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अपनी अपनी मरीचिका - 4

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(4)

22 अप्रेल, 1949

बाबा के साथ रहते आज एक महीना होने को आया है। उनसे लगभग डेढ़ वर्ष तक हमें अलग रहना पड़़ा इस अवधि में जितना कुछ सीखने और महसूस करने को मिला, अनमोल है। अभाव, तनाव, विवशताएँ, तंगदस्ती, उपेक्षा, गरीबी और बदहाली। मानवता, भाईचारा, सौजन्य, सदाशयता, स्नेह, विश्वास, आत्मीयता, अपनत्व और सहयोग। स्वार्थ, छीना-झपटी, लड़ाई-झगड़े, मार-काट, सर-फुटौवल, भ्रष्टाचार, अनाचार, हृदयहीनता, कुत्साएँ, पैसे के लिए सब कुछ कर गुजरने की तैयारी और अपने हितपोषण के लिए नीचता की पराकाष्ठा तक चले जाना।

शरणार्थी शिविर। नलों पर पानी के लिए एक-दूसरे की चोटी खींचती महिलाएँ। शौचालय के बाहर भिनभिनाती मक्खियों के हमले। बरसात में बैरकों की खपरैलों से टपकता पानी। परदों की आड़ में माँ-बाप के साथ सटकर सोए पति-पत्नी। तराजू की डंडी मारकर तोला गया राशन का गेहूँ। शिविर की संख्या से ज्यादा शरणार्थी दिखाकर बनाए हुए रजिस्टर। गोदाम से सीधी बाजार में जाती गेहूँ और चीनी की बोरियाँ। शरणार्थियों के लिए आई सहायता राशि में पच्चीस प्रतिशत कमीशन। कर्मचारियों का शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार। राशन का सामान लेने के लिए आने वाली युवा लड़कियों और महिलाओं से भद्‌दे मजाक। शरणार्थी-शिविर की ब्लाक पंचायतें। अदा-अदी, दादा-दादी, काका-काकी, बाबा-अम्मा के आत्मीयता पूर्ण संबोधन। हारी-बीमारी में सहायता के लिए तत्पर पड़ौसी। मतभेद भूलकर विपत्ति में कंधे से कंधा मिलाकर जुट जाने वाले लोग। पेट काटकर और भूखे रहकर कफ़न खरीदने के लिए आर्थिक सहयोग देने वालों का तांता। खून देने के लिए दस-दस बैरकों के युवाओं की पंक्तियाँ। अपनी नींद कुर्बान करके भी पड़ोसियों के मेहमानों को सुलाने के लिए ज़मीन का अपना टुकड़ा खाली करते लोग। खुद भूखे रहकर बीमार को फल खिलानेवाले लोग। प्यार करने और प्यार लुटाने वाले लोग।

कल्याण स्टेशन का प्लेटफार्म। नए हाथों में पालिश का ब्रुश देखकर मारने को लपकते लड़़के। गरमा-गरम दलीलें। मारपीट। पुलिस वाले का हस्तक्षेप। दूसरे दिन फिर वही वातावरण। पालिश करने वाले एक लड़के के कारण बचाव। उसी लड़के के सुझाव पर कल्याण स्टेशन पर पालिश करने वाले लड़कों की बैठक। विरोध। धमकियाँ। समझौता। सहयोग।

यहां सब कुछ अलग है। वातावरण भी, मेरा दायित्व भी और लोग भी। आम बोलचाल की भाषा सिंधी नहीं, हिंदी नहीं, ढूँढाड़ी है। कुछ लोग जरूर हिंदी में बात करते हैं मगर ज्यादातर लोग पहले ढूँढाड़ी में और बाद में महसूस करके कि ढूँढाड़ी समझने में कठिनाई हो रही है, हिंदी में बोलते हैं। छुआछूत बहुत ज्यादा है। सार्वजनिक नल से पानी भरते समय गागर अगर किसी महिला की गागर से छू जाए तो ऐसा हंगामा खड़़ा हो जाता है कि तौबा करनी पड़़ती है। वह महिला कोसती व गालियाँ देती जाती है और राख या मिट्‌टी से गागर को माँजती जाती है। दो-एक बार तो मैं झगड़़ पड़ा। ऐसी नाक-भौं सिकोड़़ती हैं, जैसे कि हम गंदगी ढोते-ढोते उनके सामने पड़ गए हों। महिलाओं के साथ तू-तड़़ाक हो जाए, एक तरफ से गुस्से में भरी दलीलें हिंदी में दी जाएँ और दूसरी तरफ से चिल्ला-चिल्लाकर गालियाँ ढूँढाड़ी में दी जाएँ तो फैसला कैसे हो? अब अम्मा नल से पानी भरने स्वयं जाती है, मुझे नहीं भेजती। अम्मा के व्यवहार में संजीदगी और अपनत्व-भरी हुज्जत का खूबसूरत सम्मिश्रण है। नल पर पानी भरने वाली महिलाओं के व्यवहार में अपमानजनक तत्त्व होने पर भी वह नाराज नहीं होती है। मौके पर तरीके से कह भी देती है। क्योंकि कहने-सुनने में कहीं प्रतिद्वंद्विता नहीं होती इसीलिए उसका किसी के साथ मनमुटाव भी नहीं होता है। दिन में घंटा-दो घंटा वह किसी-न-किसी के घर चली जाती है। सिंधी मिश्रित हिंदी व ढूँढाड़ी में बतियाती रहती है। मकान में रहने वाली औरतों के साथ मिलकर आसपास के मकानों या मोहल्लों में भी वह हो आती है। इसलिए भली महिला के रूप में अम्मा की मकान में ही नहीं, मौहल्ले में भी अच्छी साख है। उसी साख का नतीजा है कि अम्मा अब उतनी अस्पृश्य नहीं रह गई है।

बाबा ने किराए का डेढ कमरे वाला मकान लेकर चारपाइयाँ वगैरह खरीदने के बाद हम लोगों को बुलाया है। छोटा कमरा रसोईघर भी है और अम्मा का स्नानघर भी। मैं और बाबा कभी नल पर, कभी बरामदे में और कभी रसोईघर में नहाते हैं। दूसरे कमरे में दो चारपाइयाँ हमेशा बिछी रहती हैं। तीसरी चारपाई रात को लग जाती है। मेहमान आ जाएँ तो एक चारपाई रसोईघर में चली जाती है और परिस्थिति के अनुसार मैं, अम्मा या बाबा उस पर सोते हैं। मेहमानों के साथ शेष सबके बिस्तर कमरे में लग जाते हैं।

