अपनी अपनी मरीचिका - 6 Bhagwan Atlani द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपनी अपनी मरीचिका - 6

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(6)

3 अक्टूबर, 1950

तीन दिन पहले चीफ़ प्रॉक्टर ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। प्रवेश करते ही आक्रामक तरीके से उन्होंने मुझ पर सवाल दाग दिया, ‘‘आखिर तुम चाहते क्या हो?''

‘‘कुछ नहीं, सर।''

‘‘फिर यह हंगामा क्यों मचाया हुआ है तीन महीनों से?''

‘‘मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया है, सर।''

‘‘तो किसने किया है?''

‘‘उन लोगों ने जो केवल इसलिए नाजायज हरकतें करने का अधिकार चाहते हैं क्योंकि मेडीकल कॉलेज में उनका दाखिला हमसे एक साल पहले हुआ है।''

‘‘व्हाट डू मू मीन बाइ नाजायज़ हरकतें?''

‘‘रैगिंग नाजायज हरकत नहीं है तो और क्या है?''

‘‘रैगिंग नाजायज हरकत नहीं है। नए लड़के-लड़कियों को मेडीकल कॉलेज के तौर-तरीकों से वाकिफ कराने का नाम रैगिंग है।''

‘‘आइ एम सॉरी, सर। मैं आपसे सहमत नहीं हूँ।'' मैं निडर भाव से हलका-हलका मुसकराया।

‘‘देखो, रैगिंग के जरिए हँसी-मजाक करते हुए वरिष्ठ छात्र अपने कनिष्ठ छात्रों से परिचय करते हैं। इसलिए इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। फिर अगले साल तुम भी तो कनिष्ठ छात्रों की रैगिंग करोगे।'' मेरी निडरता ने चीफ प्रॉक्टर के आक्रामक लहजे को समझाने वाले लहजे में बदल दिया।

आधे घंटे तक वे मुझे दलीलें देते रहे और मैं विनम्रतापूर्वक उनकी दलीलें काटता रहा। अंत में वे उकता गए, ‘‘सब बातें छोडा़े। तुम मुझे सीधा बताओ कि क्या चाहते हो?''

‘‘मेरे जवाब पर तटस्थ भाव से विचार करें तो बताऊँ सर, कि.......।'' कहते-कहते मैं रुक गया। कमरे में मुझसे वरिष्ठ, रैगिंग के कट्‌टर हिमायती, मुझे जानी दुश्मन समझने वाले एक छात्र ने प्रवेश किया था।

चीफ प्रॉक्टर ने वरिष्ठ छात्र को देखा भर और मुझसे पूछा, ‘‘रुक क्यों गए?''

‘‘जो कुछ मैं कहूँगा, उससे बॉस नाराज हो जाएँगे।'' मैं मुसकराया और वरिष्ठ छात्र की आँखों में देखने लगा। उसकी आँखें मेरी बात सुनकर बहकने लगी थीं। किंतु मैं चीफ प्रॉक्टर के कमरे में था, इसलिए वह खामोश रहा।

‘‘सर, अभी बॉस कहेंगे कि उन्हें देखकर मैं खड़ा क्यों नहीं हुआ? इन्होंने और इनके साथियों ने मुझे सिखाया है कि वरिष्ठ छात्र की उपस्थिति में कनिष्ठ छात्र को बैठना नहीं चाहिए। लेकिन मेरा सीखा हुआ शिष्टाचार कहता है कि मैं आपके आदेश से, आपके सामने बैठा हूँ। इसलिए खड़ा होकर मैं आपकी अवज्ञा करूँगा।'' मेरे स्वर में व्यंग्य था, जिसे सुनकर वरिष्ठ. छात्र के चेहरे पर तिलमिलाहट और चीफ़ प्रॉक्टर के होंठों पर मुसकराहट उभरी।

‘‘यंग मैन, तुम बहुत हिम्मत वाले हो। अपने वरिष्ठ छात्र पर कस-कसकर व्यंग्य के तीर चला रहे हो और तुम्हें डर नहीं लगता। मगर मैं तुम्हें बता दूँ कि जिस तरह तुम बोल रहे हो, वह भी शिष्टाचार नहीं है।''

‘‘आइ रिग्रेट, सर।''

चीफ प्रॉक्टर ने वरिष्ठ छात्र की ओर देखा, उसे बैठने के लिए इशारा किया और मुझे कहा, ‘‘तुम क्या कह रहे थे? कौन-सी बात पर मैं तटस्थ भाव से विचार करूंं?''

मैंने खामोश रहकर फिर वरिष्ठ छात्र की ओर देखा। ‘‘इसे मैंने ही बुलाया है। जब तक तुम अपनी बात पूरी नहीं करोगे, यह जाएगा नहीं।''

‘‘मैं चाहता हूँ कि वरिष्ठ और कनिष्ठ छात्र आमने-सामने बैठें। कनिष्ठ छात्र रैगिंग के बारे में अपनी बात कहें और वरिष्ठ छात्र अपनी। यह सारी बात आपकी उपस्थिति में होगी। आप जो तय करेंगे, वही हम मान लेंगे।''

‘‘इससे क्या हो जाएगा?''

‘‘यह फैसला हो जाएगा कि रैगिंग का स्वरूप कैसा होना चाहिए?''

‘‘रैगिंग परिचय करने के लिए, सलीका सिखाने के लिए होती है। तुम क्या स्वरूप तय करना चाहते हो?''

‘‘सर, ठीक यही स्वरूप जो आप कहते हैं। मगर इनसे पूछिए कि रैगिंग क्या यहीं तक सीमित है?''

‘‘हां, यहीं तक सीमित है।'' वरिष्ठ छात्र ने कहा।

‘‘माफ करिए, आप सरासर झूठ बोल रहे हैं।''

‘‘नए लड़कों का अक्खड़पन निकालना भी सलीका सिखाने का एक हिस्सा होता है।'' वरिष्ठ छात्र किसी तरह अपने गुस्से को रोके हुए था।

‘‘फिलहाल तो आप मुझे सलीका नहीं, झूठ बोलना सिखा रहे हैं।''

‘‘इनफ़ इज इनफ, सर। मैं जाना चाहता हूँ।'' वरिष्ठ छात्र अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाया और खड़ा हो गया। चीफ प्रॉक्टर ने बहुत जोर दिया लेकिन वह नहीं रुका। जाते-जाते जिस नजर से उसने मेरी ओर देखा, ्‌उसमें चुनौती थी।

उसके जाने के बाद चीफ प्रॉक्टर ने मुझे फिर समझाने की कोशिश की। वे वही बातें दोहरा रहे थे, जिनको मैं काटता रहा था। इसलिए इस बार खामोशी से उनके उपदेश को मैं सुनता रहा। मेरी खामोशी से उनको अहसास हुआ कि उनकी बातों का मेरे ऊपर असर बिलकुल नहीं हो रहा है। उन्होंने हथियार डाल दिए, ‘‘ठीक है, जो आपको सही लगे, करिए।''

