अपने साथ भी तुमने बहुत बुरा किया ...

वो रात अब भी उसके जीवन में उतनी ही जीवंत नहीं। शर्म, अपमान, दर्द से भरी वो रात जिसने अभिनव के भीतर के जानवर से उसे रूबरू करवाया था जिसकी झलक गाहे-बगाहे उसने पहले देखी थी पर विश्वास नहीं हो पाता था ... बहुत पुरानी बात याद आयी थी ... ससुराल के घर में अमरूद का एक पेड़ था ... जिसकी बहुत सी डालें उनकी बाउडन्री के दूसरी तरफ थीं...... दूसरी तरफ एक बड़ा सा खाली अहाता था... जहाँ बच्चे खेलते थे.... ज्यादातर निचले तबके के ... अक्सर वो अमरूद भी तोड़ते थे। सास अक्सर अपने कर्कश स्वर में उन्हें बरजतीं। एक दिन अभिनव ने देखा... किसी बच्चे को अमरूद तोड़ते ... हे रूक!’’ कहते हुए एक गंदी सी गाली निकाली उसने ... लड़का अमरूद तोड़कर भाग गया। अभिनव ने बाॅउन्डरी कूदकर पार की .... उस लड़के को शायद अनुमान भी नहीं था कि, एक अमरूद के लिए कोई ऐसा कर सकता है।..... बेचारा भागा पर अभिनव ने उसे दौड़ा कर पकड़ा था और खींचकर दो झांपड़ रसीद दिया था। लड़का अचंभित रोता हुआ चला गया। अप्पी बारामदे से ये सब देख रही थी .... सोच में पड़ गयी थी ... इत्ती सी बात पर ये रिऐक्शन। उसने कहा भी था- ‘अरे बच्चा था... मारने की क्या जरूरत थी...।’

‘‘साला.... बाप का माल समझ रखा था....’’ अप्पी को अभिनव का बात-बात में गाली बकना बहुत आहत करता .... उसने अपने पापा भाई को बहुत गुस्से में भी कभी मुंह से गलत लफ्ज़ निकालते नहीं सुना था...।

अब देखो चीजे कहाँ आ पहँुची...। क्या करे वो - कहाँ जाये... अभिनव ने तो एकदम ही मानो वो दीवार ही लात मार के ढहा दी जिससे सिर टिकाकर वो निश्चिंत बैठी थी... ये चेहरे पे काले निशान... खून सा जमा हुआ ... सूजी हुई आँखे ... ये चेहरा उसी का है? ये शरीर उसी का है...? ये सब उसी के साथ हुआ....? टी.वी. पर, अखबारों में जब कभी औरतों पर ऐेसे किसी एब्यूज के बारे में पढ़ती सुनती दिमाग गुस्से में खौलने लगता... सबसे ज्यादा गुस्सा आता उन औरतों पर.. जो ये सबकुछ सहती हैं। वही लड़की आज अपने साथ ही ऐसा होने से नहीं रोक पाई..। वो लड़की जो नाक पे मक्खी नही बैठने देती थी ... जो हर गलत बात पर सबसे भिड़ जाती थी..... जिसने पापा से कितनी-कितनी बहसें की.. हैं.. जिसने मम्मी से कितने तर्क किये... जिसके बारे में सभी यही सोचते थे कि इसकी ससुराल में कैसे निभेगी। लड़कियों को सच झूठ से क्या मतलब? उन्हें तो पक्की पाॅलिटिशियन का चरित्र चाहिए होता है... नितान्त अजनबियों में यही एक चीज़ उनहें सरवाइव कर सकती है। अप्पी तो यहीं मात खा गयी।