कुछ अतिरिक्त बिस्तर बाबा ने पहले ही खरीद लिए थे। तीन-चार मेहमान आ जाएँ तो हम लोगों को व्यवस्था करने में परेशानी नहीं होती है।

शरणार्थी शिविर से निकलकर बाबा अपने मामा के साथ रास्ते में पड़ने वाले शहरों में रुकते हुए आगे बढते गए। सिंध के परिचित या रिश्तेदार मिल गए तो पंद्रह दिन भी रुक गए। कोई नहीं मिला तो दो दिन में ही आगे चल दिए। जहाँ मौका मिला, दस-बीस दिन नौकरी कर ली। खर्चा निकाल लिया और शहर में बसने की संभावनाएँ भी मालूम कर लीं। दिल्ली में सिंध का एक परिचित व्यापारी मिला तो उसके साथ फलों की आढ़त का काम शुरू किया। चार महीने काम करने के बाद भी भागीदारी और वेतन में से किसी एक के लिए फैसला अधरझूल में रखकर वह टालमटोल करता रहा। अंततः बाबा को ही दो टूक बात करनी पड़ी। उन्हें ऐसा लगा कि व्यापारी अधिक से अधिक समय के लिए अपने पास रखकर और कम-से-कम पैसा देकर उनसे छुट्‌टी पाने की चेष्टा करेगा। बाद में झगड़ा-झंझट हो इससे अच्छा है कि अभी से मामला समाप्त कर लिया जाए, बाबा ने तय किया। उसके अनुसार उन्होंने व्यापारी से कहा कि जो कुछ आप देना चाहें दीजिए, मैं अब यहाँ रुककर काम करना नहीं चाहता। बाबा उसी के घर रहे थे। वहीं खाना-पीना हुआ था। लेना-देना बराबर करके वे दिल्ली से चले तो जयपुर आ गए। उनके मामा बीच में ही किसी शहर में जम गए थे।

बाबा को अनिश्चय और हताशा की धुंध के बीच चौदह माह तक भटकना पड़़ा। हम लोग जब तनाव और त्रास की विषम स्थितियों से दो-चार होते हुए शरणार्थी शिविर में बाबा की बुलाहट की प्रतीक्षा कर रहे से, तब बाबा अपने साथ हमारी चिंताओं को भी सिर पर उठाए पाँव जमाने की प्रक्रिया में शहर-दर-शहर ठोकरें खा रहे थे। हम बाबा के साथ रह सकें, एक सुरक्षित भविष्य की वीथियों में कदम रख सकें, शरणार्थी शिविर की परनिर्भर, दूषित वायु से बाहर निकलकर खुली हवा में साँस ले सकें, इसके लिए जो तकलीफें बाबा को पिछले चौदह महीनों में उठानी पड़ी, बाबा उनका जिक्र तक नहीं करते हैं। आज हम उनके साथ हैं, इससे वे संतुष्ट हैं। बीते हुए कल की बुनियाद पर आज ओर आज की बुनियाद पर भविष्य की अट्‌टालिकाएं खड़ी की जाती हैं, बाबा अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए बीते हुए कल को वे याद नहीं करते। आज का भविष्य के संदर्भ में मूल्यांकन करते चलते हैं। मैं प्रतिक्रियावादी और हिंसक इसीलिए हो जाता हूँ। वे शांत और निरुद्विग्न इसीलिए रह पाते हैं।

दिल्ली से जयपुर आए तो संयोगवश उनके पास उतनी ही रकम बची थी जितनी वे शरणार्थी शिविर से लेकर चले थे। पच्चीस रुपए की पूंजी से कोई कारोबार शुरू करने की बात सोचना भी दुस्साहस पूर्ण प्रतीत होता है। किंतु घोर आशावादी बाबा को ऐसा नहीं लगता था। उन्होंने फलों की दिल्ली की आढ़त के संपर्कों से यहाँ के एक आढ़तिए से मुलाकात की। उसे स्पप्ट रूप से बताया कि वे जयपुर में फलों का व्यापार करना चाहते हैं। मंडी से फल खरीदेंगे और बाजार में फुटकर बेचेंगे। कुछ दिन अपनी जमानत पर वे माल दिलाएंगे तो सुविधा रहेगी। आढ़तिया मान गया। मोल-भाव करके उन्होंने चार मन नारंगियाँ खरीदीं। आढ़तिये का संदर्भ देकर रकम लिखाई। ठेले पर रखवा कर नारंगियाँ बाजार में लाकर, उन्होंने बोरी बिछाकर फुट-पाथ पर नारंगियों का ढेर लगाया। उस दिन जीवन में पहली बार उन्होंने वह काम किया जिसे करने के बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा। उनका कोई मित्र, परिचित, रिश्तेदार आज भी अगर सुन ले तो विश्वास नहीं करेगा कि बाबा ने कभी ऐसा भी किया होगा।

''चार आने सेर, चार आने सेर! खट्‌टी-मीठी नारंगी, चार आने सेर! फिर नहीं मिलेंगी, चार आने सेर! खट्‌टी-मीठी नारंगी, चार आने सेर!'' का तुमुलनाद करते हुए उन्होंने नारंगियाँ बेचनी शुरू कीं। तराजू और बाट किसी पड़़ाव पर उन्होंने खरीद लिए थे। उन दिनों यह क्षेत्र दुकानदारों के वर्चस्व वाला क्षेत्र था। ग्राहक को दुकानदार की मरजी के अनुसार, उसके नाज-नखरे उठाकर माल खरीदना पड़ता था। जो नारंगियाँ उन्हें ठेला-भाड़़ा मिलाकर पाँच रुपए मन पड़ी थीं, उन्हें चार आने सेर बेचकर वे शत-प्रतिशत मुनाफा कमा रहे थे। जबकि यही नारंगियाँ बाजार में दुकानों पर आठ आने सेर के भाव से बिक रही थीं। भावों में इतना बड़ा अंतर तो था ही, फुटपाथ पर ढेर लगाकर नारंगियाँ बिकती देखने का अनुभव भी लोगों को पहली बार हुआ था। दुकानदार को दुकान, पानी-बिजली, नौकर-चाकर, किराया-भाड़़ा, साज-सज्जा आदि पर खर्च करना पड़ता है जबकि बाबा को नारंगियों की कीमत के अलावा केवल ठेला-भाड़़ा देना पड़़ा था। लेकिन खरीदार को सस्ती कीमत में अच्छी चीज मिले तो उसे इन बातों पर विचार करने की क्या जरूरत है? देखते-ही-देखते भीड़ जमा हो गई। बाबा के पास किसी से बात करने की फुरसत नहीं थी। तोलना और पैसे लेना, इन दो कामों से समय मिले तो वे आवाजें भी लगाएँ। कोई ग्राहक पूछता तो उसे जरूर बता देते, वरना ग्राहक ही ग्राहक को भाव बता देते। तीन घंटे बीतते-न-बीतते नारंगियाँ बिक गईं। बाबा ने हिसाब लगाया, बीस रुपए बचे थे। चौदह महीनों में उन्हें पहली बार संतोष की अनुभूति हुई। पहले दिन के अनुभव ने ही स्थायित्व की दिशा में आशाएँ जगाईं। वे अपनी सगी मौसी के पास ठहरे थे। इसलिए आजमाने की दृष्टि से भी स्थितियाँ अनुकूल थीं। उन्होंने निश्चय किया कि कुछ दिन इसी क्रम को दोहराएँगे और देखेंगे कि यह शहर क्या देता है?