वे खडे़ हो गए तो मैं भी उठकर उनके कमरे से बाहर आ गया। हमेशा की तरह मेरे आठ-दस सहपाठी बाहर खड़े थे। हम लोग एक-दूसरे के कारण सुरक्षित महसूस करते थे। हाल-चाल उनको विस्तार से बताए। अंतिम बात सुनकर एक सहपाठी ने कहा, ‘‘किसी बडे़ धमाके के लिए तैयार रहो। वे लोग चुप नहीं बैठेंगे।''

पहली बार जब वरिष्ठ छात्र कक्षा में से निकलते ही हम सबको रैगिंग के लिए ले गए थे तो मैं मानसिक रूप से तैयार था। गाना गाने और अलग-अलग आवाजों में संवाद बोलने तक तो ठीक था, लेकिन मेरा माथा तब ठनका, जब मुझे एक साँस में बीस गालियाँ देने के लिए कहा गया। मैं पहले थोडा हिचकिचाया, इसके बाद साफ मना कर दिया कि गालियाँ मैं नहीं दूँगा। झन्नाटेदार चाँटा। दस-बीस गालियाँ। ‘‘जा, गाड़ी से जो औरत अभी उतरी है, उसे गाली देकर आ।''

मैं सन्न रह गया। रैगिंग के नाम पर इतने पतन की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैंने फिर मना कर दिया। इसके बाद बाकी सब लड़कों को तो छोड़ दिया गया किंतु मुझे वे लोग छात्रावास में ले गए। नंगा करके बिजली के झटके लगाए। हर तरह की शारीरिक यातनाएँ दीं। एक प्रश्न वे लगातार पूछते रहे, ‘‘बोल, सीनियर्स की बात मानेगा या नहीं?''

मेरे सामने स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों में अंग्रेजों द्वारा दी गई यातनाओं के चित्र घूमते रहे। अंग्रेजों ने तो अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों को यातनाएँ दी थीं, ये लोग क्यों कर रहे हैं ऐसा? झूठा अहम्‌, झूठा दंभ, तर्कहीन जिद कि हमारी हर बात नए छात्रों को माननी पड़ेगी। सार्थकता पर बहस की जाए तो ऐसे कृत्यों के पक्ष में इनके पास एक भी दलील नहीं होगी। फिर भी क्योंकि नए छात्र संगठित नहीं होते, नए छात्र नए वातावरण से दहशतजदा होते हैं, नए छात्रों ने रैगिंग की वीभत्सताओं के किस्से सुन-सुनकर स्वयं को हर स्थिति के लिए तैयार किया हुआ होता है, इसलिए वरिष्ठ छात्र ऐसे तर्कहीन कुकृत्य करने पर आमादा हो जाते हैं। उनके प्रश्न के उत्तर में हर बार मैं दोहराता रहा, ‘‘गलत बात नहीं मानूंगा।''

मुझे हॉकियों से पीटा गया। मेरे नंगे बदन के हर हिस्से पर बैठकर कूद-फाँद की गई। जब मैं बेहोश हो गया तो कपड़े पहनाकर मुझे छात्रावास के बाहर फेंक दिया गया। पता नहीं कितने घंटों बाद मुझे होश आया। पोर-पोर में दर्द था। नील उभर आए थे। बदन सूज गया था। किसी तरह मुख्य मार्ग तक आया। राहगीरों की मदद से मेडीकल इमरजैंसी में पहुँचा। ड्‌यूटी पर उपस्थित डॉक्टर ने समझा, लड़ाई-झगड़े में चोट आई है। उसने एम ० एल ० सी ० बनाने की बात कही। मैंने बताया कि मैं मेडीकल कॉलेज में इस वर्ष प्रवेश पाने वाला नया छात्र हूँ। मेरी यह स्थिति रैगिंग के चवकर में बनी है। आप एम ० एल ० सी ० बना लें तो मुझे खुशी होगी। टिटनेस का इंजेक्शन लगाकर, टिंचर के फाहों से कटी-फटी, नील पड़ी जगह पर पट्‌टी कर दी गई। अस्पताल से कुछ दवाएँ देकर, उन्हें लेने का तरीका बताकर बिना रजिस्टर में प्रविष्टि किए मुझे रिक्शा में बैठाकर घर भेज दिया गया। अम्मा, बाबा ने देखा तो उनके मुँह से बोल नहीं निकले। अम्मा तो रोने ही लगी।

रैगिंग के दौरान हुई दुर्गति की खबर कॉलेज में और कॉलेज के बाहर आग की तरह फैल गई। मैं कोई बारह दिन बिस्तर पर पड़ा रहा। कंपाउंडर घर आकर मरहम-पट्‌टी कर जाता था। मेडीकल कॉलेज के अनेक वरिष्ठ छात्र मुझे देखने आए। नए छात्र-छात्राओं में से तो शायद ही कोई बचा होगा जो हाल-चाल पूछने मेरे घर नहीं आया हो। मेरी आर्थिक स्थिति और मेरा हौसला देखकर सब लोग दंग थे। पैसे और रसूखात वाले बड़े घरों के बेटे तो अपने प्रभावशाली पिताओं के बूते पर हौसला दिखा देते हैं, मगर निर्धन परिवार का लड़का इस तरह सिद्धांत की लड़ाई में अपने आपको संपूर्ण झोंक दे, यह बात सबको आश्चर्यचकित करती थी। फिर जो लोग आते थे, हाल-चाल पूछते थे उन्हें स्पष्ट आभास होता था कि मैं पिटा जरूर हूँ, जख्मी ज़रूर हूँ, किंतु टूटा नहीं हूँ। वरिष्ठ छात्रों की तर्कहीन कुत्साओं के खिलाफ़ लड़ने के लिए मैं कृत संकल्प हूँ। घर पर ही लगभग बीस नए छात्र मेरे साथ मरने-मारने का संकल्प व्यक्त करने लगे। हम लोगों ने निश्चय किया कि कोई भी नया छात्र रैगिंग नहीं देगा। वरिष्ठ छात्रों ने रैगिंग करने की चेष्टा की तो हम लोग उन्हें मारेंगे। हर एक वरिष्ठ छात्र की रैगिंग में रुचि नहीं होती है। जिनकी रुचि होती है उनमें से भी अधिकतर केवल मजा लेने के लिए रैगिंग करते हैं। रैगिंग के कट्‌टर समर्थकों और कठोरता के साथ रैगिंग लेने वालों की संख्या नगण्य होती है।

