मन कस्तूरी रे
(2)
"अरे, मूवी शुरू होने में थोड़ी सी देर है और अभी तक तुम यहाँ बैठी हो। चलो भी, मूवी शुरू हो जाएगी, जानेमन!!!"
कार्तिक ने एकाएक पीछे से आकर उसे बाँहों में भरते हुए ज़ोर से हिला दिया। अपने ही ख्यालों में डूबी जाने कब से ऐसे ही बैठी थी, एकाएक चौंक गई थी स्वस्ति। उफ्फ्फ ये कार्तिक भी न!!! ऐसा ही है वह, बेसब्र और आकस्मिक।
हमेशा चौंकाने वाले अंदाज़ में प्रकट होने वाला। वह हमेशा ऐसा ही करता था। हर बार एकाएक चौंका देना होता था उसे। बचपन से ही तो उसकी आदत थी, स्वस्ति जब-जब क्षितिज को देखते हुए अपने ही ख्यालों में डूबी कहीं खो जाती, वह चुपके कहीं पीछे से प्रकट होता, उसकी बेख्याली का फायदा उठा, हंसते हुए उसे बाँहों में भरकर चूम लेता। यह सबसे आसान तरीका था स्वस्ति को चौंकाने का और उसके अपने ख्यालों की दुनिया से बाहर खीच लाने का। वैसे यह तरकीब कारगर थी। कभी फेल ही नहीं होती थी। पेर्फेक्ट्ली ऑसम। कार्तिक अक्सर ऐसे ही उसे अपनी दुनिया में लौटा लाता।
आज भी तो उसने यही किया। हमेशा की तरह बिल्कुल यही। इससे पहले कि उसकी बाँहों के घेरे में घिरी स्वस्ति अपने ख्यालों की दुनिया से लौटती कार्तिक ने उसके गाल पर कसकर एक चुंबन ले लिया।
“म्मम्मुअआ ....”
“ओह छोडो भी। यू डेविल....क्या कर रहे हो....”
“छोड़ दूँ? क्यों ताकि तुम फिर से ख्यालों में खो जाओ। ओह कम ऑन डिअर!!! वी आर गेटिंग लेट!!! चलो जल्दी तैयार हो जाओ। हरी अप!! वैसे तुम तो आज इस क्रॉप टॉप और कॉटन की लॉन्ग स्कर्ट में भी कत्ल लग रही हो। दिल पे छुरियां चल रही हैं। डोंट बिलीव? तो मेरी आँखों में देख लो।” उसके बेहद करीब रोमांटिक आवाज़ में फुसफुसाते हुए उसने कहा।
स्वस्ति ने एक कोहनी मारते हुए, उसकी बाँहों से छूटकर बुरा मुंह बनाया।
कार्तिक का उसे 'जानेमन' कहना या बाँहों में भरकर स्वस्ति का गाल चूम लेना किसी के मन में भी भ्रम उत्पन्न कर सकता था कि वो उसका प्रेमी है। जबकि वह दोस्ती से कुछ ज्यादा और प्रेम से कुछ कम उनका रिश्ता अब समझने लगे थे उनकी करीबी लोग! उसका सबसे करीबी दोस्त, इतना करीबी कि उनके घर के बीच कुछ इंचों की दीवार मात्र थी जो उन घरों का अलग-अलग दो घरों के रूप में वर्गीकरण कर पाने की असफल कोशिशों के बाद हार मान चुकी थी और इसका सबसे बड़ा कारण कोई और नहीं कार्तिक ही था। दोस्ती पर तमाम रंगों की परतें चढाये, उसने इस दोस्ती को दुनिया के हर रंग से भिगोया था और अब प्रेम के स्थायी रंग में रंग देने को बेताब वह अपनी दोस्ती और स्वस्ति को दुनिया की भीड़ में खो देने का कायल कभी नहीं था।
वह स्वस्ति को दुनिया में किसी भी इंसान से भी ज्यादा अच्छी तरह जानता पहचानता था। स्वस्ति के ख्यालों में शेखर की मौजूदगी के अहसास ने उसे जब जब बेचैन तो किया, उसने गर्दन की एक जुम्बिश पर उस बेचैनी को दूर फेंक दिया।