अगले दिन सुबह जाकर उन्होंने नारंगियों का हिसाब चुकता किया। एक मन बढाकर दूसरे आढ़तिये से पाँच मन नारंगियाँ खरीदीं। कल की तरह संदर्भ देकर रकम अपने नाम लिखाई और उसी जगह आकर नारंगियों का ढेर लगाया, जहाँ कल नारंगियां बेची थीं। आवाजें लगा-लगाकर उन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। कल के भावों में आज भी नारंगियाँ खरीदीं थीं, इसलिए कल के भावों में आज भी नारंगियों की बिक्री की। आज एक मन ज्यादा नारंगियां थीं, इसलिए बचत पच्चीस रुपए हुई। बाबा को उत्साह भी मिला और प्रेरणा भी।

एक सप्ताह तक मंडी में उपलब्ध, मुनाफे वाले फल खरीदकर वे बेचते रहे। जगह तय होने के कारण कुछ ग्राहक स्थायी रूप से उनके पास आने लगे। आमदनी में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही थी। मंडी में अगले दिन वे भुगतान कर देते थे, इसलिए साख बढने लगी। किसी आढ़तिये को उन्हें माल उधार देने में हिचकिचाहट नहीं होती थी। कुछ रुपए उन्होंने मौसी के परिवार पर खर्च कर दिए थे। फिर भी उनके पास एक सप्ताह के बाद डेढ सौ रुपए बचे थे। यह बचत उन्हें आकर्षक महसूस हुई। यही धंधा करके परिवार को बुला लेने की बात उनके मन में स्थिर होने लगी। इसके बाद उन्होंने किराए पर एक ठेला लिया। उसे दुकान की तरह सजाकर, तीन-चार प्रकार के फलों से भरकर, अपने पुराने ठिकाने पर ही खड़़ा होना शुरू कर दिया। मौसी से बात करके अपने खाने के बदले एक निश्चित राशि का भुगतान करने की बात उन्होंने तय कर ली।

फुटपाथ पर ढेर लगाकर नारंगियाँ बाबा कुछ ही घंटों में बेच देते थे। अब उस जगह दिन-भर ठेला खड़ा देखकर दुकानदारों और पुलिसवालों का माथा ठनका। दुकानदारों ने शिकायत की तो पुलिसवालों को कार्रवाई करने का पुख्ता बहाना मिल गया। मगर बाबा को इस कठिनाई का पूर्वानुमान था। घर जाकर उन्होंने थानेदार को डाली पेश की और इस क्षेत्र में चौकसी करने वाले सिपाही का महीना बाँध दिया।

घूस देकर बाबा ने ठीक किया या नहीं, यह प्रश्न अपने विपरीत आयामों के साथ मैं हल नहीं कर पाया हूँ। आजादी की लड़ाई में जिस आदमी ने अपनी जवानी, अपने परिवार, अपने भविष्य और अपने जीवन को दाव पर लगाया हो, वह पुलिसवालों को सधे हुए मुजरिम की तरह रिश्वत देकर गैरकानूनी काम करते रहने की साजिश रचेगा, यह न समझ में आनेवाली गुत्थी है। आदर्शवादी सपने जिसकी प्रेरणा रहे हों, जीवन की अंतिम साँस तक देश की आजादी के लिए संघर्ष करते रहने का जिस आदमी का संकल्प हो वह सचमुच आजादी मिलने के बाद एक-डेढ़ वर्ष में ही उन संकल्पों और संघर्षों की चिता जलाकर नृत्यरत हो जाएगा, यह न सुलझने वाली समस्या है।

आजादी प्राप्त करना किसी भी सेनानी का पहला और अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। व्यवस्था और सत्ता की बागडोर विदेशी शासकों के हाथों से निकलकर अपने लोगों के हाथ में आए, यह तो ठीक है किंतु क्या इतना ही पर्याप्त है? अपने लोग सत्ता पाकर देशवासियों के हित में क्या करते हैं, कितना सोचते हैं, अपने और पराए शासन में अंतर की कसौटी यही हो सकती है। बाबा ने सत्याग्रह आंदोलन करते समय या पोस्टर और पर्दे दीवारों पर चिपकाते समय या लुक-छिपकर आजादी की लड़ाई की सूचनाएँ देनेवाला साहित्य एक से दूसरे स्थान पर पहुँचाते समय या लोगों को शिक्षित करने के लिए गुप्त बैठकों में भाषण देते समय या सरकारी आदेशों की अवज्ञा करते समय क्या केवल इतना ही सोचा होगा कि एक बार देश अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो जाए, फिर सब ठीक हो जाएगा? क्या बाबा नहीं समझते हाेंगे कि मिल्कीयत बदलने से मकान में लगे मकड़ी के जाले अपने आप नहीं छूट जाते? जाले हटाने होते हैं। मकान की सफाई करनी होती है। फर्श को धोना पड़़ता है। दीवारों पर सफेदी करनी पड़़ती है। टूट-फूट ठीक करानी पड़ती है। दरारें पाटनी पड़ती हैं, झड़ता हुआ पलस्तर दोबारा कराना पड़ता है। बाबा और उनके साथी ये सब बातें केवल समझते होंगे, शायद यह भी ठीक नहीं है। उन्होंने उन उपायों पर भी विचार-विमर्श, बहस-मुबाहिसे किए होंगे जिन्हें अपनाकर आजादी के मीठे फलों का स्वाद गरीब से गरीब आदमी की झाेंपड़ी तक पहुँचाया जा सकता है। हो सकता है, उनके सुझाए हुए उपायों में क्षेत्रीयता रही हो। उन उपायों में सारे देश की पीड़ाओं की बात न रही हो। किंतु आजादी प्राप्त करना समस्याओं के समाधान का एकमात्र उपाय नहीं है, यह बात बाबा ही नहीं बाबा से नीचे और बाबा के ऊपर के सेनानियों, कार्यकर्ताओं, नेताओं के सोच में जरूर रही होगी।