घर पर ही योजना बनाकर नए छात्रों को हमने दस-दस के समूहों में बाँटा। इनमें कम-से-कम एक लड़का ऐसा था जो संपूर्ण संकल्प के साथ रैगिंग की खिलाफत करने के लिए प्रतिबद्ध था। आवासों की स्थिति के अनुसार कॉलेज से काफी दूर किसी बिंदु विशेष पर ये छात्र आपस में मिलते और फिर समूह में एक साथ कॉलेज आते। मेरे साथ रहने के लिए सबसे अधिक जुझारू लड़कों का समूह बना। यह समूह जब भी जरूरत महसूस हो, दूसरों की मदद के लिए तैयार रहेगा। कक्षा में आना-जाना, घूमना-फिरना, उठना-बैठना सब कुछ समूह में करने की बात तय की गई।

हमारे विश्लेषण के अनुसार योजना की खबर फैलते ही गिने-चुने वरिष्ठ छात्रों को छोड़कर सभी छात्रों ने रैगिंग से किनारा कर लिया। किंतु कुछ अधिक वरिष्ठ छात्रों ने रैगिंग के कट्‌टर समर्थक छात्रों का साथ दिया। कार्यक्रम निश्चित करके लगभग पचास वरिष्ठ और अधिक वरिष्ठ छात्रों ने कक्षा से बाहर निकलते ही लड़कियों को छोड़कर हम लोगों को धेरे में ले लिया। एक प्रकार से हांकते हुए जब वे हमें पोर्च में लाए तो मैंने आवाज लगाकर सबको वहीं खड़ा रहने के लिए कहा। हम बीस छात्रों का दल घेरे में से निकलकर एक तरफ खड़ा हो गया। किंकर्तव्य विमूढ़ से वरिष्ठ छात्र एकाएक समझ नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है? मैं वहीं से चिल्लाया, ‘‘हम लोग आपकी इज्जत करते हैं। अगर आप सीमाओं का उल्लंघन करेंगे तो हमें भी सीमाएँ तोड़नी पड़ेंगी।''

अचानक एक वरिष्ठ छात्र आगे बढा। मेरे जबड़े पर घूंसा जड़ते हुए उसने गाली देकर कहा, ‘‘लगता है, पिटने का अरमान अभी पूरा नहीं हुआ है।''

तभी मेरे इर्द-गिर्द खड़े बीस छात्रों के समूह ने उस वरिष्ठ छात्र की लात - घूंसों से पिटाई करनी शुरू कर दी। उसे बचाने के लिए आगे बढे वरिष्ठ छात्रों की भी धुनाई होने लगी। नए छात्रों में से अधिकांश भाग गए। फिर भी जो सक्रिय रूप से मार-पीट कर रहे थे, ऐसे छात्रों की संख्या पर्याप्त थी। थोड़ी देर में मैदान हमारे हाथ में था। इसके बाद तो रैगिंग करने वालों की योजनाबद्ध रूप में और यदि उस समय नहीं तो बाद में घात लगाकर पिटाई करने की घटनाएँ आए दिन होने लगीं। नतीजा यह हुआ कि अगस्त के बाद रैगिंग आदि का झंझट छोड़कर पढाई की तरफ ध्यान देने की परंपरा इस बार टूट गई। जब सितंबर भी निकल गया और वारदातों में कोई कमी नहीं आई तो चीफ प्रॉक्टर को समझौता कराने की कोशिश करनी पड़ी।

नए छात्रों में से एक छात्र शहर के एस ० पी ० का बेटा था। उस लड़के को साथ लेकर हम लोग एस ० पी ० से मिले। अपना पक्ष उनके सामने रखा। उन्होंने अपने स्तर पर प्रिंसिपल से बात की। यह भी एक कारण रहा होगा जिससे चीफ प्रॉक्टर को दोनों पक्षों को बुलाकर बातचीत करनी पड़ी। कुछ वरिष्ठ छात्र नए छात्रों के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। हम लोग उस सोच के खिलाफ हर तरीके से लड़ने को संनद्ध थे, जिसने यातना को रैगिंग का पर्याय बना दिया है। रैगिंग होगी तो रैगिंग के वास्तविक उद्‌देश्यों को पूरा करेगी। अन्यथा रैगिंग नहीं होगी। मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र रैगिंग के नाम पर अपनी दूषित मनोग्रंथियों की गंदगी नए छात्रों के ऊपर फेंकें, यह हमें बरदाश्त नहीं था। वर्षों से रैगिंग लेने और देने का सिलसिला मेडीकल कॉलेज में चल रहा था, इसलिए वरिष्ठ छात्र झुकने को तैयार नहीं थे।

चीफ प्रॉक्टर के कमरे से वरिष्ठ छात्र जिस तरह बाहर निकला था, उसकी आँखों में जो चुनौती थी, उसके कारण किसी बड़ी घटना की आशंका निर्मूल नहीं थी। हम लोगों ने एक-दूसरे के बचाव की व्यूह-रचना बहुत कुशलता के साथ बनाई थी। उस व्यूह-रचना के कारण वरिष्ठ छात्र हमारा कोई नुकसान कर सकें, मार-पीट कर सकें, परेशान कर सकें, अवांछित कुछ कर सकें इसकी संभावनाएँ बहुत कम थीं। फिर भी सतर्क रहना जरूरी था। चीफ़ प्रॉक्टर के कमरे के बाहर खड़े हम लोग विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि उनका चपरासी मुझे बुलाने आ गया। चीफ प्रॉक्टर ने ढूंढ़कर बुला लाने के लिए कहा होगा। वहीं खड़ा देखकर मुझे ढूँढ़ने की परेशानी से बच गया बेचारा।

मैं गया तो चीफ प्रॉक्टर ने कहा, ‘‘कल चार बजे मेडीकल कॉलेज के कुछ खास-खास लड़कों की मीटिंग मेरे कमरे में होगी। नए छात्रों की तरफ से तुम्हें उस मीटिग में आना है।''

‘‘मैं जान सकता हूँ सर, कि बातचीत किस विषय पर होगी?''

