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अपनी अपनी मरीचिका - 2

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(2)

30 दिसंबर, 1948

सिंध से खाली हाथ हम क्या इसीलिए आए थे? बाबा और उनके साथियों ने कष्ट क्या इसीलिए उठाए थे? सत्याग्रह, पर्चेबाजी, पिकेटिंग, आंदोलन और लाठी-गोली के खतरे उठाकर भी देश को आजाद कराने की तड़़प क्या इसीलिए थी उनमें? क्या इसीलिए अपने इकलौते, मासूम और नादान बेटे को छपा हुआ साहित्य लेकर इधर से उधर दौड़़ाया करते थे बाबा? काम-धंधा छोड़कर, सर पर कफन बाँधकर घूमने का कठोर व्रत क्या इसीलिए लिया था उन्होंने? कभी छोटे और कभी बड़़े समूहों में भाषण देकर जागृति पैदा करने का जुझारूपन क्या इसीलिए अख्तियार किया था उन्होंने? उल्हास नदी के किनारे खाली पड़़े फौजी बैरकों में अनिश्चय के कुहासे के बीच अव्यवस्था और उठाईगीरी देखकर विचार आता है, अच्छा होता सिंध छोड़ने की बजाय हम वहीं मर-खप जाते। यहां मानवीय संवेदनाओं की गरमाहट ढूंढे भी नहीं मिलती। मिलती हैं भिखारी और शरणार्थी की वक्रोक्तियांँ, जवान लड़कियों को खा जाने वाले ढंग से घूरती आँखें, कमीशन और घूसखोरी की धधकती ज्वालाएं, लूटकर अपना घर भरने की अफरा-तफरी में लपलपाती जीभें, नेताओं की नसीहतें, छुटभइयों की ज्यादतियां और भविष्य पर मंडराती गिद्धों की क्षुधातुर चोंचें, जो नोच-नोचकर खा जाने की ताक में पेड़ों पर प्रतीक्षा कर रही हैं।

मैट्रिक में आते ही बाबा ने कहा था, बेटा, अब डायरी लिखना शुरू करो।

मुझे नहीं मालूम था तब तक कि डायरी वया होती है? उन्होंने विस्तार से समझाया। साथ में कहा, ”डायरी का मूलमंत्र है, गोपनीयता। डायरी में जो कुछ तुम लिखोगे उसे किसी भी सूरत में दूसरों के सामने नहीं आना चाहिए। हम लोग आजादी के लिए लड़़ रहे हैं। इसलिए तुम्हारी डायरी अगर छापे के दौरान पकड़ी जाती है तो तुम्हारा ही नहीं, उनका भी नुकसान कर सकती है जो देश के लिए लड़ रहे हैं। सीधे-सादे लगने वाले संकेत वाक्यों में अपनी गूढ बातें लिखने की कला विकसित करो। मन की बातें, जो सिर्फ तुम्हारी अपनी हैं, उन्हें भी इस तरह लिखो जिससे तुम्हारी डायरी को तुम्हारे ही खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल न किया जा सके।

शुरू में तीन-चार दिन निरंतर डायरी मैंने बाबा को दिखाई। जब उत्तीर्ण घोषित किया तो भविष्य में डायरी उन्हें भी न दिखाने की बात उन्होंने बहुत सख़्ती के साथ कही थी।

मैं एफ.ए. फाइनल में था जब विभाजन हुआ। भारत को आजादी का अमृत और सिंध को विभाजन का विष एक साथ मिला। कराची से मैं अपने गाँव आ गया था। पाकिस्तान ने चौदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को अपनी आजादी का चाँद-तारे वाला परचम फहराया तो बाबा ने मुझे नींद में से जगाया। मैं चौककर उठा। उन्होंने मुँह धोकर पानी पीकर आने के लिए कहा। वापस लौटा। वे चिंतित थे, बेटा, ऐसा लगता है, हमें यह जगह छोड़़नी पड़ेगी। मैं हालात से भली-भाँति परिचित था, ठीक है बाबा, छोड़ देंगे। इसमें इतना चिंतित होने की क्या बात है?

चिंतित होने की बात तो है, बेटा। मारकाट, लूट-पाट की वारदातें शुरू हो गई हैं। यहां से खाली हाथ निकलकर भी हम सही-सलामत हिंदुस्तान पहुँच जाएँ, इस बात का कोई भरोसा नहीं है।

हमारे पड़ोसी और हमारे गाँव के सब लोग बहुत अच्छे हैं। हिंदुस्तान जाने में हमें कोई तकलीफ़ नहीं होगी।

बाबा मुसकराए, ऐसा कर, तू इसी वक्त अपनी डायरी ले आ। कराची में छोड़कर तो नहीं आया है न?