आजादी विभाजन की विभीषिका लेकर आई। आजादी ने बाबा जैसे आजादी के युद्ध में लड़़ने वाले योद्धाओं को पहले दिन से ही अपनी जड़़ और मूल से उखड़़ने के त्रास से भर दिया। आजादी ने उन सपनों को एक झटके में धराशायी कर दिया जो बाबा ने देखे थे। आजादी ने उन्हें शहर-दर-शहर, दरवाजा-दर-दरवाजा और ड्‌योढी-दर-ड्‌योढी टकराकर लहूलुहान होने के लिए विवश किया। आजादी ने अनिश्चय के तनाव को झेलते हुए परिवार को भाग्य के भरोसे छोड़कर पाँव रखने मात्र की जगह तलाश करने की जद्‌दोजहद में उनके कस-बल निकाल दिए। लेकिन ये स्थितियाँ क्या आजादी से पहले बाबा ने स्वयं अपने लिए नहीं चुनी थीं? कई-कई दिन भटकना, भूखे-प्यासे, एक शहर से दूसरे शहर में जाकर संदेश पहुँचाना, पुलिस की गिरफ्त से बचने के लिए गुमनाम स्थानों पर छिपना, आंदोलनों के दौरान लाठियाँ खाना। ये यातनाएँ झेलने के लिए बाबा को किसी ने मजबूर नहीं किया था। परिवार के भविष्य से बेफिक्र बाबा जब परिवार के हाल-चाल भी दूसरों से जान पाते थे, तब क्या वे बहुत सुखी थे? आज विभाजन की मार जो दुःख उन्हें दे रही है, वही दुःख आजादी की तलाश में उन्होंने स्वयं अपने लिए चुने थे। फिर क्यों आया है बाबा में यह परिवर्तन? उनकी आक्रामकता के पीछे असुरक्षा का भाव इतने वीभत्स रूप में क्यों खड़ा है?

मैंने बाबा से पूछा था, ‘‘ठेला खड़़ा करने के लिए आपको रिश्वत क्यों देनी पड़ी है।''

‘‘रिश्वत नहीं देते तो क्या करते? फुटपाथ पैदल चलने वालों के लिए बनाए जाते हैं।''

‘‘फुटपाथ पर ठेला खड़़ा करना गलत है, फिर भी आप ठेला वहीं खड़़ा करते हैं। यह काम आप करते रह सकें, इसलिए आप पुलिसवालों को घूस देते हैं। एक गलत काम करते रहने के लिए आपने दूसरे गलत काम का सहारा लिया है। क्योंकि आप ऐसा कर रहे हैं, इसलिए पूछ रहा हूँ। आपने तो मूल्यों के लिए संघर्ष किया है।''

‘‘हकीकतों की तल्खी इतनी धारदार होती है बेटा, कि ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत कटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।''

‘‘शायद आप ठीक कहते हों बाबा, लेकिन सारा जीवन कष्ट झेलते हुए गुजारने के बाद सिद्धांत उन कष्टों की वेदी पर मर-कट जाएँ, यह बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।''

‘‘सिद्धांत भी तो इनसान के लिए होते हैं, बेटा। इनसान के कष्टों को जो सिद्धांत बढाते हैं, उन्हें ढोते चले जाने से क्या फायदा?‘‘

मुझे लगता है, विभाजन के निर्णय ने बाबा का इतना अधिक मोहभंग किया है कि उन्होंने अपनी दिशा बदल दी है। वे इस निर्णय पर पहुँचे है कि आजादी की लड़़ाई में कंधे-से-कंधा मिलाकर शिरकत करने वाले एक भाग को बलि का बकरा बनाकर बाकी बचे देश को सुख और समृद्धि से सराबोर करने वाली दृष्टि में खोट है। दुखों में साथ निभाने वालों को सुखों में हिस्सेदार बनाने की बजाय दुखों की भीषण ज्वालाओं में झोंकने की स्वीकृति कैसे दी जा सकती है? बाबा के सोचने के तरीके से मैं सहमत हूँ, लेकिन कुछ सच्चाइयाँ फिर भी विचारणीय हैं। क्या विभाजन को अस्वीकार करने का अर्थ आजादी लेने से इनकार करना नहीं होता? धर्म के आधार पर विभाजन का सिद्धांत यदि स्वीकार न किया जाता और आजादी मिल जाती, तब भी क्या अशांति, कलह और धार्मिक उन्माद की प्रबल धाराएं देश को रक्त-रंजित नहीं करतीं? जो स्थितियां देश में थीं, उनको देखते हुए धार्मिक आधार पर विभाजन के पक्ष में काम करने वाली शक्तियों से निपटने का कोई प्रभावशाली तरीका उपलब्ध था क्या? तुष्टीकरण या तनाव दोनों में से कुछ भी गृहयुद्ध टालने में सहायक नहीं होता और गृहयुद्ध का फैसला तत्कालीन महत्वाकांक्षी नेताओं के चलते संभव था क्या? यद्यपि सारे प्रश्न और उनके उत्तर कल्पना पर आधारित हैं, फिर भी यह बात विचार करने योग्य बनी रहती है कि विभाजन को रोकना क्या मुमकिन था?

यदि विभाजन अपरिहार्य था तो बाबा का सोच उचित है क्या? बाबा समझौता करने के पक्षधर नहीं हैं। वे मानते हैं कि विभाजन से प्रभावित देशवासियों के साथ विश्वासघात किया गया है। देश की आजादी का अर्थ करोड़ों लोगों की बरबादी नहीं हो सकता। किंतु विभाजन से त्रस्त अपने लोगों के साथ जो व्यवहार हुआ, वह कहां तक न्यायसंगत था? ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं हुई कि विभाजनग्रस्त सिंध, पंजाब और बंगाल के लोगों को शरणार्थी बनना नहीं पड़ता? यदि पाकिस्तान में ही ऐसा करना संभव नहीं था तो हिंदुस्तानी सीमाओं में प्रवेश के बाद उनकी रोटी, रोजी और मकान की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? शरणार्थी शिविरों में छोड़कर आजादी की सबसे बड़ी कीमत देनेवाली आबादी को भिखारी बना देने की मानसिकता को कैसे स्वीकार किया जा सकता है? बाबा में साहस होगा, ताकत होगी, दम-खम होगा, बुद्धिचातुर्य होगा, आक्रामकता होगी तो बाबा फिर कारोबार जमा लेंगे, बाबा फिर मकान बना लेंगे, बाबा फिर उसी ओज पर पहुँचेंगे जिस पर वे सिंध छोड़ने से पहले थे। लेकिन सब कुछ बाबा को ही करना होगा? जिन्होंने अपनी कलम के जोर और सिर की जुंबिश से विभाजन को स्वीकार करके बाबा को त्रासद स्थितियों में पहुँचाया वे कुछ नहीं करेंगे? अगर वे कुछ नहीं करेंगे, अगर सब कुछ बाबा को ही करना होगा, अगर बाबा का बाहुबल ही सब कुछ करेगा तो बाबा उनकी परवाह क्यों करें? क्यों नहीं करें बाबा फुटपाथ पर कब्जा? क्यों नहीं दें बाबा घूस? उन्होंने व्यापार, कारोबार, धंधा करने के लिए जमीन का कोई छोटा सा टुकड़ा दिया होता बाबा को तो उनकी यह अपेक्षा वाजिब थी कि बाबा मूल्यों को महत्त्व दें। अब तो उन्हें नैतिक रूप से अधिकार ही नहीं है बाबा से कुछ कहने का, बाबा को उपदेश देने का या अपेक्षा करने का कि बाबा को देश के नाम पर जहर के घूंट पीते चले जाना चाहिए।