‘‘आजकल बातचीत जिस विषय पर हो रही है उसी पर बात करेंगे।'' चीफ प्रॉक्टर मुसकराए।

‘‘थैंक्यू सर।'' कहकर मैं कमरे से बाहर निकला। अपने साथियों को मैंने यह सूचना दी तो उन्हें आश्चर्य हुआ।

‘‘अभी तो चीफ प्रॉक्टर के कमरे में झड़प हुई है। मुश्किल से दस मिनट हुए होंगे। इतनी-सी देर में कल मीटिग बुलाने का फैसला भी हो गया।''

‘‘इसमें अजीब बात कौनसी हुई? चीफ प्रॉक्टर ने टेलीफोन पर प्रिसिंपल को रिपोर्ट दी होगी। प्रिसिंपल ने मीटिंग बुलाने के लिए कहा होगा।''

हम लोग इस विचार से सहमत थे। घटनाचक्र को चीफ़ प्रॉक्टर जिस गंभीरता से ले रहे थे, उससे लगता था कि किसी बड़़े अनिष्ट की आशंका उन्हें भी है। हो सकता है, वरिष्ठ छात्र कोई ऐसा कदम उठाएं जिससे नए छात्रों का बड़़ा नुकसान हो जाए। उनके सामने वरिष्ठ छात्र ने जिस तरह चुनौतीपूर्ण नज़रों से देखा था, उसकी आँखों से जिस तरह गुस्सा टपकने लगा था, उसे देखकर स्थिति की गंभीरता का अनुमान चीफ प्रॉक्टर को भी हो गया होगा। वे आज ही मीटिंग की जानकारी वरिष्ठ छात्रों को भी देंगे ताकि यदि किसी अप्रिय घटना की योजना बन रही हो तो उसे टाला जा सके। कल मीटिंग है। उससे पहले यदि कोई हंगामा होता है तो मीटिंग में उस हंगामे पर बात होगी, आरोप लगेंगे। अपना बचाव करना मुश्किल हो जाएगा। इस तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर चीफ प्रॉक्टर किसी प्रकार की अवांछित घटना को रोकने की दिशा में सचेष्ट हैं। कल की मीटिंग में वरिष्ठ छात्रों का रवैया कैसा होगा, इस सम्बंध में दावे से कुछ कहना तो संभव नहीं लगा हम लोगों को किंतु सभी एकमत थे कि वरिष्ठ छात्र रैगिंग का अधिकार छोड़ना नहीं चाहेंगे। रैगिंग का अधिकार छीनने के पक्षधर हम लोग भी कहाँ थे? नाम कुछ भी हो रैगिंग, परिचय, मेलमिलाप या शिष्टाचार-शिक्षा, स्वस्थ ढंग से पुराने छात्र नए छात्रों से मिलें, हम तो इतना ही चाहते थे। यातना और रैगिंग, अनैतिकता और रैगिंग का अधिकार और रैगिंग एक-दूसरे के पूरक नहीं होने चाहिए। नए छात्रों को पुराने छात्रों को देखकर भय नहीं, अपितु सुख की प्रतीति होनी चाहिए। रैगिंग लेने का अधिकार वरिष्ठ छात्रों के पास न रहे, यह हमने कभी नहीं चाहा है। रैगिंग के लबादे में यदि वरिष्ठ छात्र सोचते हैं कि वे जैसा चाहेंगे, नए छात्रों को करना पड़ेगा तो उनकी भूल है यह। अपने सोच को लेकर हम लोग स्पष्ट थे। इस सोच की पूर्ति के रास्ते में आने वाली हर एक रुकावट से लोहा लेने के लिए हम कृत संकल्प थे।

मीटिंग की सूचना के बाद, जैसी संभावना थी, सब कुछ सामान्य बना रहा। हम लोगों ने चीफ़ प्रॉक्टर से हुई बातचीत, वरिष्ठ छात्र का रवैया, उसका बातचीत छोड़कर बीच में चले जाना, कल की मीटिंग के बारे में विस्तृत जानकारी उसी दिन कक्षाएँ समाप्त होने के बाद कमरे में रोककर अपने सहपाठियों को दे दी। किसी को कल की मीटिंग के बारे में सुझाव देने हों तो बता दे, ताकि कल उन सुझावों को ध्यान में रखकर बातचीत की जा सके, यह घोषणा भी हमने की। संगठित शक्ति के कारण वरिष्ठ छात्रों की अत्याचारी प्रवृत्ति का सामना करने में जो सफलता हमें मिली थी, सभी छात्र-छात्राएं उससे उत्साहित थे। जिन लोगों ने विचार व्यक्त किए, उन्होंने एक ही बात पर ज़ोर दिया कि किसी भी स्थिति में हमें अवांछित समझौता नहीं करना है।

संभवतः मेडीकल कॉलेज के इतिहास में यह पहला अवसर था जब नए छात्रों ने पुराने छात्रों की मनमानियों का केवल विरोध ही नहीं किया अपितु मार-पीट भी की थी। संगठन के अभाव में, डर के कारण, मुसीबत से आँखें न मिलाने की मानव की आदि दुर्बलता के कारण नए छात्र रैगिंग के नाम पर सब कुछ बरदाश्त कर लेते थे। इस बार पुराने छात्रों के वर्चस्व को चुनौती दी गई थी, रैगिंग के नाम पर। नए छात्रों में हालाँकि सचमुच सक्रिय छात्रों की संख्या तीस-पैंतीस ही थी किंतु रैगिंग की मनमानी परिभाषा देकर इस अधिकार को बनाए रखने के कट्‌टर हिमायती पुराने छात्रों की संख्या इससे भी कम थी। यही कारण था कि दृढ निश्चय के साथ जब कुछ छात्रों ने विरोध करने का निर्णय लिया तो हालात ने ऐसी करवट ली जिसकी आशा वरिष्ठ छात्रों ने नहीं की होगी। पहली बार हुई सामूहिक मार-पीट की घटना अपने आप में अभूतपूर्व थी। नए और पुराने छात्रों के बीच कॉलेज के पोर्च में हुआ घमासान युद्ध यदि पुराने छात्रों के लिए अपेक्षित होता तो वे लोग सबको घेरकर ले जाने की बजाय कुछ छात्रों को चुनकर अपने साथ ले जाते। चुने हुए छात्रों को ले जाने वाली बात का हम लोग विरोध करते और विरोध के कारण मार-पीट हो जाती। मगर निश्चय ही पुराने छात्रों की रणनीति पहले ही तैयार होती। यदि उन्हें डर होता कि मार-पीट हो सकती है, तो हॉकी स्टिक और सरिए पोर्च के आसपास कहीं छिपाने के बाद ही पुराने छात्र हम लोगों को घेरकर ले जाने की बात सोचते। इसके बाद हुई मारपीट की घटनाओं में भी यह महत्त्वपूर्ण बात थी कि नए छात्र समूह बनाकर चलते थे, इसलिए बल और शक्ति में पुराने छात्र कमजोर साबित होते थे। घात लगाकर रैगिंग करने वाले छात्रों की पिटाई भी इसलिए संभव हो सकी थी क्योंकि पुराने छात्र अकेले-दुकेले घूमते रहते थे। हम लोगों के लिए उनमें से किसी एक को अकेले पकड़ लेना अधिक मुश्किल काम नहीं था। इस बार रैगिंग का मुद्‌दा पुराने छात्रों के गले में अटकी हड्‌डी की तरह कष्टप्रद हो गया था।