बचपन से वह जानता था स्वस्ति की अपनी एक काल्पनिक दुनिया थी जिसमें खो जाने के लिए वह हरपल बेताब रहती। ढलते सूरज की सुनहरी किरणों में जब पेड़ों की परछाइयाँ लंबी होने लगती, शाम दबे पाँव उस प्रेमिका की तरह उसकी बालकनी के मनी-प्लांट्स को सहलाने लगती जो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करते हुए हर सजीव-निर्जीव शय को अपनी प्रतीक्षा में शामिल करना चाहती है। ऐसी शामों के धुंधलकों में स्वस्ति को खो जाने देने से बचाने की कवायद में, तमाम बचकानी हरकतें करता, वह उसके आँचल का एक सिरा थामे हुए ठीक उसके पीछे रहता।
ऐसा नहीं था कि यह उसकी अनधिकार चेष्टा मात्र थी। यह स्वस्ति के मूड पर निर्भर करता था कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी। हमेशा वह नाराज़ नहीं होती थी। उसे आदत थी कार्तिक की इन हरकतों की और एक कार्तिक ही तो था जो उसके नखरे उठाकर भी उसे मनाना नहीं छोड़ता था। वह भी कई तरह से रियेक्ट करती थी उसकी हरकतों पर। जैसा मूड वैसा ही रिएक्शन। कभी वह भी उसकी हंसी में शामिल हो मुस्कुरा देती तो कभी कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए ऐतराज़ जता देती। पर कभी भी वह उससे गुस्सा नहीं होती थी और यह कार्तिक जानता था।
पर आज अपने एकांत में खोयी स्वस्ति इस कवायद के लिए तैयार नहीं थी। कार्तिक का इस तरह उसे डिस्टर्ब करना और उसकी तन्द्रा भंग होना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। कार्तिक ने फिर से उसे बांहों में भरने की कोशिश की पर इस बार स्वस्ति सतर्क थी। उसने उसे झटक दिया।
"जाओ न, कार्तिक। आज मेरा बाहर जाने का बिल्कुल मन नहीं है।" उसने नीममदहोशी में फिर से अपनी ख्यालों की दुनिया में लौट जाने के ख्याल से दहलीज़ से ही उसे लौटा देना चाहा। कार्तिक जानता था वह ऐसा क्यों कर रही है। कार्तिक उसकी मनोदशा से वाकिफ था। उसकी आवाज़ में छाई इस मदहोशी से उसका पुराना परिचय था। उसे अपने एकांत से इतना मोह था कि वह इसमें किसी का दखल सहजता से स्वीकार नहीं कर पाती थी! उसकी इस एकान्तप्रियता को कार्तिक से बेहतर कोई नहीं समझता था! उसमें सेंध लगाने में भी वह माहिर हो चला था! बस स्वस्ति को सोचने का कोई मौका ही नहीं देना था उसे ताकि वह फिर से अपने ख्यालों के दरिया में कोई डुबकी न लगा सके! यही करना था उसे और उसने यही किया!
"नॉट एट आल डिअर। मैं नहीं जानेवाला। अरे तुम्हारा क्या भरोसा। तुम्हारे मन के भरोसे रहूँगा तो कुंवारा रह जाऊंगा, जानेमन।" उसने हंसते हुए फिर से उसे उस विचारों की दहलीज़ के उस ओर खींच लेने का प्रयास किया।
"शटअप कार्तिक। जाओ अभी।" उसने लगभग झुंझलाते अपनी दुनिया का दरवाज़ा ठीक उसके मुंह पर बंद करने की एक और कोशिश की और इस बार झुंझलाने में कृत्रिमता का तनिक भी अंश नहीं था। सचमुच पिक्चर जाने का स्वस्ति का बिल्कुल भी मन नहीं था। एक तो पहले से वह अपनी उलझनों के गुंजलकों में बेतरह उलझी थी उस पर कार्तिक की हरकतें। कार्तिक से मगजमारी करने का न तो उसका मन था और न ही वह इसके लिए पहले से तैयार थी।
