तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(18)
अप्पी को डायरी लिखने की आदत थी ... अपनी एहसासात वह डायरी में दर्ज करती रहती थी ..... कभी किसी मुझे में त्वरित उठे विचारों को नोट कर लेती कि बाद में कुछ भूल न जाये। कम से कम लिखने की निरन्तरता तो बनी रहती थी। पर उसका मन रिक्त हो गया था ये जानकर कि उसके पीछे उसकी डायरी .... उसके पत्रों ... कागजो की खोद बीन की जाती है। वह लिखते -लिखते ... सब छोड़ उठ जाती थी ... पर कोई भी मम्मी पापा, भाई बहन ... किसी ने भी उसके लिखे के प्रति ऐसी जासूसी नहीं छोड़ी ... और भी सामने से भी तो उससे कहा जा सकता था... क्या लिखा जा रहा है हमें भी पढ़ाओं न ... तो क्या अप्पी मना कर देती .... वा ेतो उत्साह से पढ़ाती ... पर ये छुप छुपाकर पढ़ना ... जैसे कोई रहस्य हो जो अप्पी छुपा रही हो। लगता जैसे कोई अद्श्य सा कटघरा हो जिसमें वह चैबीस घंटे रही थी। हर निगाह किसी जज की निगाह की तरह .... थाली ऐसे क्यों परसी? पानी ऐसे क्यों लायी ... आलू ऐसे क्यों .... छीला .... लौकी में जीरा क्यों डाला .... और तो और ब्रश ऐसे किया जाता है .....? हर दिन यही बाते ... जीवन मंे यही चीजें महत्वपूर्ण हो गयीं थीं ... रिश्तों पर भारी पड़ने लगी थी।
ऐसा नहीं था कि अप्पी वे पत्रिकाओं के वे काॅलम, लेख नहीं पढ़े थे ... जिनमें लड़कियों को बकायदा साफ शब्दों में वार्न किया जाता है कि, विवाह पूर्व प्रेम की बात पति के सामने कतई न स्वीकारें .... कोई भी पति अपनी पत्नी के विवाह-पूर्व प्रेम को सहजता से पचा नहीं पाता। विवाह पूर्व के ऐसे प्रसंग चारित्रिक स्खलन के प्रतीक माने जाते हैं... खासकर स्त्रियों के संदर्भ में। हद है भाई। अब क्या प्रेम भी सोच समझ कर किया जाता है .... याने विवाह होने तक अपने आपको समझाकर रखा जाये कि विवाह जिससे होगा ... प्रेम भी उसी से किया जायेगा .... यानि सारे विवाहित जोड़े बड़े प्रेमिल हंै... । अब अप्पी क्या करें .... उसके साथ तो ये घटना या दुर्घटना विवाह की उम्र से बहुत पहले हो गई न। दरअसल प्रेम होता ही है, अपनी स्वतंत्रता का उद्घोष। और अप्पी ने बड़े यत्न ... बड़ी जिम्मेदारी से इस स्वतंत्रता का निर्वहन किया था अब तक। बाहोश ... होश खोने का एक सिलसिला। अप्पी अक्सर सोचती है, सारे शादीशुदा जोड़ों को कौन सी चीज़ जोड़ती होगी आपस में ...? क्या मौसा मौसी आपस में प्रेम करते हैं...? क्या उसके मम्मी पापा आपस में प्रेम करते हैं...? करते ही होंगे। इस दूसरे का ध्यान रखना क्या होता है। प्रेम ही न। उसने तो मम्मी को सारा दिन पापा के ही बारे में सोचते देखा है ... जब तक पापा आॅफिस नहीं चले जाते ... तब तक उन्हीं की तिमारदारी में व्यस्त देखा। उनका जूता ... उनका चश्मा... उनकी शर्ट पैंट। फील्ड में जाते तो जब तक वापस न आ जाते मम्मी की चिंता बनी रहती .... पापा का स्वास्थ्य ठीक रहे इसलिए खाने में घी नमक तेल का कम प्रयोग हो, हरी सब्जियाँ बने ... उन्हें काजू, बादाम, किशमिश अखरोट फल दूध सब समय पर मिले....। पर पापा...। पापा ने तो कभी पलटकर मम्मी से नहीं पूछा कि वह क्या खाती पीती हैं... या उन्हें भी दूध फल आदि खाते पीते रहना चाहिए... परिवार के लिए उनकी हेल्थ भी उतनी ही जरूरी चीज़ है।