हम लोगों को विश्वास था कि कल की मीटिंग में इस मसले का समाधान हो जाएगा। पुराने छात्र इस विषय को अपने सम्मान की रक्षा करते हुए निपटाना चाहते हैं। नए छात्रों ने पुराने छात्रों के ऊपर हाथ उठाया, यह बात अब तक न देखी गई थी और न सुनी गई थी। पुराने छात्र किसी भी रूप में प्रतिकार नहीं कर पा रहे थे, यह बात उनके लिए मारपीट से भी अधिक तकलीफदेह थी। विवशता का वातावरण नए छात्रों के लिए बनता है हमेशा। पुराने छात्र बनाम नए छात्र की लड़ाई में पुराने छात्र विवश अनुभव करें, यह उनके अहम्‌ पर लगने वाली सबसे बड़ी चोट थी। इस चोट का सम्मानजनक तरीके से इलाज हो जाए, हम लोगों के विचार से पुराने छात्रों की यह पहली वरीयता होनी चाहिए। जहाँ तक हमारा सम्बंध है, रैगिंग के नाम पर परिचय की औपचारिकता जैसा कोई हल निकालकर यदि पुराने छात्रों के अहम्‌ की तुष्टि हो जाती है तो हम उसका स्वागत करेंगे। इस बार रैगिंग का पुराना तरीका फिर चलेगा, फिर चल सकेगा, यह संभावना तो यों भी अब लगभग निरस्त हो गई है। जितनी कटुता रैगिंग प्रकरण को लेकर फैली है उसे देखते हुए पुराने छात्र सामान्य होकर शारीरिक व मानसिक यातनाएँ देते हुए रैगिंग कर सकेंगे, यह असंभव है। नए छात्र भीरुता के साथ पुराने छात्रों के हर मान्य-अमान्य, नैतिक-अनैतिक, वांछित-अवांछित आदेश का रैगिंग के नाम पर पालन कर सकेंगे, यह भी असंभव है। दोनों वर्गों के छात्रों की मानसिकता इतने आरोहों-अवरोहों से गुजरी है कि आग्रह मुक्त रहकर परस्पर व्यवहार की आशा दोनों में से किसी भी पक्ष से की नहीं जा सकती।

दूसरे दिन मैं चीफ प्रॉक्टर से मिला। मैंने उनसे पूछा, ‘‘सर, मींटिग में कितने वरिष्ठ छात्रों को बुलाया गया है?'' उन्होंने बताया, ‘‘चार वरिष्ठ छात्र और तुम, कुल मिलाकर पाँच छात्र होंगे।''

‘‘सर, फिर एक निवेदन करना चाहूँगा।''

‘‘हाँ बताओ।''

चार वरिष्ठ छात्र जो बात कहेंगे उसका जवाब मैं अकेला दे नहीं सकूंगा। इसलिए इतने ही नए छात्र भी मीटिंग में हों तो अच्छा रहेगा।

‘‘अरे भाई, तुम्हें उन चार लोगों से न शास्त्रार्थ करना है और न लड़ाई करनी है। चिंता मत करो, मैं भी तुम्हारे साथ हूँ।'' चीफ प्रॉक्टर हंसे।

‘‘फिर भी ........।''

‘‘कुछ नहीं, तुम चार बजे मीटिंग में आ जाना। बहस और दलीलें समस्याओं को ज्यादा उलझाती हैं।''

मैंने वापस आकर बाहर खड़े अपने साथियों को सारी बात बताई, ‘‘कोई बात नहीं है। मीटिंग के समय सभी नए छात्र यहाँ खड़़े रहेंगे। करने दो उन्हें जो कुछ वे करना चाहते हैं।'' हम सबने एक सम्मिलित ठहाका लगाया।

पौने चार बजे हमारी कक्षा के सभी छात्र और छात्राएँ चीफ प्रॉक्टर के कमरे के दरवाजे के दोनों तरफ पंक्तियाँ बनाकर खड़े हो गए। एक सौ दस छात्र-छात्राओं की पचास-पचपन की एक-एक पंक्ति किसी भी दर्शक के मस्तिष्क पर प्रभाव डालने के लिए पर्याप्त थी। मैं भी पंक्ति में अपने सहपाठियों के साथ खड़़ा था। चार बजे से कुछ पहले एक-एक करके वरिष्ठ छात्रों का आना शुरू हुआ। दोनों ओर बनी पंक्तियों में खड़े छात्र-छात्राएँ उन्हें देखकर सिर झुका लेते थे। इस तरह हम लोग स्पष्ट करना चाहते थे कि हमारा उद्‌देश्य टकराव या झगड़़ा नहीं है। वरिष्ठ छात्रों का हम अब भी सम्मान करते हैं। ठीक चार बजे मैंने चीफ प्रॉक्टर के कमरे का दरवाजा खोला, ‘‘मे आइ कम इन, सर?''

‘‘आओ, भाई आओ! तुम्हारा ही इंतजार था।''

मैं आगे बढकर खाली पड़ी कुरसी पर बैठ गया। पूर्व निर्धारित नीति के अनुसार मीटिंग की बागडोर अपने हाथ में लेने की दृष्टि से मैंने पहल की, ‘‘सर, इजाजत दें तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ।''

चीफ़ प्रॉक्टर थोड़़ा झिझके, ‘‘क्या विचार है, पहले आप लोग अपनी बात कहना चाहेंगे या इसकी बातें सुनना चाहेंगे?'' उन्होंने वरिष्ठ छात्रों पर दृष्टि घुमाई।

‘‘ठीक है, पहले इसी को बोलने दीजिए।''

मैं खड़़ा होने लगा तो चीफ प्रॉक्टर ने मुझे खड़े होने से रोका। मैं बैठ गया। सरसरी निगाह डालकर मैंने सबके चेहरों को देखा। फिर धीरे-धीरे आत्मविश्वास पूर्वक मैंने कहना शुरू किया, ‘‘आप सब वरिष्ठ छात्र हम लोगों के लिए आदरणीय हैं। इसका प्रमाण अभी बाहर से आते समय आपको मिल गया है। रैगिंग के मामले में भी हम लोगों की मंशा अपने वरिष्ठ छात्रों के रैगिंग करने के अधिकार को चुनौती देने की नहीं रही है। रैगिंग की मूल अपेक्षा के अनुरूप हमारी यह धारणा रही है कि रैगिंग के माध्यम से परिचय, शिष्टाचार-शिक्षा, तौर-तरीकों की जानकारी और भावी डॉक्टर से समाज की अपेक्षाओं की चर्चा जैसे विषयों पर नए छात्रों से बातचीत होनी चाहिए। यदि आप लोग नए छात्रों की इस धारणा से सहमत हों तो में एक प्रस्ताव रखना चाहूँगा।'' खामोश रहकर मैंने सबके चेहरों की ओर देखा। कोई कुछ नहीं बोला तो मैंने कहा, ‘‘नए छात्र वरिष्ठ छात्रों को एक पार्टी देंगे। उस पार्टी में वरिष्ठ छात्र जो कुछ हमें बताना चाहते हैं, जो कुछ हमें सिखाना चाहते हैं, बताएँ और सिखाएं। वैसे तो पिछले तीन महीनों से जो अप्रिय घटनाएँ घटी हैं उनके कारण वरिष्ठ छात्र नए छात्रों को पहचानने लगे हैं, फिर भी आप लोग चाहें तो परिचय की औपचारिकता उस पार्टी के दौरान पूरी की जा सकती है।''