सुबह अभिनव एकदम नार्मल था.. जैसा कि वो हमेशा होता है .... जब भी जी में आया तन्न-फन्न किया... बिना एक पल को भी ये सोचे कि उसकी इन अश्लील उछलकूद का अप्पी पर क्या प्रभाव पड़ा होगा...। हर बार वह यही अपेक्षा करता कि अप्पी एक चिकने पत्थर की तरह प्रभावहीन रहे। हर बार अप्पी ने उसकी ज्यादतियों को इग्नोर किया... पर आज तो उसने लाइन क्रास कर दी थी शायद अभिनव ने कोई हद नहीं बनाई थी। रात की घटना उसके लिए मियां बीवी का समान्य झगड़ा था। नान-जात की तरह मार-पीट करना और फिर समान्य पति पत्नी की तरह व्यवहार करना ...। अप्पी अभिनव का गुस्सा, उसका हिस्टिरिकल व्यवहार अगर वह उस सब पर कायम रहा आता... अप्पी से घृणा करता ... उससे सम्बन्धविच्छेद कर लेने का फैसला कर लेता तो कही न कहीं अप्पी .... अभिनव के बिहेवियर को जस्टीफाई कर लेती उसके नजरिये के परिप्रेक्ष्य में। भले ही उसका नजरिया ... उसकी सोच कितनी भी गलत होती। पर सुबह अभिनव का नार्मल बिहेवियर, और अप्पी से ये अपेक्षा करना कि वह भी नार्मल बिहेव करे... ये सब घिन जगा रता था उसके मन में। क्या अभिनव के मन में हौल नहीं उठते ...?

अप्पी के भीतर एक चीत्कार सी दबी थी। पर, यहाँ इस घर में रोने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। आँसू मानों पत्थर हो अपनी ही आँखों में चुभ रहे थे... ची चाह रहा था अभी इसी वक्त निकल जाये बाहर। इस इतनी बड़ी दुनियां में क्या उसका कोई ठौर नहीं। ऐसा चेहरा लेकर वह मम्मी पापा के सामने कैसे जायेगी ... छोटे भाई बहन क्या सोचेंगे...? अभिनव की ये हरकत...... उसे अपना आप ही क्यों छोटा लग रहा है... जैसे उसने ही कोई शर्मनाक हरकत कर दी हो। वह चादर मुंह तक ओढे स्वयं को छुपा रही है .... और अभिनव पूरे घर में दनदनाता धूम रहा है। अभी चपरासी और बाई आ जायेंगी ... उसके चेहरे के निशान क्या सब बयान नहीं कर देंगे। इन्हें बनने से रोकने के लिए वह क्या करती... कितना और कैसा बन जाना होता उसे .... शादी के बाद वह अपने जैसी रह ही कहाँ गई... सिर्फ अभिनव के मनमुताबिक होने की कोशिश में तो सारे दिन गर्क हुए .. उन सारी कोशिशों में कसर थी .... रह गयी... पर कितनी भी कोशिशे क्या पूरी पड़ती.....? शायद ये होता ही ... हाँ कुछ दिन, कुछ महीने या कुछ साल शायद टल जाता... पर होता जरूर ....।

सोचते-सोचते अप्पी के दिमाग की नसें तिरमिराने लगीं थीं ... एक अंधेरा सा था... अभिनव का जो रूप देखा था उसने उसे दहला दिया था। उसकी कोई लिमिट हो सकती है... उसे नहीं लगता। वह यहाँ से गयी तो वह खुन्नस में और भी कांड कर सकता था.....। तमाशे करना उसका स्वभाव है। मम्मी-पापा मौसा मौसी ... वह सबको लपेटे में ले लेगा... अपने अश्लील बातों से उनकी भी ऐसी तैसी कर देगा... गुस्से में किसी का लिहाज नहीं करता ये आदमी।