पापा भी थे तो एक पुरूष ही.... पुरूषों की दुनियाँ जिसमें उनका काम -काज उनका पैसा कमाना। उनका परिवार - बीवी बच्चे... ये सब उनकी सत्ता के केन्द्र... जहाँ उनकी सुविधा, उनकी मर्जी... सबसे ऊपर रहती। हर परिवार में प्रेम का कमोवेश यही स्वरूप था। ये प्रेम है या .... निर्भरता। दो असमान स्तर के लोगों में प्रेम होता है क्या .... बच पाता है? औरत आदमी का रिश्ता ... एक अपने नाम से पैसा बनाता है... छत, कपड़े और खाना देता है और वह उसे सेक्स, बच्चे और तिमारदारी देती है .... यही प्रेम है ...? याकि, प्रेम का भ्रम ...। समाजिकता मे आकर प्रेम का स्वरूप ऐसा ही मान्य होता है। सहजीवन में होने के लिए आदमी और औरत का सबसे सम्मानजनक रिश्ता विवाह ही तो है.... परिवारिक सुरक्षा बिना विवाह के कहाँ संभव है.... और अप्पी भी तो सारा दिन अभिनव के बारे में ही सोचती रहती है.... पहले कैसे तो हंसी सी उड़ाती थी वह इन बातों की कि, औरतें पति के इन्तजार में भूखी बैठी होती है..... अरे भाई भूखे रहने से कोई प्यार थोड़े ही बढ़ता। शुरू ....शुरू में उसे वाकई कोई फर्क नहीं पड़ता था... शुरूआती दिनों में कमरा-बिस्तर अलमारी हर चीज़ किसी के साथ बांटना अजीब लगता.... अपना साबुन, तौलिया, कंधी सब अलग रखा... फिर आपसे आप चीजें बदलने लगी .... कौन किसका साबुन इस्तेमाल कर रहा है कौन किसकी कंघी ये बातें बेमायने हो गई। अभिनव ने अगर खाना नहीं खाया है तो भूख लगी होने पर भी उसे खाना खाने का मन न हो। कभी अगर अभिनव बिना ... नाश्ता किये आॅफिस चला जाये तो उसका पूरा दिन खराब हो जाता ... एक निरर्थकता का बोध। अपना ये बदलाव उसे आश्चर्य में डालता... कैसे वो बिल्कुल उन्हीं औरतों में तब्दील होती जा रही है जिनसे चिढ़ती रही है.... जिनके जैसा न बनने की उसने कसमें खायी थीं। क्या है ये? .... प्रेम या निर्भरता। मन इतना कच्चा हो गया था कि, अगर अभिनव को कभी देर हो जाती तो उसे रोना आने लगता .... बुरे-बुरे ख्याल आने लगते....।
मगर अभिनव। उसे अप्पी के मन में क्या चल रहा है.... कुछ जानने की दिलचस्पी नहीं ... अप्पी कितना बदल गयी है उसे ये भी देखने की फुरसत नहीं। अप्पी का बदलाव तो वो महसूस करते थे.... जो उसे जानते थे। अप्पी बदल गई थी .... हर वक्त कुछ सोचती सी अकबकाई हुई। शायद ऐसी अकबकाहट सभी लड़कियाँ महसूस करती हों.... आखिर विवाह उन्हें एकदम अनजाने ... अन्चीन्हें व्यक्तियों, परिस्थितियों में ला खड़ा कर देता है। और जो नयी परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती हैं.... जीवन उनका अच्छे से चलता है।
अप्पी यहीं मात खा रही थी। खान-पान, रहन-सहन सब भिन्न था. पर मसला ये नहीं था..... मानसिक भिन्नता उसे .... अखरती। बाकी लोगों के टेम्पर तो सहन हो भी जाते पर अभिनव का मिजाज उसे समझ नहीं आता। अभिनव को सामान्य सी बात भी चिल्लाकर करने की आदत थी। कभी वो अपने पक्ष में कुछ कहना चाहती... या ये चीज़ ऐसे नहीं ... ऐसे थी बताना चाहती ... उसे सुनना नहीं होता सिर्फ अपनी कहनी होती। धीरे धीरे अप्पी समझ रही थी। अभिनव एक आत्मकंेद्रित इंसान है ... उसके सारे निष्कर्ष उसके अपने नजरिये से निकलते थे।