‘‘तुम चाहते हो, वरिष्ठ छात्र इस बात को भूल जाएँ कि नए छात्रों ने उनके साथ मार-पीट की है।''

‘‘जी हां, मैं यह चाहता हूँ और इसलिए चाहता हूँ क्योंकि वरिष्ठ छात्रों ने नए छात्रों को ऐसा करने के लिए मजबूर किया था।''

‘‘मेडीकल कॉलेज में रैगिंग की एक स्थापित परंपरा है। आप लोगों के साथ नया तो कुछ नहीं हुआ।'' एक और वरिष्ठ छात्र ने कहा।

‘‘रैगिंग की स्थापित परंपरा चलती रहे, यह हम भी चाहते हैं, किंतु स्वस्थ तरीके से। रैगिंग का अधिकार मनमानी करने का अधिकार तो नहीं हो सकता।''

‘‘रैगिंग होगी तो उसके साथ थोड़ी-बहुत हँसी-मजाक तो चलेगी ही।''

‘‘उसके खिलाफ हम लोग भी कहां हैं?'' मैं मुसकराया।

चीफ प्रॉक्टर ने हस्तक्षेप किया, ‘‘देखिए, हम लोग समस्या को सुलझाने के लिए बैठे हैं। जो हो गया, उसे याद रखने से अब कोई फायदा नहीं है। नए छात्र रैगिंग के खिलाफ नहीं हैं। वे चाहते हैं कि रैगिंग की अपनी एक मर्यादा होनी चाहिए। वैसे भी इतना कुछ हो जाने के बाद आप लोग रैगिंग करने का मजा तो ले नहीं सकते। इसलिए बेहतर होगा कि नए छात्रों का प्रस्ताव आप लोग मान लें।''

‘‘जो वारदातें इन लोगों ने की हैं, उनके लिए इन्हें क्षमा तो नहीं किया जा सकता, फिर भी इस मामले को खत्म करने के लिए ज़रूरी है कि नए छात्र बिना शर्त माफी माँगें।''

चीफ प्रॉक्टर ने मेरी ओर देखा, ‘‘मैं बाहर जाकर अपने साथियों से बात करना चाहता हूँ।''

बाहर निकला तो सब लड़के-लड़कियों ने मुझे घेर लिया। मैं उन्हें कमरे से थोड़़ा दूर ले आया, ताकि आवाजें अंदर न जा सकें। पहले मैंने अंदर हुआ वार्तालाप सबके सामने रखा, फिर बिना शर्त माफी वाला प्रश्न प्रतिक्रियाओं के लिए प्रस्तुत किया। सब लड़के-लड़कियों ने एक साथ अपनी प्रतिक्रियाएँ देनी शुरू कर दीं। किसी की बात सुनना-समझना इस तरह संभव नहीं था। मैंने जोर से कहा, ‘‘बिना शर्त माफी माँगने और न माँगने के पक्ष-विपक्ष में बहुत-सी दलीलें दी जा सकती हैं। माफी माँगकर हम लोग इस झगड़े को समाप्त करेंगे। वरिष्ठ छात्र केवल माफी माँगने-भर से मार को भूल सकते हैं, तो हमें तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। माफी न माँगकर हम लोग भी साबित करेंगे कि हम मुद्‌दों की नहीं, नाक की लड़़ाई लड़ रहे हैं। मैं अपने विचार थोपना नहीं चाहता हूँ। इसलिए जो माफी माँगने के पक्ष में हैं, वे हाथ ऊँचे करें।''

गिनती हुई तो पता लगा कि बानवे छात्रों ने माफी माँगने के प्रस्ताव के समर्थन में मत व्यक्त किया था।

मैं चीफ प्रॉक्टर के कमरे में लौट आया। सब लोग उत्सुकता पूर्वक मेरी ओर देख रहे थे। ‘‘मेरे साथियों का कहना है कि जो अप्रिय घटनाएँ हुई हैं, वे हमारे कारण नहीं हुई हैं। फिर भी हम लोग वरिष्ठ छात्रों का सम्मान करते हैं, यह साबित करने के लिए माफी माँगने की बात मंजूर करते हैं।''

मेरी बात सुनकर चीफ़ प्रॉक्टर और वरिष्ठ छात्रों के चेहरों पर व्याप्त तनाव झटके से पिघल गया। चीफ प्रॉक्टर ने कहा, ‘‘हर साल अगस्त के अंत में वरिष्ठ छात्र नए आने वाले छात्रों को एक पार्टी देते हैं। सचमुच उस पार्टी के बाद ही रैगिंग का सिलसिला समाप्त माना जाता है। जब नए छात्र बिना शर्त माफी माँगने को तैयार हैं तो पुराने छात्रों को भी सदाशयता का सबूत देते हुए अपनी तरफ से पार्टी आयोजित करनी चाहिए। वैसे भी यह अच्छी लगने वाली बात नहीं है कि नए छात्र पुराने छात्रों को पार्टी दें।''

‘‘पार्टी देने में हमें कोई एतराज नहीं है, मगर यह इन लोगों के ऊपर एक तरह का जुर्माना है जो गलतियों के कारण इन्हें देना होगा।''

‘‘आई डिफर सर, हम लोग माफी माँगने को तैयार हैं इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि जो कुछ हुआ वह हमारी गलतियों के कारण हुआ। यह सब करने के लिए हमें मजबूर किया गया, इसलिए हमने किया। लगता है, अब भी वरिष्ठ छात्र हमारी भावनाओं को समझ नहीं पा रहे हैं।''

‘‘इन बातों को छोड़ो यार, पार्टी हम देंगे। अब तो ठीक है?''

