उदासीनता एक सामाजिक अभिशाप Ashish Kumar Trivedi द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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उदासीनता एक सामाजिक अभिशाप

उदासीनता एक सामाजिक अभिशाप

आजकल आए दिन हमें समाज में होने वाले अपराध, शोषण तथा अन्याय के किस्से सुनाई पड़ते हैं। कई बार हमारे पड़ोस में ही कोई ऐसी घटना घट जाती है जिसे सुन कर हम कहते हैं कि समाज का कितना पतन हो चुका है। कोई बुज़ुर्ग महिला अपने फ्लैट में मर जाती है और किसी को भी कई दिनों तक कोई खबर नहीं लगती है।

कई बार ऐसा होता है कि हमारे सामने कोई व्यक्ति सड़क पर घायल पड़ा रहता है। उसे मदद की आवश्यक्ता होती है। किंतु बहुत से लोग उसके पास से गुज़र जाते हैं लेकिन मदद को नहीं रुकते हैं।

हमारे ट्रंक सर्दियों के गर्म कपड़ों से भरे रहते हैं। उनमें से कई ऐसे होते हैं जिन्हें हमने कई सालों से नहीं पहना होता है। दूसरी तरफ कई लोग सड़क पर ठंड से ठिठुरते हैं। इसी प्रकार शादी ब्याह या अन्य अवसरों पर आवश्यक्ता से अधिक भोजन बनवा लिया जाता है। जिसे बाद में कूड़े में फेंक दिया जाता है। जबकी कई लोग रात में भूखे सोते हैं।

कई अवसर होते हैं जहाँ यदि हम थोड़ी सी सहानुभूति दिखाएं, सह्रदयता दिखाएं, अपने आस पड़ोस में रह रहे लोगों के प्रति सजग रहें तो हम बहुत कुछ बदल सकते हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसका कारण है कि हम समाज के प्रति एक उदासीन दृष्टिकोंण अपनाते जा रहे हैं।

अधिकांश सामाजिक समस्याओं का प्रमुख कारण उनके प्रति हमारी उदासीनता है। हम हमारे चारों तरफ घटने वाली घटनाओं से कोई सरोकार नहीं रखते हैं। हम अपने व्यक्तिगत जीवन में इस प्रकार उलझे रहते हैं कि दूसरों की ओर ध्यान ही नहीं देते हैं।

समाज में बढ़ती उदासीनता का कारण जानने से पहले उदासीनता को समझना ज़रूरी है।

उदासीनता अंग्रज़ी में ऐपेथी ( Apathy) कहते हैं वह मानसिक अवस्था है जिसमें हम जीवन के तनाव व संघर्ष के बीच हर विषय हर वस्तु से अपना मन हटा लेते हैं। हम एक मशीन की तरह जीना आरंभ कर देते हैं। यह स्थिति हमारे दिल में भाव शून्यता पैदा करती है। यह स्थिति जितनी अधिक बढ़ती जाती है उतना ही हम आत्मकेंद्रित होते जाते हैं।

सामाजिक उदासीनता का कारण हमारी बदलती जीवनशैली है। आज हमारा सारा जीवन व्यक्तिगत सफलता पर निर्भर करता है। यह सफलता केवल भौतिक स्तर पर ही मापी जाती है। बचपन से ही बच्चों को अधिक अंक लाने के लिए प्रेरित किया जाता है। यह बुरा नहीं है। किंतु बच्चों के बीच अनावश्यक प्रतिस्पर्धा पैदा करना सही नहीं है। हर बच्चे की अपनी क्षमता व स्वभाव होता है। हमें उसके अनुसार उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देनी चाहिए। किंतु होता यह है कि हम उसकी तुलना उसके सहपाठी से करने लगते हैं। अक्सर माता पिता यह कहते हैं कि उसने तो इस बार तुमसे ज्यादा अंक पाए हैं। तुम पीछे क्यों रह गए। तुम्हें तो हमेशा क्लास में सबसे अधिक नंबर लाने हैं। यह बात बच्चे के मन में अस्वस्थ होड़ की भावना पैदा करती है। वह अपने सहपाठी को मित्र की तरह ना देख कर केवल प्रतिस्पर्धी के तौर पर देखता है। यही भावना धीरे धीरे अन्य सहपाठियों के लिए भी उत्पन्न होने लगती है। वह आत्मकेंद्रित हो जाता है। परस्पर सहयोग की भावना समाप्त हो जाती है। वह अन्य सहपाठियों के प्रति उदासीन हो जाता है।