दूसरे लोग बुराई करें तो क्या प्रभावित व्यक्ति को अपनी अच्छाई छोड़ देनी चाहिए? सिंध के लोगों के साथ अन्याय हुआ। उन्हें उचित व्यवहार नहीं मिला। उन्हें मनमाने ढंग से अनाथ बना दिया गया। उनको रोजगार की सुविधाएँ नहीं दी गईं। उनके साथ अजनबियों जैसा सुलूक किया गया। सब ठीक है, फिर भी बाबा को मूल्यों को तिलांजली देनी चाहिए क्या? मेरे पास उलझनें हैं। तर्कों का जाल है। किंतु इस प्रश्न का सुस्थिर समाधान नहीं है।

उत्तीर्ण की हुई परीक्षाओं की अंकतालिकाएँ मेरे पास हैं। बाबा की दूरदृष्टि का परिणाम है कि उन्होंने पैसा, सोना, नग-नगीने चाहे अपने पास न रखे हों किंतु ज़रूरी कागजात वे सिंध से लेकर आए हैं। वे तो मकानों के कागजात भी अपने पास रखना चाहते थे किंतु रहीम बख्श ने सुरक्षित निकल जाने की कीमत भरपूर वसूल की थी बाबा से। बख्शीशनामा लिखवाकर दुकानों व मकानों के कागजात रहीम बख्श ने ले लिए थे बाबा से। हम यह कहने की स्थिति में भी नहीं हैं कि सिंध में हम दो दुकानों ओर दो मकानों के मालिक थे। यही कारण है कि हमने सिंध में छोड़ी हुई संपत्ति के मुआवजे की माँग नहीं की है। बाबा बाकी सारे जरूरी कागजात साथ लाए हैं। उनमें ही मेरी एफ ० ए ० प्रीवियस की अंकतालिका भी है। एफ ० ए ० फाइनल में प्रवेश जून के अंतिम सप्ताह में प्रारंभ होंगे। बाबा ने कहा है कि पढाई जारी रखनी है। मैं भी चाहता हूँ कि आगे पढूं। पढ़-लिखकर ही परिवार की स्थिति को सम्मानजनक जगह पर पहुँचाया जा सकता है। पढाई के लिए फीस, किताबों, कपडे-लत्ते के लिए पैसा खर्च होगा। बाबा कहते हैं कि पैसा मेरी पढाई में बाधक नहीं बनेगा। बाबा से तो नहीं कहा, लेकिन मैंने तय किया है कि यदि मिले तो दो टूयूशन पकड़ लूंगा। बाबा की मदद चाहे न कर सकूं, अपना खर्च तो निकाल ही लूंगा।

आज पता नहीं क्यों काका भोजामल बार-बार याद आ रहे हैं। शरणार्थी शिविर में आए उनको दो महीने हो गए थे जब मुझे और अम्मा को यहां बुलाया था बाबा ने। उल्हासनगर में ही उन्होंने एक दुकान देखी थी। साथ लाया सोना और जेवर बेचकर किराने का काम शुरू करने का उनका इरादा था। काका भोजामल स्वयं और उनके तीन लड़के मिलाकर चार लोग दुकान पर काम कर सकते हैं। वीरू को पढने दें, तब भी तीन लोग बचते हैं। लेकिन परिवार बड़ा है। आमदनी अच्छी होगी, तभी काम चल पाएगा। मीनू की भी अभी पढने की उम्र है। वीरू और मीनू पढेंगे, विवाहित दोनों भाइयों के दो बच्चे स्कूल जाएँगे। दुकान से आमदनी अच्छी होगी तभी उनकी जरूरतें पूरी हो पाएंगी। काका भोजामल को तो हालात का अहसास हो गया था मगर उनके लड़कों में अभी अपने दिमाग से काम लेकर फैसला करने की क्षमता नहीं है। सिंध में जिस तरह पिता के इशारे से परिवार का हर सदस्य हरकत करता था, उनमें अब भी उसी तरह की जड़ता है। बदली हुई स्थितियों के अनुरूप अगर उन्होंने अपने तौर-तरीके में परिवर्तन नहीं किया तो उनकी परेशानियाँ बढती जाएँगी। मीनू चौदह वर्ष से ज्यादा उम्र की लगने लगी है। उसके व्यवहार में गंभीरता आ गई है। उसमें मसखरापन अब कहीं नजर नहीं आता। चुन्नी गले में डाले ज़मीन में नजर गड़ाकर या सिर नीचा किए काम में लगी रहती है। देखकर मुसकराती जरूर है, लेकिन कभी खुलकर बात नहीं करती। सिंध में कितनी चपर-चपर करती थी। काकी टोकती रहती थी, ‘‘मुई, कुछ शर्म-लिहाज सीख। अब तू बडी हो गई है।'' मगर उसके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी। उसकी खिल-खिलाहट तो आज भी मेरे कानों में गूँजती है। उल्हासनगर में कभी अकेले बैठकर बात कर सकें, इतनी सुविधा नहीं मिलती थी। वरना मैं उससे पूछता कि ये परिवर्तन किसी कारण विशेष से आए हैं या उसने सायास ओढे हैं? काका भोजामल ने किराने का काम शुरू किया या नहीं? किया है तो काम कैसा चल रहा है? कितनी आमदनी हो जाती है? घर का खर्च निकलता है या नहीं? वीरू और मीनू की पढाई के बारे में उन्होंने क्या फैसला किया है? अगर काम शुरू नहीं किया है तो क्यों नहीं किया? जो दुकान उन्होंने देखी थी, वह नहीं मिली क्या? नहीं मिली तो कोई दूसरी दुकान क्यों नहीं देखी? अब क्या करने का इरादा है? अनेक जिज्ञासाएँ हैं। चिट्‌ठी-पत्री आती नहीं है। जिज्ञासाएँ शांत करने का कोई तरीका नहीं है। लगाव है और जिज्ञासाएँ हैं, शायद यही कारण है कि आज काका भोजामल की बहुत याद आ रही है मुझे।