नहीं बाबा, साथ लाया हूँ।

तो फिर, ले आ।

मैं डायरी लाया तो उन्होंने उसे अपनी डायरी के साथ रखकर लोहे के तसले में राख डाली। डायरियों को तसले की राख के ऊपर रखकर उन्होंने मिट्‌टी का तेल उँडे़ला और दियासलाई दिखा दी। देखते-देखते डायरियाँ जलकर राख हो गईं और तसले में पड़ी राख का हिस्सा बन गईं, ‘‘हम हिंदुस्तान चलेंगे इसलिए इन डायरियों को जलाने की जरूरत सचमुच थी क्या?

हां। जिदगी में हमेशा याद रखना कि सुई से मोह रखना जायज है मगर डायरी से इतना मोह भी नाजायज है।

मुझे अनुमान नहीं था कि हिंदुस्तान आकर डायरी का जो पहला पन्ना मैं लिखूँगा वह इतनी कड़वी सच्चाइयों से भरा होगा। अस्तित्व के लिए संघर्ष। छोटी-छोटी सुविधाओं और ज़रूरतों के लिए टांग-खिंचाई। विभाजन की विभीषिका का मारा हर परिवार दूसरे परिवार की सहायता करने के स्थान पर अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए दूसरों का हिस्सा छीनने के प्रयास में जुटा है। बाबा समझदार भी हैं और स्वाभिमानी भी। जेब में पच्चीस रुपए लेकर अपने मामा के साथ निकले हैं। दो दिन इस शहर में और चार दिन उस शहर में। कैंप कमांडेट के पते से पत्र लिखते हैं। मैं जाकर ले आता हूँ। शरणार्थी शिविर में अम्मा मेरे साथ है। बाबा ने तो कुल दो दिन भोजन करके शिविर को अलविदा कह दी थी। मैंने पूछा था, बाबा, अपरिचित देश, अपरिचित लोग, केवल पच्चीस रुपए में कौन-सा धंधा करेंगे आप?

चिंता मत कर बेटे, सिंध से हमारे लोग हर शहर में आए हैं। किसी-न-किसी के घर में, नहीं तो सराय, धर्मशाला, प्लेटफॉर्म, कहीं-न-कहीं जगह मिल जाएगी। शरणार्थियों को रेलगाड़ियों में टिकट लेने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे मामा और मैं दो, बारह के बराबर हैं। चिट्‌ठी लिखता रहूँगा। कमाई का. सिलसिला बैठते ही खबर दूँगा। अपनी अम्मा को लेकर आ जाना।

उनकी हिम्मत की दाद देता हूँ। चाहे सरकार ही क्यों न दे, किसी और के टुकड़ों पर न पलने का साहस रखने वाले मेरे बाबा एक तरफ हैं और शरणार्थी शिविर की न्यूनतम तुल्य सुविधाओं को अधिकार मानकर आक्रोश व्यक्त करने, व्यवस्था को कोसने वाला मैं दूसरी तरफ हूँ। जिस रात मुझे जगाकर बाबा ने मेरी और अपनी डायरी जलाई थी, उस रात भी वे चिंतित जरूर थे, मगर हताशाभाव उनमें कहीं नहीं था। खामोशी से वे अपनी योजना कार्यान्वित करते चले गए थे। मैं सब कुछ समझ रहा था। किंतु अपनी जुबान से उस रात के बाद उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा। गाँव में रहने वाले सब रिश्तेदारों को उन्होंने साथ चलने के लिए तैयार किया। लड़की की शादी में शरीक होने के लिए कराची जाना है, यह बात बाकायदा फैलाई जाती रही। बाल्टी में दीपक, सुरमेदानी, कंघी और तेल रखकर उसे चलनी से ढककर, लड़की के विवाह में शामिल होने की दृष्टि से रस्म पूर्ति कर उन्होंने दिखावा किया। इस बाल्टी को लेकर रिश्तेदारों के साथ हम लोग जब रेलवे स्टेशन पहुँचे तो हाथों में लट्‌ठ थामे, पग्गड़़ बाँधे पड़ोसी मुसलमान और उसके तीन जवान लड़़के हमारे साथ थे। गाड़ी खुली तो बाबा ने भरे-पूरे मकान की चाबियों का गुच्छा रहीमबख्श को दिया और मुसकराकर कहा, ”रहीम, ध्यान रखना। रहीमबख्श के साथ उसके तीन लड़के भी मुसकराए। अलबत्ता उनकी मुसकराहट बाबा की मुसकराहट की तुलना में ज्यादा चौड़ी थी। चाबियों का गुच्छा थामते हुए रहीमबख्श ने रस्म निभाई, खत लिखना। इधर की चिंता मत करना।