‘‘पार्टी देने के लिए तो हम लोग भी तैयार हैं, बॉस।'' मैं हंसा।

‘‘नहीं, नहीं, पार्टी तो हमारी तरफ से ही होगी।'' दूसरे वरिष्ठ छात्र ने कहा।

मेडीकल कॉलेज हो, बाबा का ठेला हो या शरणार्थी शिविर हो, समस्याएँ हर काम में, हर जगह होती हैं। बस, उन समस्याओं को देखने के दृष्टिकोण की बात है। बाबा रिश्वत देकर ठेला फुटपाथ पर खड़़ा करने का सिलसिला बनाए रखते हैं। उनकी जगह कोई और होता तो इस समस्या को दूसरी तरह देखता। हो सकता है, वह जगह बदल देता। हो सकता है, वह जोर-जबरदस्ती करता। कुछ-न-कुछ तो वह भी करता ही। रैगिंग मेडीकल कॉलेज में शुरू से होती आई है। हर साल वरिष्ठ छात्र रैगिंग करते हैं और कनिष्ठ छात्र रैगिंग कराते हैं। रैगिंग में यातनाओं का सम्मिश्रण, अनैतिकता की मिलावट, मनमानेपन की स्वच्छंदता, चरित्र की गिरावट इस साल पहली बार हुई हो, ऐसा नहीं है। साल-दर-साल रैगिंग के नाम पर विभिन्न प्रकार के उत्पीड़़न होते हैं। नए छात्र सोचते हैं, कुछ दिनों की बात है। जिनकी रैगिंग थोड़ी ज़्यादा, थोड़ी सख्त और अमानवीय हो जाती है वे सोचते हैं कि कोई बात नहीं, अगले साल कसर निकाल लेंगे। यह कोई नहीं सोचता कि गलत को सही में बदलना चाहिए। हम लोगों ने इस बार विरोध किया, रैगिंग की वास्तविक अपेक्षाओं को रेखांकित किया तो तूफान खड़़ा हो गया। जिन वरिष्ठ छात्रों के खिलाफ यह मुहिम चली, अगले साल वे तो रैगिंग करेंगे नहीं। हम लोगों ने रैगिंग के दूषित स्वरुप का निरोध किया किंतु अगले साल जब मेरे सहपाठी वरिष्ठ छात्र बन जाएँगे, तब क्या नए छात्रों की रैगिंग करते समय उन प्रतिमानों को याद रखेंगे जिनके लिए वे स्वयं लड़े हैं?

यदि नव स्फूर्त विचार को चिरस्थायी बनाने के लिए एक समिति बनाई जाए तो यह कितनी प्रभावशाली हो सकती है? आज जो पीड़़ा और संताप हमें भोगना पड़़ा है, वही पीड़ा और संताप आगामी वर्ष में आने वाले छात्र भी भोगेंगे। जैसा हमेशा होता रहा था, शायद वैसा ही फिर से हो जाएगा। नए छात्रों को मानसिक और शारीरिक कष्ट होगा, किंतु साहस के अभाव में, नैतिक बल और जुझारू शक्ति की कमी के कारण वे लोग हर एक अत्याचार को शिरोधार्य कर लेंगे। हमसे वरिष्ठ छात्र, जिनको इस वर्ष विरोध का सामना करना पड़़ा है, मजाक उड़़ाएँगे। रैगिंग की वीभत्सताएँ क्षणिक एक वर्ष के अंतराल के बाद फिर हावी हो जाएंगी। समिति, रैगिंग के जिस स्वरूप के लिए हम लड़े हैं, उसे आने वाले वर्षों में भी दृढता के साथ बनाए रख सकेगी? आगामी वर्ष में हो सकता है समिति रैगिंग का वांछित और अपेक्षित स्वरूप बनाए रखने में सफल हो जाए, किंतु उससे अगले वर्ष, उससे भी अगले वर्ष और जब हम मेडीकल कॉलेज से निकल जाएंगे, तब? तब क्या केवल किस्से के रूप में सुनाने के लिए रह जाएँगी इस वर्ष की घटनाएँ?

यदि हमारी लड़ाई की अंतिम परिणति यही है तो हमने भी अपनी शक्ति क्या व्यर्थ ही नष्ट नहीं की? मीटिंगें कीं। योजनाएँ बनाई। अतिरिक्त समय लगाकर योजनाओं को कार्यान्वित किया। लड़ाई-झगड़े, मार-पीट की। अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए यहां-वहां धक्के खाते रहे। तनाव झेला। किसलिए? केवल एक वर्ष के लिए? दूध में आए उफान की तरह केवलं तब तक के लिए, जब तक दूध आँच पर रखा था? जब हमारे नएपन को आँच से उतारा जाएगा तो हम पूर्ववत्‌ हो जाएँगे? दूध गरम रहेगा तो कुछ देर के लिए, फिर ठंडा हो जाएगा। इस साल लड़़े गए युद्ध की थोड़ी गरमाहट बची भी तो एक साल के बाद पूरी तरह ठंडेपन में बदल जाएगी। अस्थायी उपलब्धियाँ ही यदि इस युद्ध की नियति हैंं तो इतना झंझट करने से क्या लाभ हुआ?

कहीं हम भी अहम्‌ की लड़ाई तो नहीं लड़ रहे थे, वरिष्ठ छात्रों की तरह? अपनी वरिष्ठता, परंपरा से चले आ रहे अधिकार, संगठित शक्ति, नए छात्रों की मानसिकता और समर्पण की तैयारी उन्हें रैगिंग करने के लिए प्रोत्साहित करती है। रैगिंग करके उन्हें एक क्रूर संतोष मिलता है, उनके अंदर बैठा पीड़क गौरवान्वित अनुभव करता है। रैगिंग को अधिकार मानने की उनकी अवधारणा को चुनौती देनेवाला व्यक्ति उन्हें अपना दुश्मन महसूस होता है। यदि वह चुनौती देने वाला व्यक्ति नया छात्र है तो उनका आहत अहम्‌ उग्र और हिंसक हो उठता है। वरिष्ठ छात्र रैगिंग को अपना अधिकार मनवाने की जिद अपने आहत अहम्‌ पर मरहम लगाने के लिए कर रहे थे। नए छात्रों को जैसे ही लगा कि वे वरिष्ठ छात्रों की किसी प्रवृत्ति-विशेष का विरोध करने की स्थिति में हैं तो उन्होंने मोर्चा सँभाल लिया। रैगिंग तो एक बहाना था, वरना कोई भी ऐसा काम जिसे अनिच्छापूर्वक करना पड़ रहा हो, व्यक्ति तब तक ही करता है जब तक किसी-न-किसी प्रकार की विवशता उसके सामने होती है। प्रतिकार का प्रभावी उपाय नजर आते ही वह उस काम से मुक्ति पाने के प्रयत्न में जुट जाता है। एक बार विरोध और प्रतिकार प्रारंभ हुआ तो फिर व्यक्ति का अहम्‌ उसके साथ जुड़ जाता है। घनीभूत प्रयत्न अहम्‌ को भी घनीभूत करते हैं। नाम भले ही कोई दूसरा दे दें लेकिन सम्मान, इज्जत, नाक और आदर्श के आवरण में लड़ाई अहम्‌ की लड़ी जा रही होती है।

