तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 8 Sapna Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 8

तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा

सपना सिंह

(8)

सुविज्ञ जब फ्रेश होकर आया तो नीरु और अप्पी तैयार थीं..... अप्पी उसी साड़ी में थी... ऊपर से शाॅल ओढा हुआ था उसने! चाय पीते हुए फिर वही बातें..... अप्पी खामोश पर भीतर की कलथन का क्या करे...... मन हो रहा था सुविज्ञ को पकड़ कर रो पड़े ..... न जाने दे उसे कहीं..... चेहरे पर जैसे सबकुछ हृदय का आकर लिख गया था..... बाँच मन की सारी बात..... अभी कुछ क्षण पहले तक कुछ कीमती खो देने के एहसास से भरी तड़प के बाबजूद जो आत्मविश्वास, ऊँचाई, धैर्य...... उसके पोर-पोर में एक उजास की तरह व्याप्त था..... अब उसकी जगह निहायत बेचारगी सिमट आई थी। उसने अपने दोनो हांथों को शाॅल के भीतर यूूँ समेट रखा था ज्यूँ अपने दर्द को समेट रखा हो।

कार सुविज्ञ चला रहा था..... लौटते में नीरु ड्राइव कर लेगी या फिर अप्पी.... छोटे चाचा चल सकते थे पर उन्हें मौसा जी के साथ छावनी पर जाना था। नीरु परफेक्ट ड्राइवर थी...... गाँव में उसने जीप और ट्रैक्टर भी चलाया था..... अप्पी ने अभी नया-नया ही सीखा था......। छोटे चाचा और नीरु उसके टीचर थे। सुविज्ञ के बगल में नीरु बैठी थी... पीछे अप्पी! अप्पी कभी बाहर कोहरे में छिपी शांत सड़क को देखती..... कभी ऊँचे-ऊँचे दरखतों को जो सुबह की ठिठुरन में सिकुडे सहमें खड़े थे। सड़क पर कहीं-कहीं इनका दुक्का लोग सुबह की वॉक के शौकीन! स्टेशन पर खासी गहमा-गहमी थी...... अप्पी हैरान थी, इतनी सुबह भी लोग लिहाफ की गर्माहट को छोड़कर न जाने कौन से जरुरी काम के खातिर निकल पड़ते है! ट्रेन लगी थी.... सुविज्ञ ने घुसकर अपना सामान जमाया..... उसका सहयात्री भी लखनऊ जा रहा था...... नौजवान था.... साथ में सांवली सी ठिगनी सी शहरी दिखने वाली उसकी पत्नी भी थी...... डिब्बे से बाहर आकर सुविज्ञ.... उन दोनो की ओर देखकर मुस्कुराया ..... अब रास्ते भर मैं मूसरचन्द बना इनकी गालियाँ खाऊँगा..... अप्पी के चेहरे पर वही खाली सा भाव..... इधर-उधर ताकती.... कभी निचले होठों को कुचलती..... होंठ आपस में तेजी सें सिकुड़ते फिर फैलते और खुल जाते.... लगता सांसो को वह बाहर निकाल वह अपनी तमााम पीड़ाओं को बाहर निकाल रही हो। सुविज्ञ ने काॅफी के लिये पूछा...... अप्पी ने मना कर दिया। तीनो साथ खड़े थे..... एक दूसरे को देखते एक दूसरे से नजरें चुराते.....। सुविज्ञ को इस बोझलता से घबराहट होने लगी थी...

‘‘अप्पी, क्या सोच रही हो.....?‘‘

‘‘क्या सोच सकती हूँ ऐसे वक्त.....?‘‘अप्पी ने हंसने की चेष्ठा की पर आवाज अजीब सी हो गई..... एक क्षण को उसने सुविज्ञ को देखा पर नजरें वहाॅँ भी नहीं टिकीं......।

‘‘अब आप कब आओगे....?‘‘ अप्पी ने यँू ही पूछा था...... आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हो रही थी।

मई में.....। नीरू की शादी में आने की कोशिश करूँगा......

अप्पी को एकदम से उब महसूस होने लगी...... ये इन्तजार कितना उबाऊ होता है। सुविज्ञ को जाना तो है ही..... अभी या दस मिनट बाद..... ये दस मिनट जल्दी क्यों नहीं बीत जाता..... इतनी देर में तो वह मर ही जायेगी।

सुविज्ञ को बेचैनी घेर रही थी। अप्पी को देखता तो मन होता सिर दीवार पर दे मारे अपना...... कितना बोदा है वह...... अप्पी से ईष्र्या महसूस होती उसे..... वह इस जैसा क्यों नहीं बना..... सोचते-सोचते लगा शायद वह किसी मजबूत किले में कैद है.... जो अब ढह रही है। उसका परिवेश, उसके सोचने का ढंग.... उसकी जीवन शैली.... जिनके बीच वह अब तक रहा आया..... जिन सबसे वह बना है..... जो उसकी पहचान है..... वो सब उसे एकायक फिजूल जान पडे़....ये सामने जो खडी़ है.... इस क्षण वह उस जैसा होना चाहता है..... उसका हाथ पकड़ दुनिया के किसी छोर तक जा सकने की ख्वाहिश का उगना उसके भीतर महसूस हो रहा है.... एक उजास जो फैलकर बाकी सब कुछ को हटाता हुआ।

...... वहाॅँ से आया था वो जहाँ भावनाओं को व्यक्त करना हास्यास्पद बना देता हेै आदमी को..... होठों पर औपचारिक मुस्कान चिपकाये जिससे मिलो खास फासले से...... तय की हुई हदों के पार नहीं जाना.... ये नहीं करना..... उस तरह नहीं चलना..... वरना हमारे अभिजात्य को खतरा पैदा हो जायेगा।

टेªन छूटने में बस कुछ ही क्षण की देरी थी। अच्छा कहकर वह डिब्बे की ओर जाने लगा.... नीरू ने झुककर पैर हुये...... सुविज्ञ ट्रेन के अन्दर न जाकर द्वार पर ही खडा़ रहा। अप्पी एकटक देख रही थी.....सारा शरीर जैसे सुन्न पड गया था..... कभी किसी के जाने पर ऐसी हालत नहीं हुई.... अपना आपा ही उससे नही संभल रहा था.... कहीं वह चीख कर रो न दे...... नहीं ये सबकुछ बरदाश्त के बाहर है......

एकाएक सुविज्ञ झपटकर ट्रेन से उतरा तेज-तेज चलता अप्पी के पास पहँुचा.....अप्पी का धैर्य अब तक चुक गया था..... यत्न से रोका गया आँखों का पानी मानो बाँध से तोड़कर बह गया हो.... सुविज्ञ ने उसके बालों को हल्का सा थपथपाया और हाथों को अपने हाथों में ले उसकी ठंडी ऊँगलियों को होठों से छुआया... टेक केयर.... जान। नियति मानों उस क्षण उसके कानों में कह गई थी... इस रिश्ते के बिना उसका गुजारा नहीं..... इस एक क्षण ने उन दोनों के सारे तनाव सारी व्यग्रतायें सारी उलझने तिरोहित कर दी थीं .... बची थी सिर्फ एक गहरी आश्वश्ति .....।

***