गाड़ी के साथ चलते हुए रहीमबख्श के तीनों लड़कों ने बाबा के पाँव छुए तो बाबा ने मुँह फेर लिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि बड़ी-से-बड़ी विपत्ति में विचलित न होने वाले बाबा की आँखों में पानी था।

गाँव से सुरक्षित, कर्फ्यूग्रस्त गाँवों-कस्बों-शहरों में से होते हुए हम कराची पहुँचे। हर ओर दहशत थी। आतंक था। असुरक्षा थी। सामान के नाम पर सिर्फ जरूरत की चीजें थीं। पहनने के लिए लोहे की संदूकों में कपड़़े थे। एक बोरी में रसोई का सामान और बरतन थे। रस्सियों से बँधे बिस्तर थे। वजन कुछ नहीं था, फिर भी बहुत था। रिश्तेदारों के साथ काफिला धर्मशाला पहुँचा तो वहाँ ठहरने को जगह नहीं थी। शाम के साथ शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था। आग की लपटें दूर-दूर तक नजर आती थीं। जगह हो चाहे न हो, उसी धर्मशाला में रुकने के अलावा कोई चारा नहीं था।

ज्यादा पैसा था नहीं, इसलिए हवाई जहाज से यात्रा करना संभव नहीं था। स्टीमर कराची से बंबई जाता था। तीन दिन बाद जाकर उसमें टिकट मिली। थर्ड क्लास में। इतने समय में स्टीमर यात्रा की अनिवार्य जरूरतों की जानकारी मिल गई थी हमारा तो कोई सामान नहीं रुका, मगर स्टीमर में जाने से पहले हुई सामान की जाँच में लोगों के संदूक, गहने, रुपए, जो मन में आया रखवा लिए गए। स्टीमर के तलघर में दरी बिछाने जितनी जगह घेरने के लिए भाग-दौड़ मची थी। एक परिवार के लिए छोटी सी जगह घेरकर सबने यात्रा शुरू की। व्यवस्थित होकर बैठ भी नहीं पाए थे कि कुछ लोगों ने उल्टियाँ करनी शुरू कर दीं। वातावरण दुगर्ंध से भर गया। पानी लाकर सफाई की जाती रही।

दो दिन और दो रात स्टीमर का सफर करके हम लोग बंबई पहुँचे। पूरे काफिले को अधिकारी शरणार्थी शिविर में ले आए। हर एक के पास नीचे टाँगें सीधी करने जितनी और ऊपर सिर छिपाने जितनी जगह। पूरी बेपर्दगी। नए शरणार्थियों को दो दिन लंगर से खाने की सुविधा और फिर राशनकार्ड बनाकर निशुल्क भोजन बनाने की सामग्री। यहाँ तक बाबा ने अपने काफिले को सरपरस्ती दी। इसके बाद उन्होंने सबको अपना-अपना रास्ता चुनने और रोजगार ढ़ूढ़ने की आजादी दे दी। स्वयं शेष बची पूँजी अर्थात्‌ पच्चीस रुपए लेकर वे निकल पड़े थे। अन्य रिश्तेदारों ने भी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार अर्थोंपार्जन के प्रयत्न शुरू कर दिए। पेट भरने के लिए जरूरी राशन तो निशुल्क शिविर से मिल जाता था। मगर इसके अलावा भी कई काम होते थे जिनके लिए पैसों की जरूरत पड़ती थी। तेल, साबुन, दूध, चाय, दवा-दारू, अंजन-दातुन, चरी-मटका रोजाना काम में आने-वाली अनेक चीजें थीं जिनके लिए रुपया जरूरी था। सब लोग हमारी तरह लाचार और मजबूर थे। किसी से आर्थिक सहायता की आशा की नहीं जा सकती थी। बाबा खुद कैसे काम चलाते थे, नहीं जानते थे। वे कमाएँगे और हमें बुलाएँगे यह तो निश्चित था। किंतु वह शुभ दिन कब आएगा, निश्चय पूर्वक कहना संभव नहीं था। शिविर में रहने वाले परिवारों के 'छोटे-छोटे 'बच्चे भी सिंध में अपनी हैसियत भूलकर रोजगार में लग गए थे। गोलियाँ, पापड़, केले, संतरे, चीकू, रूमाल, बटन, सूई, कंघा या इसी तरह की सस्ती, कम लागत वाली चीजें खरीदकर बच्चे गाड़ियों में बेचने लगे। बड़े दुकान खोलकर, नौकरियां करके, छोटे-मोटे कारखाने खोलकर, गृह-उद्योग लगाकर पैसे की स्थायी आमदनी के प्रयासों में जुट गए।