“दीज डेज आर सो बोरिंग।” सोच रही थी स्वस्ति। एक तो शेखर पूरा हफ्ता बिज़ी रहे थे। फिर न तो स्वस्ति को फोन किया और न ही उसका फोन पिक किया। उसने कई बार ट्राई किया। इस बीच एक बार फोन पर बात भी हुई तो बस वही ‘हूँ...हाँ”। अभी कल उसने व्हाट्स एप पर कई मेसेसेज भेजे पर एक का भी जवाब नहीं मिला बस एक स्माइली बनाकर लिख दिया – बिज़ी। वह समझ नहीं पा रही थी कि ये गुस्सा था, नाराज़गी थी या मायूसी कि किसी चीज़ में उसका मन नहीं लग रहा था। अब शेखर का साथ अगर किसी चीज़ से बदल सकती है स्वस्ति तो बस शेखर से ही। शेखर का स्थानापन्न केवल शेखर ही हैं, कार्तिक नहीं।
इसी खराब मूड उलझन के चलते वो तो भूल ही गई थी कि इस वीकेंड उसका वायदा था कार्तिक के साथ फिल्म पर जाने का। पर क्या करे अब भूल गई तो भूल गई। अब तो बिल्कुल मन नहीं जाने का।
“समझता क्यों नहीं ये लड़का। दुनिया भरी हुई है खूबसूरत लड़कियों से। अरे छह फुट के इस हैण्डसम हंक को लड़कियों की क्या कमी? एक छोड़ हज़ार मिलेंगी जो उसके सिक्स पैक्स पर अपना सब न्यौछावर करने को तैयार रहती हैं । पर नहीं... उसे तो स्वस्ति के साथ जाना है फिल्म देखने। मुझ जैसी सोकॉल्ड बोरिंग लडकी में इसकी क्या दिलचस्पी है कौन बतायेगा मुझे। कम से कम मैं तो ये कभी समझ नहीं पाती हूँ!”
स्वस्ति की बडबडाहट से कोई फर्क नहीं पड़ता कार्तिक को पर स्वस्ति को फिल्म देखने जाने से बचना है आज ....किसी भी तरह..... यूँ भी कार्तिक की पसंद की ये चलताऊ फ़िल्में उसे रास कहाँ आती थीं। उसकी और स्वस्ति की पसंद में जमीन आसमान का फर्क था। जो उसे पसंद आता था वह स्वस्ति को निश्चित तौर पर पसंद नहीं आएगा यह तो तय था। वैसे भी वो उसे निरा अल्हड किशोर नज़र आता, जिसकी बचकानी हरकतें कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देती तो कभी खीज पैदा करतीं। ये और बात है कि वे हमउम्र थे। कहते हैं दोस्ती दो शरीरों में एक दिमाग का नाम है। पर यहाँ मामला बिल्कुल उलट था। इधर पच्चीस साल की स्वस्ति के भीतर पैंतीस साल की गंभीरता और दिमाग था और उधर पच्चीस साल का कार्तिक तो बीस पार ही नहीं करना चाहता था। इतना खिलंदड और जीवंत।
“ओके तो तुम भूल गईं यार... आज हमें फिल्म देखने जाना है!” उसने याद दिलाया तो याद करने का अभिनय करने लगी स्वस्ति!
“हुंह...आज तो इसकी पसंद की फिल्म देखने की बारी थी और इसकी पसंद उफ्फ्फ....आज तो नहीं ....पूरा उलट है ये लड़का और इसकी पसंद की फ़िल्में। आज तो इसके साथ जाना ही नहीं मुझे।” स्वस्ति सोच रही थी कैसे पीछा छुड़ाए आज कार्तिक से।
उसकी पसंद से सहमत होने का मन भी तो हो। कहाँ पूरब कहाँ पश्चिम। अरे कुछ भी तो कॉमन नहीं था दोनों के बीच। सब कुछ अलग था। असल में स्वस्ति और कार्तिक दोनों दो ध्रुवान्तो पर ठहरे अलग अलग विचारों से एक दूसरे के विपरीत ही तो थे। यूँ कहने भर को ही हमउम्र था पर पच्चीस वर्षों के दो जवान शरीर पर मन एकदम अलग एक दूसरे से। लेकिन दोस्ती तो थी न और वो भी ऐसी वैसी नहीं बहुत ही गहरी दोस्ती। ऐसी दोस्ती जिसकी लोग मिसालें दिया करते थे। दोनों जैसे एक दूसरे के पूरक थे वो जो स्वस्ति के व्यक्तित्व में कहीं कम था उसका पूरक था कार्तिक का व्यक्तित्व और दोनों मिलकर जब एक बनते थे मिसाल बन जाते थे। कार्तिक हमेशा से बहुत महत्वपूर्ण था स्वस्ति के लिए। उसके जीवन में कार्तिक का बहुत बड़ा स्थान था। वह और उसकी उसकी ऊटपटांग शरारतें अब स्वस्ति के जीवन का अटूट हिस्सा थे, ठीक किताबों, सपनों और माँ की तरह।