इसी बीच अप्पी प्रेगनेंट हो गई .... वह खुश थी ... पर उसका मिजाज तीखा हो गया था। उसे लगता कुछ विशेष ... कुछ बहुत बड़ा होने जा रहा है... पर अभिनव और उसके घर वालों के लिए ये बड़ी सामान्य सी बात थी ... अप्पी उदास रहती .... मायके गई कुछ दिनों के लिए तो वहाॅँ उसे एकदम विशिष्ट बना दिया गया... दुनियाभर की सलाहें ... ये खाओं .. वो न खाओ ... ऐसे चलो... भारी सामान न उठाओं... अप्पी को ससुराल में सास का चेहरा ध्यान आ जाता .... उसकी प्रेगनेसी का सुनकर उनका चेहरा यूँ उतर गया मानों कोई बवाल। अप्पी ने ये सोचकर अपने मन को मना लेती कि ... मायके में तो वह सबसे बड़ी है ... बड़ी बेटी का पहला बच्चा, सभी रोमांचित हैं.... खुश है .... डरे हुए हैं ... यहाँ तो अभिनव सबसे छोटा है। बड़े बहन भाइयों के कई कई बच्चे हैं ...। सभी औरतें बच्चा पैदा करती हैं .... इसमें नया क्या है। फिर, घर में माँ है ... भाभियाँ हैं.. उन्हें ज्यादा पता होगा अप्पी के लिए क्या अच्छा है ... कया खराब । इसी बीच अभिनव का स्थानान्तरण भी हो गया ... अप्पी ऐसी स्थिति में वहाँ कैसे मैनेज करेगी यह कहकर उसने अप्पी को साथ ले जाने में असमर्थता जता दी। अप्पी कहना चाहती थी .... इस समय उसे किसी भी चीज से जदा जरूरत अभिनव के साथ की है .... पर उसने कुछ नहीं कहा ... वक्त गुजरा और वह एक स्वस्थ से बेटे की माँ बन गयी .... अपूर्व छः महीने का था जब वह उसे लेकर अभिनव की पोस्टिंग की जगह पर पहली बार गयी थी।
नयी गृहस्थी ... छोटा सा अपूर्व .... अप्पी को मानसिक रूप से व्यस्त रखे था... अभिनव ने उसे आफिसर्स की पत्नियों के बीच चलने वाली किटी पार्टी ज्वाइन करने की सलाह दी.... उसका परिचय भी हो जायेगा .... समय भी अच्छा कटेगा...। अप्पी ने वह भी कर लिया ...। पर फिर भी कुछ था जो बेचैन रखता था... यूँ ऐसे तो उसने अपने लिए नहीं सोचा था... कभी कुछ कोशिश करती लिखने की .... लगता लिखना ही भूल गई है ...पुराना ... लिखा ही संवारने लगती .... क्या पता इसी में से कुछ ठीक-ठाक आ जाये। अब तक उसने ये तो महसूस कर लिया था कि अगर वह इग्नोर न करे तो अभिनव से उसका हर बात में झगड़ा हो ... हर बात पर तिनक उठना अभिनव की आदत थी।
कबसे कह रही थी ... आकाशवाणी ले चलों.... वहाँ अपना प्रोफाइल दे आऊँ ... कुछ तो शुरू हो ... लगता है जंग खा रही हॅँू...। अभिनव रोज-ब-रोज आज कल करके टालता अप्पी को उसका टाल मटोल समझ नहीं आता... आखिरकार वह अकेले ही चली गयी.... लौटकर आयी तो जनाब का मुंह तना हुआ था। सारे शाम वह मुंह फुलाये रहा ... यों भी पिछले तीन सालों में अप्पी को ये तो पता चल ही चुका था कि अभिनव को बात बात में मुंह सुजा लेने की आदत है... हाँ, ये जरूर समझ नहीं आया था कि, वो बातें होती कौन सी है... जो उसे नाखुश करती हैं... पर, ये रोज रोज की तिक-तिक उसे उबाने लगी थी। वह वो सब करने की कोशिश करती जिससे बेहतर पत्नी बना जा सके। उसने मनपंसद खाना, मनपसंद पहनाना छोड़ दिया ... फिल्में, टी.वी. देखना छोड़ दिया ... लिखना बंद हो गया। दोस्तों के पत्र कभी कभार आते ... उन्हें जवाब देना बंद कर दिया। जन्मदिन मैरिज एनवर्सरी, न्यू ईयर काडेस.. जो वह परिवार में .. दोस्तों को ... सुविज्ञ को याद से भेजती थी... अब ये छोटे-छोटे काम भी नहीं हो पाते ... बड़े मसले बन जाते।
उस दिन सुविज्ञ का फोन आ गया .... बहुत लम्बे समय बाद। अप्पी तो खुशी से बेदम। पिछली बार अप्पी ने इन्हें लगभग छ-सात महीने पहले पत्र लिखा था.... और उन्हें अपना नम्बर भी दिया था। उसे विश्वास नहीं था सुविज्ञ उसे फोन करेंगे... पर, फोन पर उनकी वही आत्मीय आवाज़। अप्पी वैसी ही मगन हो गयी।
‘‘कैसी हो ... तुम्हारे साहब कैसे हैं.... तुम्हारी बेटा कितना बड़ा हो गया...?’’