मैंने भी दो ब्रुश और पालिश की दो डिब्बियाँ खरीदकर कल्याण स्टेशन पर घूम घूमकर जूतों की पालिश करना शुरू कर दिया। हम माँ-बेटे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें इतनी आमदनी होने लगी। शुरू में मुझे पालिश करनी नहीं आती थीं। जूतों पर चमक नहीं आ पाती थी। पालिश करने में समय ज्यादा लगता था। मुझसे पहले पालिश के काम में लगे मराठा लड़कों ने प्रारंभ में मुझे उखाड़़ने की कोशिश की। लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक होता गया। हाथ सधता गया। विरोध पहले तटस्थता में और फिर सहयोग में बदलता गया। शिविर से कुछ लड़के मेरे साथ पालिश का सामान लेकर निकलते थे। गाड़ियों में, अलग-अलग स्टेशनों पर उतरकर ये लोग पालिश करते थे। कुछ लड़कों ने सिनेमाओं, मंझले दर्जे के होटलों के बाहर अड्‌डे बना लिए थे। एक-दो महीने काम करने के बाद पालिश के लिए स्टैंड खरीदकर बाकायदा जगह घेरकर ठिकाने बना लिए थे उन्होंने।

मुझे क्योंकि बाबा के बुलावे की प्रतीक्षा थी और विश्वास था कि जल्दी ही काम बंद करके अम्मा के साथ उनके पास जाऊँगा, इसलिए पालिश के लिए स्टैंड खरीदने या अड्‌डा पकड़ने की बात मैंने कभी नहीं सोची। प्लेटफार्म पर गाड़ियों का इंतजार करने वाले लोगों से पूछते रहना, इशारा पाते ही झटपट पालिश करके जूते चमका देना और आगे बढ जाना, किसी दूसरे पालिश कराने वाले की तलाश में। इस काम में समय के साथ इतना ही परिवर्तन आया कि चेहरा देखते ही पालिश कराने वाले और न कराने वाले आदमी को मैं पहचानने लगा। इससे आमदनी पर अच्छा असर पड़़ा। हर दरवाजे पर दस्तक देने की जगह अगर पता लग जाए कि अमुक दरवाजे पर दस्तक देना कारगर होगा तो जरूरतमंद का काम हल्का हो जाता है।

सुबह और शाम कुछ घंटे मैं शिविर कार्यालय में देता था। इससे कुछ प्रत्यक्ष और कुछ परोक्ष लाभ मुझे होते थे। अधिकारियों और कर्मचारियों की हेराफेरी, धांधली, रिश्वतखोरी, बेईमानी, मिलावट, कतर-ब्योंत और सुविधाओं को ऊपर-ही-ऊपर से हड़प करने की आदतों का नुकसान मुझे नहीं होता था। उल्टा मेरे कारण उन्हें खुलकर गड़़बड़ियाँ करने में हिचकिचाहट होती थी। मैं उनकी करतूतों का खुलकर या सक्रिय विरोध तो नहीं करता था मगर उनके गलत कारनामों में हिस्सेदारी भी नहीं करता था। कभी-कभी व्यंग्य में या मजाक में उन लोगों की कारगुजारियों की छीछालेदर करता था। इसलिए अगर मैंने किसी के पक्ष में कुछ कहा या किसी के साथ गलत काम करने से रोका तो इसको अन्यथा न लेकर जैसा मैं चाहता था वैसा कर दिया जाता था। सुबह-शाम नियमित निःशुल्क काम करके कर्मचारियों का बोझ घटाने वाला व्यक्ति कभी किसी के हित में थोड़ा-बहुत काम करा ले तो इसमें बुरा मानने का कोई कारण हो भी नहीं सकता।