"उठो स्वस्ति, आई वोंट लिसेन।" स्वस्ति की बात को अनसुना कर कार्तिक ने उसे मनाने की एक और कोशिश की। वह आसानी से कभी मानता ही नहीं था। उसने कोशिशें बंद करना सीखा ही कहाँ था।
पर आज का दिन अलग था शायद। उस दिन स्वस्ति का मन कुछ और ही था। न जाने स्वस्ति को क्या हुआ। उससे कार्तिक की हरकतें बिल्कुल सहन नहीं हो पाई। वह गुस्से और खीज से भर उठी। शायद ये गुस्सा और खीज उन हालात से जन्मे थे जिनसे इन दिनों स्वस्ति जूझ रही थी। उसने क्रोध से कार्तिक को देखा और झटके से उसकी बांह पकड़ी और खुद को उसे दरवाज़े की ओर धकेलते हुए जोर से कहते सुना, "जाओ कार्तिक, सुना नहीं तुमने, नहींsss जाना है मुझे कहीं। मुझे अकेला छोड़ दो, जाओ, लीव मी अलोन, प्लीईईइज़।"
उनके बीच ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। थोड़ी बहुत जिद के बाद या तो स्वस्ति मान जाती थी या फिर कार्तिक को कन्विंस कर लेती थी पर ऐसा बर्ताव तो उसने कार्तिक के साथ कभी नहीं किया था यही कारण था कि आश्चर्यचकित रह गया था कार्तिक। उसने नहीं सोचा था स्वस्ति कभी ऐसा करेगी, कार्तिक को ऐसी आशा नहीं थी। उसने पहले कभी ऐसा किया भी तो नहीं था। उसकी लरजती आवाज़ की दिशा में ताकता वह चुपचाप छत पर बने उसके कमरे से बाहर निकलता, दरवाज़े की ओर बढ़ गया। कार्तिक को लगा आज कुछ ज्यादा ही हो गया। बेहतरी इसी में है कि स्वस्ति को उसके हाल पर छोड़ दिया जाये। कार्तिक ने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा। ये स्वस्ति और कार्तिक दोनों के लिये ही एक और नयी बात थी।
वह जा रहा था चुपचाप, बिना कोई शोर किये और स्वस्ति जानती थी कि वह जा रहा है। अजीब ये बात थी कि उसका जाना अब स्वस्ति को अच्छा नहीं लग रहा था। उसे अब बुरा लग रहा था। ये उसने क्या कर दिया। एकदम नाराज़ कर दिया अपने प्यारे दोस्त को। आखिर उसकी क्या गलती थी। गलती तो स्वस्ति की थी न कि वह अपना वादा भूल गई थी। स्वस्ति को पश्चाताप होने लगा पर अब कुछ नहीं हो सकता था क्योंकि कार्तिक चला गया था नाराज़ होकर। अब क्या करे स्वस्ति अपने खराब मूड का। उसे आवाज़ देगी तो फिर बात बढ़ेगी और खामख्वाह माँ को भी इस बारे में पता चलेगा और उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा कि उसने फिर कार्तिक से झगड़ा किया।
वह फिर अकेली रह गई अपनी उदासी और एकांत के साथ बिल्कुल अकेली। उदासी फिर से उसे घेरने लगी। अकेलेपन का कोहरा फिर से उसे गिरफ्त में लेने लगा था। अब उसका दिल चाह रहा था वह कार्तिक को आवाज़ देकर रोक ले और वह बाँहों में भरकर छीन ले उसे इस मदहोशी से, पर.…. पर स्वस्ति चाहकर भी ऐसा नही कर सकी। वह शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। उसका व्यवहार बिल्कुल भी उचित नहीं था वह जानती थी। कार्तिक चला गया और स्वस्ति रफ्ता-रफ्ता एक गहरी ख़ामोशी में डूबती चली गई।
क्रमशः