अप्पी का मन हो रहा था काश जो गुज़रा वो सपना हो ... उफ सुविज्ञ को भी इस आदमी ने गंदगी में लथेड़ लिया... अप्पी तो पूरी उजागर हो गयी... कभी अपने दुःख की एक हल्की सी भनक भी सुविज्ञ को न लगने देने का संकल्प क्षण मात्र में मिट्टी हो गया ...। शर्म से वह उन्हें कभी मुंह न दिखा सकेगी... क्या ... सोचते हांेगे वो ... कैसे आदमी को चुना है अप्पी ने ... और ऐसे आदमी की तारीफ के कसीदे काढ़ा करती थी वो? ऐसे आदमी के साथ किस तरह का जीवन गुजार रही होगी वो। एकबारगी उसे चिढ़ सी मच आई अपने आप पर... वह क्यों दूसरों के बारे में सोच रही है। जी में आ रहा है सब कुछ छोड़ छाड़कर चल दे कहीं ऐसी जगह जहाँ कोई न जानता हो उसे। क्या वह इतनी गई बीती है कि अपना जीवन न चला पाये... क्यों चाहिए उसे अपने जीवन के लिए कोई अभिनव...। लेकिन दूसरे ही पल उसे अभिनव की उज्जडता याद आ जाती... वह जानती है... अगर उसने कोई कड़ा कदम उठाया... वह सारी सीमा पार कर जायेगा। उसपर, उसके परिवार कीचड़ उछालने की उसकी कोई सीमा न रहेगी.... और सुविज्ञ। खाम खाह उन्हें अपने इस मसले में क्यों घसीटे... अपने साथ इस तरह उनका नाम लाना वह कतई नहीं चाहती। अब तक उसने अपने रिश्ते को एक सम्मानजनक गरिमा के साथ जीया हैं। उनका रिश्ता किसी सच्ची कथा या मनोहर कहानियाँ के पन्नों पर लिखा पढ़ा जाये... या टी.वी. पर ब्रेकिंग न्यूज की तरह देखा सुना जाये.. ये वो बरदाश्त नहीं कर..... सकती! सबकुछ कितना रिडिक्यूलस है... एक मकड़जाल है... जिसमें वह उलझ थी! निकलने का कोई रास्ता नहीं। पता वहीं अप्पी ने कहाँ गलती कर दी ... जो अभिनव सारी हदें तोड़ता गया ... या कि अप्पी ने अपनी बरदाश्त की हद बढ़ा ली...।

वह रात और उसके बाद की कई रातें उसने जागते हुए बिताई। इतना रोई कि... तकियों पर आँसुओं के धब्बे बन गये। आँखांे में जैसे किसी ने मिर्ची भर दी हो। सारा वजूद मानो भुरभुरी मिट्टी सा हो गया लगता। कोई किनारा नहीं नज़र आता था .... मानों उफनती नदी में उसे फेंक दिया हो अभिनव ने। दिमाग सोचते सोचते कुंद सा हो रहा था .... पता नहीं कैसे सोचों में सुविज्ञ का अस्क तैर गया ..... डूबते को तिनके के सहारे की तरह। अप्पी ने उस ख्याल को पकड़ लिया था... वही ख्याल उसका सिरहाना बना था और वही ख्याल उसके सिर पर सहलाती हुई थपकी!

वह अभिनव के साथ बनी रही। अभिनव का नरम-गरम रवैया पूर्ववत बना रहा। वह कब किस बात पर उखड़ जाये अप्पी को समझ नहीं आता। अप्पी शांत रहकर उसके गुस्से की आँधी को झेल लेती तो... वह कुछ देर तक झक कर .... नम्र पड़ जाने और उसको मनाने की मुद्रा में आ जाता ..... कुछ-कुछ शार्मिदा सा। पर उससे अधिक शर्मिन्दगी तो अप्पी उठाती थी ... अभिनव की इन अश्लील उछल कूदों से ....