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डायरी के जितने पृष्ठ पढे हैं उनके आधार पर आप किसी परिणाम पर नहीं पहुँचे होंगे, यह मैं समझ सकता हूँ। मगर इन पृष्ठों को पढते-पढते डायरी में मेरी रुचि बन चुकी थी। डायरी में विविधता चाहे कम हो मगर यह बात मैं कह सकता हूँ कि बाबा ने अपने बेटे को डायरी लिखने की कला सिखाई बहुत अच्छी तरह है। कशमकश, भावनाएं, स्थितियों का विवरण, घटनाओं का विश्लेषण सब कुछ इतनी खूबसूरती से हुआ है कि कम-से-कम मैं तो डायरी के साथ बहता चला गया। डायरी-लेखक के तर्क इतने सधे हुए हैं कि विश्वास नहीं होता, किसी सोलह-सत्रह साल के लड़के ने ये तर्क दिए हैं। भावुकता भी है, भावनाएँ भी। आदर्श भी हैं, व्यावहारिकता भी। सपने भी हैं, सच्चाइयाँ भी। उदासियाँ भी हैं, खुशियाँ भी। सिंध से पलायन, शरणार्थी शिविर का दैनिक जीवन, पॉलिश जैसे नाचीज काम के लिए भी संघर्षों का जखीरा। मानना पड़ेगा कि बाबा ने तालीम अच्छी दी है बेटे को।

दरअसल मेरे पुरखे भी सिंध से यहाँ आए थे। घर में हम लोग सिंधी में ही बात करते हैं। इसलिए विभाजन का, सिंधवासियों का, शरणार्थी शिविर का और विभाजन की पीड़ा झेलने वाले एक स्वतंत्रता सेनानी का विवरण देखा तो डायरी ने मुझे बाँध लिया। मेरे पुरखे कोई सौ वर्ष पहले यहाँ आ गए थे। तभी उन्होंने कबाड़े का काम शुरू किया था। परदादा से दादा, दादा से पिता और पिता से मैं। तीन पीढियों से हमारे खानदान का यही कारोबार है। रीति-रिवाजों पर तो स्थानीय रीति-रिवाजों का बहुत प्रभाव पड़ा ही है, पहनावा भी स्थानीय लोगों जैसा हो गया है। मगर भाषा नहीं छोड़ी है हम लोगों ने। सच कहा जाए तो हमारी पहचान अब केवल भाषा के कारण ही है। अन्यथा किसी भी कोण से हम सिंधी नहीं रह गए हैं। ढूंढाड़ी इतनी बारीकी ओर दक्षता से बोलते हैं कि बोली से कोई स्थानीय आदमी हमें यहीं का मानेगा। धोती कुरता, पगड़ी और मूंछें मेरे पिता तक सब बुजुर्ग बाकायदा पहनते-रखते थे। पांवों में चमरोंधी भी खालिस यहाँ की पहचान थी। पहनता तो मैं भी धोती-कुरता हूँ, किंतु पगड़ी और चमरोंधी का तो अब जमाना ही नहीं रहा है। कभी-कभी कमीज और पैंट भी पहनने लगा हूँ, खासतौर से शादी-विवाह के मौके पर। खाना-पीना भी देश के अनुरूप है। दाल, बाटी, चूरमा हमारी पहली पसंद है। बस भाषा न हो तो हमें कोई सिंधी नहीं मानेगा। कोई दूसरा क्या, हम भी खुद को सिंधी मानने से इनकार कर दें शायद। विभाजन के बाद सिंधवासी जब भारत में आए तब ऐसा लगा था जैसे मुझे ही देश-निकाला दे दिया गया हो। अधिकांश लोग तो देश में अलग-अलग स्थानों पर खोले गए शरणार्थी शिविरों में चले गए थे मगर कुछ परिवार प्रारंभ से ही हमारे शहर में आने लगे थे। किसी का कोई संबंधी था, किसी का कोई मित्र, परिचित या मिलने वाला था। कोई यहाँ से रेलगाड़ी में निकलते हुए इस शहर को पसंद कर बैठा था। किसी के पास रुपया था, इसलिए किसी वस्तु-विशेष के व्यापार की दृष्टि से उसने यहाँ आने का निर्णय लिया। जयपुर बंधेज की साड़ियों और जवाहरात के लिए प्रसिद्ध है। सिंध में साड़ियों या जवाहरात का काम करने वालों ने इस शहर की ख्याति सुनी ही होगी। संभव है, कुछ स्थानीय व्यापारियों के साथ उनका लेन-देन पहले ही चलता हो। पहले देखने-परखने की दृष्टि से आए हों और फिर यहाँ काम शुरू करने की बात जंच गई हो। पैसे वाला हो या निर्धन, नए रूप में जमने के लिए हर एक को बहुत कुछ करना पड़ता है। रहने के लिए मकान, व्यापार के लिए दुकान, बच्चों के लिए शिक्षा केंद्र के रूप में विद्यालय या कॉलेज की तलाश तो उसे भी रहेगी जिसके पास रुपया है। शहर के लेन-देन, व्यवहार, व्यापार की ऊँच-नीच को समझने की जरूरत उसे भी महसूस होगी जिसके पास रुपया है। व्यापार की जिन्स समान होते हुए भी उसकी खरीद और बिक्री का हर शहर का अपना तौर-तरीका होता है। हर शहर का अपना एक ढर्रा चलता है जिसके अनुसार वहां हफ्ते, पंद्रह दिन या एक महीने में भुगतान करना होता है। भुगतान न करने पर ब्याज देना पड़ता है। ब्याज का भी हर जगह का अलग-अलग तरीका होता है। कहीं ब्याज दिनों के हिसाब से देना पड़ता है और कहीं हफ्तों या महीनों के हिसाब से। कहीं ब्याज बारह आना सैकड़ा के हिसाब से देना पड़ता है और कहीं दो रुपया सैकड़ा के हिसाब से। पैसा कम है तो उसे कम किराए पर मकान की तलाश रहेगी। दुकान भी कम लागत से शुरू करना चाहेगा। निर्धन किसी दुकान पर नौकरी करने की कोशिश करेगा, फेरी लगाएगा, फुटपाथ पर रखकर माल बेचेगा या ठेला घुमाएगा। पहले धर्मशाला में और फिर एकाध कोठरी किराए पर लेकर गुजर-बसर करेगा। बच्चों को भी किसी-न-किसी काम पर लगा देगा। चाय-पकौड़ी की दुकान से लेकर किसी धनवान के घर में काम करने वाले नौकर के रूप में उन्हें लगाने का प्रयत्न करेगा।