अप्पी सिर्फ सुन रही थी ... क्या कहती .... सिर्फ यही कहा ... हाॅँ सभी अच्छे हैं... अभिनव तो बहुत ख्याल रखता है....।
‘‘तुम हो ही ऐसी ... तुम्हें कौन न प्यार करेगा...? सुविज्ञ की आवाज़ गहरे सूकुन में डूबी... जैसे अप्पी का सुख उसकी खुशी ने उन्हें भीतर से हल्का कर दिया हो ... मानों कोई बोझ उतर गया हो ..... अप्पी को प्यार के अलावा और क्या दे सकता था अभिनव। उसे अभिनव से रश्क सा हुआ ... ईश्वर ने उसे अप्पी के साथ जीवन गुजारने का मौका दिया अप्पी के लिए ऐसा सिर्फ सुविज्ञ ही नहीं अप्पी को जानने वाले सभी सोचते थे। गीता भाभी ने एक बार मजाक में अभिनव से कहा भी था आप बहुत भाग्यशाली हैं .. जो आपको अप्पी जी जैसी लड़की मिली...। हमारी अप्पी जी हीरा हैं..’’
पर क्या अभिनव जौहरी था जो हीरे की कद्र करता ..... उसे तो अप्पी खामियों का पिटारा लगती। डेढ़ महीने बाद फिर सुविज्ञ ने फोन किया ... हालचाल पूछा ... वही यूजवली बातें जैसे कि मम्मी पापा, भाई, बहनों से होतीं... मैं ठीक हूूँ... आप कैसे हैं इतना ही ... सुविज्ञ उसे नसीहतें भी दे डालते .. ठीक से रहना ... अभिनव का ख्याल रखना। अप्पी कभी उन्हें फोन नहीं करती .... उसे लगता जब उन्हें फुरसत होगी, सुविधा, होगी कर लेंगे...।
ऐसे ही एक दिन फोन आया तो अप्पी को लगा था दूसरे कमरे से फोन उठाया गया है ... अप्पी कहीं गहरे आहत हुई .... अभिनव के व्यक्तित्व के जो रेशे उधड़ कर बाहर आ रहे थे वह उसे चिन्तित कर रहे थे। दिन ब दिन वह शालीनता और शिष्टाचार की सीमा लाघंता जा रहा था... या कि शायद उसने कोई लाइन बनाई ही नहीं थी। अप्पी अभिनव को सिर्फ प्यार ही नहीं करना चाहती थी उसकी इज्जत भी करना चाहती थी। उसके लिए जरूरी था अभिनव भी एक व्यक्ति के तौर पर उसे स्वीकार करें। पर अभिनव उसे वैसे ही बरतता जैसे बच्चे अपने किसी प्रिय खिलौने को बरतते हैं। शुरूआती दौर में दीवानगी और बाद में उसे एक ओर धर दिया...। आते जाते ठोकर मार दी ...
उस दिन अभिनव जल्दी आ गया था ... अप्पी पड़ोस की मिसेज रस्तोगी के साथ मार्केट चली गयी थी ...। घर में बहुत सी चीजें खत्म थीं। वैसे तो अभिनव के एक मातहत ओझा जी लिस्ट ले जाकर सामान वगैर ला देते थे। रोजाना का सब्जी फल चपरासी ले आता। पर, अप्पी को कुछ निजी सामान लेना था। मिसेज रस्तोगी का साथ मिला तो सोचा ले ही आँऊ। अप्पी जब लौटी तो अभिनव आ चुका था। मुंह फुलायें बारामदे में बैठा था।
‘अरे ... आज जल्दी आ गये ...।’’
‘‘क्यों ... नहीं आना था क्या ..?’’ अप्पी का सिर भन्ना गया ... कभी ये आदमी सीधा जवाब नहीं देता ... बात करो तो खौखिया पड़ता है...। हाथ मंे सामान का पैकेट पकड़े रस्तोगी जी का ड्राइवर खड़ा था। उसके हाथ से पैकेट ले उन्हें संभालती अप्पी भीतर आ गई। अभिनव के लहजे पर आपत्ति करने बैठती तो अभिनव बिना जगह या स्थिति का ख्याल किये कुछ भी बोल जाता। सामान रखकर जब आई तो अभिनव अंदर आकर ड्राइंगरूम में बैठा था।
‘‘चाय पी ली ... तुमने ?’’