बेटे के आने के बाद लगा था... रिश्ता मजबूत होगा। पर, मजबूती ... वह कनसर्न अभिनव में नहीं दिखा। एक गहरी चिढ़ उसके भीतर अपने लिए अप्पी को बराबर नज़र आती रही...। उसके व्यंगात्मक जुमले.... अश्लील गाली गलौज और कभी-कभी.... मार-पीट भी....। कितनी बार अप्पी ने घर छोड़ा ... कभी किसी रिश्तेदार के घर, कभी... अभिनव के किसी दोस्त घर ... तो कभी-कभी .. बसस्टैण्ड जाकर.. बस में बैठ गयी ... पर वह हर बार वापस आ गयी, अपूर्व को साथ ले अभिनव हर बार उसे लौटा लाने में कामयाब हो जाता...। अप्पी कैसे तो निकल जाती थी ... सिर्फ पर्स लिए.... जिसमें सिर्फ कुछ सौ रूपये होते....ं शायद भीतर एक उम्मीद होती थी हर बार .....कि अभिनव अभी आकर ले जायेगा उसे ... और सच, हर बार वह अभिनव के पीछे चल देती थी। कभी शहर नहीं छोड़ पायी ... जिस बार, बस में जा बैठी थी ... और अभिनव के आने में ज्यॅूँ-ज्यूँ देर होती ... उसके भीतर का क्रोध निरीहिता में बदलने लगा था ...। जो अगर बस चल दे तो .... पता नहीं पर्स में टिकट लायक पैसे हैं भी या नहीं ...। मायके से कितना तो दूर रहती है वो। ये बस उसे एक दूसरे शहर ले जायेगी ... जहाँ से उसे एक दूसरी बस या फिर ट्रेन से पूरे दस बारह

घंटे की यात्रा करनी होगी .... मम्मी पापा तक पहुँचने के लिए .... वो इतनी दूर क्यों है ...। तभी उसे अभिनव दिख गया था ... स्कूटर पर आगे अपूर्व को खड़ा किये। बस में चढ़ उसने अप्पी का हाथ पकड़ उसे नीचे उतार लिया था वह स्कूटर के पीछे बैठे फिर वापस गयी ... कैसी सुन्न सी हो गयी थी वो ... मान अपमान कुछ नहीं व्यापता था उसे ... । अभिनव पर निर्भरता ऐसी थी उसकी कि तमाम विद्रूपताओं के बावजूद वह इस गृहस्थी नामक चादर को अपने इर्द गिर्द कसे हुए थी ... हवा का कोई भी झोंका उसे उड़ा न पाये.... इस कारण मन प्राण से इस चादर के किनारों को अपनी देह के नीचे दबाये ... लाख चेष्ठा के बाद भी चादर उघड़ जाती और चादर के नीचे जो कुछ ढ़ाकने की कोशिश की गई थी ... वह बड़ी निर्ममता से उजागर हो जाता। इस उघड़ा -उघड़ी से अभिनव को कोई फर्क नहीं पड़ता था ... पर अप्पी के भीतर गहरी वितृष्णा भर.. रही थी ...बढ़ रही थी। गृहस्थी उसके लिए एक हर्डल रेस साबित हो रही थी। उसने अपूर्व पर सारी तव्वजों देनी शुरू की। अपूर्व का होना एक बड़ी राहत थी उसके लिए। छोटा सा बच्चा, माता-पिता के बीच की तनातनी से भ्रमित हो रहा था। उसे तो दोनों प्यारे थे जब कभी अभिनव से उसकी तकरार होती वो कन्फ्यूज हो जाता ... चेहरे पर असहाय भाव लिए वो मम्मी से चिपकता ...। मत...बोलो ममा .. उधर उस कमरे में जाओ .. चुप हो जाओ ...। ‘‘उफ ये छोटा सा बच्चा भी जानता है ... अततः पापा अपने जानवर रूप में आ .. जायेंगे और फिर .... वह ममी को चुप होने को कहता है, हट जाने को कहता है .... मम्मा को बचाना चाहता है ... याकि वो भी उस पुरूष नजरिये पर मोहर लगाता है कि स्त्री को ही चुप रहना चाहिए ... हट जाना चाहिए ... अन्यथा।