शिविर कर्मचारी जिस कारण से मुझे बरदाश्त करते थे, वह उनकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण हो सकता है। किंतु मेरी दृष्टि में यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण थी कि मैं शिविर में रहने वाले शरणार्थियों की तकलीफों को यथासंभव घटाकर उन्हें राहत देने को स्थिति में आ गया था। राशन का वितरण, नए शरणार्थियों के परिवार के सदस्यों की जांच करके राशनकार्ड जारी करना, शरणार्थियों के लिए आवास की व्यवस्था, शिविर की सफाई, शौचालयों और स्नानघरों की साफ-सफाई, बैरकों के दरवाजों की देखभाल, छोटी-बड़ी टूट-फूट की मरम्मत, शरणार्थियों को अनुपलब्ध किंतु आवश्यक सुविधाओं के लिए सरकारी स्तर पर लिखा-पढी, अनगिनत काम थे जिनमें मैं हाथ बँटाता था। चोरी-चकारी, लड़़ाई-झगड़़े, मार-पीट, गाली-गलौज, कहा-सुनी की वारदातें शरणार्थियों में होती रहती थीं। अर्थाभाव, भूतकाल की स्मृतियाँ शरणार्थियों को असहिष्णु बनाती थीं। वे छोटी-छोटी बातों से उत्तेजित हो जाते थे। शिविर के कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ भी कहा-सुनी, लड़ाई-झगड़ा होता रहता था। शरणार्थी शिविर में एक पुलिस चौकी थी। किंतु मैं जानता था कि गाली-गलौज से लेकर चोरी-चकारी तक कोई भी वारदात बदनीयती के कारण नहीं होती है। इन घटनाओं के पीछे जीवन में घिर आए तनाव होते हैं। सिंध में हिंदुओं की परंपरा मस्ती से खाने-पीने, सैर-सपाटे करने और भाईचारा रखते हुए धनोपार्जन करने की रही है। सिंधवासी स्वभाव से झगड़़ालू और अशांति प्रिय नहीं हैं। व्यवस्था के अंग के रूप में स्थापित होने के कारण मैं सिंध वासियों की मूल प्रकृति के अनुरूप स्थितियों का निर्माण करने का प्रयत्न करता था। आर्थिक लाभ न मैं लेता था, न माँगता था और न कभी जताता था कि अपनी सेवाओं के लिए मैं पारिश्रमिक नहीं लेता हूँ। कोई अनैतिक, अवांछित काम मैं करता नहीं था। अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए पालिश करके पैसा कमाता था। पढा-लिखा था। सिद्धान्तवादी जरूर था किंतु शिविर के कर्मचारियों और अधिकारियों की आर्थिक हेराफेरियों में उग्रता पूर्वक हस्तक्षेप नहीं करता था। आर्थिक कारणों से शरणार्थियों के अनेक काम या तो केवल दिखाने-भर के लिए होते थे या फिर होते ही नहीं थे। राशन कम तोला जाता था। उसका बहुत बड़़ा हिस्सा काला बाजार में बेच दिया जाता था। मैं देखते, जानते हुए भी टकराव के स्तर पर इन कार्यों का विरोध नहीं करता था। मेरे कारण शरणार्थियों को जो भी, जितना भी लाभ मिल सके वही मेरा अभीष्ट था।

शिविर कमांडेंट से बात करके मैंने प्रत्येक सेक्शन के ब्लाक निवासियों की अलग-अलग बैठकें बुलवाकर पंचायतें बनवाने की शुरुआत की। सिंध में पंचायतों की बहुत मजबूत प्रणाली थी। पंचायतें केवल लड़ाई-झगड़ों का निपटारा करती हों, ऐसा नहीं था। शादी-गमी, मेल-मुलाकात, लेन-देन, रीति-रिवाज, कुप्रथाओं का सामाजिक निवारण और सैर-सपाटे तक के कार्यक्रम सिंध में पंचायतों के माध्यम से हो जाते थे। पंचायत-प्रणाली संस्कार में थी ही। हर एक ब्लाक का मुखी चुनकर जब पंचायतों का गठन किया गया तो उसके आशातीत लाभ मिलने लगे। बुजुर्ग मुखी की आँख का असर रंग दिखाने लगा। साठ वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों को मुखी बनाने का प्रयत्न किया गया था और इस उम्र के लोग प्रायः वहीं बने रहते थे। उनके सामने गलत काम करने का साहस जैसा-तैसा शरणार्थी कर ले, यह किसी के संस्कार में ही नहीं था। इस छोर से उस छोर तक बाँधी गई रस्सियों पर मर्दानी धोतियाँ डालकर बनाई गई दीवारों के बीच अपनी मान-मर्यादा को बचाए रखने का प्रयत्न कर रहे शरणार्थी अदा-अदी, काका-काकी और अम्मा-बाबा के पारिवारिक संबोधनों से जुड़़े, अस्तित्व की लड़़ाई लड़ रहे थे। पैसा उनकी सबसे बड़ी जरूरत थी। अर्थोपार्जन की चुनौती को अपने न्यूनतम साधनों के साथ स्वीकार करके ‘काम करने में शर्म कैसी' वाली धारणा को व्यवहार में उतारा था उन्होंने। पाँव पर खड़़ा होना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी। बाकी बातों के लिए उनके पास न समय था, न सुविधा। इसलिए ब्लाक पंचायतों की शुद्ध रूप से अपनी, पारंपरिक और परिचित प्रणाली के लागू होते ही छोटे-मोटे झगड़े निपटारे के लिए अपने आप मुखी के पास जाने लगे।