अभिनव ने कोई जवाब नहीं दिया .. ये अच्छा है, बिना बात का मुंह फुला लो ... उसने किचन में जाकर चाय बनायी ... एक ट्रे में रखकर अभिनव के पास ही आकर बैठ गयी। अभिनव टी वी का रिमोट हाथ में लिए बार-बार चैनल बदल रहा था अप्पी कुछ देर बैठी रही फिर अपना कप लेकर कमरे में आ गयी। सामान खोलकर जमाया .. किचन में जाकर देखा। ये सब करते कराते एक डेढ़ घंटा हो गया .... बैठक में जाकर देखा तो अभिनव दीवान पर ही लेट गया था ... चाय वैसी ही पड़ी थी। टीवी चल रहा था..।
‘‘अभिनव उठो ... सो गये क्या ...?’’
‘‘चाय भी नहीं पी...।’’ अप्पी को चिंता होने लगी ... वह अभिनव को हिलाने लगी ... अचानक अभिनव ने हे ऽऽऽ .... करके अप्पी का हाथ झटक दिया। अप्पी सहम सी गई बात क्या है ... आॅफिस में कोई परेशानी है क्या ...?’
अचानक अभिनव उठ बैठा ... आँखें लाल चेहरा तना हुआ ।
‘घर के मसले कम हैं क्या ...?’’
‘‘घर में कौन से मसले ..?’’ अप्पी को कुछ समझ नहीं आया ...।
‘‘मैं नौकरी करूँ या बीवी के आशिकों पे नज़र रक्खूं...।’’
‘‘अभिनव ... क्या बोल रहे हो ... ’’ अप्पी को लगा वह आसमान से गिरी है ... --और क्या .. दुनिया भर के लफंडुसों ... से मैडम का याराना है ... यारों के फोन आते हैं ... दुखड़े रोये जाते हैं..’’ अप्पी को कुछ समझ नहीं आ रहा था... अभिनव क्या बोल रहा है ... क्यों बोल रहा है..... इतनी गंदी सोच...। अप्पी ने अब तक कितना इग्नोर किया पर अब-अब क्या ये सब सचमुच हो रहा है... क्या ऐसा हो सकता है ...? अभिनव ऐसा कैसे ऐसा हो सकता है... कोई भी ऐसा कैसे हो सकता है... क्या करें वो ... सफाई दे .. क्यों..?
अप्पी वहाँ से दूसरे कमरे में आ गई उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था... दुःख अपमान ... या विश्वास का टूटना..... अभिनव उसके पीछे-पीछे आ गया था बड़बड़ाता हुआ गालियाँ देता .... अप्पी सुन्न सी हुई जा रही थी ... सच था या सपना .... घटित पर उसे विश्वास क्यों नहीं हो रहा। अभिनव ने उसके कंधे झझोंरते हुए उन्मादियों की तरह चीखा साली, रंडी ... मुझे चुतिया समझ रखा है..साला वो डाॅक्टर का बच्चा आज ऐसी गालियाँ सुनाई हैं मादरचोद को कि साला अपनी मां का ... दूसरे की बीबी को फोन करना भूल जायेगा।अप्पी शाॅक्ड...। चुप रहो प्लीज।’ इतना ही निकला था मुंह से कि बिफर कर..... अभिनव ने उसके चेहरे पर तमाचे जड़ दिये एक दो ... तीन... चट् ...चाट् अप्पी स्तब्ध। मुझे चुप कराती है साली रंडी ... अभिनव का हाथ इतना अप्रत्याशित और झन्नाटेदार था कि वह संज्ञाशून्य सी हो गयी थी ... कोई आॅँसू उसकी आंखों से नहीं ढुलका .. कोई सिसकी उसके होठों से नहीं फूटी। सिर्फ एक टूटन का एहसास.... जैसे धज्जियाँ बिखेर दी गई हों उसकी या कि जैसे रूई की तरह धुन दिया गया हो उसके वजूद को ....
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