अप्पी सचमुच चुप होने लगी थी .... अभिनव के लिए नहीं .... अपने लिए नहीं ... उसके सपनों का केन्द्र अपूर्व हो गया था। उसे कहानियाँ सुनाना, उसका होमवर्क कराना ... उसे तबला क्लास, स्वीमिंग क्लास लेकर जाना ...। अपूर्व बचपन से ही खुशमिजाज बच्चा था ... अप्पी के लिए तो वह एक मनभावन खिलौना ही .... था। मातृत्व ने उसकी प्राथमिकताएॅँ बदल दी थीं। वक्त ही नहीं था पिछली बातों को पलट कर देखने का। दिन कब शुरू होता कब खत्म, पता ही नहीं चलता। टी.वी. पर, अख़बार में कोई समसामयिक खबर उसे उद्वेलित करती .... कभी कोई आइडिया क्लिक करता .... मन होता उस पर लिखा जाये... विचार खदबदाते ... सोचती, ये हाथ का काम निबटा और बैठ कर लिख लेगी.... आज नहीं तो कल लिख लेगी ... पर वो कल कभी नहीं आ पाता था ... वह कभी खाली नहीं हो पाती थी।

सब ठीक-ठाक था। अभिनव अप्पी को गृहस्थी में रमा देख खुश था .... उसे ऐसी ही अप्पी प्रिय थी। परिवार में बड़े भाई की मृत्यु और एक भाई के नौकरी छूटने की वजह से अभिनव पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी आ गया था .... ऐसे में अभिनव का साथ देना अप्पी को अपना नैतिक दायित्व लगने लगा था ....

यूँ भी अभिनव की उसे आदत पड़ गयी थी ... कभी ऐसा होता वह गहरी नींद में होती ... और जाने कैसे उसे पता चल जाता कि अभिनव बगल में नहीं है .... आॅँख खोलकर देखती ... तो सचमुच वो नहीं होता ... बाथरूम गया होता ... या फिर सिगरेट जला कर टी.वी. के सामने बैठा होता।

वर्ष में एकबार तो गोरखपुर भी जाती.... ज्यादातर अपूर्व की गर्मीयों की छुट्टियों में.. बीच में तभी गई जब भाई-बहनों की शदी हुई या कोई अन्य पारिवारिक समारोह होता ...। सुविज्ञ के बारे में खबरे मिलतीं.... वो लंदन चले गये थे... उनका एक बेटा भी था। सुविज्ञ तीन वर्ष बाद ही वापस भी आ गये .... उन्होंने लखनऊ में ही अपना नर्सिंगहोम खोल लिया है ...। सुविज्ञ के बारे में सुनना अप्पी को अच्छा लगता था... कुछ एहसास जीवन भर वैसे ही निरन्तरता में चलते हैं जैसे पहली बार महसूसे गये थे .... बस अप्पी ने उस एहसास को जीना स्थगित कर रखा था ... यह एक स्थागित उपस्थिति थी। सुविज्ञ ने उसकी जिदंगी में प्रार्थना की जगह ले ली थी ... मन के भीतरी तहों में जिसका सुमिरन वह अपनी हर आती जाती साॅँस के साथ करती थी। उसकी हर सुबह की पहली सोच ... और हर रात का आखिरी ख्याल। कितने दिन महीने साल... बीतते चले गये ... कितने मौसम आये गये ... दुःख अपमान, खुशी उत्सव, बीमारी ... सब आया, बीत गया ... पर सुविज्ञ के लिए ... उसका प्रेम वैसे अकम्पित, अपरिवर्तनीय, अडिग बना रहा ....। कभी-कभी घबरा कर वह सोचती ऐसा इसलिए तो नहीं कि वह अभिनव के साथ सुखी नहीं है .... अगर उसकी गृहस्थी सुखी होती ... तो वह कबका सुविज्ञ को भूल-भाल गयी होती...। पर भीतर से ही उसे जवाब भी मिल जाता .... उसने कभी सुविज्ञ के साथ अपने जीवन की कल्पना नहीं की... उन्हें जीवनसाथी के रूप में नहीं सोचा .... अभिनव के साथ का उसका जीवन सुविज्ञ के प्रति उसकी भावना को कैसे प्रभावित कर सकता है? कोई प्यार को कैसे भूल सकता है......।

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