विभाजन से पीड़ित सिंध से आने वाले लोगों में पुर्नस्थापित होने की जो आग नजर आती थी वह अभिभूत और रोमांचित तो करती ही थी, उसे देखकर गौरव भी होता था। अन्यथा कभी सिंधवासी होने के नाते मुझे गौरव की अनुभूति हुई हो चाहे न हुई हो किंतु आज के अनिश्चयपूर्ण अंधकार से निकलकर भविष्य की उज्ज्वल गोद में बैठने के लिए, सिंध में प्राप्त सामाजिक स्थिति की चिंता न करते हुए अर्थोपार्जन के लिए किसी भी काम को करने से परहेज न करते सिंधवासियों को देखकर उनकी जिजीविषा और जुझारूपन पर बारबार टिप्पणी करने की इच्छा होती थी कि मैं सिंधी हूँ, कि मेरी धमनियों में भी उन पुरखों का खून बहता है जो सिंध से चलकर यहाँ आए थे। मैं सिंध नहीं गया। मुझे नहीं लगता कि मैं कभी सिंध जाऊँगा। सिंध के बारे में अपने बुजुगोर्ं से ज्यादा कुछ सुनने को भी नहीं मिला है मुझे। परदादा के बाद सिंध को जब किसी ने नहीं देखा तो मुझे सिंध के बारे में कौन सुनाता? मेरे पिता ने विवाह यहीं किया था इसलिए सिंध के साथ संबंध टूटने का सिलसिला पुख्ता ही होता रहा है। यह बात अलग है कि हमारी तरह घर में माँ भी सिंधी में बात करती है मगर भाषा के सूत्र को छोड़कर सिंध हमारे बीच कहीं नहीं है। सिंधवासियों ने आकर परिश्रम और लगन से अपना उजड़़ा नीड़ बसाने की पुरजोर चेष्टाएँ करके मुझे याद दिला दिया था कि मैं भी सिंधी हूँ, कि मेरी जड़ें कमजोर नहीं हैं, कि मुझे मिटाना समय-चक्र के लिए भी आसान नहीं है।

इतने सालों के बाद जब सिंधवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति फिर अच्छी हो गई है, विभाजन के तुरंत बाद की स्थितियाँ सपने की तरह लगती हैं। किसी दूसरे समुदाय को यदि वैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता तो उनकी क्या दशा होती, इस संबंध में दावे के साथ कुछ कहना तो शायद किसी के लिए भी संभव नहीं है किंतु यह बात दावे से कही जा सकती है कि जितनी अवधि में पूरी तरह नेस्तनाबूद सिंधवासियों ने स्वयं को फिर खड़ा किया है, स्वयं को फिर जमाया और स्थापित किया है, उतनी अवधि में इतना कर पाना किसी दूसरे समुदाय के लिए संभव नहीं होता। भीख के लिए हाथ नहीं फैला, दया के लिए गिड़गिड़ाया नहीं, सहानुभूति अर्जित करने के लिए किसी के सामने आँख से एक बूंद आँसू नहीं टपका। चिंता-ग्रस्त था, तनावयुक्त था, भविष्य को लेकर आशंकित था। किंतु इन दुविधाओं से लड़ने का एक ही रास्ता चुना उसने, मेहनत। जहाँ गया वहां की भाषा अपनाई, वहाँ के रीति-रिवाज अपनाए, वहाँ का पहनावा अपनाया, वहाँ का खान-पान अपनाया और प्रयत्न किया कि वहाँ के निवासियों के साथ एकाकार हो जाए। एकाग्र भाव से जुटा रहा। इसीलिए देश के जिस हिस्से में भी पहुँचा, सफलता ने उसका वरण किया। इंजीनियरिग कॉलेज, शिक्षा संस्थान, हर प्रकार के शैक्षणिक व तकनीकी कॉलेज, बड़े-बड़े अस्पताल, धर्मशालाएँ, सामाजिक ट्रस्ट, सामाजिक संस्थाएँ इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय समाज की बहबूदी में सिंधी समुदाय का योगदान किसी भी एक समुदाय के मुकाबले ज्यादा है। अपनी स्थिति सुधारने के बाद उसने समाज की भी सुधि ली है। केवल अपना लाभ, अपना हित नहीं देखा उसने। पहले अपना हित देखा, यह ठीक है। किंतु सामर्थ्यवान बनते ही उसने समाज की भी चिंता की है।

मेरे पूर्वजों ने कबाड़ बेचने और कबाड़ खरीदने का काम शुरू किया था। मैं भी वही काम कर रहा हूँ। दाल-रोटी वे भी निकालते थे, दाल-रोटी मैं भी निकालता हूँ। पूर्वजों ने जो बनाया, बुजुर्गों ने जो अर्जित किया, मैंने उसमें क्या जोड़ा है? सोचता हूँ तो पाता हूँ कि मैंने उसमें कुछ खास नहीं जोड़ा। उसमें से कुछ घटाया नहीं तो उसे बढाया भी नहीं। क्या सिंधू नदी के पानी का, सिंध के अन्न का, वहाँ की हवा का, वहां के वातावरण का क्रमशः कमजोर होता हुआ असर नहीं है कि मैं यथास्थान खड़ा हूँ? प्रयत्न करूं तो आमदनी बढ सकती है लेकिन मैं जो है, जितना है उसमें संतुष्ट हूँ। बीच-बीच में विचार आते हैं, योजना बनाता हूँ। फिर सुस्त हो जाता हूँ। लड़के बड़े हो गए हैं। एक तो उन्हें यह काम पसंद नहीं है, दूसरे इस काम में तीन लडकों को लगाने की गुंजाइश नहीं है। प्लास्टिक का ढेर सारा सामान कबाड़ में आता है। फैक्टरियों के एजेंट खरीदकर ले जाते हैं। मैं स्वयं प्लास्टिक का कोई सामान बनाने का कारखाना डाल दूं तो अच्छा चल सकता है। आमदनी भी बढेगी और लड़के भी काम में लग जाएँगे। लड़कों को रोजगार से लगाने की आवश्यकता तुरंत चाहे न हो, किंतु कल यह मेरी महत्त्वपूर्ण समस्या होगी। अगर मैं अपनी जडे़ सिंध में मानता हूँ तो वे गुण भी मुझमें होने चाहिएं। सालों-साल सोचते हुए गुजार देने वाले आदमी को यह दावा करने का अधिकार नहीं है कि उसका सिंध से पुश्तैनी संबंध है।