यही भावना स्कूल से कॉलेज तक साथ रहती है फिर व्यवसायिक जीवन में प्रवेश कर जाती है। अपने व्यवसायिक जीवन में भी सबसे आगे रहना हमारा लक्ष्य बन जाता है। व्यवसायिक जीवन में तरक्की करना भी गलत नहीं है। पर यहाँ भी तरक्की की यह भावना अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा से ही प्रेरित होती है। हम अपने सहकर्मियों व पेशे से जुड़े अन्य लोगों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देते हैं। हमारा सारा ध्यान केवल अपनी तरक्की पर ही रहता है। यहाँ भी परस्पर सहयोग की भावना का आभाव होता है।

समाजिक स्तर पर भी हम एक दौड़ में ही शामिल हैं। हमारे पास सुख सुविधा के सभी साधन मौजूद हों। हमारे बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ सकें। हम एक अच्छा जीवन जी सकें। हम इसी प्रयास में लगे रहते हैं। अपने तथा अपने परिवार के लिए ऐसा सोंचना कोई बुरी बात नहीं है। किंतु अक्सर ऐसा करते हुए हम अपने बहुत ही निकट लोगों की अनदेखी कर जाते हैं। अपने लिए सुख सुविधा जुटाने की कोशिश में अधिकांश लोग अपने माता पिता के प्रति अपना दायित्व भी नहीं निभा पाते हैं।

सिर्फ अपनी तरक्की व सुख सुविधा की भावना के चलते हुए हम उत्तरोत्तर आत्मकेंद्रित बनते जाते हैं। स्थिति यह आ जाती है कि हमें हमारे पड़ोस में रहने वाले के बारे में जानने की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती है। यही स्थिति उन सभी अपराधों, अन्याय व अनदेखी का कारण बनती है जिनके बारे में हम पढ़ या सुन कर परेशान हो जाते हैं।

हमारी आत्मकेंद्रित जीवनशैली हमें ही नुकसान पहुँचाती है। सिर्फ अपने बारे में सोंचते सोंचते हम दूसरों के बारे में सोंचना ही बंद कर देते हैं। दूसरों के लिए हमारी भावनाएं सूख जाती हैं। इसकी अधिकता होने पर हम अवसाद का शिकार हो जाते हैं।

अवसाद एक ऐसी अवस्था है जिसमें हमेशा मन उदास रहता है। किसी भी गतिविधि में मन नहीं लगता है। यह रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत नुकसान पहुंचाने वाला मानसिक विकार है। आज अवसाद से ग्रसित लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसका कारण है कि हम अपना सारा ध्यान अपनी व्यक्तिगत सफलताओं पर ही लगा कर रखते हैं। यदि हम अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो इसका हम पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कभी कभी हम अपेक्षित सफलता तो प्राप्त कर लेते हैं किंतु इसके चलते अपने आप को सबसे अलग कर एक दायरे में बांध लेते हैं। जहाँ हम अपने आप को एकदम अकेला पाते हैं।

उदासीनता हमारे भीतर के कई नैसर्गिक गुणों जैसे प्रेम, अपनापन, उदारता को दीमक की तरह चाट कर हमें भीतर से खोखला कर देती है। परिणाम स्वरूप हम अपने आसपास के माहौल में घट रही बातों को अनदेखा कर देते हैं। बिना इस बात पर विचार किए कि कल हम पर भी यह बीत सकता है।

हमको यह याद रखना होगा कि हम एक सामाजिक प्राणी हैं। एक दूसरे के साथ और सहयोग से ही आगे बढ़ सकते हैं। आवश्यक्ता है कि हम अपनी सोंच को विस्तार दें। उसे स्वयं पर केंद्रित ना कर उदार बनाएं। अपने साथ साथ दूसरों के हित के बारे में भी सोंचे। एक दूसरे का साथ देना, आपस में सहयोग की भावना रखना हमें भावनात्मक रूप से सबल बनाता है। भावनात्मक रूप से सफल व्यक्ति ही एक सुखमय जीवन जी सकता है।

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