सिंध में संपन्न घरानों के स्त्री-पुरुष यहाँ जब पानी के लिए डिब्बों और बालटियों की लाइन लगाते हैं, बिना दरवाजों के शौचालयों और स्नानागारों में लाइन लगाकर प्रतीक्षा करने के बाद अंदर जाने की बारी आते ही जब जल्दी निकलने की आवाजें आने लगती हैं, तीन मील पैदल चलकर स्टेशन पहुँचना होता है जहां जनसमुद्र लीलने को तैयार खड़़ा होता है, एक समय भोजन में बासमती चावल खाने वाले जब राशन का लाल गेहूँ खाने को विवश होते हैं, शिविर के कारिंदे जब होते हुए भी राशन देने से मना कर देते हैं, राशन में वितरित करने के लिए आया चावल, गेहूँ, चीनी, मिट्‌टी का तेल और मोटा कपड़़ा जब बाजार में बिकने चला जाता है, परिश्रम करके भी भविष्य कोई आश्वासन देता प्रतीत नहीं होता तो कई बार इच्छा होती है कि अपने लोगों की मदद के नाम पर शिविर का काम करके मैं पाप कर रहा हूँ। मुझे तो थोपे गए विभाजन के खिलाफ, शरणार्थियों का दुर्लभ रक्त पीते शिविर कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ, भटकने को विवश करने वाले बातें करने में माहिर नेताओं के खिलाफ मुहिम छेड़़नी चाहिए। सवाल सामने आकर खड़े हो जाते हैं कि क्या इसीलिए घर-बार, काम-धंधे, रोजी-रोटी और अपनी प्यारी भूमि छोड़कर आए थे हम? अवांछित की तरह यहाँ आकर अस्तित्व के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को बार-बार यह अहसास क्यों दिया जाता है कि वे इस देश की शरण में आए हैं? क्यों नहीं कहा जाता है उन्हें कि अपने देश की आजादी के लिए विभाजन की विभीषिका से गुजरने वाले बहादुर लोगों, वक्त तुम्हारी परीक्षा ले रहा है। क्यों नहीं विश्वास दिलाया जाता है उन्हें कि इस विभीषिका में सारा हिंदुस्तान तुम्हारे साथ है। भोगना तो उन्हें ही होगा किंतु उनका आत्मबल बना रहे, यह प्रयत्न भी कोई क्यों नहीं करता?

आक्रोश की स्थिति में ऊल-जलूल न जाने क्या-क्या सोच जाता हूँ। किंतु ठंडे दिमाग से विचार करता हूँ तो इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि हमारे भाग्य की रेखाएं अब सिंध के साथ नहीं, इसी देश के साथ जुड़नी हैं।

हिंदुस्तान में रहने वाले लोगों से हम सहानुभूति की अपेक्षा क्यों रखें? यह देश हमारा भी है, फिर टकराव और संघर्ष में समय बरबाद करने की बजाय इस धरती के पुत्र की तरह कर्मठता के साथ अपने बलबूते पर खड़़े होने का उद्यम क्यों न करें? शिविरों में अधिक सुविधाएँ, हो सकता है हमें अकर्मण्य बना देतीं। सोना आग में तपकर ही कुंदन बनता है। आग में तपाए बिना सोना विभिन्न आभूषणों के रूप में नयनाभिराम आकार ग्रहण नहीं कर सकता। पाँव टिकाने और साँस लेने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। आज नहीं तो कल हम बैसाखियाँ छोड़कर अपने बूते पर चलने में कामयाब होंगे, जरूर कामयाब होंगे।

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