वैसे सिंध के साथ संबंधों की बात भी शायद तब तक रहेगी जब तक मैं जिंदा हूँ। तीनों लड़के और दोनों लड़कियाँ सिंधी जानते हैं। मुझसे, अपनी माँ से, दादा-दादी से सिंधी में बात करना उनकी मजबूरी है। आपस में वे लोग कभी सिंधी में बात नहीं करते। हम लोग भी बाहर ढूंढाड़ी या हिंदी में ही बोलते हैं इसलिए घर से बाहर उन्होंने हिंदी में बात की तो कोई खास बात नहीं है। मगर घर में आपस में बहिन-भाइयों का हिंदी में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। दो-चार बार कहा भी, लेकिन कोई असर नहीं हुआ तो अब इस मामले में टोकना बंद कर दिया है। मैं तो दुकान पर आने वाले सिंधीभाषी ग्राहकों से भी सिंधी में ही बात करता हूँ। भले ही वे समझते हों कि सिंधी भाषा मैंने सीखी है। कभी-कभी कहते भी हैं कि कबाडे़ वाले, तुम सिंधी इतनी अच्छी बोल लेते हो कि महसूस ही नहीं होता, किसी गैर-सिंधी से बात कर रहे हैं। कुछ निकट के लोग ही जानते हैं कि सिंधी मैंने सीखी नहीं है, बल्कि सिंधी मेरी मातृभाषा है।

वातावरण देखता हूँ तो सोचता हूँ कि अपने बच्चों को ही क्यों दोष दूँ? यही हाल तो सिंध से विभाजन के बाद आए लोगों के घरों का भी है। उनसे तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे घर और बच्चों की स्थिति ज्यादा अच्छी है। मेरे बच्चे सिंधी जानते हैं। आपस में हिंदी में बात करते हैं, मगर घर में तो बाकी सब लोगों से सिंधी में बात करते हैं। घर के लोगों से सिंधी केे खिलाफ कभी तर्क-वितर्क नहीं करतेे हैं। जरूरत पड़ जाए तो घर से बाहर भी सिंधी में बातचीत कर लेतेे हैं। विभाजन के बाद सिंधी-परिवारों में जन्में बच्चों का हाल तो इससे भी खराब है। सिंधी लिखना तो दूर की बात है, वे सिंधी बोलना तक नहीं जानते। स्कूल में, बाजार में हिंदी या अंग्रेजी में बात करनी पड़ती है, यहाँ तक तो ठीक है किंतु घर में माँ-बाप, दादा-दादी से भी हिंदी या अंग्रेजी में बात करते हैं। टोकने, कहने, समझने की गुंजाइश इसलिए नहीं होती क्योंकि वे सिंधी जानते ही नहीं हैं। हँसी और तरस दोनों एक साथ आते हैं। जब बुजुर्ग दादा-दादी भी अपने पोते-पोतियों और नातियों-नातिनों के साथ गलत-सलत हिंदी में बात करते हैं। बच्चों को सिंधी बोलना नहीं आता, इसलिए नहीं। इसलिए क्योंकि ये भी चाहते हैं कि बच्चे हिंदी या अंग्रेजी में ही बोलें, सिंधी में नहीं। सौ-पचास साल बाद भाषा को इतिहास में जाना ही है तो मेरे बच्चे सिंधी बोलें न बोलें, क्या अंतर पड़ जाएगा? वे लोग नाम से तो आज भी सिंधी हैं, कल भी सिंधी रहेंगे। सिंधी कहलाने योग्य संस्कृतिपरक, सभ्यतापरक, व्यवहारपरक, सरकारपरक, भाषापरक सब गुण चाहे छोड दें मगर कहलाएँगे वे भी सिंधी और उनकी संतानें भी सिंधी। पहचान खत्म करने की कोशिश में वे अधकचरे भले ही बन जाएँ किंतु पहचान सचमुच खत्म कर पाएंगे, ऐसा लगता नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि पहचान क्यों समाप्त करना चाहते हैं वे लोग अपनी? श्रेष्ठ उपलब्धियों के बावजूद वे हीनभाव से ग्रस्त क्यों हैं? इतना जरूर मालूम है कि इस प्रक्रिया में वे अपनी प्रतिष्ठा घटा रहे हैं। जन-जीवन में अपने आपको जज्ब करना एक बात है और अपनी पहचान समाप्त करने का सचेष्ट प्रयत्न दूसरी बात है। अपनी पहचान बनाए रखकर जन-जीवन में आत्मसात हो जाना एक दुर्लभ गुण है। मेरे बच्चों के सामने पहचान का संकट उतना नहीं है। भाषा को छोड़कर हम सिंधी हैं ही कहाँ? भाषा भी छूट जाए तो कितना अंतर पड़ेगा? यही कारण है कि बच्चों का आपस में हिदी में वार्तालाप मुझे अच्छा नहीं लगता फिर भी मैं इस बारे में बहुत दुराग्रहशील नहीं हूं कि वे सिंधी में बात करें।

डायरी में मीनू नाम की एक लड़की का जिक्र आया है। काका भोजामल की चौदह वर्षीया लड़की मीनू। डायरी-लेखक ने मीनू का उल्लेख करते समय उसके प्रति कैसी भावनाएँ व्यक्त की हैं? लगाव और अपनत्व का परिमाण कितना है? डायरी-लेखक और मीनू की उम्र में अंतर केवल दो-तीन वर्षों का है। सिंध में दोनों साथ खेले हैं। वीरू डायरी लेखक का समवयस्क जरूर है लेकिन साथ खेलने की बात मीनू के लिए ही कही गई है। मैं समझता हूँ कि डायरी-लेखक ने मीनू के साथ खेलने वाली बात लिखते समय वीरू के बारे में ऐसा अगर नहीं लिखा है तो इसका कारण उसकी लापरवाही नहीं है। वह जानता है कि उसे क्या लिखना है और वह क्या लिख रहा है। हो सकता है कि वीरू के साथ उसका मन न मिलता हो, इसलिए उसके साथ खेलने वाली बात भी न रही हो। मैं चाहता हूँ कि डायरी में मीनू के उल्लेख को आप गंभीरता से लें। इतना ही नहीं, उसका विश्लेषण भी करें।

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