जब तक विकल्प नहीं था, रैगिंग का प्रबल प्रतिकार नहीं हुआ। मेरी रैगिंग के साथ जुड़ी घटना, घटना के बाद रैगिंग का सामना करने के उपाय, कार्य विधि और योजना स्पष्ट होते ही नए छात्रों का स्वयं को विशिष्ट स्थापित करने वाला भाव जाग गया। स्वयं को विशिष्ट समझने वाला व्यक्ति मूलतः अहम्‌ वादी होता है। मामला जैस-जैसे बढता गया, लड़ाई में शक्ति के अनुपात में प्रत्येक नए छात्र का अहम्‌ जुड़ता गया। हम चाहे कहते रहे हाें कि सिद्धान्त की लड़ाई लड़ रहे हैं, चाहे दावा करते रहते हों कि रैगिंग से सम्बद्‌ध वास्तविक अपेक्षाओं को पुर्नस्थापित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं, मगर हम अहम्‌ की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। बाकी सब खूबसूरत संवाद थे, जिनकी हकीकत से हम स्वयं अपरिचित थे।

अगले साल जब मेरे साथी रैगिंग करेंगे तो इस साल के किस्से उनके आतंक की धाक को बहुगुणित करेंगे। रैगिंग करते समय उनमें से कुछ ऐसी गर्वोक्ति भी कर सकते हैं कि पिछले साल जिन लोगों ने अपनी रैगिंग नहीं करने दी, उनसे पाला पड़़ा है तुम्हारा। उत्पीड़़न, प्रताड़़ना, अनैतिकता, छीछालेदर, शारीरिक और मानसिक त्रास में अच्छी-खासी वृद्धि करने का अधिकार नैसर्गिक रूप से मिल जाएगा उन्हें। कुछ और किया जाए चाहे न किया जाए, भविष्य में रैगिंग चाहे पुराने ढर्रे और पुरानी लीक पर आ जाए, किंतु अगले साल मेरे सहपाठी इस वर्ष के घटनाक्रम का दुरुपयोग न कर सकें, यह सुनिश्चित करना ही होगा।

जिन दिनों रैगिंग के दौरान चोटग्रस्त होने के कारण मैं बिस्तर पर पड़़ा था, काका भोजामल और काकी बारह दिन की अवधि में चार बार हाल-चाल पूछने आए थे। काका भोजामल हों या काकी, बाबा हो या अम्मा, चिंतातुर होकर यही कहते थे कि तुम्हें इन झंझटों में पड़ने की वया ज़रूरत थी? जब मालूम है कि मेडीकल कॉलेज में रैगिंग ज़रूर की जाती है तो लड़ाई-झगड़ा क्यों किया तुमने? छोटी सी बात अगर मान लेने से काम चल जाता है तो लड़कों को नाराज करने से क्या फायदा? उन लोगों के कहने से गालियाँ दे देते तो जुबान न घिसती और न गंदी होती। फिर तकरार करके अपनी यह हालत बनाने की नासमझी तुमने क्यों की?

मैंने उनमें से किसी को कुछ नहीं कहा कभी। मन-ही-मन मैं कहता रहा कि बाबा, आपने चाहे अपना केसरिया चोला बदलकर काला छींटदार चोला पहन लिया हो, मगर मैं ऐसा नहीं कर पाऊँगा। बाबा, आपने आदर्श पढकर फिर उनका अभ्यास किया था, मुझे आदर्श संस्कारों के रूप में मिले हैं। मैं चाहूँ तो भी उनसे पूरी तरह मुक्त होना मेरे लिए संभव नहीं है। सीखने और संस्कारित होने में जो अंतर है, आप और मैं उसके जीते-जागते प्रमाण हैं, बाबा। मैंने बस इतना किया कि बाद में चले घटनाचक्र की अम्मा और बाबा से कोई चर्चा नहीं की। वे पूछते तो या तो टालमटोल कर जाता था या कह देता था कि सब सामान्य ढंग से चल रहा है।

मीनू बिना नागा हर रोज सुबह मेरे पास आती थी। मुझे नहीं मालूम कि काकी से उसने क्या कहा या काकी को वह क्या कहती थी, किंतु नियमपूर्वक आने का उसका क्रम कभी नहीं टूटा। मेरे रिश्तेदारों या रिश्तेदारों जैसे या पारिवारिक कारणों से जुड़े लोगों में से मीनू अकेली थी जिसने स्पष्ट शब्दों में उसका समर्थन किया, जो मैंने किया था। पहले दिन तो मैंने उसके आगमन को अधिक महत्त्व दिया ही नहीं था। हादसे के बारे में ज्यादा कुछ उसे बताया भी नहीं। दूसरे दिन सुबह बिना उलाहना दिए जब मीनू ने रैगिंग के दौरान मेरे विरोध का समर्थन किया तो जाहिर था कि अम्मा या काकी से उसने सारी विस्तृत जानकारी ले ली है। उन बारह दिनों में सांसारिक, सामाजिक व दैहिक संबंधों से ऊपर उठकर मीनू के साथ मेरे समझ और मन के स्तर पर संबंध विकसित हुए। बहुत अपेक्षाएँ नहीं, बहुत बातें नहीं, बहुत प्रदर्शन नहीं, बहुत उपदेश नहीं, खामोशी से तकलीफ बाँटने और खामोशी से ताकत देने का काम मीनू करती थी।

मैं उसके आने का इंतजार करता था। दिनभर मेडीकल कॉलेज के लड़़के-लड़़कियाँ मुझसे मिलने आते थे। उनसे भावी योजनाओं के बारे में बात होती थी। मीनू को विस्तार से सारी बातें बताता था। वह चुपचाप सुनती रहती थी। राय बहुत कम देती थी, किंतु उसके हाव-भाव से यह बात स्पष्ट रूप से झलकती थी कि वह हमारी प्रतिकार के लिए बनाई गई योजनाओं से जुड़ी भावनाओं का पूरी तरह समर्थन करती है। बाद में जो सक्रिय मुहिम हम लोगों ने चलाई, सुविधाजनक स्थितियों में मुलाकात होने पर मैं मीनू को उसके बारे में बताता रहा। मेरी सुरक्षा की चिंता के बावजूद उसने कभी नहीं कहा कि ऐसा मत करो, इसमें बहुत खतरा है।

मुझे तो बाबा से संस्कार के रूप में गलत का विरोध करने के गुण-सूत्र मिले थे। सोचता हूँ कि मीनू को यह समझ कहां से मिली? काका भोजामल और उनके दूर-दूर के रिश्तेदारों ने भी कभी मूल्यों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया होगा। अर्थोपार्जन, सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक सुरक्षा जिनकी वरीयताएँ रही हैं, उनके सान्निध्य में रहनेवाली मीनू को इस तरह से सोचना किसने सिखाया? मुझे बहुत सोचने के बाद भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है।

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